नीम का पेड़ – रही मासूम रजा “मैं अपनी तरफ से इस कहानी में कहानी भी नहीं जोड़ सकता था ! इसीलिए इस कहानी में आपको हदें भी दिखाई देंगी और सरहदें भी ! नफरतों की आग में मोहब्बत के छींट दिखाई देंगे ! सपने दिखाई देंगे तो उनका टूटना भी !... और इन सबके पीछे दिखाई देगी सियासत की काली स्याह दीवार ! हिंदुस्तान की आज़ादी को जिसने निगल लिया ! जिसने राज को कभी भी सु-राज नहीं होने दिया ! जिसे हम रोज झंडे और पहिए के पीछे ढूंढते रहे कि आखिर उनका निशान कहाँ हैं? गाँव मदरसा कुर्द और लछमनपुर कलां महज दो गाँव-भर नहीं हैं और अली जमीं खां और मुस्लिम मियां की अदावत बस दो खालाजाद भाइयों की अदावत नहीं है ! ये तो मुझे मुल्कों की अदावत की तरह दिखाई देती है, जिसमें कभी एक का पलड़ा झुकता दिखाई देता है तो कभी दूसरे का और जिसमें न कोई हारता है, न कोई जीतता है ! बस, बाकी रह जाता है नफरत का एक सिलसिला.... “मैं शुक्रगुजार हूँ उस नीम के पेड़ का जिसने मुल्क को टुकड़े होते हुए भी देखा और आजादी के सपनों को टूटे हुए भी देखा ! उसका दर्द बस इतना है कि वह इन सबके बीच मोहब्बत और सुकून की तलाश करता फिर रहा है !”
डॉ. राही मासूम रजा का जन्म १ अगस्त १९२७ को एक सम्पन्न एवं सुशिक्षित शिआ परिवार में हुआ। उनके पिता गाजीपुर की जिला कचहरी में वकालत करते थे। राही की प्रारम्भिक शिक्षा गाजीपुर में हुई और उच्च शिक्षा के लिये वे अलीगढ़ भेज दिये गए जहाँ उन्होंने १९६० में एम०ए० की उपाधि विशेष सम्मान के साथ प्राप्त की। १९६४ में उन्होंने अपने शोधप्रबन्ध “तिलिस्म-ए-होशरुबा” में चित्रित भारतीय जीवन का अध्ययन पर पी०एच०डी० की उपाधि प्राप्त की। तत्पश्चात् उन्होंने चार वर्षों तक अलीगढ़ विश्वविद्यालय में अध्यापन का कार्य भी किया।
अलीगढ़ में रहते हुए ही राही ने अपने भीतर साम्यवादी दृष्टिकोण का विकास कर लिया था और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के वे सदस्य भी हो गए थे। अपने व्यक्तित्व के इस निर्माण-काल में वे बड़े ही उत्साह से साम्यवादी सिद्धान्तों के द्वारा समाज के पिछड़ेपन को दूर करना चाहते थे और इसके लिए वे सक्रिय प्रयत्न भी करते रहे थे।
१९६८ से राही बम्बई में रहने लगे थे। वे अपनी साहित्यिक गतिविधियों के साथ-साथ फिल्मों के लिए भी लिखते थे जो उनकी जीविका का प्रश्न बन गया था। राही स्पष्टतावादी व्यक्ति थे और अपने धर्मनिरपेक्ष राष्ट्रीय दृष्टिकोण के कारण अत्यन्त लोकप्रिय हो गए थे। कलम के इस सिपाही का निधन १५ मार्च १९९२ को हुआ।
राही का कृतित्त्व विविधताओं भरा रहा है। राही ने १९४६ में लिखना आरंभ किया तथा उनका प्रथम उपन्यास मुहब्बत के सिवा १९५० में उर्दू में प्रकाशित हुआ। वे कवि भी थे और उनकी कविताएं ‘नया साल मौजे गुल में मौजे सबा', उर्दू में सर्वप्रथम १९५४ में प्रकाशित हुईं। उनकी कविताओं का प्रथम संग्रह ‘रक्स ए मैं उर्दू’ में प्रकाशित हुआ। परन्तु वे इसके पूर्व ही वे एक महाकाव्य अठारह सौ सत्तावन लिख चुके थे जो बाद में “छोटे आदमी की बड़ी कहानी” नाम से प्रकाशित हुई। उसी के बाद उनका बहुचर्चित उपन्यास “आधा गांव” १९६६ में प्रकाशित हुआ जिससे राही का नाम उच्चकोटि के उपन्यासकारों में लिया जाने लगा। यह उपन्यास उत्तर प्रदेश के एक नगर गाजीपुर से लगभग ग्यारह मील दूर बसे गांव गंगोली के शिक्षा समाज की कहानी कहता है। राही नें स्वयं अपने इस उपन्यास का उद्देश्य स्पष्ट करते हुए कहा है कि “वह उपन्यास वास्तव में मेरा एक सफर था। मैं गाजीपुर की तलाश में निकला हूं लेकिन पहले मैं अपनी गंगोली में ठहरूंगा। अगर गंगोली की हकीकत पकड़ में आ गयी तो मैं गाजीपुर का एपिक लिखने का साहस करूंगा”।
