आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी की विपुल रचना-सामर्थ्य का रहस्य उनके विशद शास्त्रीय ज्ञान में नहीं, बल्कि उस पारदर्शी जीवन-दृष्टि में निहित है, जो युग का नहीं युग-युग का सत्य देखती है। उनकी प्रतिभा ने इतिहास का उपयोग ‘तीसरी आँख’ के रूप में किया है और अतीत-कालीन चेतना-प्रवाह को वर्तमान जीवनधारा से जोड़ पाने में वह आश्चर्यजनक रूप से सफल हुई है। बाणभट्ट की आत्मकथा अपनी समस्त औपन्यासिक संरचना और भंगिमा में कथा-कृति होते हुए भी महाकाव्यत्व की गरिमा से पूर्ण है। इसमें द्विवेदी जी ने प्राचीन कवि बाण के बिखरे जीवन-सूत्रों को बड़ी कलात्मकता से गूँथकर एक ऐसी कथाभूमि निर्मित की है जो जीवन-सत्यों से रसमय साक्षात्कार कराती है। इसमें वह वाणी मुखरित है जो सामगान के समान पवित्रा और अर्थपूर्ण है-‘सत्य के लिए किसी से न डरना, गुरु से भी नहीं, मंत्रा से भी नहीं; लोक से भी नहीं, वेद से भी नहीं।’ बाणभट्ट की आत्मकथा का कथानायक कोरा भावुक कवि नहीं वरन कर्मनिरत और संघर्षशील जीवन-योद्धा है। उसके लिए ‘शरीर केवल भार नहीं, मिट्टी का ढेला नहीं’, बल्कि ‘उससे बड़ा’ है और उसके मन में आर्यावर्त्त के उद्धार का निमित्त बनने की तीव्र बेचैनी है। ‘अपने को निःशेष भाव से दे देने’ में जीवन की सार्थकता देखने वाली निउनिया और ‘सबकुछ भूल जाने की साधना’ में लीन महादेवी भट्टिनी के प्रति उसका प्रेम जब उच्चता का वरण कर लेता है तो यही गूँज अंत में रह जाती हैद-‘‘वैराग्य क्या इतनी बड़ी चीज है कि प्रेम देवता को उसकी नयनाग्नि में भस्म कराके ही कवि गौरव का अनुभव करे?’’
बहुत ही सुंदर उपन्यास| सच कहूं तो इस पुस्तक को पढ़ने में कठिनाई आयी है क्यूंकि हिंदी बहुत शुद्ध है और पढ़ने में आनंद जरूर आया है, बस पुस्तक समाप्त करने में इस बार थोड़ा अधिक समय लग गया है| मैं तो हज़ारी प्रसाद द्विवेदी की लेख से बहुत ज़्यादा ही प्रभावित हो गया हूँ| यह बहुत ही रोचक भरा आत्मकथा है| उपन्यास में न केवल हिंदू धर्मग्रंथों के लेखक के ज्ञान को दर्शाया गया है, बल्कि यह भी दिखाया गया है कि लगभग एक सदी पहले लिखने वाले ने ऐसी चीजें लिखीं जो प्रासंगिक बनी रहेंगी। पूरे उपन्यास में व्यक्त की गई भावनाओं के साथ, यह भाषा की साहित्यिक सुंदरता का आनंद लेने के लिए भी पढ़ सकता है।
एक ऐसी पुस्तक जो न केवल उस काल की ऐतिहासिक साहित्यों के आधार पर आपको उस युग की कल्पना परिदर्शित करती है बल्कि जीवन और समाज और विशेषकर स्त्री-पुरुष के प्राकृतिक संबंधों पर एक अद्भूत परिकल्पना प्रस्तुत करती है.
