-तुमने कभी उसे देखा है? -किसे? -दुख को...मैंने भी नहीं देखा, लेकिन जब तुम्हारी कज़िन यहाँ आती है, मैं उसे छिप कर देखती हूँ। वह यहाँ आकर अकेली बैठ जाती है। पता नहीं, क्या सोचती है और तब मुझे लगता है, शायद यह दुख है! निर्मल वर्मा ने इस उपन्यास में ‘दुख का मन’ परखना चाहा है- ऐसा दुख, जो ज़िन्दगी के चमत्कार और मृत्यु के रहस्य को उघाड़ता है...मध्यवर्गीय जीवन-स्थितियों के बीच उन्होंने बिट्टी, इरा, नित्ती भाई और डैरी के रूप में ऐसे पात्रों का सृजन किया है, जो अपनी-अपनी ज़िन्दगी के मर्मान्तक सूनेपन में जीते हुए पाठक की चेतना को बहुत गहरे तक झकझोरते हैं। पारस्परिक सम्बन्धों के बावजूद सबकी अपनी-अपनी दूरियाँ हैं, जिन्हें निर्मल वर्मा की क़लम के कलात्मक रचाव ने दिल्ली के पथ-चौराहों समेत प्रस्तुत किया है। शीर्षस्थ कथाकार निर्मल वर्मा की अविस्मरणीय कृति, जो रचनात्मक स्तर पर स्थूल यथार्थ की सीमाओं का अतिक्रमण करके जीवन-सत्य की नयी सम्भावनाओं को उजागर करती है।
A well-known name in Hindi literature, Nirmal Verma is known mainly for his fictional works. Born on April 3, 1929, he obtained a M.A. in history from Delhi University. He studied Czech at the Oriental Institute in Prague, and has been a Fellow with the International Institute for Asian Studies. Nirmal Verma is a recipient of India's highest literary award, the Jnanpith, and his short stories Kavve aur kala pani won the Sahitya Akademi Award in 1985. Some of his more popular novels are Antim aranya, Rat ka riportar, Ek Chithra Sukh, and Lal tin ki chat.
Vedina, his first novel, is set in Prague, Czechoslavakia. Like all his works, it is rich in symbolism with a style that is simple yet sophisticated. As one of the most important prose Hindi writers of our times, Nirmal Verma's creativity extends to the description and travel to places in Europe especially on Czechoslovakia and literary criticism. Among his nonfiction writings is Kal ka jokhim an investigation of the Indic arts in the 20th century. His diary, Dhundh se uthati dhun, describes his life in detail while addressing issues related to Hindi literature. His works have been widely translated into English and Gujarati.
वो जून के अंत के दिन थे। दो दिन से सिर्फ बादल थे और फिर रात में बरस गए… धीमे से जैसे किसी ने उन्हें नींद से जगाया हो कि उठो तुम्हे बरसना भी है। और जैसे कोई गहरी नींद से उठता है, धीमे धीमे दिन और जागने का आलोक आंख और मन में भरता है ठीक वैसे बरसे।
कुछ चीजें हमेशा के लिए जीवित रह जाती हैं। समय उन्हें नहीं सोखता – वे खुद समय को सोखती रहती हैं।
निर्मल वर्मा – एक चिथड़ा सुख निर्मल वर्मा कितना गहरा असर करते हैं। उनकी किताब एक चिथड़ा सुख पढ़ी है। कितना सहज है उनके लिए एक एक शब्द लिखना। अपने जीवन को देखता हूं और सोचता हूं कि हर एक दृश्य कितना अधूरा है – निर्मल वर्मा की कहानी में होता तो इसे पूर्णता मिल जाती। ऐसा क्या है उनके शब्दों के भीतर? एक चुप्पी! स्थिर चुप्पी जो इतने धीमे से पड़ोस में आकर उंगली थामकर चलती है कि शरीर और मन का अंग जान पड़ती है।
उनकी लिखाई बारिश है जो झरती है। धीमे धीमे, इतना धीमे कि शुरू में लगता है ये कुछ नहीं है, ये रुक जाएगी पर आस पास की बूंदे इकट्ठा होकर मन, आत्मा, चेतना सब को भिगा जाती हैं। बहुत अंत में फिर बादल फटता है – उनके लिखे में नहीं – मन के किसी चुप कोने में।
मैं सोचता हूँ, वह एक सुखी शाम है, सुख जो अचानक चला आता है, बातों के बीच, बोतल उठाने और गिलास रखने के बीच, हँसी के टुकड़ों पर।
निर्मल वर्मा – एक चिथड़ा सुख ऐसा लिखना मुमकिन है? क्या सहा है उन्होंने? ऐसे कई सारे सवाल मन में घर कर जाते हैं। सोचता हूं वो अब यहां मेरी जगह होते, यूं बारिश की बौछार की धीमी आवाज़ सुन रहे होते तो क्या देखते?? उनके देखने में और मेरे देखने में असीम अंतर होगा – किन शब्दों या वो कौनसी चुप्पी है जिससे ये अंतर पाटा जा सकता है???
दिल्ली अब कभी वैसे नहीं घूम सकूंगा जैसे घूमता था। किताब के बाद अब निर्मल वर्मा हर वक़्त साथ रहेंगे – कैनॉट प्लेस अब और अजनबी हो गया है पर एक धागा बांधा है – जितना अनजान हुए उतना ही धागा मजबूत होगा- ये जादू है निर्मल वर्मा का। उनकी किताब में मंडी हाउस पढ़ा – ऐसा लगा मैंने कभी मंडी हाउस देखा ही नहीं – ये मंडी हाउस कहां है?? क्या सिर्फ उनकी किताब में???