राही मासूम रजा का दूसरा उपन्यास “हिम्मत जौनपुरी” मार्च १९६९ में प्रकाशित हुआ। आधा गांव की तुलना में यह जीवन चरितात्मक उपन्यास बहुत ही छोटा है। हिम्मत जौनपुरी लेखक का बचपन का साथी था और लेखक का विचार है कि दोनों का जन्म एक ही दिन पहली अगस्त सन् सत्तईस को हुआ था।
उसी वर्ष राही का तीसरा उपन्यास “टोपी शुक्ला” प्रकाशित हुआ। इस राजनैतिक समस्या पर आधारित चरित प्रधान उपन्यास में भी उसी गांव के निवासी की जीवन गाथा पाई जाती है। राही इस उपन्यास के द्वारा यह बतलाते हैं कि सन् १९४७ में भारत-पाकिस्तान के विभाजन का ऐसा कुप्रभाव पड़ा कि अब हिन्दुओं और मुसलमानों को मिलकर रहना अत्यन्त कठिन हो गया।
सन् १९७० में प्रकाशित राही के चौथे उपन्यास “ओस की बूंद” का आधार भी वही हिन्दू-मुस्लिम समस्या है। इस उपन्यास में पाकिस्तान के बनने के बाद जो सांप्रदायिक दंगे हुए उन्हीं का जीता-जागता चित्रण एक मुसलमान परिवार की कथा द्वारा प्रस्तुत किया गया है।
सन् १९७३ में राही का पांचवा उपन्यास “दिल एक सादा कागज” प्रकाशित हुआ। इस उपन्यास के रचना-काल तक सांप्रदायिक दंगे कम हो चुके थे। पाकिस्तान के अस्तित्व को स्वीकार कर लिया गया था और भारत के हिन्दू तथा मुसलमान शान्तिपूर्वक जीवन बिताने लगे थे। इसलिए राही ने अपने उपन्यास का आधार बदल दिया। अब वे राजनैतिक समस्या प्रधान उपन्यासों को छोड़कर मूलतः सामाजिक विषयों की ओर उन्मुख हुए। इस उपन्यास में राही ने फिल्मी कहानीकारों के जीवन की गतिविधियों आशा-निराशाओं एवं सफलता-असफलता का वास्तविक एवं मार्मिक चित्रण प्रस्तुत किया है।
सन् १९७७ में प्रकाशित उपन्यास “सीन ७५” का विषय भी फिल्मी संसार से लिया गया है। इस सामाजिक उपन्यास में बम्बई महानगर के उस बहुरंगी जीवन को विविध कोणों से देखने और उभारने का प्रयत्न किया गया है जिसका एक प्रमुख अंग फिल्मी जीवन भी है। विशेषकर इस उपन्यास में फिल्मी जगत से सम्बद्ध व्यक्तियों के जीवन की असफलताओं एवं उनके दुखमय अन्त का सजीव चित्रण किया गया है।
सन् १९७८ में प्रकाशित राही मासूम रजा के सातवें उपन्यास “कटरा बी आर्जू” का आधार फिर से राजनैतिक समस्या हो गया है। इस उपन्यास के द्वारा लेखक यह बतलाना चाहते हैं कि इमरजेंसी के समय सरकारी अधिकारियों ने जनता को बहुत कष्ट
"मुंह की बात सुने हर कोई दिल के दर्द को जाने कौन" - निदा फ़ाज़ली
This book was adopted from the DD1 TV serial of same title. The title song was above Ghazal by Nida Fazli ji sung in the melodious voice of Jagjit Singh ji! Just a coincidence that I happened to read Jagjit Singh's biography in parallel to this without realizing this connection earlier :)
Loved everything about the book - meaningful and hard hitting plot, the usage of Awadhi, casteism and politics. Neem ka Ped is the central narrator of this story.