कहते है कि प्रेम निस्वार्थ भावना से, बिना किसी शर्त पर किया जाता है और इस कथन को इस उपन्यास की तीसरी मुख्य पात्र नीपुणीका से बेहतर कोई प्रमाणित नहीं कर सकता। भट्ट और भट्टिनी के लिए उसने अपने प्रेम को दो भागों में विभाजित कर खुद को न्योछावर कर दिया। नारी के प्रति बाणभट्ट की आस्था और सम्मान की भावना को हजारी प्रसाद द्विवेदी ने बड़े ही सुंदरता से दर्शाया है : "नारी की सफलता पुरुष को बाँधने में है, सार्थकता उसे मुक्ति देने में है। " वर्णनात्मक शैली का इतना बेहतरीन प्रयोग इससे पहले किसी उपन्यास में नहीं देखा गया है। निःसंदेह ही यह हिन्दी के श्रेष्ठ कालजयी उपन्यासों में से एक है।
Read this novel when I was in school or college. His first novel was such a fascinating read that I was full of expectations when I picked up this ne. And, i was not disappointed.
The language, the story and characters - everything was so fascinating. I was transported to that age - maybe seventeenth or eighteenth century India - this is an episode from the life of the great Sanskrit poet and playwright - Banbhatt.
The language is beautiful, almost ethereal, and flows so smoothly that you slide away while reading this book. As in almost all his novels, this one also has an interesting Aghori character - who, besides possessing great spiritual powers, is also full of wit and humour!
Dwivedi was so many things - novelist, essayist, critic - but he is mostly known for his work in promoting Hindi language and literature. And, to what great heights could he take Hindi - which was in its nascent stags at that time.
Are you intellectual and bhakta also ? And there is undercurrent of unfulfilled love ? This books stands apart from many other books because of several reasons like -it is one of the finest Hindi classic -it has rare combination of love and bhakti. -it language is refined. Many Hindi words originated from Sanskrit ( Tatsam) are used in the best way ever. Basically a love story of a bhakta. Sanskrit chants in the verse make it unique.
‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ - से मैंने क्या सीखा और क्या जाना।
आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी जी की औपन्यासिक कृति ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ स्वयम् में एक अनूठी रचना है। यह उपन्यास बाणभट्ट (दक्षभट्ट) की रचनाओं के आधार पर उनके जीवन के एक छोटे कालखंड की चर्चा है। आचार्य ने मिस कैथराइन (ऑस्ट्रिया की एक ईसाई परिवार से आती थीं) जो उन दिनों शांतिनिकेतन में प्रवास कर रही थीं, उनकी प्रेरणा से और उन्हीं के अध्यवसाय को आगे बढ़ाते हुए इसकी रचना की है। दरअसल यह मूल कथा संस्कृत में बाणभट्ट के द्वारा डायरी शैली में लिखी गई थी। मिस कैथराइन ने संस्कृत की पांडुलिपि को हिंदी भाषा में रूपांतरित करने की प्रक्रिया का आरम्भ किया और ‘बाणभट्ट’ की दूसरी रचनाओं तथा अन्य समसामयिक ग्रंथों से तुलनात्मक अध्ययन कर आचार्य ने यह स्थापित किया कि यह प्रामाणिक ‘आत्मकथा’ है अथवा नहीं। वस्तुतः यह कथा बाणभट्ट के जीवन की बहुत ही छोटी अवधि को साध पाती है और अपूर्ण है। आचार्य यह कहते हैं कि यह कथा बाणभट्ट की अन्यान्य पुस्तकों की भाँति ही अपूर्ण है।
