शरतचंद्र चट्टोपाध्याय का जन्म 15 सितंबर 1876 को देवानंदपुर (प. बंगाल) में हुआ। बँगला के सुप्रसिद्ध उपन्यासकार एवं कहानीकार के रूप में ख्याति। वे अपने माता-पिता की नौ संतानों में से एक थे। अठारह साल की अवस्था में उन्होंने इंटर पास किया। इन्हीं दिनों उन्होंने ‘बासा’ (घर) नाम से एक उपन्यास लिख डाला।
Sarat Chandra Chattopadhyay (also spelt Saratchandra) (Bengali: শরৎচন্দ্র চট্টোপাধ্যায়) was a legendary Bengali novelist from India. He was one of the most popular Bengali novelists of the early 20th century.
His childhood and youth were spent in dire poverty as his father, Motilal Chattopadhyay, was an idler and dreamer and gave little security to his five children. Saratchandra received very little formal education but inherited something valuable from his father—his imagination and love of literature.
He started writing in his early teens and two stories written then have survived—‘Korel’ and ‘Kashinath’. Saratchandra came to maturity at a time when the national movement was gaining momentum together with an awakening of social consciousness.
Much of his writing bears the mark of the resultant turbulence of society. A prolific writer, he found the novel an apt medium for depicting this and, in his hands, it became a powerful weapon of social and political reform.
Sensitive and daring, his novels captivated the hearts and minds of thousands of readers not only in Bengal but all over India.
"My literary debt is not limited to my predecessors only. I'm forever indebted to the deprived, ordinary people who give this world everything they have and yet receive nothing in return, to the weak and oppressed people whose tears nobody bothers to notice and to the endlessly hassled, distressed (weighed down by life) and helpless people who don't even have a moment to think that: despite having everything, they have right to nothing. They made me start to speak. They inspired me to take up their case and plead for them. I have witnessed endless injustice to these people, unfair intolerable indiscriminate justice. It's true that springs do come to this world for some - full of beauty and wealth - with its sweet smelling breeze perfumed with newly bloomed flowers and spiced with cuckoo's song, but such good things remained well outside the sphere where my sight remained imprisoned. This poverty abounds in my writings."
Priceless classic by a master story teller . The translation from the original Bengali is commendable. I recommend reading this masterpiece. It is part of our culture.
might not have been this easy to read but the edition i was reading had a very nice flow.
as for the story itself, ultimately it did make its way into my stone cold heart and the primary reason are the women in this bro. the women in this are so very exquisite and so very dramatic. (3.5)
चरित्रहीन-शरत चन्द्र अभी चरित्रहीन खत्म किया... उपन्यास समाप्त कर सबसे पहला प्रश्न जो दिमाग में आया- आखिर संपूर्ण उपन्यास में "चरित्रहीन" कौन था? सतीश- जो स्वयं को सबसे अधम पुरुष मानता है ? सावित्री- विधवा ब्राह्मिन जिसे कुल से निकाल दिया गया? या किरणमयी - अपूर्व सुंदरी जो भूल से गलती कर बैठती है पर अंत में प्रायश्चित कर लेती है? या पढने वाला जो इसके पात्रों को चरित्रहीन समझता रहा.
"चरित्र" और "चरित्रहीन" की हमारे लिए क्या परिभाषा है? क्या शरत चन्द्र के ज़माने से लेकर अब तक वही परिभाषा चली आ रही है? क्या हमारे मूल्यों में ज़रा भी परिवर्तन नहीं हुआ? क्या यह ज़रूरी है की उस ज़माने में जो "चरित्रहीन" माना जाता था वह आज भी "चरित्रहीन" ही माना जाए?
उपन्यास की एक पात्र किरणमयी द्वारा एक बहुत अच्छी बात उपन्यासकार ने कही है – “राह चलते जब कोई अँधा गड्डे में गिर जाता है तो लोग उसे उठाते है , सँभालते हैं. समाज द्वारा यह बात स्वीकृत है की प्रेम अँधा होता है - पर जब यह अँधा गड्डे में गिरता है तो लोग उसे संभालने के लिए नहीं आते बल्कि उसे और गिरा कर उस पर मिटटी तक डाल देते हैं. अगर अँधा गड्डे में गिरे तो समझ में आता है पर आँख वाला गिरे तो क्या उसे माफ़ किया जा सकता है?” शरत बाबु की दृष्टि में भी "चरित्रहीन" वह नहीं जो भूल से गड्डे में गिर जाए पर वह है जिसका लक्ष्य ही गड्डे के समान नीच हो - जिसकी नियत खराब हो. कहानी कई पात्रों को साथ लेकर चलती है,पर मुख्यतःदो अलग अलग समान्तर कथाएं चलती रहती है,सतीश और सावित्री की और किरणमयी और दिवाकर की.उपेन्द्र इन दो कहानियों के बीच के सेतु का काम करते हैं.इसकी कहानी चरित्र के भटकाव और प्रेम की तलाश की.शरत चन्द्र की कहानियां अक्सर नारी प्रधान रहती है,और ये उपन्यास भी अपवाद नही है. शुरुआत के कुछ समय कहानी तेज चलती है,और बीच में आते आते रफ़्तार खो देती है.किरणमयी का पात्र अंत तक स्पष्ट नही हुआ.कही तो वह एक विदुषी होती है,और कहीं वह एक चालबाज़ चरित्रहीन औरत.उसके वाद विवाद,कुछ लम्बे ज्ञान-वाणी जैसे बोझिल संवाद कहानी को नीरस कर देते हैं.पर अंत में कहानी गति पकडती है.पात्रों और घटनाओं का मर्म समझ में आने लगता है.सावित्री और सतीश का अनकहा प्रेम शरत चन्द्र की देवदास की याद दिला देता है. सच कहूँ,तो बीच में कभी कभी उपन्यास बीच में छोड़ देने का मन भी किया,पर अच्छा हुआ,कि नही छोड़ा.और हाँ,शायद कभी सतीश और सावित्री के किरदारों को पढने के लिए दोबारा भी पढूं.एक सम्पूर्ण उपन्यास बनाने के फेर में थोड़ी बोझिल हो गयी है.बाकी सब ठीक है.समय और धैर्य हो,तो आप इसे निश्चय की पसंद करेंगे.
