अनामदास का पोथा आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी उन विरल रचनाकारों में थे, जिनकी कृतियाँ उनके जीवन-काल में ही क्लासिक बन गईं। अपनी जन्मजात प्रतिभा के साथ उन्होंने शास्त्रों का अनुशीलन और जीवन को सम्पूर्ण भाव से जीने की साधना करके वह पारदर्शी दृष्टि प्राप्त की, जो किसी कथा को आर्ष-वाणी की प्रतिष्ठा देने में समर्थ होती है। अनामदास का पोथा अथ रैक्व-आख्यान आचार्य द्विवेदी की आर्ष-वाणी का अपूर्व उद्घोष है। संसार के दुख-दैन्य ने राजपुत्र गौतम को गृहत्यागी, विरक्त बनाया था, लेकिन तापस कुमार रैक्व को यही दुख-दैन्य विरक्ति से संसक्ति की ओर प्रवृत्त करते हैं। समाधि उनसे सध नहीं पाती, और वे उद्विग्न की भाँति उठकर कहते हैं: ‘‘माँ, आज समाधि नहीं लग पा रही है। आँखों के सामने केवल भूखे-नंगे बच्चे और कातर दृष्टिवाली माताएँ दिख रही हैं। ऐसा क्यों हो रहा है, माँ?’’ और माँ रैक्व को बताती हैं: ‘‘अकेले में आत्माराम या प्राणाराम होना भी एक प्रकार का स्वार्थ ही है।’’ यही वह वाक्य है जो रैक्व की जीवन-धारा बदल देता है और वे समाधि छोड़कर कूद पड़ते हैं जीवन-संग्राम में। अनामदास का पोथा अथ रैक्व-आख्यान जिजीविषा की कहानी है। ‘‘जिजीविषा है तो जीवन रहेगा, जीवन रहेगा तो अनन्त संभावनाएँ भी रहेंगी। वे जो बच्चे हैं, किसी की टाँग सूख गई है, किसी का पेट फूल गया है, किसी की आँख सूज गई है - ये जी जाएँ तो इनमें बड़े-बड़े ज्ञानी और उद्यमी बनने की संभावना है।’’ तापस कुमार रैक्व उन्हीं संभावनाओं को उजागर करने के लिए व्याकुल हैं, और उसके लिए वे विरक्ति का नहीं, प्रवृत्ति का मार्ग अपनाते हैं।
आधुनिक युग के मौलिक निबंधकार और उत्कृष्ट समालोचक आचार्य हज़ारी प्रसाद द्विवेदी का जन्म १९ अगस्त १९०७ को बलिया जिले के छपरा नामक ग्राम में हुआ था। उनका परिवार ज्योतिष विद्या के लिए प्रसिद्ध था। उनके पिता पं. अनमोल द्विवेदी संस्कृत के प्रकांड पंडित थे।
द्विवेदी जी की प्रारंभिक शिक्षा गाँव के स्कूल में ही हुई और वहीं से उन्होंने मिडिल की परीक्षा पास की। इसके पश्चात उन्होंने इंटर की परीक्षा और ज्योतिष विषय लेकर आचार्य की परीक्षा उत्तीर्ण की।
शिक्षा प्राप्ति के पश्चात द्विवेदी जी शांति निकेतन चले गए और कई वर्षों तक वहाँ हिंदी विभाग में कार्य करते रहे। शांति–निकेतन में रवींद्रनाथ ठाकुर तथा आचार्य क्षिति मोहन सेन के प्रभाव से साहित्य का गहन अध्ययन और उसकी रचना प्रारंभ की।
द्विवेदी जी का व्यक्तित्व बड़ा प्रभावशाली है। उनका स्वभाव बड़ा सरल और उदार है। वे हिंदी अंग्रेज़ी, संस्कृत और बंगला भाषाओं के विद्वान हैं। भक्तिकालीन साहित्य का उन्हें अच्छा ज्ञान है। लखनऊ विश्वविद्यालय ने उन्हें डी.लिट. की उपाधि देकर उनका विशेष सम्मान किया है।
