नौकर की कमीज -- नौकर की कमीज भारतीय जीवन के यथार्थ और आदमी की कशमकश को प्रस्तुत करनेवाला उपन्यास है। इस उपन्यास की सबसे बड़े खासियत यह है कि इसके पात्र मायावी नहीं बल्कि दुनियावी हैं, जिनमें कल्पना और यथार्थ के स्वर एकसाथ पिरोए हुए हैं। कहीं भी ऐसा नहीं लगता कि किसी पात्र को अनावश्यक रूप से महत्त्व दिया गया हो। हर पैरे और हर पात्र की अपनी महत्ता है। केन्द्रीय पात्र संतू बाबू एक ऐसा दुनियावी पात्र है जो घटनाओं को रचता नहीं बल्कि उनसे जूझने के लिए विवश है और साथ ही इस सोसाइटी के हाथों इस्तेमाल होने के लिए भी। आज की ‘ब्यूरोक्रेसी’ और अहसानफ़रामोश लोगों पर यह उपन्यास सीधा प्रहार ही नहीं करता बल्कि छोटे-छोटे वाक्यों के सहारे व्यंग्यात्मक शैली में एक माहौल भी तैयार करता चलता है। विनोद कुमार शुक्ल की सूक्ष्म निरीक्षण शक्ति का ही कमाल है कि पूरे उपन्यास को पढ़ने के बाद जिन्दगी के अनगिनत मार्मिक तथ्य दिमाग में तारीखवार दर्ज होते चले जाते हैं। उनके छोटे-छोटे वाक्यों में अनुभव और यथार्थ का पैनापन है, जिसकी मारक शक्ति केवल मिलमिलाहट ही पैदा नहीं करती बल्कि बहुत अन्दर तक भेदती चली जाती है।
Vinod Kumar Shukla (born 1 January 1937) is a modern Hindi writer known for his surreal style that often borders on magic-realism and sometimes move beyond it. His works include the novels Naukar ki Kameez and Deewar Mein Ek Khirkee Rahati Thi (A Window lived in a Wall), which won the Sahitya Akademi Award for the best Hindi work in 1999.
His first collection of poems Lagbhag Jai Hind was published in 1971. Vah Aadmi Chala Gaya Naya Garam Coat Pehankar Vichar Ki Tarah was his second collection of poems, published in 1981 by Sambhavna Prakashan. Naukar Ki Kameez (The Servant's Shirt) was his first novel, brought out in 1979 by the same publisher. Per Par Kamra (Room on the Tree), a collection of short stories, was brought out in 1988, and another collection of poems in 1992, Sab Kuch Hona Bacha Rahega.
Vinod Kumar Shukla was a guest littérateur at the Nirala Srijanpeeth in AGRA from 1994 to 1996 during which he wrote two novels Khilega To Dekhenge and the refreshing Deewar Mein Ek Khirkee Rahati Thi. The latter has been translated into English by Prof. Satti Khanna of Duke University as A Window Lived in a Wall.
Vinod Kumar Shukla is the most brilliant and imaginative writers of Hindi in this current generation whose writing so real and so imaginative that you can't stop yourself from falling in love with the world of his characters. The subtle humour running around in simple life scenarios with current situations is brilliantly shown in this book.
