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“अग्नि ही खाती है और अग्नि से ही जल पिया जाता है। आहार और पानी पीने से आलस्य आता है तथा उससे नींद आती है और अग्नि से आहार पचता है और देह में कांति आती है। इसलिए ये पाँच तत्त्व अग्नि के तेज के हैं।”
Anantrai G. Rawal, Girnar ke Siddha Yogi
“मोह और उससे उत्पन्न भावना के कारण वह सुखद या दुःखद लगती है और यह मोह ही जन्म-मरण के चक्कर में डाल देता है। मोह ही बंधन का कारण है।”
Anantrai G. Rawal, Girnar ke Siddha Yogi
“भाव रहित मानसिकता का प्रशिक्षण, यह उच्च साधक के लिए प्राथमिक प्रशिक्षण है अर्थात् उसके अनुसार प्रशिक्षण लेते हुए ‘स्थितप्रज्ञ’ बनने का सतत प्रयत्न करना चाहिए।’’ विश्वंभर”
Anantrai G. Rawal, Girnar ke Siddha Yogi
“बलि राजा यज्ञ के निमित्त से समस्त देवताओं का पोषण करते हैं, तो क्यों उनका यज्ञ भंग करना चाहिए? इससे तो देवताओं को ही लाभ है। फिर इस यज्ञ में महान् ज्ञान ऋषि जैसे ऋषि पधारे हैं, तब यह यज्ञ किस प्रकार भंग होना था? अर्थात् ऐसा यज्ञ भंग नहीं हो सकता है, यह संभव ही नहीं है।’’ वामनजी के शब्द सुनकर नारदजी के मुख पर बालसुलभ रीसभाव भर आया। निर्दोष रीस देखकर वामनजी को आनंद आया। उनको अधिक चिढ़ाने के उद्देश्य से वामनजी बोले, ‘‘हे नारदजी! तुम्हारी ऐसी इच्छा देखकर मुझे शंका हो रही है। मुझे लगता है कि तुमने ब्राह्मण पुत्र होकर परस्पर युद्ध करवाने का कार्य क्यों ग्रहण कर लिया? तुम्हें कोई स्त्री या पुत्र तो है नहीं! फिर तुम्हारी ऐसी प्रकृति क्यों हो गई है।”
Anantrai G. Rawal, Girnar ke Siddha Yogi
“विवेकी पुरुष अर्थात् साधक वाणी का मन विषय में लय करे, मन का प्रकाश रूप बुद्धि में लय करे, बुद्धि का महान् आत्मा में लय करे और उसके बाद आगे बढ़कर उसका शांत आत्मा में लय करे। जीभ का अधिकारी साधक को मन में लय करना; अर्थात् वाणी रूप जीभ का सर्व व्यापार का, उच्चारण का त्याग करके केवल मन के व्यापार द्वारा उसे स्थित करना, अर्थात् वाणी का त्याग करके मौनमय रहना। इस प्रकार वाणी पर विजय होने के बाद संकल्प-विकल्प रूप मन के भावों को विज्ञात्मा अर्थात् बुद्धि में लय करना। उसमें ‘मैं मनुष्य हूँ,’ मैं ब्राह्मण हूँ—ऐसे भावों का नाम ‘ज्ञानात्मा’ है। अधिकारी को मात्र ज्ञानात्मा स्वरूप में ही स्थित रहना अर्थात् तटस्थ रहना। ऐसे अहंकार जो देह के हैं, उन भावों को आत्मा में लय करना, अर्थात् ‘मैं मनुष्य रूप हूँ, ब्राह्मण रूप हूँ, ऐसे देह के भाव नाशवंत देह के हैं, आत्मा के नहीं,’ इस मान्यता पर दृढ होकर रहना। यहाँ अहंकार की सूक्ष्म अवस्था का नाम ‘अस्मिता’ है। इस ‘अस्मिता’ को ‘महत्तत्व’ कहते हैं तथा सूक्ष्म अहंकार भी कहा जाता है। ऐसी अस्मिता रूप महत् आत्मा को एकरस बनाकर चैतन्य रूप आत्मा में लय करना, अर्थात् देह की अस्मिता के समग्र भावों का त्याग करके केवल ‘मैं चैतन्य रूप हूँ’ ऐसा भाव हृदय में स्थिर करना है। इस प्रकार चैतन्य आत्मा का चित्त के व्यापार का सर्व प्रकार से निरोध का नाम ही निर्विकल्प समाधि है।”
