रेहन पर रग्घू प्रख्यात कथाकार काशीनाथ सिंह की रचना-यात्रा का नव्य शिखर है। भूमंडलीकरण के परिणामस्वरूप संवेदना, सम्बन्ध और सामूहिकता की दुनिया मे जो निर्मम ध्वंस हुआ है- तब्दीलियों का जो तूफान निर्मित हुआ है- उसका प्रामाणिक और गहन अंकन है रेहन पर रग्घू। यह उपन्यास वस्तुतः गांव, शहर, अमेरिका तक के भूगोल में फैला हुआ अकेले और निहत्थे पड़ते जा रहे है समकालीन मनुष्य का बेजोड़ आख्यान है। उपन्यास में केन्द्रीय पात्र रघुनाथ की व्यवस्थित और सफल ज़िन्दगी चल रही है। सब कुछ उनकी योजना और इच्छा के मुताबिक। अचानक कुछ ऐसा यथार्थ इतना महत्वाकांक्षी, आक्रामक, हिंस्र है कि मनुष्यता की तमाम सारी आत्मीय कोमल अच्छी चीजें टूटने बिखरने, बरबाद होने लगती हैं। इस महाबली आक्रान्ता के प्रतिरोध का जो रास्ता उपन्यास के अन्त में आख्तियार किया गया वह न केवल विलक्षण और अचूक है बल्कि रेहन पर रग्घू को यादगार व्यंजनाओं से भर देता है।
The book is a Sahitya Akademi Award winning Hindi novel first published in 2008 (the edition featured was published in 2019). The story tells the story of Raghunath who used to be a teacher but had to take early retirement because of societal constraints and his less understanding sons.
This story typically represents well what a middle-class family has to face when it comes to jobs, education, marriages and pressures from the society we live with.
The characters in this short novel are many but they stood out representing some inevitable problems which people with such families have to face.
The most distinct characters include Sarla, daughter of Raghunath, who wants to live life on her own terms and does not believe in the dowry system and stands up for it; Sanjay (who wasn't almost physically there in the book!) Raghunath's first son, who started all the problems by marrying a girl which his family didn't approve of; Raju, the younger son, who wants to go ahead in life by paying huge sums expecting his father to pay everything; Sheila, their mother, who supports the whole family and who was caught up in a loveless but a convenient marriage.
The book was well written depicting several problems and dirty politics which play a major part in the lives of middle class families.
However, I feel the translation did not do justice to the book. I feel like the original script has so much more to offer.
Contemporary Godan depicting effects of globalisation on village life. My wife picked this up for reading together, and I was in double minds because of the heavy abusive language of Kashi Ka Assi by the same author. But here the writing style was so very different. Sometimes it didn't even felt like Kashinath ji's writing. And I liked it more than KKA. Simple language and narration, with an apt mix of dialogues. Struggle of a farmer, Raghunath, whose disobedient children relocate outside village in pursuit of greener pastures. The tension among them keeps growing resulting in their drifting apart. He's left pondering on the meaning of his life. We were both engrossed and entertained by it. Wish it didn't end where it did.
रेहन पर रग्घू! काशी बाबु के किताबों की एक खासियत तो नाम ही है. चाहे 'काशी का अस्सी' हो या 'रेहान पर रग्घू'! दूसरी विशेषता है कि वो खुल कर लिखते हैं, कुछ दबाते नहीं. अब इसे आप अश्लील कह लें तो ये आपकी स्वेच्छा, पर जो है सो है. सामंतवाद से वैश्वीकरण तक का लम्बा सफ़र रघुनाथ कैसे तय कर गए, और काशी बाबु ने किस मनमोहकता से कह डाली, तारीफ-ए-काबिल! अंत तक आते आते भले ही मार्मिक हो, आपकी आँखों में दो बूँद आंसू भी आ जाए. पर रग्घू ज़रा भी न लडखडाये, न गिरगिराए. अकड़ ज्यों कि त्यों. क्या करैक्टर बनाया है काशीनाथ सिंह जी ने, गौर से देखिये, आपके आस पास ही है. और नहीं भी.