कहानी में कुछ भी अकल्पनीय नहीं महसूस होता जिसके कारण यह कृति खुद के साथ आपको भी यथार्थ के ठीक सामने ले जा कर खड़ा कर देती है। जिसकी भाषा में सरलता के साथ - साथ माधुर्य का बेहतरीन मिश्रण है। बाकी विनोद कुमार शुक्ल जी के कलम से बना हर शब्द पढ़ा ही जाना चाहिए।
इस उपन्यास की तारीफ़ में ऐसे तो कुछ भी कहना शायद कम हो, मगर तीन शब्द बेशक कहे जा सकते हैं―विनोद कुमार शुक्ल। विनोद कुमार शुक्ल यानी विकुशु। यथार्थवाद में जादू करते हैं, लिखते हैं। एकदम ही अलग, अनन्य शिल्प, सुंदर कहन और नज़र के साथ। उनके सूक्ष्म पर्यवेक्षण, बातों को कहने का विशिष्ट सादा तरीका और छोटे छोटे सुंदर वाक्य मोहक हैं। शुक्ल उन बातों को अपने बेतरह जुदा दृष्टि से बिना लाग लपेट के सामने रखते हैं, जो होते हमारे सामने हैं, मगर हम उन्हें देख नहीं पाते। कथानक को थोड़े शब्दों में बाँधें तो केंद्रीय पात्र संतू एक निम्न मध्यमवर्गीय नौकरीपेशा युवा है, जो नौकरी और जीवन के अनुभवों से दो चार होते हुए अपने चरित्र के नए और किंचित अजाने आयाम खोजता है। अपनी सीमित समझ की बदौलत जितना मैं इस कृति को समझ सका, उससे मुझे यही लगता है। जगह जगह इनके पात्रों के संवाद कविताओं-से लगते हैं। कहते हैं कि शुक्ल कहते हैं कि वे उपन्यास नहीं लिखते, कविता कहते हैं। किताब यह एहसास बार बार देगी। किताब में ख़ूब सुंदर वाक्य हैं, शुक्ल की तरह के। और तो क्या ही कहें, अपने ज़ेहन के पैकर पर ‘नौकर की कमीज़’ ओढ़ना, सुखद था, नए अनुभवों के सामने स्वयं का वितान फैलने देना था। शानदार किताब!
इसमें कहानी नहीं एक पूरा जीवन दर्शाया गया है। कई जगह यह किताब आपको बहुत हँसाती हैं तो कई जगह यह आपको गंभीर होने का पूरा अवसर देती है। जीवन के साधारण किरदारों को इस तरह लिखा गया है कि वो असाधारण से जान पड़ते हैं जैसे मुख्य पात्र संतू या मँहगू। लेकिन मुझे बड़े बाबू का किरदार अपने आप में एक अलग किरदार लगा। कुछ किरदार याद आते रहेंगे उनमें बड़े बाबू और मँहगू सबसे ऊपर है। साथ ही पति-पत्नी की बातचीत एक ऐसे रिश्ते की तस्वीर आपके सामने खींचती है जिसमें लगभग हर भाव मौजूद है। बहुत ही तरीके से लिखा गया है यह उपन्यास जिसे बार बार पढ़ने को जी करेगा क्योंकि किताब के एक भाग में जिस तरह लिखा है-
नौकर की कमीज़ भारतीय यथार्त का चित्रण करता है| नौकरी पेशा लोग कमाई के लिए जी हुजूरी करते हैं और शोषित होते हैं. इसमें थोड़ा सा जादुई यथार्त्वाद नज़र आता हैं भारतीय भाषाओ समेत इंग्लिश और फ़्रांसिसी भाषा में भी अनुवादित हो चूका है |
समाज के निचले तबके का, मामूली सी सरकारी नौकरी करने वाला एक आदमी अगर डायरी लिखता होगा तो उसकी डायरी में क्या होगा? वही रोज़मर्रा की तमाम बातें, छोटे बड़े रोटी कपड़ा मकान के संघर्षों के सिलसिले। नौकर की कमीज एक ऐसे ही व्यक्ति, संतू बाबू की डायरी है जो एक सरकारी दफ़्तर में बाबू है। इस दफ़्तर से लेकर संतू के चारों ओर तक समाज के विभिन्न वर्गों की ऊंची नीची सीढ़ियां हैं। संतू अपनी तंग ज़िन्दगी जीने में, निचली सतह से इन सारी सीढ़ियों को देखता है। वो सब कुछ देखता है जो रोज़ उसके इर्द गिर्द घटित होता है, इसके साथ साथ वो और भी बहुत सी विडंबनाएं देखता है जो शायद दूसरे लोग देखते हों या न भी देखते हों। नौकर की कमीज़ इस निहायत ही साधारण व्यक्ति और उसके जीवन की एक निहायत ही साधारण कहानी है। लेकिन इसी साधारण कहानी में जीवन की सबसे कठिन गूढ़ता भी है।
इस कहानी में लगभग वो सभी पात्र हैं जो एक पूरे मध्यम वर्ग के समाज का प्रतिनिधित्व करते हैं। संतू की बीवी जो एक बहुत साधारण, भोली औरत है, उसका जीवन, किराये के मकान की छतों से टपकते पानी को इकठ्ठा करने, एक संदूक में अपनी ज़रूरत की चीज़ों के साथ कुछ रूपये बचाकर रखने, चौके की साड़ी को आने जाने की साड़ी से अलग रखने तक ही सीमित है। उसकी ये सीमित दुनिया भी अपने आप में बहुत सुन्दर, सुखदायी और भरपूर है। संतू के अपने मोहल्ले में कुछ दोस्त हैं, दफ़्तर में कुछ सहकर्मीं और साहब हैं। आस पास कुछ नौकर भी हैं जो उसके नहीं हैं। या फ़िर वो कुछ हद तक ख़ुद भी थोड़ा थोड़ा कई लोगों का नौकर है?