Very much recommended for classic Hindi literature.
नीम का पेड़ पढ़ते हुए आपको हिन्दुस्तान की उस राजनीति दांव –पेंच देखने को मिलते हैं, जो आजादी के बाद पैदा हुई| हमारी हिन्दुस्तानी सियासत कोई शतरंज की बिसात नहीं है कि आप मोहरों की अपनी कोई बंधी बंधी औकात हो| यहाँ तो प्यादे का व़जीर होना लाजमी है| व़जीर की तो कहते हैं औकात ही नहीं होती, केवल कीमत होती है| यूँ नीम का पेड़ सियासत और वजारत की कहानी नहीं होनी चाहिए थी, मगर हिन्दुस्तानी, खासकर गंगा- जमुनी दो-आब के पानी रंग ही कुछ ऐसा है सियासत की तो सुबह लोग दातून करते हैं| ऐसे में नीम के पेड़ की क्या बिसात, ये तो उस लोगों का कसूर है जो आते जाते उसे नीचे बतकही करते रहे होंगे| वर्ना तो जिस आँगन में उसने अपनी तमाम उम्र गुज़ारी वहां गुजरा तो गुजरा कुछ होगा|
नीम का पेड़ इस उपन्यास में शायद अकेला ऐसा शख्स है, जो आज के ज़माने में नहीं पहचाना जा सकता| रही मासूम रज़ा की यहीं मासूमियत रही कि उन्होंने एक पेड़ को सूत्रधार होने का मौका दिया| यहीं काम अगर उस कलई के उस पुराने लोटे बुधई के आंगन में पड़ा रहा करता होगा, तो आप पहचान जाते कि ये कौन है| उस लोटे और उसकी घिसी हुई पैंदी का जिक्र न करकर रज़ा साहब ने इस देश की सियासत के पालतू टट्टुओं के साथ न इंसाफी कर दी है| आदर्शवादी लोगों से अक्सर ऐसी गलतियाँ हो जातीं हैं|
ये कहानी उन दो पुराने रिश्तेदारों की है, जिनको जमींदारी के बैठे ठाले दिनों में सियासत खेलने का चस्का लगा होगा| जमींदारी जाती रही| जमींदारों और नबाबों को लगा कि बदल कर ओहदों का नाम बदलकर विधायकी और सांसदी में तब्दील हो गया है| हुआ दरअसल यूँ उलट कि विधायकी और सांसदी जमींदारी और नबाबी बन गई| बदलते वक़्त के साथ, नए प्यादे आते गए, वजारत बदलती रहीं और व़जीर बिकते रहे|
नीम के पेड़ की कहानी इतनी सरल है कि आप गौर भी नहीं करते कि सियासत में दांव खेल कौन रहा है| कहानी बदलते हिंदुस्तान की जमीन से उठती है| यह कहानी इन वादों का इशारा करती है जिनके बूते वोट खींच लिए जाते है| यह कहानी उस आदर्शवाद जिसके जीतने की हम उम्मीद करते हैं|
हिंदी साहित्य में राही मासूम रज़ा अपनी एक अल्हदा पहचान रखते है। उर्दू के शायर होने के साथ ही उन्होंने महाभारत के टीवी प्रसारण के लिए संवाद भी लिखे। नीम का पेड़ उनका हिंदी उपन्यास है जिसकी कहानी की शुरुआत भारत की आज़ादी से पहले होती है और जो भारतीय समाज को सामंतवाद से लोकतान्त्रिक परिवेश में ढलते हुए बाँचती है। कहानी एक नीम के पेड़ के नज़र से पेश की गयी है जिसे एक दलित ने बोया और सींचा है। कहानी के पात्र हमारे आस पास के से लगते है। कहानी की रफ़्तार समय के दायरे को मापने के लिए घटती बढ़ती रहती है। मगर इन सब के बीच में रज़ा साहब की शानदार लेखनी एवं कहानी बयां करने का अंदाज़, आपको बाँध के रखता है। हिंदी साहित्य प्रेमियों के लिए बेहतरीन किताब है। जिन्होंने हिंदी साहित्य की शुरुआत अभी ही की है, वह थोड़ा ठहर के पढ़े।
उपन्यास "नीम का पेड़" राही मासूम रज़ा द्वारा लिखित इसी नाम के धारावाहिक का रूपांतरण है। यह रूपांतरण प्रभात रंजन ने किया है।