कुछ रिश्ते रेगिस्तान से होते हैं – जिन्हे हर रोज लांघना पड़ता है।
निर्मल वर्मा – एक चिथड़ा सुख कुछ जगहों की प्यास अब उस जगह से ज्यादा उस जगह के बारे में पढ़कर मिटेगी – ऐसा विश्वास सा हो रहा है। इतने सारे सच। और सब fiction में। हहा। ये जादू नहीं तो क्या है?? और जादूगर – निर्मल वर्मा।
"नित्ती भाई की बातें सुनते हुए हमेशा अपने दुख छिछोरे जान पड़ते, शायद इसलिए कि वह इतने अद्भुत ढंग से अधूरे थे; कुछ लोग इतने सम्पूर्ण ढंग से अधूरे होते हैं कि अपना अधूरापन पोंगा-सा जान पड़ता है।"
I don't know what to say in the review of this book. Scenes are still stuck in my head. Will write a detailed review later sometime. Or may be not.
एक चिथड़ा सुख निर्मल वर्मा के शब्दों में इतनी ताकत है कि आपको पता भी नही लगता और आप पढ़ते हुए रूक जाते हैं और यूं ही ख़ाली जगह पे निहारने लगते हैं, ठीक बिट्टी, उसके कजिन, मुन्नू, डैरी, और नित्ति की तरह। और फिर एक ठहराव आता है, आप पहले किताब के किरदारों के दुःख के बारे में सोचते हैं और उसके बाद अपने अकेलेपन के बारे में। "बीती हुई स्मृति आनेवाली पीड़ा को कभी माफ नहीं करती" उसी तरह आपकी भी स्मृतियां जो दिल के कहीं कोने में न जाने कितने वर्षों से सुन्न पड़ी थीं, जाग जाती हैं। ये असर है निर्मल वर्मा के शब्दों का।
वैसे तो सीधे तौर पर कहें तो यह उपन्यास चार अलग अलग किरदारों के बारे में है जो साथ मिलकर एक प्ले की तैयारी कर रहे हैं। लेकिन असली कहानी इन किरदारों की एक अपनी अपनी यात्रा है जिसकी मंजिल शायद सुख की तलाश है, जिसका बस एक चिथड़ा हासिल हो पाता या शायद वो भी नहीं। और है तो बस दुख चारों तरफ़। और फिर इन चारों के बीच है एक १४- १५ साल का मुन्नू, जो होकर भी उन चारों के लिए उनके बीच नही है। वह बीमार है लेकिन वह सब कुछ देखता है और अपनी मां की दी हुई डायरी में लिखता रहता है। यह डायरी संभवतः मुन्नू की कोशिश है अपने अधूरेपन को भरने की। इन किरदारों के माध्यम से निर्मल वर्मा ने ज़िंदगी के रहस्य को समझने की कोशिश की है जिसे पढ़ना आसान नहीं है, इसलिए नहीं कि शब्द या लिखावट की शैली कठिन है, कठिन इसलिए कि शब्दों के मायने abstract हैं जो पहली बार पढ़ने पर साधारण प्रतीत होता लेकिन शब्दों के साथ कुछ समय व्यतीत करने पर दार्शनिक भी । इन शब्दों को सोखने के लिए आपको हर पन्ने पर ठहरना पड़ सकता है,और फिर ये सब आपके जीवन का हिस्सा बन जायेगी। मैं तो इन्हें बार बार पढ़ना चाहूंगा, शायद और समझ पाऊं।
"हम स्मृति में उसे पकड़ते हैं, जो मृत और मुर्दा हैं; जब वह जीवित थी, हम उसे ओझल कर देते हैं, हाथ से निकल जाने देते हैं, भूल जाते हैं।" ऐसी न जाने कितनी अमूल्य वाक्य हैं जो हैं तो बस एक वाक्य लेकिन जिनको कहने में बाकी विशिष्ट लेखकों को एक निबंध लिखना पड़ सकता है, निर्मल वर्मा बड़ी संजीदगी और सरलता से कह देते हैं। उनके हर एक वाक्य के लिए निर्मल वर्मा को पढ़ा जाना चाहिए।
"तुमने कभी उसे देखा है?... किसे?...दुख को... मैंने भी नहीं देखा, लेकिन जब तुम्हारी कज़िन यहां आती है, मैं उसे छिप कर देखती हूँ। वह यहां आकर अकेली बैठ जाती है। पता नहीं, क्या सोचती है और तब मुझे लगता है, शायद यह दुख है।"
"नित्ती भैया की बातें सुनते हुए हमेशा अपने दुख छिछोरे जान पड़ते, शायद इसलिए कि वह इतने अदभुत ढ़ंग से अधूरे थे; कुछ लोग इतने सम्पूर्ण ढ़ंग से अधूरे होते हैं कि अपना अधूरापन पोंगा सा जान पड़ता है।"