वरिष्ठ साहित्यकार काशीनाथ सिंह का उपन्यास "काशी का अस्सी" काफी चर्चित है l साल 2011 में उन्हें एक अन्य उपन्यास "रेहन पर रग्घु" के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार से नवाज़ा गया l रेहन पर रग्घु पढ़ने के बाद मुझे पता चला कि ये पुरुस्कृत कृति है क्योंकि पढ़ते समय कहानी इतनी ज़बरदस्त नहीं लगी l
🌸उपन्यास की कहानी मुख्य पात्र रघुनाथ सिंह उर्फ़ रग्घु के इर्द गिर्द घूमती है l कहानी का कालखंड सन् 2000 के आसपास का ही है l ताउम्र एक मामूली अध्यापक की नौकरी करते हुए अभावों वाला जीवन बिता कर रग्घु ने अपने बच्चों (एक लड़की, दो लड़कों) के लिए एक अच्छे भविष्य की नीव रखनी चाही l बड़े लड़के ने इंजीनियरिंग की पढ़ाई भी की पर मास्टर साहब के अरमानों पर पानी फेर कर शादी करके अमेरिका चला गया l उसके रिश्ते की बात रघुनाथ सिंह अपने स्कूल के मैनेजर की लड़की से कर के बैठे थे जिसका बहुत बड़ा खामियाजा वो यहाँ रहकर चुकाते हैं l छोटा सुपुत्र भारत के बहुत से महत्वाकांक्षी युवाओं की भाँति कम समय में बिना मेहनत किये सोहरत कमाना चाहता है l उत्तर भारत के बहुत से युवाओं की भाँति नित नये फॉर्म भरकर घूमने के लिए शहर जाता है और पिता से दाखिले हेतु डोनेशन की उम्मीद रखता है l लड़की वैसे तो पढ़ लिखकर अपने पैरों पर खड़ी हो जाती है लेकिन बड़े भाई की भाँति ही अंतर्जातीय विवाह करना चाहती है l वो भी एक निचली जाति के युवक के साथ जो वैसे तो मजिस्ट्रेट बनकर पदासीन है पर बाबू साहब की लड़की और ये???....
🌸रघुनाथ उर्फ़ रग्घु ने पूरी उम्र मेहनत, लगन और भलमनसाहत से गांव घर में खूब इज़्ज़त कमायी लेकिन उम्र के आखिरी पड़ाव पर आकर हर तरफ़ से परेशानी झेलनी पड़ती है l उनकी धर्म पत्नी को छोड़कर ऐसा लगता है जैसे पूरी दुनिया उनकी इच्छा के विरुद्ध कार्यकलाप करती है l इधर गाँव में खुद उनके भतीजे जो किसी ज़माने में उनके उपकार तले दबे थे आज ज़मीन कब्ज़ा करने के चक्कर में आँखें दिखाने लगे हैं l गाँव में कुछ और अप्रिय घटनाएँ होती हैं जहाँ निचली जाति सवर्णों के विरुद्ध मोर्चा खोल देती है l बाबू साहब और उनके बच्चों को ये स्वीकारने में बहुत कोफ़्त होती है कि कैसे सदियों से बना हुआ सोशल स्ट्रक्चर आज जर्जर हो चला है। आज उपभोक्तावाद और बाजारीकरण ने एक बात सिखला दी है कि जिसके पास पैसा है दुनिया उसी के आगे पीछे नाचेगी, उसकी जाति कोई नहीं पूछेगा l
