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काशी का अस्सी

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काशी का अस्सी कहानियों और संस्मरणों के चर्चित कथाकार काशीनाथ सिंह का नया उपन्यास है % काशी का अस्सी । जिन्दगी और जिन्दादिली से भरा एक अलग किस्म का उपन्यास । उपन्यास के परम्परित मान्य ढाँचों के आगे प्रश्नचिह्न । पिछले दस वर्षों से ‘अस्सी’ काशीनाथ की भी पहचान रहा है और बनारस की भी । जब इस उपन्यास के कुछ अंश ‘कथा रिपोर्ताज’ के नाम से पत्रिकाओं में छपे थे तो पाठकों और लेखकों में हलचल–सी हुई थी । छोटे शहरों और कस्बों में उन अंक विशेषों के लिए जैसे लूट–सी मची थी, फोटोस्टेट तक हुए थे, स्वयं पात्रों ने बावेला मचाए थे और मारपीट से लेकर कोर्ट–कचहरी की धमकियाँ तक दी थीं । अब वह मुकम्मल उपन्यास आपके सामने है जिसमें पाँच कथाएँ हैं और उन सभी कथाओं का केन्द्र भी अस्सी है । हर कथा में स्थान भी वही, पात्र भी वे हीµअपने असली और वास्तविक नामों के साथ, अपनी बोली–बानी और लहजों के साथ । हर राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय मुद्दे पर इन पात्रों की बेमुरव्वत और लट्ठमार टिप्पणियाँ काशी की उस देशज और लोकपरंपरा की याद दिलाती हैं जिसके वारिस कबीर और भारतेन्दु थे . उपन्यास की भाषा उसकी जान हैµभदेसपन और व्यंग्य– विनोद में सराबोर । साहित्य की ‘मधुर मनोहर अतीव सुंदर’ वाणी शायद कहीं दिख जाय . सब मिलाकर काशीनाथ की नज“र में ‘अस्सी’ पिछले दस वर्षों से भारतीय समाज में पक रही राजनीतिक–सांस्कृतिक खिचड़ी की पहचान के लिए चावल का एक दाना भर है, बस|

172 pages, Hardcover

First published February 15, 2004

457 people are currently reading
3138 people want to read

About the author

Kashinath Singh

27 books73 followers
Kashinath Singh, winner of the highly prestigious Sahitya Akademi award for Hindi literature is particularly known for his novel "Kashi Ka Assi"

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66 (6%)
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32 (2%)
Displaying 1 - 30 of 90 reviews
Profile Image for Nishant.
55 reviews33 followers
October 13, 2013
काशीनाथ सिंह का उपन्यास 'काशी का अस्सी' काशी का चित्रण नहीं है बल्कि इसे पढ़ना ऐसा है कि जैसे काशी को जी रहे हों | मैं अभी तक अस्सी गया तो नहीं हूँ लेकिन ऐसा लगता है कि एक औपन्यासिक यात्रा कर आया | इस उपन्यास की ख़ासियत इसकी भाषा है जो ठेठ बनारसी से थोड़ी भी अलग नहीं रखी गयी है| काशी जी ने बनारस की फुरसतिया संस्कृति में विशुद्ध गालियों की जो परंपरा है उसे भी बिलकुल नहीं बदला है जो इस उपन्यास को काशी की पृष्ठभूमि पर लिखे गए बाकी हिंदी या गैर हिन्दी उपन्यासों से अलग रखता है |

जैसा काशीनाथ जी प्रारंभ में ही लिख देते हैं-
" ये संस्मरण वयस्कों के लिए है, बच्चों और बूढों के लिए नहीं |... जो भाषा में गन्दगी, गाली, अश्लीलता, और न जाने क्या-क्या देखते हैं .... , वे कृपया इसे पढ़कर अपना दिल न दुखाएं "

व्यंग्य बड़े सारगर्भित हैं और चूँकि अस्सी की भाषा में ही हैं इसलिए बड़े सटीक भी बैठते हैं या कहा जाये तो बड़े जीवित लगते हैं| नुक्कड़ पर चाय पीते हुए हमारी ख़ालिस राजनीतिक चर्चाएं ( जो बड़े ही यथार्थ रूप में इस उपन्यास में पूरे कथानक के दौरान उपस्थित भी रहती हैं ) मुद्दों को जिस विशिष्ट शैली में समीक्षित करती हैं उसका ही उदहारण इस उपन्यास में देखिये -

" आप खामखाह में गलियाँ दे रहे हैं इन्हें|" कांग्रेसी वीरेंदर बोले ,"इसके लिए भाजपा को कोई दोष नहीं दे सकता! देश उसके एजेंडे में था ही नहीं| उसके एजेंडे पर था राष्ट्रीय स्वाभिमान और गो-संरक्षण! देश भोंसड़ी के रसातल में जाता है तो जाये , ये अयोध्या और पोखरण जायेंगे!"

"हम न अयोध्या जायेंगे, न पोखरण: अब हम रोम और इटली जायेंगे ....."राधेश्याम दूसरे कोने से चिल्लाये|

"और क्या कर सकते हो तुम लोग ? जब से राजस्थान, दिल्ली, मध्यप्रदेश,और मणिपुर में जनता ने डंडा किया है तब से दो फाड़ हो गयी है तुम्हारी !.. .. अयोध्या ने किसी तरह प्रधानमंत्री दे दिया और अब ऐसा मुद्दा हो जो बहुमत की सरकार दे दे |देश का कबाड़ा हो जाये लेकिन तुम्हे सरकार जरुर मिले| डूब मरो गड़ही में सालों!" हिकारत से वीरेंदर ने बेंच के पीछे थूका और रामवचन की ओर मुखातिब हुए - " पांडे जी, आपको बताने की जरुरत नहीं है कि 6 दिसम्बर की अयोध्या की घटना कि क्या देन है? जो मुसलमान नहीं थे या कम थे या जिन्हें अपने मुसलमान होने का बोध नहीं था, वे मुसलमान हो गए रातोंरात | रातोंरात चंदा करके सारी मस्जिदों का जीर्णोद्धार शुरू कर दिया| देश की सारी मस्जिदों पर लाउडस्पीकर लग गये | मामूली से मामूली टुटही मस्जिद पर भी लाउडस्पीकर लग गया| जिस मस्जिद में कभी नमाज नहीं पढ़ी जाती थी, उससे भोर और रात में अजान सुनाई देने लगी| जो नमाज में नियमित नहीं थे, नियमित हो गये| और सुनियेगा ? गाजीपुर , बक्सर आजमगढ़ -अरे आप तो उधर के ही हैं, सब जानते हैं- इस पूरे इलाके में हिन्दू से मुसलमान हुए लोगो कि कितनी बड़ी तादाद है |.... ....मस्जिद खड़ी करने में तो समय लगता है, यहाँ तो एक ईंट या पत्थर फेंका, गेरू या सेनुर पोता,फूल-पट्टी चढ़ाया और माथा टेक दिया-'जै बजरंगबली!' और दिन दहाड़े दो आदमी ढोलक-झाल लेके बैठ गए- अखंड हरिकीर्तन| भगवान धरती फोड़कर प्रगट भये हैं ,अब सर्कार चाहे भी तो झांट नहीं उखड सकती !समझा? अयोध्या का फायदा यह हुआ कि चंदौली और कछवा के बीच जी.टी.रोड के किनारे किनारे सैकड़ो एकड़ जमीन कब्जिया लिया तुम लोगों ने सेनुर पोत-पोतकर !... और एक फायदा हुआ है - नगर के हर गली-मोहल्ले में दो-दो चार-चार व्यास और मानस-मर्मज्ञ पैदा हो गए हैं भोंसड़ी के |जिन जजमनिया निठल्लों को कल तक पड़ने का भी सहूर नहीं था, वे घूम घूम कर रामकथा कह रहे हैं और एक एक दिन के पच्चीस पच्चीस हजार लूट रहे हैं | ...."