रचनाएँ – द्विवेदी जी की रचनाएँ दो प्रकार की हैं, मौलिक और अनूदित। उनकी मौलिक रचनाऔं में सूर साहित्य हिंदी साहित्य की भूमिका, कबीर, विचार और वितर्क अशोक के फूल, वाण भट्ट की आत्म–कथा आदि मुख्य हैं। प्रबंध चिंतामणी, पुरातन प्रबंध–संग्रह, विश्व परिचय, लाल कनेर आदि द्विवेदी जी की अनूदित रचनाएँ हैं।
इनके अतिरिक्त द्विवेदी जी ने अनेक स्वतंत्र निबंधों की रचना की है जो विभिन्न पत्र–पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए हैं।
वर्ण्य विषय – द्विवेदी जी के निबंधों के विषय भारतीय संस्कृति, इतिहास, ज्योतिष, साहित्य विविध धर्मों और संप्रदायों का विवेचन आदि है। वर्गीकरण की दृष्टि से द्विवेदी जी के निबंध दो भागों में विभाजित किए जा सकते हैं — विचारात्मक और आलोचनात्मक।
विचारात्मक निबंधों की दो श्रेणियाँ हैं। प्रथम श्रेणी के निबंधों में दार्शनिक तत्वों की प्रधानता रहती है। द्वितीय श्रेणी के निबंध सामाजिक जीवन संबंधी होते हैं।
आलोचनात्मक निबंध भी दो श्रेणियों में बाँटें जा सकते हैं। प्रथम श्रेणी में ऐसे निबंध हैं जिनमें साहित्य के विभिन्न अंगों का शास्त्रीय दृष्टि से विवेचन किया गया है और द्वितीय श्रेणी में वे निबंध आते हैं जिनमें साहित्यकारों की कृतियों पर आलोचनात्मक दृष्टि से विचार हुआ है। द्विवेदी जी के इन निबंधों में विचारों की गहनता, निरीक्षण की नवीनता और विश्लेषण की सूक्ष्मता रहती है।
भाषा – द्विवेदी जी की भाषा शुद्ध साहित्यिक खड़ी बोली है। उन्होंने भाव और विषय के अनुसार ही भाषा का प्रयोग किया है। उनकी भाषा के दो रूप दिखलाई पड़ते हैं – १. सरल साहित्यिक भाषा, २. संस्कृत गर्भित क्लिष्ट भाषा। प्रथम रूप द्विवेदी जी के सामान्य निबंधों में मिलता है। इस प्रकार की भाषा में उर्दू और अंग्रेज़ी के शब्दों का भी समावेश हुआ है। सर्वत्र ही स्वाभाविक और प्रवाहमयता मिलती है।
द्विवेदी जी की भाषा का दूसरा रूप उनकी आलोचनात्मक रचनाओं में मिलता है। इनमें संस्कृत के तत्सम शब्दों की प्रधानता है। यह भाषा अधिक संयत और प्रांजल है। इस भाषा में भी कहीं कृत्रिमता या चमत्कार प्रदर्शन नहीं है और वह स्वाभाविक और प्रवाहपूर्ण है।
शैली – द्विवेदी जी की रचनाओं में उनकी शैली के निम्नलिखित रूप मिलते हैं — १. गवेषणात्मक शैली – द्विवेदी जी के विचारात्मक तथा आलोचनात्मक निबंध इस शैली में लिखे गए हैं। यह शैली द्विवेदी जी की प्रतिनिधि शैली है। इस शैली की भाषा संस्कृत प्रधान और अधिक प्रांजल है। वाक्य कुछ बड़े–बड़े हैं। इस शैली का एक उदाहरण देखिए— 'लोक और शास्त्र का समन्वय, ग्राहस्थ और वैराग्य का समन्वय, भक्ति और ज्ञान का समन्वय, भाषा और संस्कृति का समन्वय, निर्गुण और सगुण का समन्वय, कथा और तत्व ज्ञान का समन्वय, ब्राह्मण और चांडाल का समन्वय, पांडित्य और अपांडित्य का समन्वय, राम चरित मानस शुरू से आखिर तक समन्वय का काव्य है।'