🌸किताब के तीसरे भाग में शहरीकरण के प्रभावों और दुष्प्रभावों की चर्चा है l रग्घु बड़ी बहू के कारण सापत्निक बनारस आ जाते हैं, यहाँ एक नये मोहल्ले में बने मकान में रहते हैं l इस मोहल्ले में ज्यादातर वयोवृद्ध हैं जिनके बच्चों ने अपने अपने ठिकाने अन्यत्र ढूँढ लिए हैं और घर लौटना बस एक जुमला बनकर रह गया है l रघुनाथ बाबू को यहाँ अलग तरह की आज़ादी का अनुभव होता है , कुछेक हमउम्र मित्र भी मिलते हैं और सुबह शाम वो सैर सपाटा भी कर लेते हैं l बड़ी बहू से भी उचित प्रेम और सम्मान मिलता है, फिर ये भी लगता है कि ख़ामखा उसकी जाति को लेकर इतना बवाल किया था शादी के समय l खैर बीती बातों को भूलकर वो जीने लगते है पर ना जाने नियति को क्या मंजूर है? कभी बेटों के कारण तो कभी गाँव के भतीजों की वजह से रग्घु आहत होते ही रहते हैं l रग्घु की तरह ही कहानी के बहुत से पात्र गाँव छोड़कर शहर आ जाते हैं और अपने लिए एक नयी ज़मीन तलाशते हैं l ग्लोबलाइजेशन के चक्कर में मानवीय, सामाजिक, नैतिक, धार्मिक मूल्यों में निर्ममता से बदलाव आये हैं और जो ये मानने को तैयार नहीं हैं, उनके लिए जीवन इतना सरल नहीं होता है l उपन्यास के नारी पात्र काफी सजग और मजबूत हैं l फिर चाहे वो रग्घु की बेटी हो बहू या फिर उसके छोटे बेटे की संगिनी, स्त्रियाँ सभी पढ़ी लिखी हैं, खुद का रोज़गार है और किसी पर भी आश्रित नहीं हैं l बढ़ते शहरीकरण की ये भी एक देन है कि नारी अब अबला अश्रु बहाने वाली नहीं रह गयी, पढ़ लिखकर अपना भविष्य निर्माण कर रही है l
🌸किताब की भाषा सरल, बोलचाल वाली और शुद्ध है l आपको कठिन तत्सम शब्द बहुत कम मिलेंगे l पढ़ते हुए आप कहानी और पात्रों से जुड़ाव भी महसूस करते हैं खास तौर से तब यदि आप ग्रामीण परिवेश से हैं या ताल्लुक रखते हैं l मैंने ये उपन्यास किंडल पर पढ़ा, उस में वर्तनी आदि की कई गलतियां हैं जो सही की जानी चाहिये l आशा करता हूँ प्रिंट में ये समस्या नहीं होगी l आप भी पुस्तकालय या ई कॉमर्स वेबसाइट्स से ये किताब मँगवा सकते हैं l ✔️लेखक : काशीनाथ सिंह ✔️प्रकाशन : राजकमल
काशी का अस्सी" पढ़ने के बाद इसे पढ़ने का बड़ा मन था। किताब मिली नही, कि बस खत्म करके ही उठा। हाँ, इसे एक सिटिंग में पढ़ डाला। . किताब गाँव को शहर में विस्थापित होने के संक्रमणकालीन सामाजिक ताने बाने पर आधारित है। पात्र सामान्य है, जो आपके मोहल्ले या कस्बे में भी मिल जायेंगे। यह अंतर-पीढ़ी संघर्ष को बयाँ करती हैं। . एक मास्टर जिसने ताउम्र संघर्ष करके अपने बच्चों को पढ़ाया-लिखाया। नौकरी दिलाई। यह सोचकर कि वह अपने बच्चों के लिए ही जी रहा है और उन्हीं के भविष्य में ही उसका भविष्य सुरक्षित है। लेकिन लड़के इतने महत्वाकांक्षी निकले कि उन्हें केवल अपना ही उत्कर्ष दिखाई दिया। . लोग कहते हैं कि अपने लिए जियो, लेकिन "अपनों" को छोड़कर अपने लिये कैसे जिये यही रघुनाथ सिंह की कहानी है।