कथावाचक एक नीम का पेड़ है, जो स्वतंत्रता से पूर्व एवं उसके पश्चात् सत्ता तथा शक्ति के खेल एवं खिलाड़ियों का वर्णन करता है। कहानी राजनीति के संसार की एक झलक दिखाती है, जिसका मायाजाल कुछ ऐसा है कि यह मनुष्य को आदर्श, मूल्य, नैतिकता, सब कुछ भुला कर ताक़त की लालसा के मद में अंधा कर देता है। कहानी अत्यंत सरल एवं भाषा बोधगम्य है। फ़ारसी से आये शब्दों का प्रचुर मात्रा में उपयोग किया गया है। आरम्भ में कहानी कुछ सुस्त और अनाकर्षक-सी लगती है, परन्तु धीरे-धीरे यह गति पकड़ती है। एक बार गति पकड़ने के बावजूद भी कहानी बहुत अधिक सरस नहीं हो पाती। जहाँ होती भी है, वहाँ रह नहीं पाती। राजनेताओं की मानसिकता का सुंदर चित्रण मिलता है। नाम बदलने वाली तदबीर से योगी जी याद हो आते हैं। बहुत संभव है योगी जी का प्रेरणास्रोत जीवन रहे हों। चरित्रों की भाषा और संवाद बहुत सुंदर और मनभावन लगते हैं। परंतु कई चरित्र कहानी पर बिना कुछ प्रभाव डाले लुप्त हो जाते हैं; या यूँ कहें कि उनकी कहानी अधूरी छोड़ दी गयी है। यह एक बहुत बड़ा नकारात्मक पहलू है। शहनाज़ बेगम की कहानी को तो काफ़ी दिलचस्प बना कर भी अंत से वंचित रखा गया, जैसे लेखक भूल गए हों कि यह क़िस्सा शुरू भी हुआ था। ज़ामिन मियाँ जैसा मुख्य पात्र भी कहानी के दूसरे हिस्से में चमक खो देता है। वर्तनी और विराम-चिह्नों की अशुद्धियाँ बहुत खटकती हैं। या तो आप देवनागरी में छापते समय "ख़", "क़", "ग़", "ज़" का उपयोग ही न करें, और यदि कर ही रहे हैं तो तनिक ध्यानपूर्वक करें। अनगिनत स्थानों पर "ज" को "ज़" और "ज़" को "ज" छापा गया है। यह पाठन के अनुभव पर नकारात्मक प्रभाव डालता है। 19 साल का सुखीराम 1965 में एम०एल०ए० का चुनाव कैसे लड़ लिया, यह समझ नहीं आया। कहानी में वर्णित अली नक़ी ख़ाँ दर्द कौन थे, यह भी अस्पष्ट है। नीम का पेड़ दरअसल जीवन में शांति और सुकून को दर्शाता है। बुधई ने नीम का पेड़ उसकी सुखदाई छाँव का आनंद लेने के लिए लगाया, किन्तु लोगों की राजनैतिक महत्वाकांक्षाओं ने कभी उसको यह सुख प्राप्त नहीं होने दिया। यही महत्वाकांक्षाएँ जीवन की शांति छीनकर उसमें विष घोल देती हैं। इसीलिये बुधई कहता है,"पेड़ बचाओ। नीम का पेड़ बचाओ। ख़ून दे के बचे तो बचाओ।"।
सिर्फ़ उपन्यास न होकर, यह एक इतिहास का आइना भी बन जाता है, ख़ासकर अपनी विश्वसनीय भाषा और जाति-आधारित सामाजिक ताने बाने के वर्णन से | दोआब के अशराफ़ (मुस्लिम सवर्णों) और बहुजन संघर्षो की भी छाया है, दलित-बेगारों के जीवन का मार्मिक चित्रण भी | कुछ एक घटनाएं कुछ अतिरेकता लिए हैं, पर एक ईमानदारी है किरदारों में जिस से आप ये दरकिनार भी कर देते हैं |
A small novel with a very interesting story, Neem ka Ped is set in Rural India. The story is filled with political ups & downs. With the narrator, humble Neem tree, it provides a literal birds eye view of the whole story. A story happens in the backdrop the transfer of power from Colonial India to Post-colonial India. How a zamindar – in Ali Zamin Khan ruled the roost in Colonial India. He had the power to alienate people from their lands. Budhiram was a tenant and loyal to his master. He even lied to the Court to help cover up the murder of Rambahadur Yadav, a rising political star who advocated for ending the Zamindari system. This is also the story of how Muslim Khan a sworn enemy of Ali Zamin Khan tried to bring him down even though they were brothers in law. Post independence, he became a minister and using his connections in the Judiciary and police and his own executive power, got Ali Zamin jailed for 14 years. When Ali