हर कोई अधूरा है। हर किसी की ज़िंदगी में दुख है। लेकिन हम अपने अधूरेपन को समेटते हुए अपने दुख की गहराई में डूबे चले जाते हैं। फिर कभी किसी मोड़ पर ऐसा कोई मिलता है जिसे देख कर एहसास होता है कि वह हम से भी ज़्यादा दुखी है, तो अपना दुख कम सा हुआ जान पड़ता है। इस कहानी के सभी पात्र अपने-अपने तरीके से अपने दुख और अधूरेपन को जी रहे हैं। इन दुखों से उभर पाना आसान नहीं, कयोंकि 'बीती हुई स्मृति आने वाली पीड़ा को कभी माफ नहीं करती।' और तब कहीं से एक चिथड़ा सुख मिल जाए तो तपती धरती पर पानी की शीतल बौछार जैसा महसूस होता है। निर्मल वर्मा जी ने अपने पात्रों के अधूरेपन को इस कदर सरलता से पिरोया है कि यह किसी जादू के समान लगता है। शब्दों के जादूगर ही तो हैं निर्मल जी। दिल्ली शहर में पात्रों के अकेलेपन को जिस तरह से महसूस करने को विवश करती है यह कहानी, उस से इस शहर को देखने का नज़रिय��� ही बदल सा जाता है। इस कहानी के बारे में शब्दों से बयाँ करना बेहद मुश्किल है। इसे केवल महसूस किया जा सकता है।
इनके लिखे का क्या रिव्यू लिख पाउँगा ? इन्हें पढ़ना मतलब अपने अंदर की यात्रा पर जाना है; बिलकुल व्यक्तिगत यात्रा। जिसे सिर्फ पढ़ने वाला महसूस करेगा और हर पाठक के लिए ये यात्रा अलग तरह की होगी।
इस पुस्तक में एक नैरेटर चार पात्रों के बारे में बता रहा है। वे एक नाटक के रिहर्सल में व्यस्त हैं... उनकी एक स्टेज वाली दुनिया है, एक स्टेज से परे वर्तमान की दुनिया और एक अतीत। चारों अपने अतीत को पीछे छोड़कर वर्तमान में कुछ पाने....सुख पाने की कोशिश में हैं।
लेकिन
"बीती हुई स्मृति आनेवाली पीड़ा को कभी माफ नहीं करती। हम स्मृति में उसे पकड़ते हैं, जो मृत और मुर्दा हैं; जब वह जीवित थी, हम उसे ओझल कर देते हैं, हाथ से निकल जाने देते हैं, भूल जाते हैं।"
इन्हें पढ़ते हुए लगता है कि जीवन सुख-दुःख का धूप-छाँव न होकर दुःख के खारे पानी से भरे समुद्र में यात्रा की तरह है, बस इस समुद्र में कहीं-कहीं कोई द्वीप हैं जहाँ मीठे जल का स्रोत है।
"तुमने कभी उसे देखा है?... किसे?...दुख को... मैंने भी नहीं देखा, लेकिन जब तुम्हारी कज़िन यहां आती है, मैं उसे छिप कर देखती हूँ। वह यहां आकर अकेली बैठ जाती है। पता नहीं, क्या सोचती है और तब मुझे लगता है, शायद यह दुख है।"
कोई भी व्यक्ति पूर्णता के आस-पास तक नहीं होता है; सब अपने में अधूरे हैं।
"नित्ती भैया की बातें सुनते हुए हमेशा अपने दुख छिछोरे जान पड़ते, शायद इसलिए कि वह इतने अदभुत ढ़ंग से अधूरे थे; कुछ लोग इतने सम्पूर्ण ढ़ंग से अधूरे होते हैं कि अपना अधूरापन पोंगा सा जान पड़ता है।"
"तुमने कभी उसे देखा है?... किसे?...दुख को... मैंने भी नहीं देखा, लेकिन जब तुम्हारी कज़िन यहां आती है, मैं उसे छिप कर देखती हूँ। वह यहां आकर अकेली बैठ जाती है। पता नहीं, क्या सोचती है और तब मुझे लगता है, शायद यह दुख है।"
एक चीथड़ा सुख - निर्मल वर्मा।
अकेलापन। मेरा मानना है कि सबने अकेलेपन को देखा है और अकेलेपन ने सबको। अब तक यह तय नहीं कर पाया हु के सब दुखी लोग अकेले होते है या सब अकेले लोग दुखी, पर इतना जरूर पता है कि बहुत लोगों को लगता है कि अगर कम अकेले होंगे तो चीथड़े भर सुख तो मिल ही जाएगा।
अधूरापन के भी कई रूप होते होंगे। जब आपके साथ कोई न हो ऐसा अधूरापन, जब आप लोगों के बीच हो वे वाला अधूरापन, नित्ती भाई के जैसा अधूरापन या फिर बिट्टी जैसा अधुरापन ...