प्रस्तुत उपन्यास का प्रमुख पात्र रघुनाथ हैं उनकी पत्नी शीला, दो बेटे धनंजय और संजय और एक बेटी सरला। इन पांचों पात्रों के अनुभव और संस्मरण आपस मे बिल्कुल अलग हैं सम्भवतः लेखक ने बेहद करीबी अनुभवों को इन पात्रो के माध्यम से जीवंत किया है।
यह एक पिता की कहानी है जो अपने बच्चों के लिए अपना जीवन समर्पित कर देता है मगर बच्चे बड़े होकर महत्वाकांक्षा के नाम पर अपने माता पिता को छोड़कर दूर चले जाते हैं बच्चों के होने के बावजूद असीम पीड़ा झेलनी पड़ी।
उन्हीं बच्चों का परीक्षण लेने के लिए रघुनाथ खुद को मारने आये लड़कों से खुद अगवा कराते हैं फिरौती मांगने को कहते हैं उद्देश्य मात्र इतना ही था कि उनके बच्चे आते हैं अथवा नहीं और कहानी अपने नाम को सार्थक करते हुए समाप्त हो जाती है।
जीवन की स्वार्थपूर्ण विसंगतियां और मानवीय भावनायें उपन्यास के आखिरी चरण में पाठक को अपने जीवन मे झांकने को विवश करती हैं।
मुझे ऐसा लगा जैसे काशीनाथ सिंह जी ने वो बात कही जो "काशी का अस्सी" के अंत में कहना चाहते थे | कैसे हमारा परिवेश बदल रहा है और हम और भी| रेहन पर रगघू में भी कुछ ऐसी ही कहानी है| भाषा शैली बेहद आसान | कुछ ऐसी कितने दिन हो गए लू में थपेड़े खाये कितने दिन हो गए जेठ की घाम में झुलसे कितने दिन हो गए अँजोरिया रात में मटरगस्ती किये कितने दिन हो गए ठंढ में ठिठुरकर दाँत कटकटाये क्या ये इसलिए होते है की हम इनसे बच के रहे, बच बचा के चले , या इसलिए की इन्हें भोगे ,इन्हें जिए, इनसे बतियाये, सिर माथे पर बैठाये | या फिर कुछ ऐसी सच सच बताओ रघुनाथ, जो तुम्हे मिला है उसके बारे में कभी सोचा था? कभी सोचा था की एक छोटे से गांव से लेकर अमेरिका तक फ़ैल जाओगे? चौके के पीढ़े पैर बैठकर रोटी प्याज नमक खानेवाले तुम अशोक बिहार में बैठ कर लंच और डिनर करोगे|
A good book, definitely a start to finish novel. gripping story. however i could not find some of the characters fully developed as writer has not tried to dwelve into the psyche of characters much (probably writer wanted it in that way or i did not get it.) But still i will give it 4 star for story.