२. वर्णनात्मक शैली – द्विवेदी जी की वर्णनात्मक शैली अत्यंत स्वाभाविक एवं रोचक है। इस शैली में हिंदी के शब्दों की प्रधानता है, साथ ही संस्कृत के तत्सम और उर्दू के प्रचलित शब्दों का भी प्रयोग हुआ है। वाक्य अपेक्षाकृत बड़े हैं।
३. व्यंग्यात्मक शैली – द्विवेदी जी के निबंधों में व्यंग्यात्मक शैली का बहुत ही सफल और सुंदर प्रयोग हुआ है। इस शैली में भाषा चलती हुई तथा उर्दू, फारसी आदि के शब्दों का प्रयोग मिलता है।
४. व्यास शैली – द्विवेदी जी ने जहाँ अपने विषय को विस्तारपूर्वक समझाया है, वहाँ उन्होंने व्यास शैली को अपनाया है। इस शैली के अंतर्गत वे विषय का प्रतिपादन व्याख्यात्मक ढंग से करते हैं और अंत में उसका सार दे देते हैं।
मुझे वे किताबें लुभाती हैं जिन्हें पढ़ने के बाद दिनों, महीनों तक उनका असर मुझ पर रह जाए। जिसे पढ़ने के बाद अपने भीतर कोई बदलाव महसूस करूँ। किताब में ख़र्च किया जा रहा समय अंत में सार्थक लगे।
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी जी की लिखी यह किताब 'अनामदास का पोथा' वैसी ही एक किताब है जो पढ़ते हुए आपके भीतर सरलता, समझ, जीवन-दर्शन को समझने की लोलुपता, उत्सुकता, भावों की शांति भर दे। कुछ और जानने की ललक पैदा कर दे।
हम जैनों में बच्चों को बचपन में पाठशाला भेजने का चलन है। धर्म की सीख देने के लिए शाम के समय बच्चों को एक घंटा मंदिर भेजा जाता है। मैं भी बचपन में गई हूँ। जैन सिद्धांत जिन बातों पर आधारित है कुछ मिलती-जुलती ही दर्शन की बातें मुझे इस किताब में पढ़ने मिलीं।
बचपन की एक प्रार्थना में सीखा था - हूँ स्वतंत्र निश्छल निष्काम, ज्ञाता दृष्टा आतम राम वह मैं हूँ जो है भगवान, जो मैं हूँ वह है भगवान,
यह पूरी प्रार्थना नासाग्र दृष्टि कर अपने भीतर बस रही आत्मा को समझने के लिए हमें याद कराई गई थी। जैसे-जैसे बड़े हुए इसके माने समझ आए।
जैन सिद्धांत में सम्यक दर्शन, सम्यक ज्ञान, एवं सम्यक चारित्र की सीढ़ी चढ़े बिना मोक्ष यानि आत्मा का मिलन, उस अंतिम सत्य का मिलन संभव नहीं यह बात कही गई है।
सम्यक दर्शन जो वस्तु जैसी है उसे उसी रूप में देखना सम्यक ज्ञान जो वस्तु जैसी है उसे उसी रूप में जानना सम्यक चारित्र जो वस्तु जैसी है उसे उसी रूप में मानना
यही बात इस किताब में समझाई गई है। किसी को कष्ट ना देना, सेवा भाव रखना, प्रेम करना, भौतिकता में हर जिम्मेदारी निभाना मगर कहीं रुक न जाना। सत्य की ख़ोज में लगे रहना।