चूँकि ये काशीनाथ सिंह का संस्मरण है इसलिए उन्हें चरित्र निर्धारित करने में कोई समस्या नहीं हुई होगी और ये दीखता भी है | जैसे गया सिंह; बडबोले और अधीर इंसान के रूप में ये कथन देखिये -

" बबवा का जवाब नहीं है राजकिशोर गुरु! लिखा 'रामचरितमानस' और स्थापित किया हनुमान को ...राम को कौन पूछता है 'विश्वहिंदु परिषद' और अशोक सिंघल के सिवा ? कितने मंदिर हैं राम-जानकी के ? .. और हनुमान को देखो- हर मंगलवार ! हर शनिवार ! .. जबकि देखो, तो हनुमान कवी की कल्पना और अनुभव के सिवा कुछ नहीं है| ... सोचो तो एक कवी की कल्पना क्या हो सकती है ? ... इंसान को भगवान तो कोई भी बना सकता है लेकिन जिस बानर को इंसान बनने में अरबों-खरबों साल लगें उसे बबवा ने सीधे भगवान बना दिया |.. "

'कौन ठगवा नगरिया लूटल हो' इस भाग में पाठक का सामना कई बड़े ही जोरदार व्यंग्य से होता है - बेहद चुटीले, बेहद गूढ़ | एक उदाहरण -

" इंजीनियर? डॉक्टर ? ये तो बीते दिनों की बातें हैं | कलेक्टर ? ठीक लेकिन रिजर्वेशन ने साडी दिलचस्पी ख़तम कर दी है | चाहो तो एक दो चांस देख सकते हो लेकिन मल्टीनेशनल | इसकी बात ही कुछ और है | आज हांगकांग ,परसों न्यूयॉर्क नर्सों पेरिस ... मगर बीटा ये गुल्ली-डंडा नहीं जलेबी दौड़ है - तुम्हारे साथ दौड़ने वाले हजारों-लाखों में नहीं, करोड़ों में हैं| इसलिए दौड़ो, जान लड़ा दो| कुछ करके दिखाओ| शाब्बाश! और होमवर्क के बोझ के नीचे चाँप दो इतना कि कें कें करने का भी मौका न मिले| "

कथानक अंत तक आते आते बहुत-सी बातें स्पष्ट कर चुका रहता है लेकिन सबसे अंत में आकर जो सबसे बड़ी बात स्पष्ट होती है वो ये कि अस्सी,यानि 'काशी का अस्सी' जो कभी काशीनाथ सिंह का अस्सी था वो अब आधुनिक काशी शहर का अस्सी बन चुका है |भूमंडलीकरण का जो गहरा असर सांस्कृतिक बनारस पर पड़ा उससे हमारे साक्षात्कार की यात्रा इस निर्गुण के साथ लक्ष्य प्राप्त करती है-

एक दिन जाना होगा जरुर |
लछिमन राम अमर जो होते,होते हाल जरुर |
कुम्भकरण रावन बाद जोधा, कहत हेट हम सूर |
अर्जुन सा छत्री नहीं जग में, करण दान भरपूर |
भीम जुधिष्ठिर पांचों पांडों मिल गये माटी धूर |
धरती पवन अकासो जैहैं जैहें चंदा सूर|
कहत कबीर भजन कब करिहों ठाढ़ा काल हजूर |
एक दिन जाना होगा जरुर |
Profile Image for Samarth Shandilya.
3 reviews28 followers
May 17, 2018
सबसे खूबसूरत भाषा वो होती है जो रोज़ बोल चाल में इस्तेमाल हो। यही भाषा का मानवीय रूप होता है। काशीनाथ सिंह ने इसी भाषा को उठाया है और लिख डाला है। इस भाषा के साथ है बनारस खासकर अस्सी। वो बनारस जो भारतीय संस्कृति की गंगोत्री है, माई-बाप है। वो बनारस जिसकी फ़ितरत आज़ादी, मौज और बेफिक्री है।

ये किताब बनारस की संस्कृति और समय के साथ होते उसके बदलाव के बारे में है। अस्सी किताब का हीरो है और ग्लोबलाइजेशन विलन जिससे अस्सी बचना चाहता है। जीत ग्लोबलाइजेशन की होती है लेकिन अस्सी हारता नहीं है।

90 के दौर की राजनीति और भारत को जानने के लिए शायद ही इससे बेहतर और मज़ेदार किताब कोई और हो। बहुत समय बाद कुछ ऐसा पढ़ा है जिसे पढ़ कर लोटपोट हो गया हूँ।
Profile Image for Gorab.
843 reviews153 followers
July 28, 2016
Deserves a re-read. After a good beginning, was disappointed by too much of political talks. Moreover there was no continuity whatsoever. Its a collection of 5 stories, each story in itself filled with loads of random thoughts and conversations.

Let go of continuity and plot, and started reading like I was standing on crossroads of Assi Ghaat, observing and interacting with its people. And that's where the book does full justice. It takes you to Kashi ka Assi :)
Profile Image for Aakash saini.
89 reviews4 followers
October 9, 2021
Lagta hai abhi assi ghat ghum ke aae hai, aachi kitab hai kuch galiyan or manoranjan se. Bharpur hai
Profile Image for Shivakukatla.
666 reviews6 followers
January 28, 2022
उतना मज़ा नहीं आया इसे पढ़ने मैं मुझे .
_
I don't know it didn't vibe with me that much.
85 reviews
May 12, 2022
Very bad taste

Worst book I have read so far. Total waste of time, could not complete after reading 1/3rd. Vulgar language and disrespectful for human dignity.
Profile Image for Madhulika Liddle.
Author 22 books543 followers
August 15, 2023
The southmost of Varanasi’s many ghats, Assi Ghat is the focus of Kashinath Singh’s Kashi ka Assi. While a work of fiction, this is really not a single story (though the chapters feature the same group of characters, nearly all of them men who frequent the tea shops and other addas of Assi Ghat). The ‘action’, so to say, spans about a decade, from the implementation of the Mandal Commission to the era of mobile phones: a series of vignettes that mostly revolve around conversations between these men.

Politics is an important aspect of all of this, and in fact dominates the first two-thirds of the book. Politics, caste, religion: these form the topics of many conversations, and even when the conversations drift into other realms, like philosophy, or domestic life, the generation gap, or education, it all invariably circles round and comes back to politics and its effect on social life. The last one-third of the book moves away somewhat from politics and more towards a satirical look at the hypocrisy of modern life, and the way globalization has reduced most of us to soulless, ambitious automatons.

I must admit I found some of this, especially in the beginning, a little difficult to get in to. At times, the politics got too heavy for me (in particular, the caste politics). But Singh’s sharp eye and sharp wit, his ability to say things out loud, is superb. His metaphors and similes are always on point, and there’s an earthy wisdom in the voices of his characters that makes them come vividly alive.

This, for instance:

Kashinath Singh’s ‘Kashi ka Assi’

You do need to be somewhat clued into Indian politics at the turn of the century to truly understand Kashi ka Assi, I think, but even without that, this book is a memorable tribute to not just Assi, but to Kashi as a whole, its people and their ethos.
Profile Image for प्रिया वर्मा.
37 reviews1 follower
January 22, 2019
इसे दोबारा पढूँगी... काशी का अस्सी उपन्यास नहीं एक व्यंग्यात्मक शैली में लिखा कथात्मक वार्तालाप है, जिसमें कथा के नाम पर पान के खोखों और चाय की टपरियों पर सुबह शाम जमने वाला बुद्धिजीवी वर्ग आपस मे बतियाता दिखता है।
जो नाम हैं, वे वास्तविक साहित्यकारों के हैं। राजनीति पर हर आम शख्स की पैनी पकड़ है और हर एक के अपने अपने स्वार्थ। ऐसे छुटभैये गली मोहल्ले के नेताओं की बातचीत के माध्यम से काशीनाथ जी ने कई जगह व्यवहार की सीख दी है। डायरी में लिखकर सहेजने योग्य