इस किताब की ख़ासियत संतू और उसके आस पास के पात्रों के निजी संसार में पाठकों को मिलने वाले प्रवेश में है। कभी ये पात्र दफ़्तर से घर जाने के रास्ते में, नुक्कड़ का मूंगफली वाला तो कभी दफ़्तर के बड़े साहब हैं। विनोद कुमार शुक्ल, संतू के मन को इतनी भली भांति पहचानते हैं कि उसमें उसके जीवन के छोटे दायरों में सीमित रहते हुए भी, आने वाले विचारों, अटपटी कल्पनाओं और हर सूक्ष्म और वृहद् सवालों को उन्होंने हूबहू इस किताब में उतार कर रख दिया है। ये सरल और कठिन विचार, कल्पनाएं, अनवरत प्रश्न कभी कभी बहुत अजीब लग सकते हैं लेकिन इनकी वास्तविकता से दूरी बहुत कम है।
अगर आप भी मेरी तरह एक छोटे कस्बे या नगर से ताल्लुक रखते हैं और आपका भी बचपन या जीवन का कोई भी हिस्सा सरकारी नौकरी करने वाले परिवार के सदस्य के साथ गुज़रा है तो ये किताब अलग अलग स्तरों में आपको अपनी ही कहानी लगेगी जो आपको हंसाएगी, कभी कठिन लगेगी तो कभी विचलित कर देगी।
एक विचलित करने वाली कहानी । एक छोटे से गरीब घर में एक दंपति कैसे अपना गुजर बसर करने के साथ साथ आपसी प्यार , भरोसे और अपने आत्मस्मान को बनाए रखते है , विनोद कुमार जी ने बहुत सीधे सरल तरीके से किताब में उतारा है। ये कहानी रोचक या चटपटी नहीं है। एक सीधे साधे घर की आप बीती हैंजो महीने की तनख्वाह पर अपनी गृहस्ती को खींचते है।
Incredibly hard to classify, this book falls into no mould or style of book. It is the banal story of a newly employed and married government clerk from a poor socioeconomic background. Despite being a graduate, this cantankerous but helpless individual is exploited by his superior officer and treated as a domestic servant. Similarly, as the couple struggle with their hand-to-mouth existence, his subservient and despairing wife too is exploited by her rich landlady. Yet the characters stay on inthe reader's memory. Although the mystical element of Divara Mem Eka Khiraki Rahati Thi and Once It Flowers is missing, the "real realism" (to coin a phrase) is more bitter than the magic realism the author commonly employs – a leaky roof, rations on credit, a fractured arm, fever and delirium, etc. There are echoes of Divara Mem Eka Khiraki Rahati ThiWindow – the newly married couple, a doting mother, low paid job, an understanding boss, daily commute to work etc. The language is simple and the conversation about mundane subjects, straying occasionally into the philosophical realm.