किताब में एक बहुत सुंदर बात कही है, - "संसार में जहाँ कहीं प्रेम या लगाव का भाव दिखाई देता है वह उपेक्षणीय नहीं है। यदि उसी को अन्त समझ लो तो यह बात रास्ते में बैठ जाने के समान होगी। वह परम प्रयाण के प्रेम का अंगुलि-निर्देश मात्र है। सारे सौन्दर्य और सारे लगाव उस परम प्रेमिक के प्रेम की ओर अंगुलि-निर्देश बनकर सार्थक होते हैं।"
बचपन में प्रथमानुयोग की कहानियों में जिस तरह जीवन-दर्शन और अंतिम सत्य की खोज का प्रसंग मैंने समझा यह किताब भी कहानी के रूप में वही समझाती है।
यह एक ऐसी किताब है जो हर व्यक्ति एक बार तो ज़रूर पढ़नी चाहिए। अगर सिर्फ़ कथा-वस्तु पर ध्यान दें तो यह एक सुंदर सी प्रेम-कथा कहाई जा सकती है।
मैंने इस किताब को लगभग 12 दिन में ख़त्म किया.. धीरे-धीरे स्वाद ले-लेकर और समझते हुए।
आज जब यह किताब पूरी हो गई है तो भीतर कितनी ही जिज्ञासाओं का तूफ़ान उमड़ रहा है। कितना कुछ जानने और समझने की इच्छा पैदा हो गई है। यह उत्सुकता भा रही है। इस किताब को दिया समय आज सार्थक लग रहा है।
मुझे यह पुस्तक बनभट्ट की आत्मकथा की तुलना में अधिक पसंद आयी। यह किताब हमें प्रेम कहानी के माध्यम से दर्शन और अध्यात्म सिखाती है। अनामदास का पोथा ने मुझे लेखन, संस्कृति, इतिहास, भारत के गहरे प्रवाह और भाषा की सुंदरता के बारे में और अधिक सिखाया।
अध्यात्म, दर्शन और प्रेम कि अनुपम कथा I ऋषि रैक्व तापस जीवन को छोड़कर संसारिक जीवन मे ब्रह्म और परम तत्त्व की खोज में प्रवेश करते हैं और देखते हैं संसार में कितना दुःख है l परम ब्रह्म को पाने के लिए ज्ञान और सिद्धि ही एक मूल मार्ग नहीं, कर्मयोग और प्रेम भी उस परम तत्व की ओर इंगित करते हैं I उस परम वैश्वानर को पाने का माध्यम है l
'Anamdas ka potha' is a book based on the story of Ascetic Raikva (रैक्व) mentioned in the Chandogya Upanishad (छांदोग्य उपनिषद् said to be composed in 8th to 6th century BC as per Wikipedia)
The miseries of the world had made Siddharth Gautam (Buddha) a renunciate & detached, but this very miseries drive the young Ascetic "Raikva" towards challenges of life.
His Samadhi doesn't help him as he often gets up worried and helpless after watching hungry, naked children and their mothers with sad eyes.
A person becomes wiser not in loneliness but through a healthy clash of viewpoints is the message he gets after his interaction with others after coming out of his solitude.
'Life is filled with endless possibilities' is the story of young ascetic Raikva.
Although Banbhatta ki Atmakatha is more famous, I enjoyed this book more. It is a love story. So simple and full of sacrifice. Language is as typical of Dwivedi, beautiful and flowing. Historical story retold with refinement.