Zamin khan came back to the village, things had changed. He lost his position of power in the village. Zamindars had been replaced by elected representatives. And we saw the rise of Budhiram’s son Sukhiram. He gained in political power and became an MP. He used his power to gain wealth. He was even involved with Kamlini, a woman who he got pregnant and murdered. It is this case and the case of him trying to kill Samin Khan, the son of Ali Jamin khan which enraged his father to the extent that he killed Sukhiram. Eventual killing of son by father under the Neem tree the father had planted – the irony in response to the reality that they might be estranged from the same house and tree due to intrigues between Ali Zamin and Muslim Khan. Budhiram was the only in the story who remained uncorrupted by power. He eventually killed his son in anger and hatred towards what his son had become. Everyone else in the story was playing the power game. Even the daughter in law of Muslim Khan, who was from another politically powerful family, got into the alliance because she saw a political opportunity in advising Muslim Khan in his political intrigues and eventually using the platform to launch her political career. A quick and wonderful read. I read that if devolution of power to the panchayats had happened in India, we might have seen a golden age of post-colonial India. People who say those things should read this novel. Reality hits hard. Power games would have continued. There was and is no panacea in achieving progress. It requires hard effort and a national resolve of people. Political players keep playing the politics to pursue their naked ambitions. The use of Awadhi Hindi by Budhiram is a delight. Goes to showcase that Hindi as a language is not at all uniform as is tried to be painted to be.
राही मासूम रजा द्वारा लिखी गई ये किताब आजादी के इर्द-गिर्द की कहानियों को समेटे हुए है।
एक नीम का पेड़ कहानी को लेखक से पाठक तक पंहुचाने का माध्यम बनता है। वो नीम का पेड़ जिसने सारे पात्रों को बड़े नजदीक से देखा, जिस उम्मीद से उसे लगाया गया था उसका विपरीत देखा।
राजनीती की वजह से सगों मे फूट देखी, मित्रों मे खून की प्यास देखी, छोटों का अभिमान देखा, बड़ो का अपमान देखा। नीम के पेड़ ने एक जगह अपने मन की बात कही है जो की काफ़ी हद तक यथार्थ है, नीम का पेड़ ये सब देखते हुए कहता है कि "मुझे लगता है कि सरकार चलाना आपसी रंजिश के अलावा और कुछ नही"।
राही जी दूरदर्शन पे प्रसारित 'महाभारत' धारावाहिक के पटकथा और संवाद लेखक रहे हैं। इससे आप एक उच्च कोटि के लेखन की उम्मीद रख सकते हैं। मैने भी इसी उम्मीद से पुस्तक उठाई थी और पुस्तक उम्मीद पे खरी उतरी।