"प्यारेलाल! अपनी भी ज़िन्दगी जियो, औरों की ही नहीं." ये लाइन पहली कहानी से उठाई मैंने। बहुत पसन्द आई है।
किताब चाय की टपरी से पान की दुकान फिर पान की दुकान से चाय की टपरी के बीच इक्कादुक्का इधर उधर के दृश्यों का प्रसंग लेकर चलती है।
हास्य बोध के लिए जो भरमार में गालियाँ लिखीं हैं, वे अपने उद्देश्य में सफलतापूर्वक बेन्धती हुई कहानी को रसपूर्ण बनाती हैं।
धर्म और संस्कृति के बंधे बन्धाए पताका के सहारे अपनी आजीविका को बेहतर बनाने के लिए प्रयत्नशील मल्लाहों, पण्डों और पुरोहितों की यथास्थिति बयानगी पढ़ने मिलती है... जो आस्था का मख़ौल उड़ाती ठगन्त विद्या बनाती है
जिन्हें देश की राजनीति में रुचि हो उनके लिए ये मस्ट रीड है, बाकी मुझे बहुत पसंद न आने का कारण भाषाई स्तर से न जुड़ना रहा ।
फिर भी एक बार और पढूँगी कभी।
इसके सटीक व्यंग्यों और सूक्ष्मातिसूक्ष्म राजनैतिक विचारकर्म पर पकड़ के कारण।
Profile Image for Amit.
79 reviews1 follower
June 3, 2023
जब बात बनारस की हो रही हो और हसीं मजाक, ठहाके, बकैती और बकचोदि न हो तो, तो काहे का नॉवेल। "काशी का अस्सी", वास्तव में बनारस और बनारसियों के "swag" को बयां करती एक उत्कृष्ट कृति है। जब लेखक पप्पू चायवाले की दुकान की भूमिका बांधता है जहां अस्सीघाट की सोशल लाइफ घटती है, आप उपन्यास के चरित्रों को और उनकी बकैति को पास से महसूस करते हैं। लठ्ठमार भाषा, गालियां और व्यंग्य अस्सीघाट और बनारस की पहचान रही हैं, पर इस उपन्यास में गालियां फूहड़पन और नफरत से नहीं,आत्मीयता और सहजता से दी हुई लगती हैं। लेखक अंत में अपने पुराने अस्सीघाट के बिताए टाइम को लेके nostalgic लगे, साथ में यह भी लगा कि, आज की आधुनिक अवसाद भरी जिंदगी में उस जिंदादिली के गुम हो जाने की शिकायत भी लेखक को है। A must read.
Profile Image for Anshul Thakur.
48 reviews17 followers
August 5, 2018
कशी का अस्सी बनारस के अस्सीघाट और अस्सी मुहल्ले से जुड़ी पांच प्रतिनिधि कहानियां हैं | कहानियों का सन्दर्भ 1990 के दशक की राजनैतिक और सामाजिक व्यवस्था है, परन्तु वह आज के परिपेक्ष से भी सटीक हैं |

भाषा काशी की है - न संपूर्ण हिंदी और न ही 'गन्दगी' रहित - रोज़मर्रा की सी है | "धक्के देना और धक्के खाना, जलील करना और जलील होना, गालियां देना और गालियां पाना" अस्सी की नागरिकता के मौलिक अधिकार और कर्त्तव्य बताये गए हैं | इसी हेतु लेखक पहले ही चेता देते हैं कि:

यह संस्मरण वयस्कों के लिए है, बच्चों और बूढ़ों के लिए नहीं; और उनके लिए भी नहीं जो यह नहीं जानते कि अस्सी और भाषा के बीच ननद-भौजाई और साली-बहनोई का रिश्ता है | जो भाषा में गन्दगी, गाली, अश्लीलता और जाने क्या-क्या देखते हैं और जिन्हें हमारे मुहल्ले के भाषाविद 'परम' (चूतिया का पर्याय) कहते हैं, वे भी कृपया इसे पढ़कर अपना दिल न दुखाएं |...

समय और 'टेक्नोलॉजी' के साथ आने वाले सामाजिक संबंधों में बदलावों और भौतिक सुख सुविधाओं की लत लगने से उजड़ते सामाजिक ताने-बाने पर बिरहा रुपी कहानी सुना कर निशाना साधा गया है | उपमाओं का प्रयोग और हाजिरजवाबी बोलचाल में पढ़ने को मिलती है - जैसे, "कई सालों से सोच रहा हूँ कि कलम उठा ही लूँ" पर जवाब "उठा भी लो, कलम है कि शिवजी का धनुष" - न केवल मनोरंजक हैं, बल्कि हमारी शैली में रची बसी देवी देवताओं की कहानियों का एक मधुर अनुस्मारक भी है | इसे पढ़ कर क्षोभ भी होता है कि ढकोसला मान कर अब की पीढ़ियां अच्छी कहानियों से भी वंछित हो रही हैं, और हैरानी भी |

विचारधाराओं के भिन्न होते हुए भी यारियां होना, वाचाल प्रवृति की चाय की दूकान पर अधिकायत, काशी के घाटों का वाद व्यवहार और हर छोटी-बड़ी बात पर बहस करने की फुर्सत - यह सब शायद अब घाटों और नुक्कड़ की दुकानों से निकल कर व्हाट्सप्प ग्रुप्स और दफ्तर की टी-ब्रेक्स में जा बसी हैं | परन्तु यह उपन्यास भीड़ और दौड़ के इस युग में हमें ठहरने का सन्देश देता है | सिमटते दायरों की और ध्यान आकृष्ट कर एक प्रयास करता है उन्हें और सिमटने से रोकने का |

कहानियां लम्बी हैं और रोज़मर्रा की ही तरह कभी सुस्त और कभी दिलचस्प सी हैं | कम से कम एक बार अस्सी घाट को अपनी नज़रों से देखने की और प्रेरित करती हैं |

यह पूरी पुस्तक समीक्षा नहीं है, परन्तु सार यहीं प्रस्तुत है | पूरी समीक्षा इस लिंक पर पढ़ें |
Profile Image for Shubham srivastava.
93 reviews2 followers
June 9, 2021
Maine apni jindagi k 2 sal banaras me bitaye hain jisme se 1 mere career k hisab se dekho to worst year h pr jindagi k hisab se best year hai. Us sal main bhot baar Assi jaya karta tha Bs peepal k ped k niche baithne, Ganga ko dekhne, khud ko mahsus karne. Main aaj b chahta hun k jab budha ho jaun to banaras me rahun Assi k pas. Toh Assi ki alag importance h meri life me aur jb maine ye kitab Uthai thi mujhe mere purane din yad aa rahe the ai bhot sari expectations thin is kitab se. Yr kitab Assi ki 5 kahaniyan sunati hai bilkul Assi ki bhasa me pr 1 tym k bad aap khin khin bore ho jate h qki pdhne aur bol chal ki bhasa me antar hota h. Ye kitab Hume Assi ki chai ki dukanon pr le jati h vha ki charchao pr, pr jb vo bhot jada politics ki ho bat hoti h to 1 bar ko boriyat si b lgti h. Aur lgta h k kahani vhi h main agenda vhi h bs chapter nya h way of story telling last story se different rhti h. To kitab different h writing different h pr fir b mujhe utti pasand nhi ayi jitta maine expectations lga li thi. One time read h.
70 reviews6 followers
September 22, 2020
This one is both a memoir and a portrait of a place.

Even if you have a faint idea or attachment to Kashi, the book will get hold of you and transfer you to the world that revolves around the Assi bank of Ganga. The writing makes no effort to filter the discourse and so one gets to read a fair bit of local abuse words which make the going both authentic and delectable. The political conversations that make up a substantial part of the writing are truly felt and endorsed by the characters.