🌻हर दिन अप्रिय खबरें सुनकर, पढ़कर मन अशांत है। ईश्वर सबको स्वस्थ और सुरक्षित रखें बस यही कामना है। इसी बीच जीवन, मृत्यु, सत्य, तत्व , ज्ञान, कर्म आदि पर कुछ पढ़ते हुए इस पुस्तक का ज़िक्र मिला। किंडल पर भी आसानी से मिल गई तो मैंने पढ़ना शूरू कर दिया। इसके लेखक आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी हैं। लेखक की प्रतिभा का बखान करने लायक मेरी हैसियत बिल्कुल नहीं है, बस यही कहूंगा कि ये उन चंद साहित्यकारों में से हैं जिनके जीवनकाल में ही उनकी कृतियाँ क्लासिक का दर्जा पा गईं थीं। आचार्य ने "अनामदास" के पात्र की रचना की और उसी से यह कहानी लिखवाई है। अनामदास ने एक उपनिषदिय पात्र, रैक्व ऋषि की कथा सुनायी है।
🌻कहानी और कथानक की बात करें तो रैक्व बचपन में ही अनाथ हो गए थे। ध्यान, तपादि करके ही जीवन व्यतीत करते रहे। मानने लगे कि वायु ही सबसे शक्तिशाली है और सबकुछ हवा पर ही निर्भर है, वायु के बिना तो प्राणों की कल्पना भी व्यर्थ है। इसी बीच एक दुर्घटना के अंतर्गत राजा जनश्रुति की पुत्री जबाला से उनकी मुलाकात होती है। जीवन में इस से पहले किसी भी नारी के संपर्क में नहीं आने के कारण स्त्री तत्व का दर्शन और स्पर्श मात्र भी रैक्व के लिए अचंभित, रोमांचित करने वाला अनुभव था। इसके पश्चात रैक्व ऋषि के मन में ज्ञान प्राप्ति की गज़ब की ललक उठती है, उनकी पीठ पर निरंतर होने वाली खुजली इसका प्रतीक मात्र है। सत्य क्या है ? ज्ञान और कर्म के साथ उसका क्या संबंध है ? क्या अकेले समाधि लगाक��� ज्ञान अर्जन करना अनुचित है ? सभी प्रश्न रैक्व को दिन रात परेशान करने लगे। नियति उनको ब्रह्मवादिनी साध्वी माता रितंभरा के पास ले जाती है, माता से मिलकर रैक्व की तृष्णा कुछ शांत होती है और काफ़ी कुछ सीखने को भी मिलता है। माताजी के पति ऋषि औषस्ति कहते हैं “एकान्त का तप बड़ा तप नहीं है, बेटा! देखो, संसार में कितना कष्ट है, रोग है, शोक है, दरिद्रता है, कुसंस्कार है। लोग दुःख से व्याकुल हैं। उनमें जाना चाहिए। उनके दुःख का भागी बनकर उनका कष्ट दूर करने का प्रयत्न करो। यही वास्तविक तप है। जिसे यह सत्य प्रकट हो गया है कि सर्वत्र एक ही आत्मा विद्यमान है वह दुःख-कष्ट से जर्जर मानवता की कैसे उपेक्षा कर सकता है"... रैक्व व्याकुल हो जाते हैं और एक दिन माताजी से कहते हैं कि तप नहीं हो पा रहा, आँखें बंद करके गरीब दुखियारे सामने आते हैं। माताजी ने कहा गरीबों की सेवा करो, परमार्थ का ये भी एक मार्ग है। रैक्व समझ जाते हैं कि इस संसार में मनुष्यता से बड़ा धर्म और कोई नहीं। सिर्फ़ शास्त्र पढ़ने से सिद्धि नहीं प्राप्त होगी। रैक्व ऋषि को सत्य मिलेगा ? राजकुमारी जाबाला और राजा जनश्रुति से उनके आगे के संबंध कैसे होंगे ? माताजी रितम्भरा देवी के सानिध्य में रैक्व का कैसा बौद्धिक विकास होगा ? सभी प्रश्नों के हल आपको किताब पढ़ कर प्राप्त होंगे।