যারা যারা বইটা পড়েছেন তাদের কাছে আমার একটা প্রশ্ন, এই বইয়ের নাম যে "চরিত্রহীন", কিন্তু বইয়ে চরিত্রহীন কে ছিলো? আদৌ কি কেউ ছিলো?
গল্পের মূল চরিত্র সতীশ না উপেন্দ্র তা নিয়ে আমি যদিও সন্ধিহান, তবে তাদের দুজনের বন্ধুত্ব নিয়ে একদমই নয়। এই বন্ধুত্ব কথায় নয় যেন রক্তে মিশে গেছে। সতীশ আর সাবিত্রির নীরব প্রেমকাহিনী দিয়ে প্রথমদিককার গল্পের শুরু । দুজন দুজনকে ভালোবাসলেও দুজনের কাছেই ভালোবাসার চেয়ে বড় আত্মসম্মান। তাই একটু অভিমানেই যেন আলগা হতে থাকে সম্পর্কের সুতো। দুজনের ভেতরেই পরস্পরের জন্য সমুদ্র সমান ভালোবাসা ছিলো , দুজনেই তা চোখের জল দিয়ে বুঝিয়ে দিয়েছে। কিন্তু সেই নিরব পরিনয় কি পরিনতি পেয়েছিলো?
বিশ্ববিদ্যালয় পাশ করা উপেন্দ্র, পরিচিতমহলে সে বউপাগল বলেই পরিচিত। কিন্তু স্ত্রী সুরবালার ভালোবাসার সামনে যে উপেন্দ্র যেন খড়কুটো। ছোট থেকেই সুরবালা অত্যন্ত নরম মনের। স্বামীকে সে ভগবানের মতো পুজা করে, ভালোবাসে।
একদিন একখানা পত্র পেয়ে উপেন্দ্র সতীশকে নিয়ে হাজির হয় কলকাতায় এক মৃত্যুপথযাত্রী বন্ধুর বাড়ীতে। সেখানে পরিচয় হয় বন্ধুর স্ত্রী কিরনময়ীর সাথে। কিরনময়ীয় মতো রূপবতী সচরাচর দেখা যায় না। প্রথমদিন তারা ( সতীশ ও উপেন্দ্র) কিরনের সম্পর্কে বিরূপ ধারণা নিয়ে গেলেও, আস্তে আস্তে তাদের সম্পর্কটা সহজ হয়ে যায়। কিরন সতীশকে ছোটভাইয়ের জায়াগায় বসালেও ভালোবেসে ফেলে উপেন্দ্রকে। আপাতদৃষ্টিতে কিরনকে চরিত্রহীন মনে হলেও উপন্যাস পুরোটা পড়লে এ ভুলধারণা ভেঙে যাবে। তার মহত্ত্ব আর আত্মত্যাগ দেখে সত্যিই মন ভরে যায়। তবে এই উপন্যাসে শুধু কিরনময়ীই নয়, সকলেই যেন ভালোবাসা ত্যাগের প্রতিযোগিতায় নেমেছে, কে কাকে হারাতে পারবে।
উক্ত চরিত্রগুলো ছাড়াও দিবাকর, বেহারী, সরোজিনী, বিপিন, জ্যোতিষ, শশীকান্ত, প্রমুখ চরিত্রগুলোরও গল্পে যথেষ্ট প্রভাব রয়েছে।
চরিত্রহীন নিয়ে লিখতে শুরু যে কোথায় গিয়ে শেষ হবে সেটা আমি নিজেও জানি না, তবে এটুকু বলি শরৎচন্দ্রের লেখা "শ্রীকান্ত"র পরে "চরিত্রহীন" হলো আমার প্রিয় উপন্যাস।
तुम चितेरे मानवीय अंतर्द्वंद के, भावुक मूर्खताओं के और निर्मल पवित्रताओं के, किन्तु तुम हर बार नायक को दुःखान्त देने के अपराध से मुक्त नहीं किए जा सकते। संसार में अब पाठक और लेखक के मध्य अन्तर न रह गया है, तब मैं तुमसे इसलिए रुष्ट होना चाहती हूँ कि क्यों निष्कलंक, सरल, प्रेमिल और भोले लोगों को तुम चरित्र और आदर्शों की काँटेदार बाड़ी में बाँध देते हो?
हे लेखक! मैं न चाहते हुए भी तुम्हें पढ़ने का मोह नहीं त्याग सकती, किन्तु मेरे प्रश्न का उत्तर दे देते, प्रसन्नता होती। तुम कैसे लिख सकते हो सामाजिक सत्य को साँचों में ढाल कर? कैसे पाई तुमने इतनी सूक्ष्म अंतर्दृष्टि, शरत! कि अबोला प्रेम बाँचते बाँचते तुमसे प्रेम होने लगा ...नायक की मृत्युशय्या तक स्पर्श न करने वाली स्त्री को आधार बना चरित्रहीन शीर्षक कैसे दे सकते हो? तुम लिखते हो तो ये भी बताते जाओ कि पढ़ते-पढ़ते आँखों के भीतर जो सैलाब उमड़ता है, उसे थामने का सम्बल तुमने सीखा तो होगा, तभी न लिखा इतना सब।
ये मुझे नहीं आता... तुम होते तो ये भी पूछती, लिखने समय तुम रोए तो नहीं होगे! पढ़ते हुए इच्छा जागती है, काश तुम्हें लिखते हुए देखती जब लिखते हो न्याय, अन्याय के परे जाकर कोरा सच?