The book creates a 'mahaul' and then leaves you with an aura. If you have ever been to Benaras Ghats, or felt like going there, this is the book you will live.
Profile Image for Ashish.
38 reviews4 followers
February 3, 2022
काशी का अस्सी - क्रिया नहीं प्रतिक्रिया की किताब है।

करीबन चार-साढ़े चार पहले काशी विश्वविद्यालय के विश्वनाथ मंदिर परिसर से काशी का अस्सी खरीदी थी। किताब चोरी हो गई, कहीं रख के भूल गया, किसी को दे दी या कोई उठा ले गया - कुछ सही से याद नहीं। निष्कर्ष ये निकला कि नहीं पढ़ी गई। अभी हाल बीच फिर से किताब हाथ लगी और दो बैठक में समापन पा गई।

काशी का अस्सी से मेरा साक्षात्कार उसी तरह से हुआ जैसा स्नातक के पहले साल के विद्यार्थियों का हो सकता है। जानकारी हुई एक किताब है गालियों से सराबोर, पहले पेज पर मौजूद आइडेंटिटी कार्ड की व्याख्या, किताब की व्याख्या करती है। वही उत्सुकता हमें भी उठी, ऐसी भी किताब है। इसका भी मजा लिया जाए। पर जब अभी इसको पढ़ने का मौका मिला तो बात अलग ही थी।

किताब शुरू होती है चुटीले अंदाज में, एक बात का प्रण लिए हुए की किसी को भी न बख्शा जाएगा। किताब में उपहास-परिहास के लपेटे में जीव-परमात्मा सब हैं। किताब राजे, महाराजे, नेता,मिनिस्टर, कबीर, तुलसी, हनुमान और राजाराम किसी को नहीं छोड़ती।

पुस्तक पाँच खण्डों-कथानकों-उपाख्यानों में विभक्त है। ये सभी एक दूसरे से गुथे हुए, सौ टका असली किरदार, असली जगह पर मौजूद, असली वार्तालापों का लेखा हैं। किताब हास्य-विनोद से शुरू होकर, तीक्ष्ण और मर्मभेदी व्यंग्यों से होते हुए कब गम्भीर हो जाती है; कहना मुश्किल है।

अस्सी के विषय में कहा गया कि ये अद्वितीय स्थान है। जैसा उसका वृतांत है मैं उस आधार पर मैं इस बात से असहमति दर्ज करता हूँ। वरन् मैं मानता हूँ कि काशी का अस्सी में दर्ज अस्सी एक मानक है, एक जेनरिक ढाँचा जिसमें आम भारतीय आदमी बतियाता है, सोचता-समझता-चर्चा करता है। एक आदमी खुद के साथ, और उसके आसपास हो रही घटनाओं से कैसे निपटता है। काशी का अस्सी उसका विवरण करता है। इसीलिए मैंने कहा कि ये किताब क्रिया नहीं प्रतिक्रिया की किताब है।

एक छोटी सी दुकान में बैठे आदमी, जिनके खुद के जीवन का उनको कोई भरोसा नहीं, देश के लोकतंत्र की दिशा, धर्म की धुरी, समाज की सारगर्भिता सब कुछ तय कर रहे हैं। हर एक घटना के लिए उनके पास ओपनियन है, हर एक चीज के लिए उनके पास तर्क। काशी का अस्सी जहाँ ईमानदार है वो है बातों को स्पष्ट रखने में। काशी का अस्सी रूपकों, मानकों, उपमानों का उपयोग कर के बातें नहीं करता, न इसके पात्र करते हैं। बातें, आरोप, निर्णय सब कुछ दो टूक हैं। इसीलिए किताब कम्युनिस्टों, भाजपाइयों, कांग्रेसियों, बाभनों, भूमिहारों, अहीरों किसी को गरियाने में कसर नहीं छोड़ती।

काशी का अस्सी उस दौर की वेदनापूर्ण स्मृति का संस्मरण है जब बनारस 90 के दशक के बाजारवाद से लड़ने का प्रयास कर रहा था। जहाँ किताब शुरू होते वक्त पात्र अभाव में भी मस्त हैं, अंत तक आते-आते उस प्रसन्नता को खो देते हैं। समाज परिवर्तन का विषय है, और विषय है विषयभोग।

सीधी सरल देशज भाषा में, विनोद, कटाक्षों से सराबोर ये किताब साधारण ढ़ंग से राजनीतिक अनैतिकता, मनुष्य के मूल में मौजूद दोगलेपन और बाजारवाद के दैत्य को सबके सामने रख पाने में सफल है।

इसे पढ़ते समय प्रतिक्षण आश्चर्य होता है कि वो अस्सी कहाँ है? वो बनारस कहाँ है? वो लोग कहाँ हैं? कहाँ है वो सरगर्मी? पर वही बात याद आती है।

एक दिन जाना होगा जरूर।
लछिमन राम अमर जो होते, होते हाल हजूर ।
कुम्भकरन रावन बड़ जोधा, कहत हते हम सूर।
अर्जुन सा छत्री नहिं जग में, करन दान भरपूर ।
भीम जुधिष्ठिर पाँचो पांडो मिल गए माटी धूर।
धरती पवन अकासो जइहैं जइहैं चन्दा सूर।
कहत कबीर भजन कब करिहौ ठाढ़ा काल हजूर।
एक दिन जाना होगा जरूर।
19 reviews2 followers
May 18, 2023
बहुत दिनों से यह किताब पढ़ने की सोच रहा था। खरीदकर यह किताब बुक शेल्फ पर पिछले कई महीनों से पड़ी थी, एक आधा बार कोशिश की शुरू करने की लेकिन शुरू के 3–4 पन्ने पढ़कर हर बार रख दिया। किसी किताब को शुरुवात के पन्नो से नहीं आंकना चाहिए इसलिए इस बार मैंने उन तीन चार पन्नों से आगे बढ़ने का प्रयास किया जबकि मुझे उन तीन चार पन्नों में ही किताब कुछ रास नहीं आ रही थी। खैर फिर भी अथक प्रयासों के बाद कुल नौ दस दिन बाद यह किताब खत्म हुई। पढ़कर यही लगा की इससे अच्छा तो निर्मल वर्मा की पढ़ी हुई किताबें दुबारा पढ़ लेता तो भी ज्यादा प्रसन्न होता। खैर, अब आते हैं की क्यों यह किताब जो हर जगह रिकमेंड की जाती है और 4+ रेटिंग होने के बाद भी मुझे पसंद नहीं आई। इसके कई कारण है।
पहला यह की किताब किसी एक दिशा में नहीं चलती। कहने को तो कुछ 5–6 मुख्य पात्र हैं लेकिन फिर भी हर दूसरे पन्ने पर नये नये पात्र, करीब 2–3 दर्जन पूरी किताब में, जिनकी कहानी कहीं भी अचानक से शुरू होती है और फिर कुछ लाइन ऊपर क्या चल रहा था उससे एकदम से नाता छूट जाता है। वैसे कहानी इस किताब में कुछ है ही नहीं। अस्सी घाट पर दिन भर कुछ लोगों द्वारा की जाने वाली बेतुकी फालतू बातें और चकल्लस है बस, फालतू के राजनीतिक बहस है जिसको पढ़ कर न ही आपको कहीं भी व्यंग के कारण आने वाली हंसी आएगी, ना ही कहीं पर राजनीतिक बहस से उत्पन्न होने वाली क्रांतिकारी विचार आयेंगे, बस खीझ आएगी की क्यों पढ़े जा रहे हैं यह बोरिंग किताब।
कहने को तो यह एक पॉलिटिकल व्यंग है जिसमे गलियों का भरपूर उपयोग हुआ है लेकिन हँसी नाम मात्र भी नहीं आती, ना ही गालियां सुनकर, ना ही लोगो की बकवास सुन कर। फिर आधे से ज्यादा किताब में पढ़ने वाला यह ढूंढता रहेगा की इस किताब को लिखे जाने की कोई और वजह भी है सिवाए बकवास लिखने के या नहीं। किसी ठोस कहानी के इंतजार में पन्ने पर पन्ने पलटते जाते है और किताब आपको अपने ढेर सारे पात्रों और उनकी 4–4 लाइन के किस्सों में उलझाते जाती है। आखिरी के कुछ 20–30 पन्नो में कोई एक कहानी शुरू होती है वो भी अचानक से खत्म होकर नए अध्याय का रूप ले लेती है जिसमे फिर से एक नये सिरे से बोर किया जाता है।

कुल मिलाकर यह एक ओवर रेटेड किताब लगी मुझे जिसपर मेरा दिया गया समय मुझे व्यर्थ लगा। आप भी इस किताब को खरीदने और पढ़ने से पहले इसके शुरू के कुछ पन्ने जरूर पलटे, हो सकता है आप भी अपना समय बचाने में कामयाब हो जाएं।
Profile Image for Rahul Khanna.
155 reviews31 followers
January 26, 2015
To explore more hindi literature I did some research. So someone suggested this book. I bought it and read in a week. There is no storyline but the use of language and typical words and phrases is kernel of the book. Initially I felt offended by the use of language but after some pages I got used to it and craved for more.
There are many axioms used which are apposite. I like to learn axioms of different regional language so this book taught me a lot. But because there is no story line this feels little boring.
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July 19, 2021
The best thing about this book is its language. The language used is the local hindi dialect spoken in Varanasi & nearby places. Though this dialect is becoming endangered now, thanks to globalization & modern education. Most of us in Varanasi, born in the LPG era, do not speak this dialect.
Kashinath Singh ji says that
यह संस्मरण वयस्कों के लिए है,...जो भाषा मे गंदगी, गाली, अश्लीलता और जाने क्या क्या देखते है, ....वे भी कृपया इसे पढ़कर अपना दिल न दुखाएं

The characters in this book are real & not imaginary. Some of them can still be found in Varanasi while others are no more. They are so interesting & live their lives to the fullest potential without any worry. They have so much time & intellect, to discuss & debate on various issues at Assi. People similar to these characters can still be found in Varanasi.