सम्पूर्ण उपन्यास एक काव्यात्मक गद्य है। भाषा संस्कृतनिष्ठ है। यह दुरूह तो है किंतु रोचक और बाँधने वाली है। शब्दों के अर्थ सहज बोधगम्य नहीं हैं। इसके बावजूद इस कथा में मेरे जैसे नए पाठकों को पैठने पर भान होता है कि संस्कृत भाषा के काव्य और कथा का संसार कितना विस्तृत और मनोहारी है। तत्सम शब्दों से आकंठ डूबी यह कथा उस युग की चर्चा करती है जब बौद्ध धर्म और सनातन धर्म में खींचतान चल रही थी, एक तरफ़ राजाओं और सम्राटों को अपनी तरफ़ करने के उद्देश्य से कूटनीतिक चालें चली जा रही थीं, वहीं दूसरी तरफ भारतवर्ष की सीमाओं पर यवनों, हूणों, प्रत्ययों और अन्य आक्रमणकारी शक्तियों का आगमन होता ही रहता था।
‘बाणभट्ट की कथा’ वास्तव में उस युग के नारीरत्नों की कथा है। कवि बाणभट्ट निपुणिका (निउनिया), चंद्रदिधिति (भट्टिनी), महामाया, सुचरिता जैसी नारियों को उनके सम्पूर्ण गौरव के साथ प्रस्थापित करते हैं। सम्पूर्ण उपन्यास में सभी नारियों को इस भाँति दिखलाया गया है मानो यह कथा उस युग में ‘नारी-विमर्श’ का जयघोष कर रही हो। कवि बाण अपने जीवन में आयी सभी नारियों से यथोचित प्रेम (माता, भगिनी, प्रेयषी आदि स्वरूप में) करते हैं, उन्होंने ठीक लिखा भी है - ‘प्रेम एक और अविभाज्य है। उसे केवल ईर्ष्या और असूया ही विभाजित करके छोटा कर देते हैं’। नारी शरीर की गरिमा को एक महाकवि ही पूर्ण अभिव्यक्ति दे सकता है, सम्पूर्ण कथा ही नारी की गरिमा को सर्वोच्च स्थान देती हुई उन्हें प्रस्थापित करती है। ‘बहुत छुटपन से ही मैं स्त्री का सम्मान करना जानता हूँ। साधारणतः जिन स्त्रियों को चंचल और कुलभ्रष्टा माना जाता है उनमें एक दैवी शक्ति भी होती है, यह बात लोग भूल जाते हैं। मैं नहीं भूलता। मैं स्त्री-शरीर को देव मंदिर के समान पवित्र मानता हूँ। उस पर की गई अननुकूल टीकाओं को मैं सहन नहीं कर सकता।’ कवि बाणभट्ट ने अपनी दोनों नायिकाओं निउनिया (एक सामान्य सामजिक स्थिति की नारी) और भट्टिनी (एक राज कन्या) को एक जैसी महत्ता दी है। दोनों की बातों को वह समान आदर भाव से देखता है और उनपर श्रद्धा करता है। वह दोनों को ही अपने जीवन को ऊँचाई देने वाले हर परिवर्तन का पूरा श्रेय देता है। कवि बाणभट्ट जितनी संवेदना के साथ यह कहते हैं वह शायद एक महाकवि के वश की ही बात होगी ऐसा मैं समझता हूँ, ‘मैंने यह अनुभव किया है कि स्त्री के दुःख इतने गम्भीर होते हैं कि उसके शब्द उसका दशमांश भी नहीं बतला सकते। सहानुभूति के द्वारा ही उस मर्मवेदना का किंचित् आभास पाया जा सकता है’। समाज और पुरुषवर्ग जिन नारियों को नीच और भ्रष्ट कहता है उनके बारे में कवि बाणभट्ट कहते हैं, ‘वह हँसमुख है, कृतज्ञ है, मोहिनी है, लीलावती है - ये क्या दोष हैं? मेरा चित्त कहता है कि दोष किसी और वस्तु में है, जो इन सारे सद्गुणों को दुर्गुण कहकर व्याख्या कर देती है। वह वस्तु क्या है? निश्चय ही कोई बड़ा असत्य समाज में सत्य के नाम पर घर बना बैठा है।’