Anantrai G. Rawal, Girnar ke Siddha Yogi
“जो मात्र आत्मा के स्वरूप में सब में देखते हैं, फिर पदार्थों में किसी भी स्वरूप में हो, उसमें उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता है।”
Anantrai G. Rawal, Girnar ke Siddha Yogi
“जिस समय भगवान् ने अपना तीसरा पग पाताल से बाहर खींचा तब समग्र ब्रह्मांड खलबला उठा। इसके साथ ही पैर खींचने से विष्णुपदी गंगाजी का प्रादुर्भाव हुआ, जिसे त्रिलोक के लिए पावनकारी गंगा को भगवान् शिव ने अपनी जटा में धारण करके रखा। यह वही गंगाजी हैं, जो स्वर्गगंगा के नाम से भी प्रसिद्ध हैं। वही गंगाजी पाताल में भी गईं, इसलिए ‘त्रिपथगामी गंगा’ कहलाती हैं, जिनके स्मरण मात्र से समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं, दर्शन से अश्वमेध यज्ञ का फल मिलता है, स्नान से सात जन्म के पाप नष्ट हो जाते हैं।”
Anantrai G. Rawal, Girnar ke Siddha Yogi
“बिना हाथ के पशु, हाथ वाले मनुष्यों को जीवन जीने में प्राकृतिक व्यवस्था में उपयोगी होते हैं। घास आदि के पैर नहीं हैं, फिर भी पैर वाले-चौपाए के जीवन में उपयोगी होते हैं। छोटे प्राणी, बड़े प्राणियों के जीवन में उपयोगी होते हैं, ऐसा ही जीव का जीवन है।”
Anantrai G. Rawal, Girnar ke Siddha Yogi
“मन के विचार के उद्भव लय के साथ सृष्टि का उद्भव लय होता है,”
Anantrai G. Rawal, Girnar ke Siddha Yogi
“1. अजिह्वा : भोजन करते समय यह पदार्थ मुझे स्वादिष्ट लगता है, वह ऐसे भोज्य पदार्थों में आसक्ति नहीं रखता है। वैसे ही हितकर, सत्य और प्रयोजन जितना ही और कम बोलता है, उसे ही जीभ रहित अर्थात् ‘अजिह्वा’ कहते हैं। 2. षंढक : नवजात बालिका हो या सौ वर्ष की स्त्री को देखने के बाद भी पुरुष निर्विकार रहता है, रह सकता है, उसे ‘षंढक’ कहा जाता है। 3. पंगु : जो केवल भिक्षा के लिए तथा मल-मूत्र के लिए ही आता-जाता है, एक योजन से अधिक नहीं चलता है अर्थात् अकारण आना-जाना नहीं करता है, वह सर्वांग पंगु ही है। यहाँ-वहाँ अकारण घूमने भटकने की जिसमें वृत्ति ही न हो, वह सच्चे अर्थों में शास्त्र की दृष्टि से पंगु माना जाता है। 4. अंध : खड़े हुए या चलते समय जिसकी दृष्टि सोलह हाथ से दूर नहीं जाती है, वह संन्यासी अंध कहलाता है, अर्थात् संन्यासी को इधर-उधर देखे बगैर चलना चाहिए—इन नियम को पालन करनेवाला संन्यासी होता है अर्थात्् संन्यासी कहलाता है। 5. बधिर : हितकर, अहितकर, मनोहर या शोकप्रद वचन सुनने के बाद भी अनसुना करता है अर्थात् सुनकर जिसे हर्ष-शोक नहीं होता है वह पुरुष साधक साधु शास्त्र की दृष्टि से बहरा कहलाता है। 6. मुग्ध : आकर्षक, विषयी वस्तु सामने हो, उसके उपरांत पुरुष उन विषयों को भोगने में समर्थ हो, उसमें शक्ति-सामर्थ्य हो, फिर भी जिस पुरुष की इंद्रियाँ विकल नहीं होतीं, विकृति धारण नहीं करतीं और वह निद्राधीन पुरुष के समान नित्य व्यवहार करता है, वह मुग्ध भिक्षु कहलाता है अर्थात् वह संयमी पुरुष इंद्रियों के लालच में नहीं पड़ता, लक्ष्य में नहीं लेता—लक्ष्य में लिये बगैर निद्राधीन पुरुष के समान अलिप्त रहता है।”