"नित्ती भाई की बातें सुनते हुए हमेशा अपने दुख छिछोरे जान पड़ते, शायद इसलिए कि वह इतने अद्भुत ढंग से अधूरे थे; कुछ लोग इतने सम्पूर्ण ढंग से अधूरे होते हैं कि अपना अधूरापन पोंगा-सा जान पड़ता है।"
बहुत ही सुंदर उपन्यास । कजिन, बिट्टी, इरा, नित्ती भाई, और डेरी। निर्मल वर्मा के ये किरदार आपको खुदके अधूरेपन का अहसास भी कराते है और आपके अधूरेपन को दूर भी । भले थोड़े टाइम के लिए ही क्यों नहीं। आप भी पढ़े और एक चीथड़ा सुख ढूंढे ।
-तुमने कभी उसे देखा है ? -किसे ? दुख को... मैंने भी नहीं देखा, लेकिन जब तुम्हारी कज़िन (cousin)यहाँ आती है, मैं उसे छिप कर देखती हूँ। वह यहाँ आकर अकेली बैठ जाती है। पता नहीं, क्या सोचती है और तब मुझे लगता है, शायद यह दुख है! (किताब में शब्द इस तरह से अपने को गढ़ना शुरू करते है )
“एक चीथड़ा सुख” इच्छा,दुःख और मृत्यु के बीच जन्में परिस्थितियों की है जिसमें दिल्ली की सड़के किसी शरीर के अंदर बने नदी की तरह लगती है। लगता है जब यह नदी कहीं रुकेगी तो क्या होगा?
किरदारों के अंदर चल रहे उथल पुथल को इतने संजीदगी से रखा है लेखक निर्मल वर्मा ने लगता है उनकी रचनाएँ और कितना ज़िंदगी को उकेरेंगी, लेकिन सारी तहें इतनी मज़बूती से भावनाओं और परिस्थितियों से जुड़ी है की एक धागा भी शब्द का इधर से उधर नहीं किया जा सकता।
किरदारों के अंदर की परतें लंबी साँस लेने को मजबूर करती है पढ़ते वक़्त । नित्ती भाई के घर से बहता हुआ पानी इतना दर्द और दुख के साथ सीढ़ियों से उतरता हुआ महसूस हुआ मुझे कि लगा बस यहीं रुक जाना सही है आगे नहीं बढ़ना नहीं पढ़ना । सीढ़ियों से बिट्टी के साथ ऊपर नहीं जाना लेकिन, मृत्यु के बाद की उदासी मेरी साँस और शब्द दोनों को धीरे धीरे सरका कर किताब के अंतिम शब्द तक लेकर जाती है उसके बाद एक लंबी साँस और पन्ने सफ़ेद।
Technically it has taken me long time to "finish" reading this book. Though its such a short novel. When I started this book I immediately realised that its one of those stories which demand that the reader submit herself to a certain 'zone'. In the daily grind of life it is not always possible to get in that zone and hence I would not pick up this book till I truly felt like it. I have read many other books in between this. Due to the long period that I have taken to finish this book the characters have been with me for long and now that the book is done with I feel weird. Having said all this, I do not wish to comment upon the story or the plot or the writing. Almost every Hindi literature enthusiast is aware of the place Nirmal Varma enjoys in the world of Hindi literature. He deserves it! This story is so packed that in the end it filled me with a certain emptiness that is so heavy at the same. The line' 'unbearable lightness of being' suits this novel too. I do not wish to comment any more than this. Read and see for yourself.
कहती थीं, देखते हुए हम जो भूल जाते हैं, लिखते हुए वह एक बार फिर याद आ जाता है; लेकिन ‘याद’ करना’ देखना नहीं है, वह अलग करना है... * * * दुनिया का जादू अभी ख़त्म नहीं हुआ था। वह तेज़ी से जी रहा था। * * * कुछ चीजें हमेशा के लिए जीवित रह जाती हैं। समय उन्हें नहीं सोखता- वे ख़ुद समय को सोखती हैं। * * * उन्हें देखकर यह नहीं लगता था कि वह कुछ ढूँढ रहे हैं; उलटे लगता था, उन्हें कोई ढूँढ रहा है- और वह अभी तक बचे हैं। कुछ लोगों को अकेले ही छोड़ देना चाहिए। अगर वे उन्हें पूरी तरह अकेला छोड़ दें, तो वे आख़िर तक बचे रहते हैं।
. यह उपन्यास एक यात्रा की तरह , जिसे आप पढ़ते हुए अपने भीतर महसूस कर सकते हैं। किसी किरदार का अकेलापन अपना सा लगे यह हुनर केवल निर्मल वर्मा के शब्द और उनकी वाक्य रचना ही कर सकती हैं।
निर्मल वर्मा से बहुत देर में मुलाकात हुई। एक चिथड़ा सुख कहानी है कुछ दोस्तों की जो अपनी जिंदगी में खुद को ढूंढ रहे हैं, और शायद ढूंढ रहे हैं वो एक चिथड़ा सुख जिसे लेखक ने बेहद खूबसूरती से पन्ने पर उतारा है। हिंदी लेखन की खास बात है की उसे पड़ते हुए लगता है जैसे समय धीरे चलने लगा है। किताब 1979 में लिखी गई थी, तो इसे पड़ते समय आप उस ज़माने में पहुंच जाते हैं जिसे आपने खुद नही देखा, खुद नही जिया। दिल्ली के उन सभी इलाकों की बात होती है जिन्हे आप जानते हैं, लेकिन उस रूप में नहीं जिस रूप में लेखक ने उन्हें जाना था। कहानी आपको सभी पात्रों से जुड़ने का मौका देती है जैसे आप खुद वो सब होता देख रहे हैं जो घट रहा है। ज़रूर पढ़िए।
Last time I didn’t finish it, so long ago. This time started reading on plane while going to Hawaii. It is a weird book, all characters are kinda sad. Reminds me of some special people I met when I was in Delhi. I don’t know why people make their lives so complicated!