इस कथा में आध्यात्मिकता चहुँओर निखरती है। बौद्ध, सनातन और तंत्र की परस्पर प्रतिद्वंद्विता और सहयोगिता के मध्य उनके दर्शनों का बोध करवाती है। बौद्धों के आचार्य सुगतभद्र कहते हैं, ‘क्या ब्राह्मण और क्या श्रमण, मनुष्यता दोनों जगह विरल है!’ किंतु इसका तात्पर्य है कि यह सर्वत्र एक समान व्याप्त भी है, ढूँढने से अवश्य मिलेगी! वहीं दूसरी ओर तंत्र साधक अघोरभैरव कहते हैं, ‘देख रे, तेरे शास्त्र तुझे धोखा देते हैं। जो तेरे भीतर सत्य है, उसे दबाने को कहते हैं; जो तेरे भीतर मोहन है उसे भुलाने को कहते हैं; जिसे तू पूजता है, उसे छोड़ने को कहते हैं।’ वह कवि बाणभट्ट से पूछते हैं कि अवसर आने पर वह किसे बचाएगा अपनी प्रिया को या ईश्वर के विग्रह को। कवि संशय की अवस्था में जब दोनों ही का नाम लेता है किसी एक का चयन नहीं कर पाता तो वो उसे धिक्करते हैं - ‘मिथ्यवादी, पाषंड!! महावराह को बचाएगा तू, दम्भी!’ तात्पर्य यह कि यह कितना बड़ा ढोंग है कि मनुष्य उस ईश्वर को बचाने की सोच भी रख सकता है जिसने इस ब्रह्मांड का सृजन किया! आज के समय भी तो कितने ही अपने अपने ईश्वर को बचाने और उसे ऊपर उठाने की मिथ्या कोशिशें कर रहे हैं। आज के युग में कितना प्रासंगिक है यह दृश्य, सोचने पर विवश कर देता है। वहीं वे भय को भी तिरोहित करने को कहते हैं - ‘सत्य के लिए किसी से भी न डरना, गुरु से भी नहीं, मंत्र से भी नहीं; लोक से भी नहीं, वेद से भी नहीं।’
पतनोन्मुख राजनीति के बीच एक सामान्य सचेष्ट व्यक्ति का क्या कर्त्तव्यपथ हो उसकी आलोचना भी है इस कथा का एक महत्त्वपूर्ण कथ्य। राजनीति जब सामान्य नागरिक के हितों की अनदेखी करती है तब नागरिक का क्या कर्त्तव्य हो? उसके बनाए नियमों को पालन करना या उनका प्रतिकार करना? बड़ी सरलता से बतलाया है कि एक सामान्य नागरिक का करणिय और धर्म क्या है ऐसी परिस्थिति में, फिर महाभारत में भी अनेक बार यही तो स्थापित किया गया है - ‘आज स्पष्ट देख रहा हूँ कि जितने बँधे-बँधाए नियम और आचार हैं उनमें धर्म अँटता नहीं। वह नियमों से बड़ा है, आचारों से बड़ा है। मैं जिनको धर्म समझता रहा वे सब समय और सभी अवस्था में धर्म ही नहीं थे, जिन्हें अधर्म समझता रहा वे सब समय और सभी अवस्था में अधर्म ही नहीं कहे जा सकते।’ सामान्य मनुष्य के धर्म और समाज के धर्म में विशेष तौर पर कोई विरोध नहीं होता किंतु मनुष्य एक अत्यंत छोटी इकाई है वह चाहकर भी अपनी सीमाओं से बड़ा नहीं कर पाता, वह अपने ही सत्य को ही आचरण में उतार सकता है, सारे जगत् का कल्याण वह चाहे भी तो अपने भीतर नहीं उतार सकता। तथापि छोटा सत्य बड़े सत्य का विरोधी नहीं वरन पूरक ही होता है। शर्त यह है कि सत्य की व्याख्या और परिभाषा जड़ न हो।