نوکر کی قمیض، ونود کمار کا لکھا ہوا ایک ایسا ناول ہے جو بظاہر معمولی زندگی کی داستان معلوم ہوتا ہے، لیکن اپنے اندر گہرے مشاہدات، جذبات لیے ہوئے ہے۔ یہ ناول نہ صرف ہندوستانی متوسط طبقے کی عکاسی کرتا ہے بلکہ انسانی احساسات اور زندگی کی کشمکش کو انتہائی نفاست اور سادگی سے بیان کرتا ہے۔
مرکزی کردار، سنتو بابو، ایک معمولی سرکاری ملازم ہے جو اپنی بیوی کے ساتھ کرائے کے ایک چھوٹے سے مکان میں رہتا ہے۔ ان کی زندگی کی چھوٹی چھوٹی پریشانیاں، مثلاً ٹپکتی چھت، قسطوں پر راشن، دفتر میں افسران کی جھڑکیاں، اور ایک محدود آمدنی کے ساتھ گزر بسر۔
ونود کمار کا اندازِ تحریر منفرد اور عمدہ ہے۔ ان کی زبان سادہ لیکن پراثر ہے۔ جملے چھوٹے مگر بامعنی ہیں۔ ہندی سے اردو ترجمہ عامر انصاری اور اجمل کمال صاحب نے کیا ہے۔ مجھے بہت پسند آیا ہے۔
یہ کہانی صرف ایک شخص یا ایک خاندان کی نہیں، بلکہ ہندوستانی سماج کے ایک پورے طبقے کی نمائندگی کرتی ہے۔ اس میں شوہر اور بیوی کے درمیان محبت، قربانی، صبر، اور خاموش سمجھوتے کی خوبصورتی جھلکتی ہے۔ اس کے ساتھ دفتری معاملات، سفید پوش طبقے کے مسائل اور زندگی کا فلسفہ بہت عمدہ طریقے بیان کیا ہے۔ یہ ناول نہ تو سنسنی خیز ہے، نہ ہی تیز رفتاری سےواقعات بدلتے ہیں، مگر پھر بھی آپ اس کو پڑھتے چلے جائیں گے۔
اگر آپ نے کبھی ایک چھوٹے شہر یا متوسط طبقے کے ماحول میں زندگی گزاری ہے، یا کسی سرکاری ملازم کو قریب سے دیکھا ہے، تو یہ ناول آپ کو ضرور پسند آئے گا۔ اس ناول کو پڑھ کے آپ یہ کہہ سکتے ہیں کہ زندگی میں کامیابی صرف بڑے کارناموں سے نہیں، بلکہ چھوٹی چھوٹی سادہ جدوجہد سے ممکن ہے۔
नौकर की कमीज़ बहुत ही अलग सी कहानी है। आम परिवेश में सिमटी ये कहानी कभी एक व्यंग्य मालूम पड़ती है और कभी यथार्थ। इस कहानी के मुख्य किरदार संतू बाबू और उनकी पत्नी हैं, जिनके जीवन की छोटी–छोटी बातें जो कई लोगों से मिलती जुलती होंगी। इस किताब में कुछ खास नहीं है, पर विनोद कुमार शुक्ल अपने लेखन से इसे खास बना देते हैं, इतना कि आपको एक सामान्य जीवन के रोजमर्रा की बातों में कुछ नजर आ जाए। कहानी का शीर्षक नौकर की कमीज़ एक कटाक्ष है जो बहुत खूबसूरती से दर्शाया गया है। नौकर की कमीज़ दफ़्तर के परिप्रेक्ष्य में एक ऐसे कर्मचारी के लिए सटीक है जो अपने वरिष्ठ अधिकारी के द्वारा नौकरशाही का शिकार है। हालांकि ये किताब सर्वसंपन्न तो नहीं है, बहुत ही धीमी कहानी जो आप बिलकुल धैर्य के साथ पढ़ पाएंगे और अंत भी बिलकुल साधारण, मानो कुछ घटा ही न हो।
कुछ शब्दों में कहना हो तो यह एक सामान्य जीवन का निरूपण है जो कई मुश्किलों से घिरी है, मुख्यतः नौकरशाही से। "दीवार में एक खिड़की रहती थी" के बाद ये मेरी पढ़ी विनोद कुमार शुक्ल जी की दूसरी किताब थी, जिसने मुझे उनके लेखन से परिचित और प्रभावित किया है। अगर Goodreads पर अर्धांक होते तो मैं इसे 3.5 देता पर चूंकि नहीं है, इसलिए 4।
Novel portrays pschyce of lower middle class educated youths with their frustrations in the system creating new kind of slavery annihilating conscience and subdued expression of revolt against hypocratic system. This psyche is not typical for any nation like India or Pakistan but for the entire humanity related to the class creating an urge for correction of the system laden with corruption and hypocrisy. Excellent wanted to givee 5 stars but gave 4 as there is unlimited scope for the best which are rare.