If one is aware of the political background of Uttar Pradesh & caste system, they will find political conversation to be interesting.

This book is also full of satire and humour. It reminded me of Harishankar Parsai, another satirist.

At last, Prof. Kashinath Singh goes through unhappy consciousness as according to him, Assi is dying due to modernity. His satire on modernity at the end is very funny.
Profile Image for Ravi Prakash.
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December 15, 2017
"मोहल्ला अस्सी" ( फ़िल्म) जो कि काशीनाथ सिंह के उपन्यास "काशी का अस्सी" के आधार पर बनी थी, सेंसर बोर्ड द्वारा नही रिलीज़ होने दिया गया। लोगो ने फिर भी फ़िल्म को देखा और सराहा । फ़िल्म देखकर पहली बार मुझे यह एहसास हुआ कि सनी देओल के पास "ढाई किलो का हाथ" और "मजदूर का हाथ" के अलावा एक्टिंग की गजब प्रतिभा है। सनी देओल का एकदम अलहदा रोल था और बखूबी निभाया था इसे।
फ़िल्म को शायद सिर्फ इसलिए रिलीज़ नही होने दिया गया क्योंकि उपन्यास में वर्णित अस्सी और नब्बे के दशक की राजनीतिक जुमलेबाजी और चाय की दुकानों पर की गई गप्प को पार्टी और पार्टी नेता सहित जस का तस दिख दिया गया था इसके अलावा एक और बड़ा कारण उपन्यास से ही ली गयी गालियाँ जो कि अगर विश्लेषण किया जाय तो देश की एक सांस्कृतिक इकाई के रूप में उभर कर सामने आएंगी, उनका फ़िल्म में जस का तस समावेश।
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खैर, उपन्यास पर अगर गौर करे तो इसकी सबसे बड़ी विशेषता इसकी भाषा है । उपन्यास का उद्देश्य , प्लाट या कॉन्सेप्ट मुझे भले पचास परसेन्ट से कुछ ज्यादा समझ मे आया हो , पर उपन्यास की भाषा को हंड्रेड परसेंट इंजॉय किया । उपन्यास का कोई भी पात्र अगर विरोधी है किसी विचार या पार्टी तो वो कतई मृदुभाषी नही है। विरोध हमेशा खरी खोटी सुनाकर, ताना या व्यंग्य मारकर ही किया गया है। किसी मुद्दे को अगर समझाया गया है तो वो भी लठ्मारी अंदाज़ में, एक बानगी राजनीति पर - " राजनीति बेरोजगारों के लिए रोजगार कार्यालय है, एम्प्लॉयमेंट ब्यूरो। सब आई.ए. एस., पी. सी.एस. हो नही सकता । ठेकेदारी के लिए भी धनबल-जनबल चाहिए, छोटी मोटी नौकरी से गुजारा नही। खेती में कुछ रह नही गया। नौजवान बिचारा , पढ़ लिख कर डिग्री लेकर कहाँ जाए? और चाहता है लंबा हाथ मारना । सुनार की तरह खुट खुट करने वालो का हश्र देख चुका है, तो बच गई राजनीति। वह सत्ता की भी हो सकती है, विपक्ष की भी या उग्रवाद की भी।समझिये कि दादागिरी यहाँ भी है, उठा पटक है, चापलूसी है, हड़बोंगई है, तरबली है, संघर्ष है, लेकिन ये कहाँ नही है। पाना और खोना किस धंधे में नही है?"
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कुल पांच चैप्टर के इस उपन्यास (170 पेज ) को एक ही झटके में पढ़ा जा सकता है, लेकिन यह मजा ले लेकर पढ़ा जाने वाला उपन्यास है तीन चार दिन तक। हँसाने के अलावा बहुत कुछ बताता भी है उपन्यास कि किस तरह जब घर घर मे टीवी और सैटेलाइट चैनलों का बोलबाला हो गया तो लोग घर से बहुत कम निकलने लगे, उनका हंसी-मजाक, ठिठोली, गप्पे मारना, धीरे धीरे कम हो गया और लेखक के अनुसार लोग जीना और हँसना भूल गए, हँसने का काम अब सिर्फ टीवी पर दिखाई देने वाले एक्टर्स का रह गया । मोहल्ला अस्सी अब 'तुलसी नगर' बन गया था जहाँ जिंदगी भाग रही थी, " कारें, बसें, टेम्पो, स्कूटर, साइकल, लोगो की टाँगे- सब जल्दी में।" इस बदलाव को सबसे ज्यादा नही बर्दाश्त कर पा रहे थे वो लोग जिनके हँसी और ठहाकों से कभी अस्सी का चौराहा खिलखिलाता लगता था, अब उन्हें एकदम से "चिल्ल-पों" लगता था, वैसे ही पूरा काशी भी।
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ग्लोबलाइजेशन, लिबरलाइजेसन, मल्टीनेसनालाइजेसन, और तमाम "आइजेसन" पर भी करारा व्यंग्य है। एक बहुत ही माइंड बब्लोइंग डायलॉग है, " तय कर लो कि क्या होना चाहते हो?
इंजीनियर? डॉक्टर? ये तो बीते दिनों की बातें हैं। कलेक्टर? ठीक, लेकिन रिजर्वेशन ने सारी दिलचस्पी खत्म कर दी है। चाहो तो एक दो चांस देख सकते हो, लेकिन मल्टीनेशनल? इसकी तो बात ही कुछ और है। आज हांगकांग, परसो न्यूयॉर्क, नरसो पेरिस। इसमे और उसमें वही फरक है जो डॉलर और रुपये में है। मगर बेटा। यह गुल्ली-डंडा नहीं, जलेबी दौड़ है- तुम्हारे साथ दौड़ने वाले हजारों लाखों में नहीँ, करोड़ो में है ।इसीलिए दौड़ो,जान लड़ा दो। कुछ करके दिखाओ। शब्बाश!!
और 'होमवर्क' के बोझ के नीचे चाँप दो इतना कि कें कें करने का मौका न मिले।"
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बहरहाल, किताब वयस्को के लिए है, बच्चों और बुढ्ढों के लिए नही है , ज्यादा संभावना है कि महिलाएं भी इसे पसंद न करे। तो अगर पढ़ा नही अब तक वयस्कों ने तो ...यार मजेदार चीज़ है, टेक अ चांस फ़ॉर दिस।
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March 5, 2017
I remember a story a senior in BHU told me of his encounter with a Sadhu on the streets of Banaras. The story may be apocryphal but it went like this. Our senior was zooming along a street on his bike when he noticed a sadhu with a trishul in his hand walking in the middle of the street. As is the wont of the young, he honked at him hoping the sadhu would move aside. The sadhu turned around, pointed his trishul in the direction of the bike and stood there. The senior had to break hard and managed to stop barely before getting hit by the Trident. Sadhu calmly straightened his Trishul and went on his way.

Having stayed for few months in BHU about 20 years ago, this book brought back some memories. Campus of Institute of Technology inside BHU was by no means Assi, but the mast-maula spirit of Banaras pervaded the atmosphere. The final year Chemical engineering batch stayed on the ground floor of our hostel. Having secured jobs in the campus placements, they could be often found doing oil massages in the sun, doing exercise, playing gilli danda or simply sunbathing in their underwear. Some could also be found smoking ganja in the night.

In my few months there, I spent tons of time just hanging out in the campus temple, listening to the blind singer in the evening. Unfortunately, I never made a trip to the Assi or to any of the ghats for that matter. But I can totally imagine the atmosphere of Pappu's tea shop and Assi chauraha where the characters of this novel congregate.