Anantrai G. Rawal, Girnar ke Siddha Yogi
“विश्वंभर का निवास स्थान उजाड़ लग रहा था। वृक्ष जो नवपल्लवित थे, वहाँ आज उनके नीचे सूखे पत्तों के ढेर लगे हुए थे। गुफा में धूल और जंगली जानवरों की विष्ठा की दुर्गंध आ रही थी। कितना भयानक परिवर्तन! बस...बस...अब मुझे आगे कुछ नहीं देखना है। मेरा मन पुकार उठा। जो शाश्वत नहीं, उसका स्मरण क्यों करना? जो नाशवान है वह भले नष्ट हो जाए, मेरा उसके साथ क्या संबंध! जो स्थायी नहीं है, उसके साथ की इच्छा क्यों? टूटकर बिखर गए खँडहर में निवास करने की इच्छा ही मूर्खता है।”
Anantrai G. Rawal, Girnar ke Siddha Yogi
“मुझे समझाया गया है कि यह शब्द ही ब्रह्म है, यह अनाहत शब्द ही मेरे लिए सत्य है।’ ‘‘तुम ठीक समझे।’’ हँसकर महात्मा बोले, ‘‘तुम्हारा मत ऋषियों के मत जैसा है। ऋषि रामचंद्र से कहते हैं, ‘हे राम, हम तो जानते हैं कि आप दशरथ के पुत्र हो। भारद्वाज ऋषि आदि आपको अवतार मानकर पूजा करते हैं, हमें तो अखंड सच्चिदानंद चाहिए।’ यह सुनकर राम को बहुत हँसी आई। ‘‘ऋषि राम को अवतार के रूप में नहीं जानते, परंतु ऋषि मूर्ख नहीं थे, वे ज्ञानमार्गी थे। उनकी दृष्टि से वे सच्चे थे। अन्य ऋषि रामवतार को ही ईश्वर मानकर भजते थे, वे भी सच्चे ही थे।’’ फिर ठहरकर गंभीरता से बोले, ‘‘जिसकी जैसी रुचि हो और पेट को जो अनुकूल हो। गेहूँ के आटे से माँ बालकों को भिन्न-भिन्न व्यंजन बनाकर खिलाती है, किसी के लिए कंसार, किसी के लिए हलुवा, तो किसी को केवल रोटी बनाकर देती है, किसी के लिए चीले बना देती है। जैसी जिसकी रुचि, जिसे जो पसंद आए।’’ फिर मेरी ओर देखकर महात्मा हँसकर बोले, ‘‘ऋषि ज्ञानमार्गी थे, इसलिए वे अखंड सच्चिदानंद की अभिलाषा रखते थे, वैसे ही भक्त अवतार को मानते हैं, भक्ति के आस्वाद के लिए। ‘‘भगवान् के दर्शन होने से मन का अंधकार दूर हो जाता है। समाधि में मानो सौ सूर्य उदित हो गए हों, इतना प्रकाश दिखता है। हृदय-पद्म खिल उठता है। ईश्वर मानो हृदय में उदित सूर्य पद्म के समान खिल उठता है।’’ फिर थोड़ा हँसकर वे बोले, ‘‘तुम्हें मेरी आध्यात्मिक अवस्था जानना है न? तो तुम्हें उच्च सिद्ध साधु समझकर मैंने अपनी आध्यात्मिक अवस्था कैसी है, यह तुम्हें सुना दिया”
Anantrai G. Rawal, Girnar ke Siddha Yogi
“वायु’ के पाँच तत्त्व हैं—1. चलन अर्थात्् चलना 2. उत्क्रमण अर्थात्् खड़े होना 3. धावन अर्थात्् दौड़ना 4. प्रसरण अर्थात्् फैलना और 5. संकुचन अर्थात्् आकुंचन।”
Anantrai G. Rawal, Girnar ke Siddha Yogi