सीधी सी सफेद हल्के कपड़े की नौकर की कमीज। कोई अपनी इच्छा से तो इससे पहनना नहीं चाहेगा। विनोद कुमार शुक्ल का ये उपनायास इसी नौकर की कमीज पर आधारित है। कैसे एक गरीब तबके का इंसान अपने सीनियर या बॉस को खुश रखने के लिए अपने आत्मसमान को दबा कर वो हर काम करता है जो उससे कहा जाता है। इन सब के बीच में दुकानदार से उधारी, पत्नी को एक बार बाजार घूमना , महंगाई से लड़ना और अपने छोटे घर को मुसीबतों से बचाना। ये सब उसके हिस्से में आता है। लेकिन इन्ही सब एक बीच कोमल से सीधे रिश्ते भी है जिन्हे वो संजो के रखता है। इस किताब को फिल्म में भी उतारा गया है।
An excellent commentary on the exploitative situation between upper and lower middle class. Overall the book is nice, but I felt like it goes a little vague in between and it becomes difficult to relate each part to one another (although some of them start to make sense in the end). A must-read nevertheless.
आशा की कमी नहीं है. सुनो, एक आदमी हमेशा लड़ता रहा और हमेशा हरता रहा. आखिरी बार हारकर जब वह मरने लगा तो लोगों ने उससे पूछा,'अब तो तुम मर रहे हो, कम-से-कम एक बार तो जीत जाते. हम लोगों को दुख है कि अब तुमसे लड़ाई नहीं होगी. तुम्हें कितनी बार हारना है, इसकी गिनती आज पूरी हो चुकी है.'
जिंदगी की कश्मकश की कहानी जो बड़े मौलिक रूप से प्रस्तुत की गई है । हिंदी के साथ आंचलिक भाषा का समावेश कहानी में जान सी फूंक देती है। मर्मस्पर्शी और मजेदार कहानी।
My first Hindi book (considering Mom’s 12!) but even after being arrested by the opening lines of this novel couldn’t get into it prolly a lot because of not ever reading in Hindi.. so there goes my Hindi novel reading.. bye, Tata, goodbye..
A story told from the point of view of Santu, a lower middle class salaried employee in which the tough realities of life have been beautifully depicted with simple words.
विनोद कुमार शुक्ला- इनके नाम का ज़िक्र अकसर मानव कौल की किताबों में मिलता हैं। तो मेरी विकुशु से मुलाक़ात कौल साहिब की किताबों से हुई। . . नौकर की क़मीज़- ये कहानी हैं संतु बाबू की जो की एक आम पात्र है। सरकारी दफ़्तर मैं एक छोटी सी नौकरी करते हैं। एक सामान्य सा आदमी जो हर गली कोने के नुक्कड़ पे मिल जाएगा। ये कहानी यथारवाद के बहुत करीब महसूस करवाती हैं। संतु और उसकी पत्नी को जिस तरह बड़े साहब और डाक्टरनी एक नौकर के जैसा महसूस करवाते हैं उससे लगता है कि बड़े लोग एक एहसान करके उसका कितना मोल ले लेते हैं। अपना नौकर ही समझ लेते हैं। बंगले की चाय और गुन लगा काजू मध्यमवर्ग की बेबसी को दर्शाता हैं। . . विकुशु की लेखन कला की तो मैं क्या तारीफ़ करूँ…..उसके लिए मैं अपने आप को बहुत छोटा समझती हूँ।