ये सारी कहानी सियासत की ही है। एक व्यक्ति सियासत में क्या नही करता है। एक गरीब ने सपना देखा था अपने बेटे को बड़ा आदमी बनते देखने का लेकिन वो सपना वो नींव जो डाली थी वो ख्याली थी। जब गरीब आदमी खुद ही झूठ और सच के तले फंसा हुआ था तो कैसे वो अपने बच्चे को रोकता। उसका सपना था बच्चे को कामयाब बनते देखने का। ये कहानी है बुधई की जो इस पूरी सियासत में फंसा हुआ था। उसको क्या पता था कि लालच कितनी बुरी बात है। बस जो रह गया वो है सच सिर्फ सच की नीम का पेड़ छाव के लिए था और उसी के लिए रहेगा। पेड़ ने सबकुछ होते हुए देखा लेकिन बस बेचारा कुछ कर नहीं पाया। हुआ क्या की जिसने उसको लगाया आखिर में उसी ने उसके लिए लड़ाई करी वो सियासत की लड़ाई नही बल्कि आदर सम्मान की लड़ाई और सुख शांति की लड़ाई।
किरदार - मियाँ ज़ामिन ; मुसलिम मियाँ ; बुधई ; सुखई-सुखीराम ( बुधई का बेटा ) ; रामबहादुर यादव ; जिलेदार सिंह ; माँ कनीज़ फ़ातिमा ; अतहर हुसैन ( खान बहादुर साहब ) ; चन्द्रिका प्रसाद ( वकील ) ; रामलखन पांडे नए दारोगा ; सामिन मियाँ ( मियाँ ज़ामिन का बेटा ) ; जीवन ; ठाकुर अमरसिंह ; मेहंदी अली ; रणबहादुर ; शहनाज़ ; अच्छन
भूमिका - नीम का पेड़ की कहानी सियासत के गलियारों से होते हुए निकलती है और ताक़त, सत्ता, पैसा, रुत्बा पाने की जिद्द-ओ-जहद में आपसी रिश्तों के टूटने तक का सफ़र तय करती है।
इस किताब को पढ़ कर मेरे मन मस्तिष्क में एक द्वंद चल रहा है कि उस बाप पर क्या गुजरती है जिसका बेटा अपने हाथों से बाप के सपनों को उधेड़ देता है और उसके लगाये सबसे प्रिय पेड़ ( नीम के पेड़ ) को उससे अलग करने की साज़िश में लग जाता है। इस कहानी की शुरूआत होती है मियाँ ज़ामिन और मुसलिम मियाँ के बीच की दुश्मनी से। ज़मीन का मुद्दा दोनों को को एक दूसरे का दुश्मन बना देता है। रामबहादुर यादव की मौत के ज़िम्मेदार मियाँ ज़ामिन को देश के बँटवारे के बाद जेल की हवा खानी पड़ी, मुसलिम मियाँ पाकिस्तान नहीं लखनऊ के नामी नेता बन कर उभरे और बुधई द्वारा कोर्ट में पेशी के दिन उसका बयान भी बदलवा दिया जिस कारण मियाँ ज़ामिन के घर फाटक की रौनक चली गयी। बुधई कभी वापस नीम के पेड़ के छाव तले बैठने नहीं आये और अंत में उन्होंने वो कर दिया जिसकी कल्पना न सामिन मियाँ कर सकते थे, न पाठकगण और न इस कहानी को सुनाने वाला बल्कि उसे जीने वाला नीम का पेड़। ऐसा क्या कर बैठे थे बुधई यह जानने के लिए आप को ज़रूर पढ़ना चाहिए " नीम का पेड़ "।
इस पुस्तक की ख़ास बातें -
१ ) राही मासूम रज़ा के कहानियों की ताक़त उनकी भाषा शैली और उनके किरदारों की बेबाक़ी है। राही मासूम रज़ा ओस की बूंद की भूमिका में कहते हैं कि उन्हें साहित्य अकादमी का लोभ नहीं है। वे आगे कहते हैं कि " परन्तु मैं साहित्यकार हूँ। मेरे पात्र यदि गीता बोलेंगे तो मैं गीता के श्लोक लिखूँगा। और वे गालियाँ बकेंगे तो मैं अवश्य उनकी गालियाँ भी लिखूँगा। मैं कोई नाज़ी साहित्यकार नहीं हूँ कि अपने उपन्यास के शहरों पर अपना हुक्म चलाऊँ और हर पात्र को एक शब्दकोश थमाकर हुक्म दे दूँ कि जो एक शब्द भी अपनी तरफ़ से बोले तो गोली मार दूँगा " । राही मासूम रज़ा अपने किरदारों को हर तरह से परिवेश के अनुकूल ढालते हैं और पूरी कहानी को एक डोरी से बाँधे रहते हैं।
२) नीम का पेड़ पढ़ कर एक बात साफ़ हो जाती है कि सत्ता का अपना एक नशा होता है और उसे पा���े के लिए कोई भी किसी भी हद तक गिर सकता है। सत्ता में शामिल होने वाला हर एक प्राणी ख़ुद को सत्ता के रंग में ढाल लेता है और सच्चे, ईमानदार, कर्तव्यनिष्ठ और जनकल्याण के बारे में सोचने वाले लीडरों को काफ़ी संघर्ष करना पड़ता है। उनके इतने दुश्मन पैदा हो जाते हैं कि जान से हाथ धो बैठने की नौबत पैदा हो जाती है। हर कोई सामिन मियाँ जैसा भाग्यशाली नहीं होता है कि गोली से छलनी शरीर को पुनः जीवनदान मिल ��ाये।