सुख क्या है? सुख की तलाश में इंसान पूरा जीवन क्यों निकाल देता है ? दुख भी तो सुख के समान ही शाश्वत है फिर हम उससे दूर क्यों भागते हैं ? दुःख का मन परखना क्या है? इन्हीं सवालों के जवाब ढूंढते हुए मैंने अपने प्रिय लेखकों में से एक निर्मल वर्मा का एक और उपन्यास खत्म कर दिया। "एक चिथड़ा सुख" में लेखक ने कुछ पात्रों और दिल्ली शहर के मार्फ़त दुःख को परिभाषित करने का एक प्रयास किया है। निर्मल वर्मा की कहानियों में पात्र सिर्फ़ संवाद से बात नहीं करते अपितु उनकी चुप्पी भी बहुत कुछ कहती है। कहानी के सभी पात्रों का एक अतीत है जहां वो खुद को छोड़ आये हैं, वर्तमान समय में सभी एक थिएटर ग्रुप से जुड़े हैं जो स्ट्रीनबर्ग के एक नाटक का मंचन करना चाहता है। कहानीका नरेटर मुन्नू स्वयं इलाहबाद से अपनी कजिन के साथ रहने दिल्ली शहर आता है। उसकी कजिन बिट्टी जो थिएटर ग्रुप की सदस्या है एक बरसाती में रहती है। बरसाती में बहुत ही मामूली चीज़ें जैसे किताबें, ग्रामोफोन प्लेयर, कुछ बर्तन और कपड़े आदि ही हैं। बिट्टी के थिएटर ग्रुप के डायरेक्टर डैरी, उसकी दोस्त ईरा और मंडली के अन्य सदस्य बराबर बिट्टी की बरसाती में आते रहते हैं। ये उनका एक तरह का अड्डा है जहां दिन भर की कड़ी मशक्कत के बाद ग्रामोफोन पर गाने बजते हैं, छत की खुली हवा और तारों के नीचे, ठंडी बीयर का आनंद उठाया जाता है।
🌸बिट्टी घर परिवार से विद्रोह करके इलाहाबाद से दिल्ली थिएटर में काम करने आयी है, उसकी इच्छा खुद के पैरों पर खड़े होकर दुनिया घूमने की है । 🌸डैरी का अपना एक अतीत है जहां वो एक विचारधारा से प्रभावित होकर कॉलेज के बाद बिहार के गांवों में रहे थे, हालांकि अपने बीते हुए कल को वो याद नहीं करना चाहते हैं । 🌸नित्ती भाई एक अन्य पात्र हैं जो नाटक के सेट बनाते हैं, पेशे से आर्किटेक्ट हैं और अपने परिवार के साथ दिल्ली में रहते हैं। 🌸ईरा इंग्लैंड से दिल्ली पढ़ने आती है और इस थिएटर ग्रुप से जुड़ जाती है, उसे यहां रहते हुए भी अजनबी सरीखा ही लगता है क्यों कि उसके घर परिवार वाले अभी भी हिंदुस्तान से बाहर हैं।
ये चारों पात्र मिलकर एक प्ले की रिहर्सल करते हैं लेकिन असली नाटक कहीं और चल रहा है। जी हां वो इनके मन में चल रहा है, सभी को सुख की तलाश है पर शायद इसका एक चिथड़ा मात्र ही इन्हें प्राप्त होता है। मुन्नू अपनी डायरी में सारी छोटी बड़ी घटनाओं को दर्ज़ करता रहता है, ये सम्भवतः उसका एक प्रयास है अपनी गुजरी हुई मां को श्रद्धांजलि देने का। उसकी उम्र भी कम है तो मुमकिन है ये लिखी हुई बातें बाद में उसकी समझ में आये। मुन्नू कहता है "मैं अपने लिखे को भूल जाता हूं और वो घटनाएं जो एक शाम हुईं थीं, कॉपी के जर्द पन्नों के बीच दबी रहती है".. कहानी की रफ़्तार ऐसी है कि आपको कई वाक्यों , शब्दों, पन्नों आदि पर थमकर इन्हें आत्मसात करना पड़ेगा, लेकिन जब आप इसके विषय में सोचते हैं तो अद्भुत लगता है। लेखक ने इन पात्रों की नज़र से भटकते हुए मंडी हाउस, कनॉट प्लेस, कर्जन रोड, निज़ामुद्दीन जैसे दिल्ली के कई स्थलों का सजीव वर्णन किया है। ये शहर लेखक के शब्दों की रोशनी में डूबकर और खूबसूरत दिखाई देता है।
भाषा शैली जो लेखक की खुद की ईजाद की हुई है, आपको एक सुखद अनुभूति देती है। मुझसे कोई पूछे कि सुख क्या है तो शायद अनायास ही बोल पड़ूं कि निर्मल वर्मा को पढ़ना :) किसी भी भाषा प्रेमी और अच्छा साहित्य पढ़ने की इच्छा रखने वाले के लिए ये किताब सच में सुख है।
कुछ हिस्से जो अच्छे लगे, नीचे उद्धृत कर रहा हूं : -
"क्या वह अभी भी वहीं खड़ी है? क्या ऐसा हो सकता है कि जब मैं बरसों बाद वापिस लौटूँगा, वह वहीं खड़ी होगी, एक लंबी छरहरी लड़की, काली शाल में लिपटी हुई। नहीं, यह असंभव है, मैंने सोचा। लोग पेड़ नहीं हैं जो एक जगह खड़े रहें, और पेड़ भी मुरझा जाते हैं – the woods decay and the woods decay – मुझे बरसों पहले पढ़ी हुई एक लाइन याद आती है और तब मुझे काफी अजीब लगा कि जंगल भी जरजरा जाते हैं, बूढ़े हो जाते हैं, झर जाते हैं…।"