it is the most recently published Hindi novel that I have read, and so it deals with the pblm that is more relevant today. the way it ends make you feel that it should continue for some more pages
ये किताब कोई फैंटेसी नहीं है.....ये तो बिल्कुल आम आदमी की कहानी है, ऐसा आदमी जो हर मोहल्ले, हर गांव में मिल जाएगा। नाम है रग्घू। मास्टर है, किसान है, पिता है... और सबसे ज़्यादा एक ऐसा इंसान है जो चाहता है कि सब ठीक चलता रहे। मगर दिक्कत ये है कि अब चीज़ें ‘ठीक’ चलने का ज़माना ही कहाँ रहा।
रग्घू के बच्चे धीरे-धीरे उसकी दुनिया से बाहर निकलते जाते हैं। बड़ा बेटा संजय विदेश के सपनों में खो जाता है, छोटा बेटा मेहनत से दूर भागता है और बेटी सरला अपने दिल की सुनना चाहती है। लेकिन जब सरला अपनी ज़िंदगी का फैसला खुद करती है, तो रग्घू का समाज, उसकी जाति और उसके डर सामने आ खड़े होते हैं। यहीं से कहानी अंदर ही अंदर टूटने लगती है।
असल में ये किताब रिश्तों के खिसकने की कहानी है। उस घर की, जहाँ पहले हंसी की आवाज़ें गूंजती थीं और अब बस दीवारों की चुप्पी बची है। रग्घू का दर्द ये नहीं कि उसके बच्चे गलत हैं, दर्द ये है कि अब उन्हें उसकी ज़रूरत नहीं रही। और ये एहसास किसी पिता के लिए सबसे भारी होता है।
सरला नई सोच की लड़की है, पर उसकी मजबूती भी उसे पूरी तरह चैन नहीं देती। संजय अपने करियर के पीछे रिश्तों की अहमियत भूल बैठा है। धनंजय बिना कुछ किए सब कुछ पाना चाहता है। और इनके बीच रग्घू है जो बोलता कम है, पर भीतर बहुत कुछ सहता रहता है।
किताब की भाषा बहुत सीधी-सादी है। बिल्कुल ऐसी जैसे कोई अपना आदमी, बिना बनावट के, दिल की बात कह रहा हो। पढ़ते हुए कई जगह लगेगा की, ये तो हमारी ही कहानी है।
ये किताब कई जगहों पर धीमी हो जाती है। कुछ हिस्सों में ऐसा लगता है कि कहानी रुक गई है और लेखक समझाने बैठ गया है। जाति और समाज पर चर्चा ज़रूरी है, लेकिन कहीं-कहीं वो कहानी पर भारी पड़ जाती है।
कुछ किरदार और अच्छे से उभर सकते थे। संजय और धनंजय का मनोवैज्ञानिक पक्ष और गहराई मांगता है। कई दृश्य थोड़े दोहराव जैसे लगते हैं, जिससे पढ़ते वक्त मन थोड़ा भारी भी हो सकता है। ये किताब बहुत उदास भी है। इसमें वो ‘फील गुड’ टाइप राहत कम मिलती है। कुछ लोग इसे पढ़ते हुए कह सकते हैं, कुछ ज़्यादा ही डार्क है।
अगर आपको ऐसी कहानियाँ पसंद हैं जो बनावटी नहीं बल्कि ज़िंदगी जैसी लगती हैं, तो ये किताब ज़रूर पढ़ो। ये आपको अपने रिश्तों, अपने घर और अपने फैसलों के बारे में सोचने पर मजबूर करेगी।
ये किताब उन लोगों के लिए है जो शोर में नहीं, सन्नाटे में सच्चाई ढूंढते हैं। जो समझना चाहते हैं कि आज के दौर में इंसान क्यों अकेला होता जा रहा है।
अगर आपको तेज़ कहानी, रोमांस, थ्रिल या हल्की-फुल्की किताबें पसंद हैं, तो ये आपकक भारी लग सकती है। ये किताब टाइम पास नहीं है, ये तो मन का बोझ बढ़ाने वाली चीज़ है और हर कोई वो उठाने के मूड में नहीं होता। अगर आप किताब पढ़कर सिर्फ खुश होना चाहते हो, तो शायद ये आपकी पसंद न बने।
‘रेहन पर रग्घू’ उस आदमी की कहानी है जो ज़िंदगी भर सबके लिए खड़ा रहा और एक दिन खुद ही पीछे छूट गया। ये किताब शोर नहीं करती, बस चुपचाप दिल में उतर जाती है और वहीं कहीं टिक जाती है। और सच कहें तो… ये रग्घू सिर्फ किताब का किरदार नहीं है, ये हम सबके आसपास कही न कहीं मौजूद है कभी पिता के रूप में, कभी पड़ोसी के रूप में, और कभी शायद हमारे ही भीतर।
I have always wanted to read Kashinath Singh and couldn't have picked up a better book. This one was awarded the Sahitya Academy Award, and rightly so.