চরিত্রহীন বইটি খুলতেই আমি শরৎচন্দ্র চট্টোপাধ্যায়ের কলমের জাদুতে মুগ্ধ হয়ে পড়ি। ষাটের দশকের বাঙালি সমাজের পটভূমিতে গড়ে ওঠা এই উপন্যাসটি আমাকে এক জটিল মানবিক সম্পর্কের গল্পে টেনে নিয়ে যায় যেখানে প্রেম, ত্যাগ, আর সমাজের নৈতিক বিচারের দ্বন্দ্ব আমাকে বারবার ভাবিয়ে তুলেছে। বইটি পড়তে পড়তে আমার মনে একটাই প্রশ্ন ঘুরেছে: এই গল্পে আদৌ কে "চরিত্রহীন"? এই প্রশ্নের উত্তর খুঁজতে গিয়ে আমি যেন নিজেই গল্পের একটি চরিত্র হয়ে উঠেছি।
গল্পের শুরুতেই আমি সতীশ আর সাবিত্রীর নীরব প্রেমকাহিনীর সঙ্গে পরিচিত হই। সতীশ, এক কুলীন ব্রাহ্মণ আর সাবিত্রী, এক বিধবা ব্রাহ্মণী, যিনি মেসে দাসীর কাজ করেন। তাদের প্রেম যেন এক অব্যক্ত কবিতা যেখানে ভালোবাসার চেয়ে আত্মসম্মান বড় হয়ে ওঠে। সতীশ আর সাবিত্রীর মাধ্যমে শরৎচন্দ্র এখানে প্রেমের অন্ধত্ব আর সমাজের নির্মম বিচারের দ্বন্দ্ব তুলে ধরেছেন। গল্পের আবহ ধীরে ধীরে তৈরি হয় যেখানে কলকাতার শীতের সকাল আর গ্রামীণ জীবনের ছায়া এক অদ্ভুত রহস্যময় পরিবেশ সৃষ্টি করে।
চরিত্রহীন মূলত দুটি সমান্তরাল কাহিনীর মাধ্যমে এগিয়ে যায়—একটি সতীশ ও সাবিত্রীর নীরব প্রেম, আরেকটি উপেন্দ্র ও কিরণময়ীর জটিল সম্পর্ক। উপেন্দ্র যিনি “বউপাগল” হিসেবে পরিচিত তার স্ত্রী সুরবালার প্রতি অগাধ ভালোবাসা আমাকে মুগ্ধ করেছে। সুরবালার নরম মন আর স্বামীকে দেবতার মতো পূজা করার ভাবনা শরৎচন্দ্রের নারীচরিত্রের গভীরতার প্রমাণ। কিন্তু গল্প যখন কিরণময়ীর দিকে মোড় নেয় তখন আমি এক অপূর্ব রূপবতী নারীর সঙ্গে পরিচিত হই যিনি প্রথমে চরিত্রহীন মনে হলেও তার আত্মত্যাগ আর মহত্ত্ব আমাকে বিস্মিত করেছে।
গল্পের গঠন শরৎচন্দ্রের নিখুঁত প্লটিংয়ের নিদর্শন। প্রতিটি ঘটনা, প্রতিটি সংলাপ যেন একটি ধাঁধার টুকরো যা ধীরে ধীরে জড়ো হয়ে সম্পূর্ণ ছবি তৈরি করে। তবে মাঝে মাঝে গল্পের গতি কিছুটা ধীর মনে হয়েছে, বিশেষ করে কিরণময়ীর দীর্ঘ সংলাপ যা কখনো কখনো বোঝা হয়ে দাঁড়ায়। কিন্তু শেষের দিকে গল্প আবার গতি পায় আর সতীশ ও সাবিত্রীর অব্যক্ত প্রেমের মর্মস্পর্শী সমাপ্তি আমাকে চোখের জলে ভাসিয়েছে (আত্মিকভাবে অবশ্য)। এই উপন্যাস কোনো রহস্য নয়, বরং একটি মানসিক ধাঁধা, যেখানে প্রতিটি চরিত্রের সিদ্ধান্ত আমাকে প্রশ্ন তুলতে বাধ্য করেছে: চরিত্রহীন কে?