भारतीय समाज के सबसे बड़े अवगुण की चर्चा करते हुए कवि बाणभट्ट उस युग के सापेक्ष यह कहते हैं कि यदि आर्यावर्त का पतन होता है तो उसका मूल कारण होगी इसकी वर्ण-व्यवस्था। वो तथाकथित म्लेच्छ कही जाने वाली संस्कृतियों से इसकी तुलना करते हुए कहते हैं कि उनकी शक्ति का मूल स्रोत है उनकी एकता, उनके समाज का स्तरों में विभाजित न होना। आर्यावर्त में समाज के अनेकों स्तर हो गए हैं किंतु यह भगवान का बनाया विधान नहीं है। यह असत्य है। यह पाखंड है। असंस्कृत और असभ्य (यवन, हूण, प्रत्यय आदि आक्रमणकारी) समाजों ने भी इस विभाजनकारी नीति को अपने समाज में प्रश्रय नहीं दिया है और यहीं वो हमसे बेहतर हो जाते हैं। उपन्यास के अपूर्ण अंत में आकर यही लक्ष्य शेष रह जाता है जिसकी पूर्ति का संकल्प कवि बाणभट्ट और भट्टिनी करते हैं, ‘असंस्कृत म्लेच्छसेना में संयम का प्रचार और आर्यवर्त के समाज को विभक्त करने वाले स्तरों को मिटाना’। इस प्रयास की सार्थकता होगी ‘एक मनुष्यता’ का ज्ञान जो एकमेव सत्य होगा। ‘नीचे से ऊपर तक वही रागात्मक हृदय व्याप्त है… ’
यह कथा प्रेम के मौलिक रंगों से आद्योपांत रंगी हुई है। प्रेम में कैसे आप अपने प्रेमी को वश में कर पाते हैं उसका गूढ़ भी बतलाती है - ‘मनुष्य जितना देता है उतना ही पाता है। प्राण देने से प्राण मिलता है, मन देने से मन मिलता है। आत्मदान ऐसी वस्तु है जो दाता और गृहीता दोनों को सार्थक करती है’, ‘अपने को निःशेष भाव से दे देना ही वशीकरण है!’। वहीं आत्मानुशासन का भी महत्त्व है क्यूँकि इसके बिना सब कुछ कुरूप और त्याज्य बन जाता है - ‘बंधन ही सौंदर्य है, आत्म-दमन ही सुरुचि है, बाधायें ही माधुर्य हैं। नहीं तो यह जीवन व्यर्थ का बोझ हो जाता। वास्तविकताएँ नग्न रूप में प्रकट होकर कुत्सित बन जाती हैं।’
यह अद्भुत पुस्तक है। मन पढ़ कर एक अलग ही दुनिया में विचरने लगा। यह सामान्य पुस्तक नहीं है बल्कि बहुत ही उत्कृष्ट साहित्यिक रचना है। विशुद्ध पद्ध की तरह सौन्दर्य से बरी हुई है जो हर पन्ने पर पढ़ने वाले को विस्मृत कर देती है।
'बाणभट्ट की आत्मकथा' आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी जी की क्लासिक कृति में शुमार है. जिसकी शुरूआती भूमिका पढ़ना ही रोचक लगा और इसी कृति के यात्रा को जानने-समझने का क्रम जिसमें आस्ट्रिया के मिस कैथराईन का शान्तिनिकेतन के दिनों का ब्यौरा.
यह पुस्तक आपसे समय माँगता है या हो सकता है कि बहुत कुछ न समझ में आने लायक. जो मेरे साथ भी हुआ. भाषा के स्तर पर यह समस्या खासकर हुई, क्योंकि भाषा मुख्यतः क्लिष्ट संस्कृत निष्ठ हिन्दी है जो न अब मौजू वक़्त में चलन में रहा न कही सुनाई पड़ता है. सो पुस्तक के समानान्तर शब्दकोश की आवश्यकता पड़ सकती है. वहीं इस पुस्तक का शीर्षक थोड़ा भ्रमित करने वाला जान पड़ता है. इसे जीवन-दर्शन के क्रम में भी रखा जा सकता है.
अगर आप शौकिया तौर पर पढ़ना पसंद करते है तो हो सकता है आप ऊब जाए इसलिए यह कृति आपसे समय माँगती है. और इनके किरदार भी. इसके पात्र बाणभट्ट, निपुणिका या भट्टिनी पर अलग-अलग महाकाव्य लिखा जा सकता है. क्योंकि यह पात्र इतने विस्तृत एवं इनका एस्केल इतना व्यापक है. जिसकी कथा अतीत की होती हुई भी आज के वक्त भी उसी समान नज़र आती है.
लेखक की भाषा शैली लाज़व��ब है. क्लिष्टता के बाद इसे अब बोलचाल में प्रयोग में लाना अच्छा लगा रहा है. वाकई हमारा शब्दकोश कितना सीमित रहा है. इन जैसे कृतियों को पढ़ने के बाद पता चलता है. सुंदरता का वर्णन हो या हास्य-परिहास की स्थिति भाषा रोचक और गुदगुदाती है.