“हे वामनजी! मैं अपनी प्रकृति के विषय में कहता हूँ। जब विवाद चल रहा था तब ब्रह्मा क्रोधावस्था में बोल रहे थे, तब मैं उनके मुख से उत्पन्न हुआ था, हे वामनजी! मैं ब्रह्मा के विवाद के समय उत्पन्न हुआ था, इसीलिए मुझे जन्म से ही कलह प्रिय है।”
Anantrai G. Rawal, Girnar ke Siddha Yogi
“ईश्वर के चरणों में भक्तिभाव हो, इतना पर्याप्त है। अधिक तर्क करने से उलझन ही बढ़ती है। तालाब का पानी ऊपर-ऊपर से पियो तो साफ मिलता है, अधिक नीचे हाथ डालोगे तो पानी गंदा हो जाता है।”
Anantrai G. Rawal, Girnar ke Siddha Yogi
“पति-पत्नी का पवित्र आत्मा के साथ सहयोग अर्थात्् सहवास हो तो ऐसे ‘दंपती’ के लिए घर एक पवित्र मंदिर है, घर ही ‘गुफा’ है, घर ही पवित्र ‘तपोभूमि”
Anantrai G. Rawal, Girnar ke Siddha Yogi
“चंद्र’ स्वयं मन का कारक ग्रह है, क्योंकि आकाश में स्थित नक्षत्र या ग्रहों का प्रभाव चंद्र पर होता है और यह प्रभाव चंद्र द्वारा पृथ्वी पर और मनुष्यों पर होता है। चंद्र दुर्बल या सबल हो तो वैसा ही सीधा प्रभाव मन पर होता है। चंद्र जब दूषित होता है, राहु या शनि के साथ संबंध में आता है तब जातक के मन में काल्पनिक भय, वहम, असामान्य मानसिक हरकतें, हताशा, निराशा, उदासीनता और भूतप्रेत या नजर जैसी स्थिति का स्वयं शिकार है, ऐसे वहम में रहता है। इसके उपरांत ‘चंद्र’ जल का कारक होने से ‘मन’ सतत प्रवाहित रहता है और आवेशात्मक बेहोशी में तूफान मचाने लगता है और कभी-कभी स्वयं को भी चोट पहुँचा लेता है। यदि इस समय ‘बुध’ भी अशुभ प्रभाव में आता है तो मनुष्य की मानसिक स्थिति डाँवाँडोल कर देता है, क्योंकि बुध भी मानव शरीर में ज्ञान तंतु और समग्र नर्वस सिस्टम का ग्रह है, इसलिए ज्ञान तंतु की निर्बलता और मन की कमजोरी ‘चंद्र-बुध’ पापग्रहों के प्रभाव में प्रबल हो जाती हैं और व्यक्ति एक ‘मनोरोगी’ के समान अशोभनीय व्यवहार करने को प्रेरित हो जाता है।”
Anantrai G. Rawal, Girnar ke Siddha Yogi
“जीवन में आनेवाने और गुजरते प्रत्येक पल को इस यथार्थ सत्य के आधार पर स्वीकार कर लेने का नाम ही ‘ज्ञान’ है।”
Anantrai G. Rawal, Girnar ke Siddha Yogi
“हमारे संबंध इस देह के इसी जन्म तक हैं, जिसके नष्ट होने के बाद ऐसे संबंधों का मूल्य नहीं रहता है और इसीलिए मेरे सदा के लिए जाने से उत्पन्न शोक या दुःख का कोई अर्थ नहीं है।”
Anantrai G. Rawal, Girnar ke Siddha Yogi
“आठ पाश 1. लज्जा 2. भय 3. कुल 4. शील 5. शोक 6. धृष्टता 7. जाति 8. छुपाने की इच्छा, ये आठ पाश हैं। जब तक गुरु ये आठ पाश खोल नहीं देते, तब तक ईश्वर दर्शन नहीं होते।”
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“जैसे कि सूर्य ‘कार्य शक्ति’, ‘जीवन शक्ति’, ‘स्वास्थ्य’, ‘यश’, ‘कीर्ति’, ‘आध्यात्म’ आदि में उसका प्रभाव विशेष होता है और हृदय का भी वह कारक बनता है। जन्म का समय सबल सूर्य हो तो प्रस्तुत सभी विषयों में वह दिशावंत बनाता है”