শরৎচন্দ্রের নারী চরিত্রগুলো আমাকে সবচেয়ে বেশি মুগ্ধ করেছে। সাবিত্রী, কিরণময়ী, সুরবালা, সরোজিনী—প্রত্যেকেই নিজস্ব স্বভাবে অনন্য। সাবিত্রীর নীরব প্রেম আর আত্মত্যাগ আমাকে দেবদাস-এর পার্বতীর কথা মনে করিয়েছে। তার সংগ্রাম, সমাজের কঠোর বিচারের মুখে নিজের মর্যাদা বজায় রাখার চেষ্টা, আমাকে গভীরভাবে স্পর্শ করেছে। কিরণময়ী এক জটিল চরিত্র—কখনো বিদুষী, কখনো চালবাজ, কিন্তু তার শেষ পরিণিত তাকে এক অনন্য মহিমায় উজ্জ্বল করে। উপেন্দ্র আর সতীশের বন্ধুত্ব যেন রক্তে মিশে গেছে, তাদের মধ্যে যে নিঃশব্দ বোঝাপড়া তা আমাকে তাদের প্রতি আরও আকৃষ্ট করেছে। তবে পুরুষ চরিত্রগুলো মাঝে মাঝে একঘেয়ে লেগেছে যেন একই ছাঁচে তৈরি। বেহারী চরিত্রটি আমার কাছে ব্যতিক্রম মনে হয়েছে—তার সরলতা আর বুদ্ধিদীপ্ত সংলাপ গল্পে এক আলাদা রং যোগ করেছে।
চরিত্রহীন শুধু একটি প্রেমকাহিনী নয়, এটি সমাজের দ্বৈত মানদণ্ড আর নারীর প্রতি বিচারের এক তীক্ষ্ণ সমালোচনা। শরৎচন্দ্র এখানে “চরিত্র” শব্দটির সংজ্ঞাকে প্রশ্নের মুখে দাঁড় করিয়েছেন। সমাজ কেন শুধু নারীকেই চরিত্রহীন বলে? পুরুষের ভুল কেন ক্ষমা পায়, আর নারীর ভুল কেন অমার্জনীয় হয়? এই প্রশ্নগুলো আমাকে বারবার ভাবিয়েছে।
পোস্ট-কলোনিয়াল বাঙালি সমাজের পটভূমিতে শ্রেণিবৈষম্য, নারীর শোষণ, আর সামাজিক নিয়মের শৃঙ্খল আমাকে গভীরভাবে চিন্তিত করেছে। সাবিত্রীর মতো নারী যিনি সমাজের নিচু স্তরে থেকেও নিজের মর্যাদা ধরে রাখেন আমাকে নারীর অদম্য শক্তির কথা মনে করিয়েছে। শরৎচন্দ্রের লেখায় এই নারী-মনের সূক্ষ্ম বিশ্লেষণ আমাকে মুগ্ধ করেছে। তবে মাঝে মাঝে তাঁর সংলাপে অতিরিক্ত দার্শনিকতা গল্পের গতিকে কিছুটা ধীর করে দিয়েছে।
শরৎচন্দ্রের গদ্য যেন এক মায়াবী জাল, যা আমাকে ধীরে ধীরে গল্পের গভীরে টেনে নিয়েছে। তাঁর সংলাপে বাঙালি সমাজের সূক্ষ্ম আবেগ, হাসি, আর বেদনা ধরা পড়েছে। তবে কিছু জায়গায়, বিশেষ করে কিরণময়ীর দীর্ঘ বক্তৃতা, আমার কাছে বোঝা মনে হয়েছে। গল্পের সমাপ্তি আমাকে মিশ্র অনুভূতি দিয়েছে—সতীশ ও সাবিত্রীর নীরব প্রেমের দুঃখান্ত আমাকে কাঁদিয়েছে (আত্মিকভাবে অবশ্য)। শেষ পাতা বন্ধ করার সময় আমি ভেবেছি, শরৎচন্দ্র কেন সুখান্ত লেখেন না? তবে এই দুঃখান্তই গল্পকে এত মর্মস্পর্শী করেছে।
চরিত্রহীন শুধু একটি উপন্যাস নয়, এটি একটি বুদ্ধিবৃত্তিক যাত্রা, যেখানে আমি শরৎচন্দ্রের সঙ্গে মিলে মানবমনের গভীরে ডুব দিয়েছি। এটি প্রেম, ত্যাগ, আর সমাজের বিচারের এক জটিল গল্প যা আমাকে প্রশ্ন করতে শিখিয়েছে। কিছু ত্রুটি—যেমন ধীর গতি বা অতিরিক্ত দার্শনিক সংলাপ থাকলেও, এই উপন্যাস আমার হৃদয়ে গেঁথে গেছে। যারা প্রেম, সমাজ, আর মানবতার গল্প পড়তে ভালোবাসেন তাদের জন্য এটি একটি অবশ্যপাঠ্য ক্লাসিক।
আমার কেন জানি না, মনে হচ্ছিল যে এক্ই রকম চরিত্র, এক্ই রকম গল্প, খালি নাম আর জায়গা পরিবর্তন করে দুইবার লিখেছেন লেখক। তবে নারী চরিত্রগুলো সবাই নিজ নিজ স্বভাবে অনন্যা ছিল, আর পুরুষ চরিত্রগুলো সবাই এক্ই রকম ছিল। বেহারীকে আমার সবথেকে ভালো লেগেছে। গল্পের শেষে বেশ রাগ হচ্ছিল আমার। সবাই যেন স্বেচ্ছায় নিজেদের অসুখী রাখতে উদ্যত!
This novel can be rated as one of the top three works of Shri Sharat Chandra Chattopadhyay, the other two being - Devdas, and Shrikanto.The female protagonist Savitri is mistaken as charitraheen but she is a pious Bhadra lady who deliberately distances herself from her lover Satish because widow remarriage was a taboo those days.The other lady who is also mistaken as charitraheen is Kiranmayi who elopes with Dibakar only to spite Upendra , the only man she ever loved in her life.Upendra's wife Surbala is an epitome of virtue , and she is totally devoted to her husband. The fourth heroine Sarojini is a London returned vilayati who is attracted to her exact opposite , Satish. The biggest take from the novel is we can imbibe so much culture from the background of the novel set in the late nineteenth century Kolkata.