मूलतः संस्कृत से हिन्दी में तर्जुमा का ख्याल करते हुए लेखक ने पाठकों के हित में जहाँ जैसे संदर्भ मिले है उसे मुहैया करवाते हुए चलते है. जिससे इसी क्रम में जिस किसी को ऐतिहासिक उपन्यास में रुचि हो तो अपने ज्ञान को मूल पुस्तक से और बढ़ा सकता है. क्योंकि एक सफल कृति या पुस्तक हमेशा अपने साथ-साथ अन्य कई पुस्तकों का रास्ता दिखलाती है. हालांकि ऐतिहासिक उपन्यासों में मेरी रुचि कम ही रही है लेकिन आने वाले दिनों में क्या पता इसी क्रम में कहीं न कहीं बढ़े.
हिंदी साहित्य का नौसिखिया पाठक होने के कारण मुझे लगभग सभी पृष्ठ मे बहुत नए शब्दों से मेरा जुडना हुआ, वैसे मै आलसी प्रकृति का मनुष्य हूं, फिर भी प्रतिदिन के लगातार पाठन से पूरी रचना को पढने में रस मिला, इस साहित्य ने मेरे जीवनमूल्य पर गहरा प्रभाव डाला हैं, मेरी समझ से इस महत्वपूर्ण रचना को लगभग सभी को पढना चाहिए, रचना में निहीत सार में प्रेम की अप्रत्यक्ष व्याख्या दिमाग दुरुस्त कर देनेवाली हैं , लेखक, दीदी, और उपन्यास के सभी पात्रों को मेरा प्रणाम
इस पुस्तक का शीर्षक बहुत आकर्षक है। संस्कृत के छात्र बाणभट्ट की रचनाओं को थोड़ा बहुत पढ़ चुके होते हैं इसलिए उन्हें इस पुस्तक से अधिक अपेक्षाएं हो सकती हैं। मुझे भी थी किंतु यह उन पर खरी नहीं उतरती। इसके अतिरिक्त आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का जो गंभीर चिन्तन उनके ललित निबन्धों में दिखाई देता है उसके दर्शन भी इस कृति में कम ही होते हैं। यह पुस्तक बाणभट्ट की ऑटोबॉयोग्राफी नहीं है, ऐसा पुस्तक के अंत में लेखक ने स्वयं कहा है।
महाकवि बाण के जीवन प्रसंगों से बुनी हुई यह आत्मकथा आपको उनके समय और भाषा की सेर अवश्य करवाएगी। जिसे शुद्ध हिंदी कहा जाता है उस संस्कृत निष्ठ हिंदी के लालित्य का अनुभव अपने आप में आह्लादित करने वाला है। इसी पुस्तक में जब बाण महाश्वेता का वर्णन करते हैं उसे पढ़ते हुए मैं कितनी ही बार भाषा पर इस तरह के असाधारण अधिकार को देखकर रीझ रीझ जाता हूँ।
कादम्बरी और हर्षचरित से सूत्र लेकर बाणभट्ट की अद्भुत आत्मकथा के चरित्र और घटनाक्रम रचे गए हैं। यह आपको बाणभट्ट की रचनाएं पढ़ने पर ज्ञात होता है। कहते हैं कि बाणभट्ट की कोई भी कृति पूरी नहीं है। वैसे ही यह कथा भी एक सुंदर मोड़ पर रुकी रह जाती है।
The language me perplex you but it is worth the effort. The plot is nothing special but the language makes it a special work from Hazariprasad Dwivedi.
I read Malayalam translation of the novel. The novel is written in the language style of Banabhattan's Kadambari and it is full of Sanskrit words which makes the reading a bit more difficult at times. But the second half of the novel is more easy and entertaining to read due to rapid succession of events. The story happens in a period when there's a struggle between Buddhist and Hindu groups to win favor of King while the enemy forces are coming to conquer. There are many layers of happenings in the novel and if you have the patience then, it is a rewarding read.
पुस्तक विशुद्ध हिंदी में लिखी गई है तथा हिंदी भाषा शिल्प की बहुत ही सुन्दर कृति है। अलंकारिक भाषा का ऐसा उपयोग हिंदी गद्य मैं अन्यत्र दुर्लभ है। लेकिन कहानी अकस्मात् ही समाप्त हो जाती है जो मुझे बिलकुल पसंद नहीं आया।