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“आदिकाल से प्राणीमात्र को यह वियोग, शोक, मोह सता रहा है, दुःखी करके भवबंधन में फँसा रहा है। प्रकृति ने ऐसे भाव रूपी उपहार और बाद में दुःखरूपी सजा निर्मित करके अनेक प्रकार के और अनोखे करिश्मे आजमाए हैं। प्रकृति के इस हेतु को समझने में कौन समर्थ है? परंतु प्रयत्नपूर्वक समझकर सावधान हो गए लोगों को इस विषय में कोई भय नहीं है, क्योंकि वे इन भावों से उत्पन्न परिणामों से अवगत होकर सचेत हो गए हैं और इसलिए मुक्ति द्वार उनके लिए खुल जाते हैं।”
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“हमें भी पुराने लोटे की तरह नित्य नियम के अनुसार आत्मा को चमकता रखना चाहिए।”
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“समाधि में मानो सौ सूर्य उदित हो गए हों, इतना प्रकाश दिखता है। हृदय-पद्म खिल उठता है। ईश्वर मानो हृदय में उदित सूर्य पद्म के समान खिल उठता है।’’ फिर थोड़ा हँसकर वे बोले, ‘‘तुम्हें मेरी आध्यात्मिक अवस्था जानना है न? तो तुम्हें उच्च सिद्ध साधु समझकर मैंने अपनी आध्यात्मिक अवस्था कैसी है, यह तुम्हें सुना दिया”
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“पाप और पुण्य का विचार तो उसको होता है जो स्वयं के ‘मैं’ को ‘मैं’ समझता है। वह इस देह को ‘मैं हूँ’ ऐसा नहीं मानता है। मैं यह सब मैं हूँ ऐसा मैं मानता हूँ। यह सर्प भी मैं हूँ, उसको खिला रहा कीड़े भी मैं ही हूँ और मैं ही मेरी भूख को संतुष्ट कर रहा हूँ। मुझसे भिन्न कुछ भी नहीं है, तो फिर मुझे पाप या पुण्य कैसे लग सकता है?”
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“इस कालचक्र में चक्कर लगाने का छोटे बालक के समान आनंद मना लो न?’’ विश्वंभर के शब्दों से मैं गंभीर हो गया।”
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“सूर्य, मंगल ये ‘अग्नि तत्त्व’ के कारक माने जाते हैं, जबकि चंद्र, शुक्र ‘जल तत्त्व’ के माने जाते हैं। बुध ‘पृथ्वी तत्त्व’ और गुरु ‘आकाश तत्त्व’, शनि ‘वायु तत्त्व’ और राहु ‘जल-वायु’ दोनों का कारक ग्रह होता है।”
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“तुम्हारे अंदर जो ईश्वर का अस्तित्व है, वह भयंकर प्राणी में भी है। तुम उससे भिन्न नहीं हो, ऐसी समझ का ज्ञान, यही सिद्धि का सोपान है। तुम्हारा व्यवहार एक विराट् अस्तित्व की इच्छा और पे्ररणामात्र होकर रहेगा। तुम्हें श्वान, कसाई, ब्राह्मण, हिंसक प्राणी में कोई भेद दिखाई नहीं देगा।”
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“देहाध्यास का अर्थ होता है इंद्रियों के संबंध वाला देह, जो मन सहित इंद्रियों के कारण विषयों में आकर्षित होकर लोम-विलोम में जाकर फँसता है।”
Anantrai G. Rawal, Girnar ke Siddha Yogi
“कोई भी मोह साधक के लिए पतन का कारण और बंधनकर्ता है, उसे किसी भी प्रकार का सांसारिक या भौतिक मोह, ‘ईश्वराभिमुख’ नहीं होने देता है,”
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