শরতবাবুর মতামত সম্পর্কে 'সহমত ভাই'বলতে পারছি না। একজন মানুষ একাধিক প্রেমে পড়তেই পারেন। কিন্তু সে নিজেকে এগোতে দেয় না সমাজের সকলের কল্যাণের জন্যই! এটাই সভ্যতা! মস্তিষ্ক প্রক্ষালক কেন্দ্রীয় সেই নারী চরিত্র!
সচ্চরিত্র এবং চরিত্রহীন এই দুটোর সংজ্ঞা তো চিরকালই স্থান-কাল-পাত্রভেদে বদলেছে। সেকালে চরিত্রহীনের সংজ্ঞা ভিন্নরকম ছিল একালে চরিত্রহীনের সংজ্ঞা ভিন্নরকম হয়েছে।
ছবি শরৎ বাবু এঁকেছেন সুনিপুণ ভাবেই। গল্পও বলেছেন, গল্পে উপমা-মাহাত্ম্য সবই আছে। সমাজকে তোয়াক্কা না করা সতীশ,ক্ষনিকের কামের লালসা সংবরণ করতে না পারা চরিত্রহীনা কিরণময়ী, আর শরৎ বাবুর উপন্যাসের ট্রেডমার্ক নায়িকা যিনি বিন�� দ্বিধায়, নিস্বার্থভাবে আপনজনের জন্য অকাতরে সবকিছু বিলিয়ে দিতে পারেন সাবিত্রী।গল্পের ভিতর দিয়ে একরকম দৌড়িয়ে নিয়ে গেল কিন্তু কীভাবে যেন মানসপটে দাগ কাটল না।
This is my third novel by Sarat Chandra in last four months, and it is another great story. The female characters of Sarat Chandra's stories are so complex, they have so many layers that even after finishing the book there remains a mystery around them, and they stay with the readers long afterwards.
After finishing Charitraheen, I am thinking about the characters and have one question, can I judge any of them? If only, it were that simple.
শরত বাবুর বাস্তবতামুখী সামাজিক উপন্যাস হজম করাটা আমার জন্য একটু কঠিন হয়ে পড়ে বৈকি। উপরন্তু বেশ কয়েকটা পড়া হয়েছিল যখন বয়সে আরো অঙ্কুরিত ছিলাম আর পরিপাক্তন্ত্রটাও ছিল আরো কর্মঠ। huh.......(those days)
প্রথম জীবনের পুরষ্কার পাওয়া বই হিসেবে মনে হয় এক তারা বেশি দেওয়া পড়ল। আবার এটাও সত্য যে তৎকালীন সময়ের বন্ধুদের পূর্বেই, মহাশয়ের উপন্যাস পড়ার দরুণ মনের মাঝে কিঞ্চিৎ পুলক অনুভব করতাম না তা তো নয়। সুতরাং কৃতজ্ঞটা থেকেই যায়।
আমি আসলে ঠিক বুঝতে পারছি না উপন্যাসটা কীভাবে রেট করব। বেশ দেরিতেই উপন্যাসটা পড়া হলো।
একদিকে শরৎচন্দ্রের লেখা, সবসময়ের মতো চরিত্রগুলো গভীর, সুন্দর চরিত্রগঠন, গল্পের গভীরতা অসাধারণ।নারী চরিত্রদের মধ্যে কিরণময়ীর চরিত্র আমার কাছে বেশ layered, interesting লেগেছে।
বাকিটা যদি গল্প নিয়ে বলি, পুরো উপন্যাস জুড়ে আমার মাথায় একটাই কথা ঘুরেছে—তোমরা সবাই বসে একটু কথা বলো না কেন! এত কিছু নিজের মনে ভেবে নেওয়ার দরকারটা কী! পুরো উপন্যাসটাই যেন ভুল বোঝাবুঝির একটা vicious cycle এর মধ্যে ঘুরতে থাকে। মাঝে মাঝে এই ব্যাপারটা খুব বিরক্তিকর লেগেছে।
উপন্যাসটা যে আগ্রহ নিয়ে পড়া শুরু করেছিলাম, যতটা প্রশংসা শুনে পড়া শুরু করেছিলাম, ভালো লাগে নাই। শুরুর কিছুদূর পরেই আর পড়ার আগ্রহ পাই নাই। ধৈর্য নিয়ে উপন্যাস শেষ করার পর নিজের উপরেই গর্ব হচ্ছিল। শেষদিকটা খুব এলোমেলো। সতীশ ছাড়া আর কোন চরিত্র তেমন ভালো লাগে নি।
যিনি দাতা, তিনি আজীবনটি মনে হয় দিয়েই যেতে থাকেন! সাবিত্রীর জন্য কেঁদেকেটে জান যাবার যোগার হচ্ছে। বুদ্ধি কাজ করেনা, যুক্তির পায়ে পড়ে মরি মরি অবস্থা- উপীনদা এ কী উপসংহার টেনে দিয়ে গেলেন! সরোজিনির জন্য সাবিত্রী কেন সতীশকে ছাড়লো! আমি বড্ড স্বার্থপর নাকি সাবিত্রীই ঠিক কাজটি করলো তা বুঝে উঠবার ক্ষমতাও নেই। সরোজিনীই বা কেন সতীশের মন যেনেও কোন টু শব্দটি করলো না?!
না না! ভারী অন্যায় হলো সবার সাথেই খালি সুরবালাই মনে হলো সমস্তটুকু পেলেন! শরতবাবু তবে কি এইভাবেই ভগবানকে বাঁচিয়ে রাখলেন? দেখালেন ধর্মকে যতই বুড়ো আঙ্গুল দেখাও, যতই যুক্তি দেখাও, যতই নাক ছিটকাও, ও ঠিক সময়মতো এসে টুটি চেপে ধরবে।কিরনময়ীকে দিয়েও স্বীকার করিয়ে ছাড়লো তবে।
ভারী অন্যায় হলো, ভারী অন্যায় হলো সাবিত্রীর সাথে, অন্যায় হলো দিবাকরের সাথে!