"जैसे समय कोई ऊंचा पहाड़ है और सब लोग अपनी अपनी पोटलियों के साथ ऊपर चढ़ रहे हैं - हांफ रहे हैं , बिना ये जाने की ऊपर चोटी पर - वे सब हवा में गायब हो जायेंगे और धूल में लदी फंदी पोटलियां । पता नहीं उनमें क्या भरा है - प्रेम, घृणा, निराशाएं, दुख, नीचे लुढ़का दी जायेंगी। जिन्हें दूसरे लोग पकड़ लेंगे और फिर उन्हें पीठ पर ढोते हुए ऊपर चढ़ने लगेंगे।"
"घर की एक आवाज में कितनी तहें जमी होती हैं, जिन्हे बाहर का आदमी सुनकर भी कभी नहीं समझ पाता… बरसों से जमी परतें, जो सिर्फ उनके लिए खुलती हैं, जो उनके भीतर जीते हैं।"
निर्मल वर्मा का मशहूर उपन्यास एक चिथड़ा सुख, मनुष्य की चाहत, अकेलापन और जीवन के अर्थ की नाज़ुकता पर आधारित है। वर्मा ने अपनी सच्ची और गहरी लेखन शैली में भावनाओं को बहुत सुंदर तरीके से दिखाया है। एक छोटे लड़के की नज़र से कही गई यह कहानी अपने नाम — “एक चिथड़ा सुख” — की सादगी में ही बहुत गहरा अर्थ छिपाए हुए है।
कहानी का असली अर्थ एक फ्लैशबैक में सामने आता है, जब मुन्नू नाम का लड़का अपनी चचेरी बहन बिटी के साथ इलाहाबाद के मेले में जाता है। बिटी ने कहा था कि वह जीवन की छोटी-छोटी बातों में फँसी हुई महसूस करती है और कुछ गहरी सच्चाई खोजना चाहती है। मेले में दोनों एक अंधेरे तंबू में जाते हैं, जहाँ वे एक अजीब दृश्य देखते हैं — बिना धड़ वाली बूढ़ी औरत का सिर एक सिंहासन पर रखा है, और उसके पास एक झुका हुआ बौना खड़ा है। आज़ादी की चाह में बिटी उस बौने से पूछती है — “सुख क्या है?”
बौने का जवाब चौंकाने वाला होता है। उसकी आँखों में गहरा दुःख है। वह अपना फटा हुआ कपड़ा फाड़ देता है और दिखाता है कि “सुख” कोई आरामदायक चीज़ नहीं है, बल्कि एक घाव, एक मज़ाक की तरह है — एक चिथड़ा, जो फटा और बिखरा हुआ है। वह उस कपड़े का टुकड़ा बिटी को दिखाते हुए मुस्कुराता है और कहता है — “इसे ही सुख कहते हैं, छोटी! देखो, यही असली है।” यह दृश्य पूरे उपन्यास का अर्थ तय करता है — कि इंसान जिस “सुख” की तलाश करता है, वह अक्सर बस इस फटे हुए “चिथड़े” जैसा होता है — थोड़ा-सा, और बहुत जल्दी खो जाने वाला।
I wish I had been introduced to Nirmal Verma earlier.How can a book, a writer, teach you so much? This debut book helped me not only observe the world from a distance but also see things as simple as they could be—rather, as they should be. Colors as colors, smile as smile, pain as pain, and human as human — raw, unfiltered.
I paused after every paragraph, every page, every scene, every chapter, just to admire how simple yet complex it is to see and feel the emotions around you. Nirmal Verma makes us see the world of Bitti and her few friends through the eyes of her cousin, Munnu. Munnu, whose specialty is that he is invisible. He is there and not there at the same time.
The cousin from Allahabad, in a perpetual fever, yet seeing Bitti’s world so closely. Ek Chithra Sukh — I feel it’s the story, just as its name suggests. A torn piece of happiness. Every character in this book speaks of those torn pieces in their life, and the happiness attached — whether it is Bitti, Deery, Ira, or Nitti Bhai… or yes, Munnu… and maybe even Nirmal Verma himself.
I couldn’t bring myself to finish the book — or perhaps, I didn’t want to. I wanted to leave the ending open, just as I felt it. Someday, I’ll return to it and see if it still holds the ending I’ve quietly imagined all along.