Assi and Banaras have a long and distinguished place in history of Hindi literature. Starting with Kabir & Tulsidas, a number of Hindi writers and poets have spent time here. The famous Banaras Hindu University is nearby, providing a constant source of new blood.

The novel is written like a memoir. There is no "plot" although towards the end, there is a narrative. The novel maintains the carefree, lighthearted style for the first half but then gets more serious and fantastic towards the end. There is an abundance of fables, idioms, allusions giving you a taste of the Purvanchal region of UP and Bihar.

While I enjoyed reading it, I didn't find it engrossing. It failed to pull me in. There are too many characters, too much movement, too many jumps that it takes far too long to feel acquainted with a character. More than a detailed portrait, it felt like looking at a lightly drawn line sketch of Assi and its people.

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May 25, 2022
"जो मज़ा बनारस में, न पेरिस न फ़ारस में।
'गुरु' यहाँ की नागरिकता का सरनेम है। न सिंह, न पांडे, न जादो, न राम! सब गुरु ! जो पैदा भया, वह भी गुरु, जो मरा, वो भी गुरु!



"दुख क्या है? सिर्फ अपने लिए जीना या दूसरे के दुख से सुखी होना ? "



ये सिर्फ एक किताब नहीं है, इसे पढ़ते हुए मुझे ऐसा लगा जैसे मैं अपने बचपन को फिर से जी रहा हू।
इस महान नगर "काशी" का एक वाशी होते हुए मैं ये कह सकता हूं कि हमारे लिए काशी केवल एक शहर नही है , ये एक जीता जागता एहसास है।
समय से भी ज्यादा पुरानी इस नगरी में जहा लोग मरने आते है ,वहा हमे जीने का सौभाग्य प्राप्त हुआ ।
मैं आशा करता हूं की इसे पढ़ते समय आप जीवंत महसूस करेंगे ।।।
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1,031 reviews295 followers
November 24, 2014
In school i once read about Stephen Leacock's Nonsense Novels.
That is the first thing that came to mind while reading it. No story, just a series of anecdotes, thoughts none lengthier than 2 pages.
The second thing i m reminded of is Vishal Bharadwaj's Omkara. The foulest language used, though it blends very well with the unrestrained and ruthless satire.
The first half races by (5/5) but the second half is mediocre or decent at best. Still a recommended read.
Profile Image for Sharmilee Patel.
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September 26, 2016
'काशी का अस्सी' बहुत ही बेहतरीन किताब है। बहुत साल पहले लिखी किताब होने के बावजूद आज भी उतनी ही प्रस्तुत है। अस्सी की राजकारण के बारे में टिप्पणी आज भी उतनी ही सच है। जैसे की अस्सी की सैर कर आये.. वह अस्सी जो शायद अभी मर चुका हो.. चाय की दूकान, कवि संमेलन, बिरहिया के जरिये अस्सी के कई मायनो से वाकिफ हुए।
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January 22, 2017
The book would never win a Sahitya Akademi Award but it is more monumental than any other book on the same topic. It reports from the ground about what the man of Assi Ghat thinks about the head honchos in Delhi and elsewhere. It is a common man's silent fight against the might of capitalism. Kashinath Singh presents it in an unfiltered language that is very local and flavourful. A masterpiece.
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August 11, 2017
काशी के अश्शी घाट के,फुरसतिये और हंसोड़ माहौल का पूरा देशी चित्रण है इस उपन्यास में,देशी मने गाली जिसमे प्रेम भी है,खिचाई जिसमें अपनत्व का आनंद है,बनारस की वह संस्कृति जो आधुनिकता में कहीं खोती जा रही उसे इमानदारी से लिखा गया है,और पढते वक्त इतना आनंद मिलता है,जैसे हम भी बेफिक्र और मलंग यारों के बीच अस्सी घाट पहुंच गये हों,
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July 24, 2025
अक्टूबर जंक्शन से शुरू होकर आग और पानी से होते हुए मैं एक बार फिर पहुँचा अस्सी घाट... वही घाट जहाँ गंगा की लहरों में भांग घुली होती है, जहाँ गालियाँ भी प्रेम की भाषा होती हैं, और जहाँ पप्पू की चाय दुकान किसी संसद से कम नहीं। यही से शुरू होती है काशीनाथ सिंह के उपन्यास ‘काशी का अस्सी’ की असली यात्रा।

यह उपन्यास केवल एक साहित्यिक कृति नहीं, बल्कि 1990 के दशक के बनारस और उससे भी बड़े सामाजिक परिवेश का जीवंत दस्तावेज़ है। यह वह समय था जब भारत मंडल आयोग की सिफारिशों, राम जन्मभूमि आंदोलन, बाबरी मस्जिद विध्वंस और भूमंडलीकरण जैसे गहरे सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक बदलावों से गुजर रहा था। इन तमाम घटनाओं का असर केवल दिल्ली या लखनऊ तक सीमित नहीं था, बल्कि बनारस के अस्सी जैसे छोटे मोहल्लों तक भी पहुँचा था। लेखक ने इन्हीं बदलावों की धड़कन को पन्नों पर उतारा है, न तो किसी डर से बचते हुए, न ही शुद्धता की झूठी चादर ओढ़कर।

उपन्यास की शुरुआत में ही लेखक साफ कह देते हैं कि यह किताब उन लोगों के लिए नहीं है जो शुद्ध भाषा, शुद्ध विचार और शुद्ध चरित्र की तलाश में रहते हैं। क्योंकि यहाँ श्लोक भी मिलेगा, और गाली भी और बनारस में दोनों ही अपनी-अपनी जगह पूज्य हैं।

‘काशी का अस्सी’ के पात्र उपन्यास के नहीं, बल्कि मोहल्ले के हैं, इतने असली कि लगे जैसे अभी घाट से आकर सामने बैठ गए हों। गया सिंह, जो बनारसी ठसक का प्रतिनिधि हैं; तन्नी गुरु, जो गाली देते हुए भी जीवनदर्शन सिखा जाते हैं; रामजी राय, जिनकी गंभीरता में विचारों की गहराई है; और पप्पू, जिसकी चाय की दुकान अस्सी की संसद है....जहाँ बहस होती है, कटाक्ष होता है, और कभी-कभी सिर्फ खामोशी में गहरा अपनापन होता है। खुद लेखक भी उपन्यास में बतौर एक पात्र मौजूद रहते हैं ...कभी पर्यवेक्षक बनकर, तो कभी खुद बहस में कूदकर।

इस रचना की खास बात यह है कि यहाँ पात्रों के जरिए पूरा समाज बोलता है, कोई किरदार अकेला नहीं, वह अपने समय और समाज का प्रतिबिंब है।

उपन्यास जिन वर्षों की कहानी कहता है, वह 1990 से 1998 के बीच का वह दौर था जब भारतीय समाज में कई तहों पर खलबली मची हुई थी। मंडल आयोग ने सामाजिक समीकरण हिला दिए थे, धार्मिक राजनीति ने सदियों पुरानी धार्मिक समरसता को छिन्न-भिन्न करना शुरू कर दिया था, और वैश्वीकरण ने बनारसी जीवन की सहजता को तेज़ी से बदलती उपभोक्तावादी संस्कृति में ढालना शुरू कर दिया था।

अस्सी मोहल्ले की संस्कृति, जहाँ दिन की शुरुआत घाट पर गंगा स्नान और अंत पप्पू की चाय दुकान पर बहस के साथ होती थी, वह धीरे-धीरे बदलने लगी। अब लोग घंटों बैठकर गपशप नहीं करते, बहसें कम हो गईं, संवेदनाएँ सिकुड़ने लगीं।

इस बदलाव का सबसे बड़ा प्रतीक उपन्यास में तब सामने आता है जब लेखक बताते हैं कि अब अस्सी मोहल्ले का नाम बदलकर ‘तुलसी नगर’ रख दिया गया है। यह सिर्फ नाम परिवर्तन नहीं, बल्कि लेखक के लिए उस संस्कृति का अंत था जिसमें बहस, तर्क, भांग, चाय, गाली और गंगा एक साथ रहते थे।