Set in early in 1900s, book depicts the shallow cultural values of society. Through book writer tries to explores the real meaning of ‘characterless’.
Story
Many stories are going on simultaneously in this book. First story is about Satish and Savitri. They met in a hostel. Satish belongs to rich zamindar background. He has aggressive but down to earth nature, always ready to help others. Savitri is pious lady who worked as a servant because of ill fate. Initially they have owner and servant relationship. Later get attracted towards each other but didn’t express their feelings to each other.
Second story is about Upendra, Surbala and Kiranmayi. Upendra deals with a situation in a idealistic way and expects people around him to behave in similar way. He has brotherly bond with Satish. He is leading happy married with Surbala. Kiranmayi is the wife of Haran babu, Upendra’s friend. She is gifted with celestial beauty and because of her husband inclination towards studies she is well educated as well.
Review
Similar to Sharat Chandra’s other novel this book also have strong female characters and flawed male characters. Male characters of this book are either aggressive, too idealistic or weak. Although he introduced a mysterious female character of “Kiranmayi” to the world of fiction. She can’t be categorised as bad or good. Common women of India can’t relate with her either. It is rare to find that kind of self destructive ego in a women.
Savitri/sabitri is a strong woman with her mind in the right place. Surbala or pashu (as people called her because she loves animal) is a loveable character. She is devoted to her husband and family completely. Sarojini is the friend of Upendra and fiancée of Satish. She studied abroad. I do not find any relevance of this character. It did not give much contribution towards main story. My opinion is writer included her to give a modern touch.
I find starting of the book little bit slow but later it become very interesting. You may few characters in the story egoist but you will not find any of them ‘Charitraheen’ (characterless). Beautiful story loved it.
Few lines from book
मनुष्य का ऐसा ही जला हुआ स्वभाव है कि जो बात उसकी शक्ति से बाहर है उसी पर उसका अधिक मोह रहता है। भगवान को कोई पा नहीं सकता इसलिये मनुष्य सब कुछ देकर उनको पाना चाहता है।
পাপকে যতদিন নাহ সংসার থেকে সম্পূর্ণ বিসর্জন দেওয়া যাবে, যতদিন নাহ মানুষের হৃদয় পাথরে রুপান্তরিত হবে, ততদিন এই পৃথিবীতে অন্যায় ভুলভ্রান্তি থেকে যাবে।
☼ রিভিউ ☼ নামঃ শরৎ চন্দ্র সমগ্র ১ উপন্যাসঃ চরিত্রহীন লেখকঃ শরৎচন্দ্র চট্টোপাধ্যায় পৃষ্ঠাঃ ১৪২
কেন শরৎচন্দ্র চট্টোপাধ্যায় উপন্যাস জগতের এক অপ্রতিদ্ধন্দী নাম, পাঠকগন এ উপন্যাস পড়লে সহজেই অনুমান করতে পারবেন। প্রেম নামের মনস্তাত্ত্বিক সত্ত্বার কাছে জৈবিক সত্ত্বা কি ভাবে পরাজিত হয়, পাচটি প্রধান চরিত্রের কখনো সাদৃশ্য আবার কখনো ভিন্ন ভাবে মেরুকরণে মাধ্যমে ফুটিয়ে তুলেছেন। উপীন, সতীশ, সাবিত্রী, করণময়ী এবং দিবাকর এইকজনের জীবনে প্রেমের ছোয়া কখনো স্বপ্ন আবার কখনো বিভীষীকা হয়ে বার বার ফি রে আসে, কিন্তু অপবিত্র হয় নাহ কখনোই। সতীশ জমিদারের পুত্র হয়েও স্বভিমানের যাতাকল হতে মুক্ত এবং অন্যের প্রতি স্নেহের দায় বদ্ধতায় আবদ্ধ। সাবীত্রী যে কি নাহ সতীশের মন মন্দিরের দেবী, অভিমানে বার বার সতীশ তাকে দূর করে দিয়েছে কিন্তু মন থে��ে এক মুহুর্তের জন্য