निर्मल वर्मा जी के नाम के हिसाब से अच्छी पुस्तक है पर मेंने अंतिम अरण्य पढ़ी है तो उस अपेक्षा पर खरी नहीं उतर पाई। वर्मा जी मानवीय रिश्तों की परतों में पड़ताल करते हैं और फिर व्यक्त करते हैं। मैं पुस्तक पढ़ते हुए उस गहराई तक नहीं उतर पाया। मुझे लगा वंदे भारत एक्सप्रेस में बैठा हूँ तो यहां सब आला दर्जे का होने वाला है। पर इस तरह की ट्रेन में लोग लोकल की तरह वोकल नहीं होते। हर किरदार अपना अकेलापन, उबाऊ पन ढोता चलता है। वंदे भारत एक्सप्रेस (निर्मल वर्मा) है तो आपको लगातार उम्मीद रहती है कि शायद अगले पड़ाव पर मजा आ जाए, पर ट्रेन अपनी ही रफ्तार में चलती है और मैं कुछ अच्छे की उम्मीद से ट्रेन से नहीं उतरा। यात्रा पूरी की। अंतिम स्टेशन तक पता नहीं चला ट्रैन का गंतव्य क्या है। एक 14 वर्षीय बालक की नजर से चार किरदारों की कहानी है, सब थिएटर के लिए आपस में गहरे जुड़े हैं, दो प्रेम कहानियां हैं जो आज के हिसाब से प्रेम कहानी लगती नहीं, पर है सच्चे वाली। थिएटर में ये बेहतरीन लोग वास्तविक जीवन में बहुत अजीब से जीव मालूम पड़ते हैं और सूत्रधार 14 वर्षीय बालक पूरी पुस्तक के दौरान उन 4 लोगों और उनके बीच स्वयं की जगह को तलाशता नजर आता है। अंतिम अरण्य न पढ़ी होती तो शायद इसको 4 स्टार रेटिंग दे देता या तब भी नहीं देता।
निर्मल वर्मा जी को पढ़ना सुखद अनुभव रहता है उनकी किताबों में पात्रों के व्यक्तिगत संवेदनाएं सुख-दुख बहुत महत्व है इस पुस्तक में भी एक बीमार लड़के मोनू की नजरों से अपने आसपास की दुनिया में जिसमें उनकी बहन बिट्टी ईरा व डेरी है यह सब बात बहुत ही पढ़े लिखे और दुनिया के दुख हो थियेटर के माध्यम से व्यक्त करना चाहते हैं यह एक ही जिंदगी में दो जिंदगी जी रहे हैं और वास्तव में देखा जाए तो सभी व्यक्ति एक ही जीवन में कई प्रकार के जीवन जीता है और उन सभी जीवन का अपना एक अलग अनुभव होता है बहुत ही अद्भुत संवेदना से भरी किताब|
मैं क्या जज़्ब करना चाहता हूं। तुम्हे पढ़कर मैं बीच मे भूल जाता हूं कि लोगों ने बताया था कि पढ़ने के बाद अंदर बहुत कुछ बदल जाएगा। एक चिथड़ा सुख - वह बोना जिसके कपड़े चिथड़े होजाने के बाद बस एक चिथड़ा शरीर पर बचा, तो क्या अंत मे जो बचा वह सुख है या जिसे हमने सबसे ज़्यादा बचाए रखना चाहा वह सुख है। अक्सर सोचता हूँ कि उन पत्रों की जगह मैं होता तो अलग तरह से कहानी होती। पर क्या वाकई होती? यह जादू है। अंदर तक झकझोरता हुआ
This entire review has been hidden because of spoilers.
Not my taste tbh. The author focussed more on internal emotions and its atmosphere rather than strong plot movement. Story sometimes feels stuck and elongated with too much analogous explanation (which at some point, feels unnecessary as if not making much sense). I honestly had expected better seeing its reviews and all. Well maybe just that some will like it, some won't, like any other piece of fiction.
My first book of Nirmal Verma. Wanted to read him since long and pandemic made this happen for me. An engaging style of narrating the story. There are many similarities in writing between him and Manav Kaul. Their command over Hindi writing is beautiful. Lovely read.
कुछ किताबें ऐसी होती है जिनको पढ़ने के बाद ऐसा लगता है कि आपके अंदर जितनी भी दबी और छिपी हुई भावनाए थी सब एक साथ तांडव करने लग जाती है। यह वैसी ही एक किताब है।
Grt,दर्द को कितने अकेलेपन से देखा है, डेरी, इरा, मुन्नू, नित्ति और बिट्टी ने। अदभुत औऱ दर्दीला सा। एक अकेले पड़े गुलाब की तरह जो क़िताब में बरसों से बंद हो।
"Write what you see,but what you see may not be right. " Turning acute observations into beautiful metaphors. Love the writing style. मकबरे पर लेटी छिपकली की मूर्छित नींद।