The plot revolves around Raghu, a normal middle class father, who worked hard all his life to provide for his three children. The children grow up and don't turn out like he wanted. The book is set in the early 2000s, where increasing capitalism and consumerism, is rapidly changing not only the world around him but also the power balances among different caste groups. This is an excellent commentary on each of these themes. Also, the contrast between different generations and their way of life is captured and articulated so well, you feel like you are reading about your relationship with your parents.
The book reads super easy and is fast paced. The female characters are well developed. You get a slice of life of characters living abroad, and in a village. The transition between these contexts is smooth.
Kashinath Singh is popular for his book Kaashi Ka Assi. I too was recommended this book because of its language. I am still to read that book. Getting into this one, Rehan Par Raghu, I had certain expectations which, I am very glad, the book destroyed it in the first chapter itself. I was totally blown away by Kashinath's writing, his thoughts. You don't just feel bad for his protagonist, but, at times, you also hate him. In the end I can only say that either what I heard about Kaashi Ka Assi is completely untrue or these are two different authors.
खिलते हैं गुल यहाँ, खिल के बिछड़ने को... झीलों के होंठों पर, मेघों का राग है... खैर! काशीनाथ सिंह जी की ये तीसरी किताब थी जो मैंने पढ़ी। कुछ अलग सा है इनकी कहानियों में। पीड़ा है किरदारों में, लेकिन सारी पीड़ा किसी बेहतरीन संगीत में लयबद्ध। इतनी पीड़ा पढ़ने के बाद "feel good" वाला अनुभव कैसे हो सकता है? रघुनाथ! सब कोई ही रघुनाथ है। साहित्य में यही तो चाहिए ना? पाप भावना से मुक्त हो सकना। वरना तो हर निजी सुख पाप ही है सामाजिक दृष्टि में। कितना कुछ जोड़ देती हैं ऐसी कहानियां चरित्र में। अद्भुत 🙏
Masterpiece. Must read, if you are into books reading and get ti know about this book, just order it now. This is the stroy of father journey and his physiological and ideological battels with ground reality of father and family relationships and society. How modern life style of the sons and daughters abandoned old helpless father and mother.
If you can read Hindi and haven't read this novel, then you're missing out. Characters you will hate and love and hate and then love again. It is a novel of human helplessness, old age and selfish dreams. Well done, Kashinath ji.
The book would have been a great read but there are million of typographical errors in the kindle edition more so in the second half of the book. Total trashed ... but still I read with difficulty... probably we have a struggling publisher but hats off to the writer.
After reading Kasi and Assi, I had very high expectations from this book. The book is average, while it does capture the pains of transitional society and transformations that families are going into it reminds of so many other stories.
Content of book is amazing, book is about change, about relationship, about experiencing life from the perspective of a father. But editing of kindle version is not proper. Some content was missing.
Read on Kindle - There are way too many typos and repetitions in the book. Still, nothing can cloud the excellent writing that the writer is known and deservedly celebrated for. Loved it!
very disappointed.. very surprising that this novel won the write a shaitya academy award. very average. after reading kashi ka Assi, i had greater expectations but below par..
In a simple and understated style, Kashinath Singh paints an accurate and heartbreaking picture of changing Indian society over last 2 decades. From increasing assertiveness of Dalit castes in villages to senior citizens forced to live alone in city colonies, so many facets of current Indian society find a resonance in its pages. In parts and pieces, this is the story of so many people around me, including myself.
I had sent this book to my mom and when getting it back I asked her about it, she just said it was nice. I finished reading it just now and all I want to do is fly back home and hug her. If you haven't read the book yet, you will know why once you do.