আড়াল করতে পারেনি। আর সাবিত্রী বিধবা হয়ে নিজের সমস্ত টুকু অঞ্জলি দিয়েছে সতীশের প্রেমের মন্দিরে কিন্তু সমাজকে কখনো উপেক্ষা করার সাহস দেখায়নি। সতীশের সাথে আরেক নাম বাধা পরে আছে উপীনের বন্ধুর বোন সরোজিনী। যে কিনা সতীশকে ভালবেসেছে নিভৃতে, কল্পনার আলোতে। উপীনের সাথে আরেকজনের নাম নাহ বলতে নয়, স্ত্রী সুরবালা। এই নারীটি তার সম্পূর্ণ প্রেম, বিশ্বাস, ভক্তি তার স্বামীকে নিবেদন করেছেন। আর উপীনও তার ভালবাসা সন্মান করে নিজেকে সুরপবালার সাথে বেধে রেখেছেন আমৃত্যু। এই প্রবাহের সব থেকে জটিল এবং গুরুত্বপূর্ণ চরিত্র হলো কিরণময়ী, যে সমাজের বিরুদ্ধে বিদ্রোহ ঘোষণা করে বিবাহিত হয়েও আরেকজনকে ভালবেসে, উপীনকে ভালোবেসে। জন্ম থেকে শত লাঞ্ছনার স্বীকার হয়ে স্বামীর কাছেও কখনো স্নেহের পরশ নাহ পেয়ে ভিতর থেকে পাষাণ হয়ে যাওয়া কিরনময়ী কখনো যে বিদ্রোহী হয়ে ওঠে সেই খবর সে নিজেই জানতে পারেনি। তারপর বিদ্রোহের আগুনে যখন উপীনকে দগ্ধ করতে চায়, উপীন তখন সুরবালার বিশ্বাসের শক্ত আবরণে কিরণময়ীকে প্রতিঘাত করে। এরপরেও কিরণময়ীর স্বামী হারানের মৃত্যুর পরে কর্তব্যে বাধা পরে ছোট ভাই দিবাকরকে কিরণময়ীর কাছে রেখে যায়। তারপর দিবাকারের সাথে কিরণময়ীর এক নতুন উপখ্যানের সূচনা হয় । শেষ পর্যন্ত কি কিরণময়ী উপীনের মর্যাদা রাখতে পারবে? সতীশ কি সামজের রক্তচক্ষু উপেক্ষা করে সাবিত্রীকে নিজের করে পাবে? উপীন আর সুরবালা কি তাদের অবিশ্বর ভালবাসা দিয়ে এই নশ্বর পৃথিবী নামক স্থানে একে অন্যকে বেধে রাখতে পারবে? কি হবে সরোজিনীর? এসবকিছু জানতে হলে অবশ্যই এই অসাধারণ উপন্যাসটি পড়তে হবে
যারা যারা বইটা পড়েছেন তাদের কাছে আমার একটা প্রশ্ন, এই বইয়ের নাম যে "চরিত্রহীন", কিন্তু বইয়ে চরিত্রহীন কে ছিলো? আদৌ কি কেউ ছিলো?
গল্পের মূল চরিত্র সতীশ না উপেন্দ্র তা নিয়ে আমি যদিও সন্ধিহান, তবে তাদের দুজনের বন্ধুত্ব নিয়ে একদমই নয়। তাদের এই বন্ধুত্ব কথায় নয় যেন রক্তে মিশে গেছে। সতীশ আর সাবিত্রির নীরব প্রেমকাহিনী দিয়ে প্রথম দিকের গল্প শুরু। দুজন দুজনকে ভালোবাসে তবে দুজনের কাছেই ভালোবাসার চেয়ে আত্মসম্মান বড়। তাই একটু অভিমানেই যেন আলগা হতে থাকে সম্পর্কের সুতো। দুজনের ভেতরেই যে সমুদ্র ভালোবাসা ছিলো , চোখের জল দিয়ে বুঝিয়ে দিয়েছে। কিন্তু সেই ভালোবাসা কি পরিনতি পাবে? বিশ্ববিদ্যালয় পাশ করা উপেন্দ্র, পরিচিতমহলে সে বউপাগল বলেই পরিচিত। কিন্তু স্ত্রী সুরবালার ভালোবাসার সামনে যে উপেন্দ্র যেন খড়কুটো। ছোট থেকেই সুরবালা অত্যন্ত নরম মনের। স্বামীকে সে ভগবানের মতো পুজা করে, ভালোবাসে।
একদিন একখানা পত্র পেয়ে উপেন্দ্র সতীশকে নিয়ে হাজির হয় কলকাতায় এক মৃত্যুপথযাত্রী বন্ধুর বাড়ীতে। সেখানে পরিচয় হয় বন্ধুর স্ত্রী কিরনময়ীর সাথে। এমন রূপবতী সচরাচর দেখা যায় না। প্রথমদিন তারা কিরনের সম্পর্কে বিরূপ ধারণা নিয়ে গেলেও, আস্তে আস্তে তাদের সম্পর্কটা সহজ হয়ে যায়। কিন্তু কিরন সতীশকে ছোটভাইয়ের জায়াগায় বসালেও মনে মনে উপেন্দ্রকে ভালোবেসে ফেলে। আপাতদৃষ্টিতে কিরনকে চরিত্রহীন মনে হলেও উপন্যাস পুরোটা পড়লে এ ভুলধারণা ভেঙে যাবে। তার মহত্ত্ব আর আত্মত্যাগ দেখে সত্যিই মন ভরে যায়। তবে এই উপন্যাসে শুধু কিরনময়ীই নয়, সকলেই যেন ভালোবাসা ত্যাগের প্রতিযোগিতায় নেমেছে, কে কাকে হারাতে পারবে। উক্ত চরিত্রগুলো ছাড়াও দিবাকর, বেহারী, সরোজিনী, বিপিন, জ্যোতিষ, শশীকান্ত, প্রমুখ চরিত্রগুলোরও গল্পে যথেষ্ট প্রভাব রয়েছে।
চরিত্রহীন নিয়ে লিখতে শুরু যে কোথায় গিয়ে শেষ হবে সেটা আমি নিজেও জানিনে বাপু। এখানে লিমিটেড শব্দের ভেতর লিখেছি, তাই এই বইয়ের প্রতি ভালোলাগাটা ঠিকঠাক প্রকাশ করতে পারিনি, তবে এটুকু বলি শরৎচন্দ্রের লেখা "শ্রীকান্ত"র পরে "চরিত্রহীন" হলো আমার প্রিয় উপন্যাস।