३) भाषा और लहज़े का कितना महत्व है वो इस कहानी से साफ़ उजागर होता है। कहने को मुसलिम मियाँ डिप्टी मिनिस्टर थे और ग़रीबों पर उन्होंने भी कम ज़ुल्म नहीं ढाए थे, घाट-घाट का पानी उन्होंने भी पी रखा था परन्तु वे ज़मीदारी और सियासत के सारे तौर तरीकों से वाकिफ़ थे। अलीगढ़ के पढ़े हुए थे - अहदे ज़ुबान थे और समय के साथ चलना जानते थे। न जाने कितने लोगों पर कितने अत्याचार किये थे जिनमें बुधई भी शामिल था लेकिन बदनाम मियाँ ज़ामिन ज़ियादा थे जो दो टूक बातें किया करते थे और चिकनी चुपड़ी बातों में लोगों को फँसाते नहीं थे।
मगर कहानी जब अपने अंत पर आती है तो क्या विधाता न्याय नहीं करता ? सोच कर हैरान होता हूँ कि मुसलिम मियाँ का लड़का एक मनचला आशिक़, नौकरानियों के साथ सोने वाला, ड्रग्स करने वाला और अपनी ख़ुद की बीवी कर नज़रों में गिरा हुआ ज़लील इंसान बन कर उभरता है तो वहीं मियाँ ज़ामिन का बेटा सारे गाँव का चेहता बनता है, न जाने कितने ग़रीबों की दुआओं से उसकी झोली भरी होती है और अपने बाप की सभी ख़्वाहिश पूरी भी करता है। मुझे तो ऐसा लगता है कि मियाँ ज़ामिन सब कुछ हार कर भी अंत में सब कुछ जीत जाते हैं और मुसलिम मियाँ सब को जीत कर भी सब कुछ हार जाते हैं। ख़ैर इसका फ़ैसला आप बस पुस्तक पढ़ कर करिएगा।
४) इस कहानी की सबसे बड़ी उपलब्धि मेरी नज़र में यह है कि अंत तक कहानी एक ही धागे में कसी नज़र आती है। हर एक किरदार मोती समान कहानी को रोचक और सुंदर बनाता है तथा कहानी को उसके गंतव्य तक पहुँचाने में अहम भूमिका निभाता नज़र आता है।
५ ) किताब की यह पंक्तियां पढ़िए कि “कऊनो फरक नाहीं! ई रिश्वत के बहुत नाम है सुखीराम! कहूँ तोहफा है, कहीं नज़राना है, कहूँ परजेंट और हूँ बस यूँ ही ले आया!” जो आज के समय में प्रासंगिक तो हैं लेकिन सोचने पर मज़बूर कर देती हैं कि २०२३ के भारत में और १९४६ के भारत में यह बात एक सी क्यों है ? वक़्त बदला, समय बदला लेकिन आज भी कोई सुखीराम जैसा नेता किसी पर हत्या का आरोप हो तो चंद पैसों के लिए उसकी सजा माफ़ करवा देता है। आज भी किसी की बेटी पॉवर के लिए किसी अनजान मर्द से ब्याह दी जाती है जैसे शहनाज़ ब्याह दी गई थी अच्छन से। आज भी ईमानदार नेताओं पर गोली चला दी जाती है जैसे सामिन मियाँ पर गोली चला दी गयी थी। आज भी बेटे बाप के दुःख दर्द को नहीं समझते और उतने ही ख़ुदकर्ज़ होते हैं जैसे सुखई था। अगर आप का ज़मीर ज़िन्दा है तो नीम का पेड़ की कहानी आप को हमेशा सही रास्ते पर चलने की प्रेरणा देती रहेगी।
- I didn’t like this book a lot ( I guess because I have some bias, as I read *Godan* recently), it felt like I was reading 2nd copy of *Godan.* Author portrays a lot of characters but for this short novel individual character couldn’t develop properly and reader doesn’t get to feel each character in depth. It doesn’t show how a slave farmer’s son grew to become a MP and bought estate/belongings from Zamindar’s family. - The story seems very fast paced. Reader doesn’t get the time to properly feel and reflect on the events. The motive and emotions behind actions of characters aren’t explained very properly. It doesn’t show the qualifications of Budhiya’s and Zamin Miyan’s sons. How Sukhiram becomes MP - It feels like that story tries to explore a lot but could just touch topics at surface.