हम जब गाँव छोड़कर शहर जाते हैं तो क्या-क्या छोड़कर जाते हैं- बेपरवाह, बेफ़िक्र| उसी सब छूटे हुए और बिछड़े हुए की कहानी है रेहन पर रग्घू |साहित्य अकादमी २०११ से सम्मानित इस उपन्यास को प्रेमचंद-परंपरा का आधुनिकतम उपन्यास कहा जाना उचित ही होगा| अपरिहार्य औपन्यासिक विशेषताओं से पूर्ण होने के साथ-साथ इस उपन्यास में काशीनाथ जी की ये काबिलियत भी सामने आती है कि उपन्यास के क़िरदार हमारे जाने पहचाने से लगते हैं - कोई मोहल्ले का , कोई गाँव का और कोई दूर विदेश का| मध्यम-वर्गीय परिवार में रिश्तों की उलझनें भी कथानक को उचित वास्तविकता देने में सहायक हैं| किसी सर्वोच्च कोटि के उपन्यास की सबसे बड़ी ख़ासियत उसके अंतिम पन्ने होते हैं और रेहन पर रग्घू इस कसौटी पर भी एकदम ठीक बैठती है| काशी जी कथानक को हल्का-सा विराम की और ले जाते हुए एक ऐसे मोड़ पर छोड़ देते हैं कि जहाँ से हमें वैश्वीकरण और रिश्तों के दाँवपेंच पीछे छूटते लगते हैं और हम रघुनाथ के साथ उनके कंधे पर हाथ डाले तीरथयात्रा पर निकल पड़ते हैं|
" भ्रम और भरोसा - ये ही हैं जिंदगी के दो स्त्रोत ! इन्हीं सोतों से फूटती है जिन्दगी और फिर बह निकलती है - कलकल-छलछल ! कभी कभी लगता है ये दो सोते नहीं हैं| सोता एक ही है - उसे भ्रम कहिये या भरोसा | ये न हो तो जीना भी न हो ! "
काशी का अस्सी और महुआचारित के बाद काशीनाथ सिंह की ये तीसरी किताब मैंने पढ़ी। इस किताब को साहित्य अकादमी पुरस्कार से नवाज़ा गया है हालांकि पढ़ते समय इसकी कहानी इतनी ख़ास नहीं लगी। उपन्यास की कहानी समस्या प्रधान है वृद्ध आदमी की दुरावस्था जो युगो-युगो की समस्या रही है, पर इसकी कहानी रची गई है लेकिन इसमें नयापन है, फुहड़पन है, दार्शनिकता है, महत्वकांक्षा है, औपचारिकता है। रेहन पर रग्घू नए युग की वास्तविक गाथा है, केंद्रीय पात्र रघुनाथ उर्फ़ रग्घू है। कहानी का कालखंड सन् 2000 के आसपास का है। रग्घू की पूरी उम्र एक मामूली अध्यापक की नौकरी करते गुजरी, अपने बच्चो का भविष्य बनाने की खातिर उसने अपनी पूरी जिंदगी दाव पर लगा दी। लोग अपने बच्चो का भविष्य क्यों संवारते हैं? क्या उनके(बच्चो) भविष्य में उनका अपना भविष्य भी छिपा रहता है? इसी तरह के कई सवालों के जवाब देती है यह किताब। भाषा सरल और सहज होने के साथ-साथ पात्रनुकूल और विषयानुकुल है। ग्रामीण क्षेत्र के साथ शहरी क्षेत्र को भी काफ़ी रोचक ढंग से पाठकों के समक्ष प्रस्तुत किया है। अतः कहानी संवेदनशील होने के साथ की रुचिकर भी है तथा कहानी पाठक के मन को बांध कर रखती है।
Represents new wave of Hindi novels. Retrospect of a old man about his life and experiences. Effect of globalization on Indian families is main theme of novel. Very beautifully written. Highly recommended for literature lovers.
अच्छी कहानी है. इतनी अच्छी कि दोबारा पढ़ी जा सके. बड़ा ही वास्तविक सा चरित्र जो कुछ कुछ आर के नारायण के चरित्रों की याद दिलाता है. हाँ, अस्सी वाली बात शायद नहीं है, लेकिन एक बार जब चरित्र मन में बस जाते हैं, तो फिर पन्ने पलटते चले जाते हैं.