কী আশ্চর্য প্রকাশভঙ্গি!! কী সুন্দর চরিত্র গঠন!! কী চমৎকার গল্প!! অর্থ্যাৎ,এই উপন্যাস নিয়ে যতো প্রশংসা করবো,ততই সসীমের সীমানর মধ্যে হাতড়ে রুদ্ধশ্বাসে অসীমের অবয়ব স্পর্শ করবেই। মানুষের মন যে ঝড়ের হাওয়ার মতো এদিক ওদিক উড়ে বেড়িয়ে সমস্ত অবলম্বন নিঃশ্বেষ করে দিতে পারি ;এই উপন্যাসটি তার একটি উদাহরন। আবারও নারী সমাজের খুব নির্মম সত্য বিষয়টিকে নিগূঢ়ভাবে ফুটিয়ে তুলেছেন শরৎবাবু। নারীর হৃদয়ে যেসকল সংকোচ বাসা বেঁধে জীবনের তরী ভারাক্রান্ত করে তুলে এবং সেই ভারক্রান্ত তরী হঠাৎ এদিক ওদিক হেলে যেমন ডুবে যায়;সেই সংকোচকেই নারী চরিত্রগুলির মাধ্যমে বিনা দ্বিধায় ব্যক্ত জীবনের তরী ডুবে যাওয়া থেকে বাঁচানোর দিকটি দেখানো হয়েছে। একজন নারীর ভুল-ত্রুটি,গুন,ভালোবাসা,অভিমান–সবকিছু মিলিয়েই তাকে প্রকাশ করা হয়েছে। মরীচিকাকে যখন পানি হিসেবে গণ্য করা হয়;তখন সেটা মিথ্যা,কিন্তু মরীচিকা নিজ অস্তিত্বের মধ্যেই সত্য। আয়নাতে নিজের ছবি দেখালে সেটা নিজের ছায়া মাত্র;তবুও সেই ছায়াটিই অস্তিত্ব আছে,অর্থ্যাৎ সেটিও তার নিজের মধ্যে সত্য।সেইরুপ ভালোবাসা নামক একে ওপরের প্রতি যেই লুব্ধ আকর্ষন সেটিও একপ্রকার ভালোবাসা ও সত্য;যদিও সেই মোহ মানুষকে অন্ধ করে দেয়,কিন্তু তাঁর অস্তিত্ব আছে বলেই তো সে মানুষকে অন্ধ করে;অর্থ্যাৎ সেটিও একপ্রকার সত্য।
বিংশ শতাব্দির বাঙালী চরিত্রের সকল উপাদান এ উপন্যাসে বিদ্যমান। এখনকার যুকের কেউ যদি এ উপন্যাস পড়েন, তবে বড্ড সেকেল মনে হতে পারে। প্রতিটি চরিত্রই সেকেলে আবেগ নিয়ে গঠিত। তবে বাধ ভাঙ্গা আবেগ যতই থাকুক না কেন, সে আবেগের পুনঃ পুনঃ বিশ্লেষণ বই এর প্রতিটি পাতায় পাতায় চলে এসেছে। ততকালীন সময়ে নারী যে শুধুমাত্র পুরুষের সেবা আর ভোগ্যপণ্য নয়, বরং সে সব ছাড়িয়ে সম্পূর্ণ এক ভিন্ন সত্ত্বার অধিকারিণী, তা বারংবারই ফিরে এসেছে এখানে।
নারী যেমন গড়ে তুলতে পারে, তেমনি তার হিংসার বিষাক্ত ছোবল যে কত বড় ধবংসলীলা সৃষ্টি করতে পারে, লেখক তা এই লেখায় ফুটিয়ে এনেছেন। সাবিত্রির মত পরম মমতায় ভালবাসার মানূষটিকে নিরবে আগলে রাখার কথা যেমনটি রয়েছে, তেমনি রয়েছে কীরণময়ীর মত ভালবাসার কাঙ্গাল, তীব্র আবেগে অন্ধ হয়ে যাওয়া হতভাগ্যের কথা। কিন্তু প্রত্যেকেই নিজ নিজ অবস্থান থেকে নিজ নিজ যুক্তিতে সঠিক। তবে প্রশ্ন আসে 'ভালবাসা' কি? আর কেনই বা মানুষ ভালবাসার টানে 'চরিত্রহীন' হয়?
This book might be a revered creation a century ago when it was written, but today it is not at all relevant in any socio-political aspect. The first sign of a masterpiece is that it should not lose its relevance even after centuries. So I think this book lost a lot of point based on this criteria alone. Secondly the story, the character, the narration are all incoherent and jumbled up. A very poor book which had no impact on me while I was reading it (or after the moment I finished it). Another example of worthless Bengali crap being lauded as a Masterpiece much like Saurav Ganguly and Ravindra Nath Thakur.
শরৎচন্দ্র চট্টোপাধ্যায় এর লেখা এইটাই প্রথম পড়া আমার। তার লেখায় যে সাবলীলতা আছে, সাধারন জীবনে আছে তা চোখে পড়ার মতো। তবে শেষ নিয়ে আমার এইটু সংকোচ থেকে গেলো। হয়তো চরিত্র এবং ঘটনাগুলোর মধ্যে এতোটাই বিভোর হয়ে গিয়েছিলাম , আরো বেশি কিছু আশা করেছিলাম শেষটায়। তবুও প্রথম যেহেতু পড়লাম সেই হিসেবে অনেক ভালো লেগেছে। পড়ে আনন্দ পেয়েছি। চরিত্রগুলোকে যেভাবে ফুটিয়ে তুলেছিলেন তাদের মনোভাব বুঝতে তেমন কোনো বেগ পেতে হয়নি।
perhaps because the Hindi translation from bangla wasn't good, but the book seemed laborious. kiranmayee's character is difficult to understand and the long winded conversations do not help at all. the only characters I did like were that of satish and sarojini. glad they got married in the end