सुख क्या है? सुख की तलाश में इंसान पूरा जीवन क्यों निकाल देता है ? दुख भी तो सुख के समान ही शाश्वत है फिर हम उससे दूर क्यों भागते हैं ? दुःख का मन परखना क्या है? इन्हीं सवालों के जवाब ढूंढते हुए मैंने अपने प्रिय लेखकों में से एक निर्मल वर्मा का एक और उपन्यास खत्म कर दिया। "एक चिथड़ा सुख" में लेखक ने कुछ पात्रों और दिल्ली शहर के मार्फ़त दुःख को परिभाषित करने का एक प्रयास किया है। निर्मल वर्मा की कहानियों में पात्र सिर्फ़ संवाद से बात नहीं करते अपितु उनकी चुप्पी भी बहुत कुछ कहती है। कहानी के सभी पात्रों का एक अतीत है जहां वो खुद को छोड़ आये हैं, वर्तमान समय में सभी एक थिएटर ग्रुप से जुड़े हैं जो स्ट्रीनबर्ग के एक नाटक का मंचन करना चाहता है। कहानीका नरेटर मुन्नू स्वयं इलाहबाद से अपनी कजिन के साथ रहने दिल्ली शहर आता है। उसकी कजिन बिट्टी जो थिएटर ग्रुप की सदस्या है एक बरसाती में रहती है। बरसाती में बहुत ही मामूली चीज़ें जैसे किताबें, ग्रामोफोन प्लेयर, कुछ बर्तन और कपड़े आदि ही हैं। बिट्टी के थिएटर ग्रुप के डायरेक्टर डैरी, उसकी दोस्त ईरा और मंडली के अन्य सदस्य बराबर बिट्टी की बरसाती में आते रहते हैं। ये उनका एक तरह का अड्डा है जहां दिन भर की कड़ी मशक्कत के बाद ग्रामोफोन पर गाने बजते हैं, छत की खुली हवा और तारों के नीचे, ठंडी बीयर का आनंद उठाया जाता है।
🌸बिट्टी घर परिवार से विद्रोह करके इलाहाबाद से दिल्ली थिएटर में काम करने आयी है, उसकी इच्छा खुद के पैरों पर खड़े होकर दुनिया घूमने की है । 🌸डैरी का अपना एक अतीत है जहां वो एक विचारधारा से प्रभावित होकर कॉलेज के बाद बिहार के गांवों में रहे थे, हालांकि अपने बीते ���ुए कल को वो याद नहीं करना चाहते हैं । 🌸नित्ती भाई एक अन्य पात्र हैं जो नाटक के सेट बनाते हैं, पेशे से आर्किटेक्ट हैं और अपने परिवार के साथ दिल्ली में रहते हैं। 🌸ईरा इंग्लैंड से दिल्ली पढ़ने आती है और इस थिएटर ग्रुप से जुड़ जाती है, उसे यहां रहते हुए भी अजनबी सरीखा ही लगता है क्यों कि उसके घर परिवार वाले अभी भी हिंदुस्तान से बाहर हैं।
ये चारों पात्र मिलकर एक प्ले की रिहर्सल करते हैं लेकिन असली नाटक कहीं और चल रहा है। जी हां वो इनके मन में चल रहा है, सभी को सुख की तलाश है पर शायद इसका एक चिथड़ा मात्र ही इन्हें प्राप्त होता है। मुन्नू अपनी डायरी में सारी छोटी बड़ी घटनाओं को दर्ज़ करता रहता है, ये सम्भवतः उसका एक प्रयास है अपनी गुजरी हुई मां को श्रद्धांजलि देने का। उसकी उम्र भी कम है तो मुमकिन है ये लिखी हुई बातें बाद में उसकी समझ में आये। मुन्नू कहता है "मैं अपने लिखे को भूल जात��� हूं और वो घटनाएं जो एक शाम हुईं थीं, कॉपी के जर्द पन्नों के बीच दबी रहती है".. कहानी की रफ़्तार ऐसी है कि आपको कई वाक्यों , शब्दों, पन्नों आदि पर थमकर इन्हें आत्मसात करना पड़ेगा, लेकिन जब आप इसके विषय में सोचते हैं तो अद्भुत लगता है। लेखक ने इन पात्रों की नज़र से भटकते हुए मंडी हाउस, कनॉट प्लेस, कर्जन रोड, निज़ामुद्दीन जैसे दिल्ली के कई स्थलों का सजीव वर्णन किया है। ये शहर लेखक के शब्दों की रोशनी में डूबकर और खूबसूरत दिखाई देता है।
भाषा शैली जो लेखक की खुद की ईजाद की हुई है, आपको एक सुखद अनुभूति देती है। मुझसे कोई पूछे कि सुख क्या है तो शायद अनायास ही बोल पड़ूं कि निर्मल वर्मा को पढ़ना :) किसी भी भाषा प्रेमी और अच्छा साहित्य पढ़ने की इच्छा रखने वाले के लिए ये किताब सच में सुख है।
कुछ हिस्से जो अच्छे लगे, नीचे उद्धृत कर रहा हूं : -
"क्या वह अभी भी वहीं खड़ी है? क्या ऐसा हो सकता है कि जब मैं बरसों बाद वापिस लौटूँगा, वह वहीं खड़ी होगी, एक लंबी छरहरी लड़की, काली शाल में लिपटी हुई। नहीं, यह असंभव है, मैंने सोचा। लोग पेड़ नहीं हैं जो एक जगह खड़े रहें, और पेड़ भी मुरझा जाते हैं – the woods decay and the woods decay – मुझे बरसों पहले पढ़ी हुई एक लाइन याद आती है और तब मुझे काफी अजीब लगा कि जंगल भी जरजरा जाते हैं, बूढ़े हो जाते हैं, झर जाते हैं…।"
"जैसे समय कोई ऊंचा पहाड़ है और सब लोग अपनी अपनी पोटलियों के साथ ऊपर चढ़ रहे हैं - हांफ रहे हैं , बिना ये जाने की ऊपर चोटी पर - वे सब हवा में गायब हो जायेंगे और धूल में लदी फंदी पोटलियां । पता नहीं उनमें क्या भरा है - प्रेम, घृणा, निराशाएं, दुख, नीचे लुढ़का दी जायेंगी। जिन्हें दूसरे लोग पकड़ लेंगे और फिर उन्हें पीठ पर ढोते हुए ऊपर चढ़ने लगेंगे।"
"घर की एक आवाज में कितनी तहें जमी होती हैं, जिन्हे बाहर का आदमी सुनकर भी कभी नहीं समझ पाता… बरसों से जमी परतें, जो सिर्फ उनके लिए खुलती हैं, जो उनके भीतर जीते हैं।"