‘तुलसी नगर’ बनते ही जैसे लेखक की आत्मा चुभ जाती है। वे साफ समझते हैं कि अब चाय की दुकानों पर चर्चा नहीं, कमरों में सन्नाटा होगा; अब कविता पाठ की जगह टीवी का शोर होगा; और अब वह बनारसी जीवन जो गाली में भी अपनापन ढूंढ़ता था, वह इतिहास हो चला है।

इस पूरे उपन्यास की सबसे बड़ी ताकत इसकी भाषा है जो न केवल ठेठ बनारसी है, बल्कि इतनी जीवंत कि जैसे पात्र आपके सामने बोल रहे हों। यहाँ गालियाँ अपमान नहीं, अपनापन हैं। लेखक ने यह साबित कर दिया है कि साहित्यिक भाषा का अर्थ केवल साहित्यिक वाक्य नहीं, बल्कि वह जीवंतता है जो समाज की असल धड़कन को पकड़ सके।

‘काशी का अस्सी’ पढ़ते हुए यह साफ हो जाता है कि यह केवल एक मोहल्ले की कहानी नहीं है, बल्कि यह उस पूरे दौर का सामाजिक, राजनीतिक विश्लेषण है जिसमें भारत अपने पुराने मूल्यों और नई आधुनिकता के बीच झूल रहा था।

यह उपन्यास अस्सी के जरिए पूरे देश की तस्वीर पेश करता है, जहाँ सामाजिक न्याय की माँगें, धार्मिक उन्माद, जातिवाद की राजनीति और उपभोक्तावादी जीवनशैली आपस में टकरा रही थीं।

लेखक का यह दर्द कि अस्सी अब तुलसी नगर बन चुका है, केवल व्यक्तिगत नहीं, बल्कि सामूहिक है। वह हमें बताता है कि नाम बदल देने से आत्मा नहीं बदलती, लेकिन आत्मा खो देने से शहर, मोहल्ला और संस्कृति सब कुछ खो बैठते हैं।

इस उपन्यास को पढ़ना मतलब केवल अस्सी को जानना नहीं, बल्कि यह समझना है कि एक शहर कैसे धीरे-धीरे बदलते वक्त के साथ अपनी आत्मा खोता है। 'काशी का अस्सी' इस बदलाव की आखिरी गवाही है....एक बनारसी गवाही, जिसमें गाली भी है, ग़म भी है, और गंगा की मौन पीड़ा भी।
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November 20, 2023
"जिसे कहीं ना जाना हो वह अस्सी आए।"

ऐसा करते हैं, शुरू से शुरुआत करते हैं। "काशी का अस्सी" पांच कहानियों का उपन्यास है (जी, सही पढ़ा। मैं तो उपन्यास ही मानूंगा, कहानी-संग्रह नहीं। पढ़ेंगे तो आप भी मानेंगे)।
शुरुआत में ही काशीनाथ सिंह चंद पंक्तियां कहते हैं किताब के और अस्सी के बारे में:

"शहर बनारस के दक्खिनी छोर पर गंगा किनारे बसा ऐतिहासिक मुहल्ला अस्सी। अस्सी चौराहे पर भीड़भाड़ वाली चाय की एक दुकान। इस दुकान में रात दिन बहसों में उलझते, लड़ते-झगड़ते, गाली-गलौज करते कुछ स्वनामधन्य अखाड़िए बैठकबाज। न कभी उनकी बहस खत्म होती हैं, न सुबह शाम। जिन्हें आना हो आएं, जाना हो जाएं। इस मोहल्ले और दुकान का "लाइव-शो" है यह कृति- उपन्यास का उपन्यास और कथाएं की कथाएं। खासा चर्चित, विवादित और बदनाम। लेकिन बदनाम सिर्फ अभिजनों में, आम जनों में नहीं! आम जन और आम पाठक ही इस उपन्यास के जन्म की जमीन रहे हैं।"

अस्सी कहने को बनारस का एक ���ोहल्ला है, लेकिन अगर आप भारत के किसी कस्बे से हैं तो यह कहानी आपको आपके मोहल्ले की ही जान पड़ेगी। इन कस्बों के मोहल्ले, मोहल्ले के नुक्कड़, नुक्कड़ पर चाय-पान की टपरियां और टपरियों पर मोहल्ले के सर्वज्ञाता "गुरुओं" का सतत जमघट। इस जमघट पर अमरीका से लेकर नगर निगम तक की राजनीति पर वाद-विवाद प्रतियोगिता चलती रहती है। गहन दर्शन से लेकर गाली-पुराण तक सब वंचता रहता है। इसी दृश्य का आप तक सीधा प्रसारण है "काशी का अस्सी" और 'लाइव-शो' में 'सेंसर' नहीं होता। हिंदुस्तान 'अस्सियों' से पटा पड़ा है। जिन लोगों में "काशी का अस्सी" बदनाम है, शायद, उन्हें हिंदुस्तान का इल्म कुछ कम हो।
मेरे विचार में "काशी का अस्सी", उपन्यासों के ढ़र्रों को लांघता हुआ एक मील का पत्थर है।

इसकी सबसे बड़ी ताकत इसकी भाषा शैली है (और शायद विवादों का विषय भी)। अगर लेखक ने भाषाशैली को ज़रा भी हल्का कर दिया होता तो यह अस्सी के साथ बेईमानी हो जाती। एक पाठक के नाते मैं लेखक का शुक्रगुज़ार हूं इसकी मौलिक भाषाशैली के लिए।

यहां के "गुरुओं" में एक विशेषता है (जो अक्सर मोहल्लाई गुरुओं में भरपूर पायी जाती है), जिसे मेरी मादरी ज़बान (बुंदेलखंडी) में कहते हैं 'ऐंड़'। ठेठ हिन्दी में कहेंगे - अकड़, ऐंठन, ठसक। और ये ऐंठ ही मूल बनती है यहां की भाषाशैली और चरित्रों की। मिसाल के तौर पर यहां इंसान के कम से कम दो नाम होते हैं। एक कागज़ी नाम और एक घाट का नाम। जैसे शिव शंकर सिंह के घाट का नाम हो जाता है ट्रिपुल सिंह(शि.शं.सि.)। जैसे यहां किसी की पिटाई नहीं होती, "कुटम्मस" हो जाती है।
यहाँ कविता कही या पढ़ी नहीं जाती, 'पेली' जाती है।
'चूतिया' और 'भोंसड़ी के' का प्रयोग वाक्य में अनिवार्य सा हो जाता है।
काशीनाथ, अस्सी के बारे में कहते हैं (कहानी 'संतों,असंतों और घोंघाबसंतों का अस्सी' से)
"मि‌‌त्रों, अस्सी का अपना "शब्द-कल्पद्रुम" है। दुनिया जानती है इसके पास और कुछ नहीं, शब्दों की ही खेती है। वह इसी फसल के अन्न का निर्यात करता है देश विदेश में।"

कबीरदास और तुलसी-बाबा की भूमि अस्सी।
औघड़ों और पंडाओं की भूमि अस्सी।
गंजेडियों और भंगेडियों की भी भूमि अस्सी।
अब जरा सोचिए इन सब का समन्वय हो जाए, संगम बन जाए!
ऊंचे आदर्शों की बात करते-करते कब कोई "गुरु" शुरू हो जाए, गालियों का छौंका लगाने में, कोई भरोसा नहीं।
यहां मानस के छंद, कबीर के दोहे और भोंसड़ी के एक ही सांस में बोल जाया करते हैं।
मूलत: व्यंग्य, विनोद और "गुरुओं" की रनिंग-कमेंट्री से लबरेज है "काशी का अस्सी"।
अफ़सोस यह भारतवर्ष के अस्सी अब एक लुप्त होती प्रजाति हैं। वह चबूतरे, वह चौपाल, वह पान-चाय की टपरियां और उनसे निकलता अविरल ज्ञान-प्रवाह कम होता जा रहा है।
उपन्यास की पा‌ँचवी कहानी - कौन ठगवा नगरिया लूटल हो - में, लेखक का यह दर्द छलक के उतरा है। पूंजीवाद और आधुनिकता की होड़ में अस्सी धुंधलाता नज़र आता है।
Profile Image for Abhishek Sharma.
25 reviews
April 11, 2024
"Kashi Ka Assi" transcends the realms of mere storytelling to emerge as a profound exploration of the cultural and socio-political landscape of Banaras. Kashi Nath Singh's masterful narrative intricately weaves together the lives of diverse characters against the backdrop of a rapidly changing cityscape, offering readers a panoramic view of the city's pulsating heart.