अगर गांधी के पास बिरला और बजाज के पैसे नही होते तो क्या, गांधी अपनी राजनीति कर पाते?
This is one of the more thought provoking statements I've read in recent times. Unfortunately nothing else comes close enough in the book. The book is a first person account of a नीम का पेड़ about its village and it's people. The narration is just superb, much like टोपी शक्ल the other novel I've read by the author. But the story itself, starts off quite well here too but some what fizzles out in the second half. The good thing is though it is a very small novel so once you start you can finish it up real quick. One thing is for sure Rahi Masoom Raza did know how to keep his readers hooked it shows even in this novel which I believe is not his best work. Very soon I intend to read आधा गांव which is probably considered to be his best work.
It's largely a story of three families and how politics plays a role in the fate of these three families. What came as a refreshing surprise for me in this slim book was the language of one of the characters, Budhaiye. Since the setting is Uttar Pradesh, one might assume he is speaking in Bhojpuri. But throughout the book, Budhaiye talks in Awadhi, spoken in the Awadh region, which is now roughly the surrounding areas of Lucknow. It was truly fascinating to find my language in literature. Read any book which was either written or had Awadhi in it? Do recommend.
Great story, full of complex ups and downs that take us through the intertwined characters of a humble but politically active region of post Independence India. Only reason I gave 4 stars and not 5 is the incidents in the story are not the most unheard of or spectacular! But that could be because i am reading it in 2023 and such political aberrations may be too commonplace in modern India. *sigh
"कहते - कहते बुधीराम हाँफने लगा और कठघरे में बैठ गया । उसे जो कहना था , उसने कह दिया था और अब आँखें बन्द किए ऊपरवाले से जल्दी फ़ैसला सुनाने की गुहार कर रहा था । निचली अदालत के फैसले में उसकी कोई दिलचस्पी बाकी ही नहीं रह गई थी ..."
A story if betrayal, shattered dreams and a fight between two brothers, narrated by a "Neem ka Ped".
When two people of equal power fight, nobody wins hands down, they only increase enmity between them.
यदि आपने टोपी शुक्ला पढ़ा है, तो आपको लग सकता है कि रज़ा साहब नीम का पेड़ लिखते समय अपने "एलिमेंट" में नहीं हैं। सुखई के सुखीराम बनने की यात्रा के विवरण की कमी खलती है। उसी प्रकार बुधई के बुधीराम बनने पर कुछ विवरण मिल जाता तो अच्छा होता। अधिकांश चरित्र कुछ हल्के, या खोखले–से प्रतीत होते हैं।
आजादी के बाद जमीदारों और उनके बीच वैमनस्य से एक की कहानी के पृष्ठभूमि पर होने वाली घटनाओं का वर्णन है कहानी का प्रभाव ठीक है टूटे रिश्ते बदलते सामाजिक संदर्भ को बयान करता नीम का पेड़
Another classic by Rahi Masoom Raza. There is an undertone of remorse, an elegy to the forgotten brotherhood (if there ever was) between the two major communities in Northern India which flew away like the dust in 1947. I'll read this again.
This book as more story and plot points than all modern hindi literature I read this year,Why it is harder to find good literature in hindi these days।