At its core, the novel delves into the existential quest for identity and belonging amidst the flux of modernity. Through the enigmatic character of Assi, Singh deftly navigates the labyrinthine alleys of Banaras, revealing its hidden treasures and timeless traditions. Assi emerges not just as a character, but as a symbol of resilience in the face of relentless change, embodying the collective spirit of a city grappling with its past while navigating an uncertain future.

Singh's prose is evocative, immersive, and richly textured, capturing the essence of Banaras in all its paradoxes and complexities. From the teeming ghats of the Ganges to the bustling lanes of the old city, each page pulsates with life, inviting readers on a sensory journey through time and space.

Moreover, "Kashi Ka Assi" serves as a poignant commentary on the socio-economic disparities and cultural transformations sweeping across contemporary India. Through vivid anecdotes and poignant vignettes, Singh sheds light on the intricate tapestry of caste, class, and religion that shapes the fabric of Banaras society, offering profound insights into the human condition.

In conclusion, "Kashi Ka Assi" stands as a literary tour de force, a magnum opus that transcends the boundaries of time and space to offer readers a profound meditation on the timeless allure of Banaras and the enduring resilience of the human spirit. Singh's masterpiece is not merely a novel, but a testament to the enduring power of storytelling to illuminate the depths of the human experience.

And it's very rare that I go back and revisit the pages for some paragraphs of any book after completing the book. Kashi ka assi compels me to do that and make you emotional in its climax where assi is
metamorphosing into tulsi nagar.
leaving aside few boring paragraphs on social development issues that writers try to bring on but overall its unforgettable journey.

Below are some of those end moments which leaves my inner reader in tears who leaved through Kashinath Assi:

1. "गुरुओं के लिए ना बैंचोँ पर बैठने की जगह रही ,,ना दुकान के अंदर खड़ा होने की। उसे दखल कर लिया था टीवी के परदे से निकलने वाले कलाकारों और फूटने वाली नकली हंसी ने।

2. "बच गए थे गुरु लोग उनका दम घुट रहा था चौराहे पर होने वाली हर शाम की की टीवी में बेचने खरीदने की चर्चाओं से, कोई मन ही नहीं कोई रोक नहीं जितना चाहो उतना हंसो नाचो गए उठ के ठहाके लगाओ चाहे जो करो कोई रोक नहीं लेकिन जाने क्या हुआ कि धीरे-धीरे उनकी हंसी गायब होनी शुरू हो गई। वही चौराहा वही गलियां वहीं दुकान है वही मकान है लेकिन वह गुमसुम होने शुरू होते तो होते ही चले गए। "

3. सुख क्या है बेटा अपने लिए जीना या दूसरों के दुख को देखकर सुखी होना ?

4. इस तरह धीरे-धीरे सब चले गए एक दिन अस्सी से अपने के अपने अस्सी के साथ अपनी हंसीयों , मस्ती और याराना गलियों के साथ।

हर हर महादेव

कुछ मेरी तरफ से :

" दुनिया जिसे कहते हैं जादू का खिलौना है

मिल जाए तो मिट्टी है खो जाए तो सोना है।"
Profile Image for Sonali Ekka.
221 reviews21 followers
November 21, 2022
A sort of memoir based on real people the author knew & possibly real conversations & incidents. The book has 5 chapters covering various stories & aspects of life at Assi, a residential area in Varanasi, by the Assi Ghat along the Ganges, which was later renamed Tulsinagar.

I’ve mixed feelings about this book. I was impressed & enjoyed the first “vyangya” I encountered, but was also slightly surprised by the first abusive word too. हर हर महादेव के साथ भों** के नारा इसका सार्वजनिक अभिवादन है! And soon I discovered that’s how the whole book is written – in a sheer desi, “fakkad” Hindi, as a means to represent the true spirit of Assi and by extension Kashi (Varanasi) itself! And hence continue 5 chapters of the alleged spirit of UP: lots of abuses, heated discussions on current affairs, politics, society, economy, (un)employment etc., traditional addas at tea shops, religion & the transformation of Kashi from a simple Ganga ghat to a place of capitalism promising to sell peace, tranquility, Yoga, the meaning of life, an escape but basically a luxurious life at throwaway prices for foreigners (mostly Europeans).

The abundance of abuses & politics are a bit of a turn off for many, but there are many folk songs, poetry (or tukbandi) including the Biraha, which are enjoyable to listen to in an audiobook.
One interesting aspect in this book is the existence & identity of Kashi & its people. Kashi has historically been a place of religious importance, and yet, despite the piety of its residents, they aren’t depited as religious fanatics. This is shown in a hilarious incident where members of a national party try to ban a poetry event during holi, calling it anti-hindu. The residents are shocked & oppose it vehemently because poetry, “bhang” etc. are as much a vital part of Kashi as the Ganges and the ghats.

Eventually one can’t help fall in love with Kashi. The city’s magic mesmerizes the author. “भैया, इसे अस्सी न समझो, यह जम्बूद्वीप की दिल्ली है” This conveys how Assi was once at the heart of ancient India (Jambudweep term used to describe the kingdom of emperor Ashoka).

Profile Image for Manish.
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September 7, 2017
सबसे पहले टिप्पणी उन लोगों के लिए जो क्षुब्ध हैं इस इस उपन्यास की "असन्सदिय" भाषा से | सच है कि हम ऐसी गालियों से लैस भाषा अपने घर में नही बोलते | पर सच ये भी है कि जिन चौक-चौराहों का ज़िक्र यहाँ हुआ है, वहाँ की ये मानक बोली है | आप अपने घर से दो फर्लांग दूर नुक्कड़ पर चले जाइए , या फिर चले जाइए उस पान की गुमटी पर जहाँ से आप चोरी-छुपे सिगरेट खरीदते हैं | ये अस्सी के चौराहे या पप्पू की चाय दुकान से अलग नही हैं -आपके मोहल्ले के "तन्नी गुरु" यहीं बसते हैं | और "तन्नी गुरु" बातें कम करते हैं - गालियाँ ज़्यादा देते हैं | आप भले ही असहमत हों उनकी बोली से, रहन-सहन से, पर जिनलोगों की कहानी कही जा रही है, वो इसी समाज का हिस्सा हैं और उनकी कहानी सुनानी है तो उनकी हीं भाषा में सुनानी होगी | अगर उनकी कहानी आपकी बोली में सुनाई जाए, तो मेरी समझ से, वो उनकी कहानी के साथ अन्याय होगा |

खैर, भाषा से जो शिकायत हो आपको, उपन्यास की विषय-वस्तु से कोई गिला-शिकवा नामुमकिन तो नही, मुश्किल ज़रूर है | काशीनाथ जी ने समकालीन भारत के कई समसामयिक मुद्दों पर बात की है इस किताब में | ग़रीबी, मनुवाद, जात-पात और आरक्षण, बाबरी-विध्वंस ,वैश्वीकरण, औद्योगिक क्रांति और प्रौद्योगिक विकास, संस्कृति का पश्चमीकरणऔर सांप्रदायिक राजनीति जैसे विषयों पर चर्चा अमूमन काफ़ी गंभीर होती है लेकिन अल्हड़ भाषा में बात करते पात्रों के माध्यम से काशीनाथ जी ने जिस सहजता से अपनी बात रखी है कि बस! ये उनकी लेखन-शैली का ही कमाल है की आप हंसते-हंसते सोचने को मजबूर हो जाते हैं | ऐसे तो काशीनाथ जी ने अस्सी और अस्सी के लोग उकेरें हैं इस किताब में, लेकिन इन किरदारों में आपको आप खुद, आपका शहर ,आपके पड़ोसी दिख जाएँगे और दिख जाएगा तेज़ी से बदलता समाज | और एक लेखक की इससे बड़ी जीत क्या हो सकती है कि वो आपको अपनी लेखनी से बाँधे तो रखे पर आपकी सोच को मुक्त कर दे !
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