🌻इस कहानी के सभी पात्र काफ़ी प्रभावित करते हैं फ़िर चाहे वो राजकुमारी जाबाला हों, ऋषि औषस्ती, माता रितंभरा या फिर अंत में आने वाले जटिल मुनि। सबका अपना महत्व, सबका अपना तरीका है। जटिल मुनि के इस वाक्य ने तो रैक्व को काफ़ी हद तक प्रभावित किया "हर आदमी का सत्य अपना और निजी होता है।" रैक्व के जीवन में सभी नारी पात्रों का गहरा प्रभाव होता है। वे सभी से काफ़ी कुछ सीखते, समझते हैं। एक नई बात पता चली कि धर्म सम्मत विवाह "उद्वाह" कहा जाता है, इसका असली अर्थ आपको कहानी पढ़कर समझ आयेगा :)
🌻कहानी की भाषा तत्समनिष्ठ है, अगर आप बिल्कुल बोलचाल वाली भाषा को अपेक्षा कर रहें हैं तो निराश होंगे लेकिन भाषा इतनी कठिन भी नहीं है कि पढ़ने की रफ़्तार पर असर डाले। कहते हैं आचार्य हजारीप्रसाद इस पुस्तक का दूसरा खंड भी लिखना शूरू कर चुके थे लेकिन होनी को कुछ और ही मंजूर था। जो पंक्तियां अच्छी लगीं, उन्हें नीचे उद्धृत कर रहा हूं : -
"यह कभी मत भूलना कि ऐसा तप वास्तविक तप नहीं है जिसमें समस्त प्राणियों के सुख-दुःख से अलग रहकर केवल अपने-आप की मुक्ति का ही सपना देखा जाता है। सारा चराचर जगत् उसी परम वैश्वानर का प्रत्यक्ष विग्रह है जिसका एक अंश तुम्हारे अन्तरतर में प्रकाशित हो रहा है। सत्य से च्युत न होना, धर्म से च्युत न होना, निखिल चराचररूप परम वैश्वानर को न भूलना।"
"अपने भीतर ही ढूँढ़, तेरा गुरु, तेरा देवता, तेरा सबकुछ भीतर ही है। बाहर भी वही है पर उसे बाहर खोजने में कठिनाई है। सबके लिए नहीं कह रही हूँ, सिर्फ़ तेरे लिए बता रही हूँ। सबका मार्ग एक ही नहीं हो सकता।"
"पारिवारिक सम्बन्ध, चाहे वे वास्तविक हों या कल्पित, मनुष्य के अवचेतन को पवित्र और निर्मल बनाते हैं। जिस दिन लोग इस बात को भूल जाएँगे, उस दिन समाज उच्छिन्न हो जाएगा।"
"बुद्धि का एक दूसरा और विकसित कार्य है वैराग्य। जो चीज़ ग़लत है उसका त्याग वैराग्य का लक्षण है। कई बार आदमी जानता है कि अमुक बात झूठ है और अमुक बात सच है, फिर भी वह झूठ को छोड़ नहीं पाता। विवेक उसे हो जाता है, लेकिन वैराग्य नहीं होता। विवेक से सत्य और असत्य का भेद खुल जाता है; वैराग्य से असत्य को परित्याग करने की शक्ति मिलती है।"
ट्विटर पर किसी ने जीवन बदलने वाली पुस्तक में इस पुस्तक नाम लिखा था। सहज उत्साह से पढ़ना चालू किया और अब उन महाशय का धन्यवाद करना चाहूंगा। सचमुच यह पुस्तक जीवन बदल सकती है... अत्यंत सहज भाषा जो आप आसानीसे समझ जाएं. कुछ वाक्य में जीवन का पूरा सार है, ऐसे वाक्य जिन्हें घर मे फ्रेम करके लगा सकते है।
१. अहंकार सेवा की महिमा को ही कम नहीं करता, वह सेवा को सेवा ही नहीं रहने देता।
२. “ठीक है, पर वास्तव में गुरु वह है जिसके सामने जाने पर तेरे व्यक्तित्व का सर्वोत्तम पक्ष उजागर हो, जो तेरे भीतर सोए देवत्व को जगा दे। शुभा ऐसी ही गुरु है?”
आचार्य जी को सादर प्रणाम और धन्यवाद इस रचना के लिए।
मैंने जितनी पुस्तकें पढ़ीं उनमें भाषा और कथा के बहाव की दृष्टि से 'बाणभट्ट की आत्मकथा' मुझे आजतक सर्वोत्कृष्ट लगी थी। पर उस किताब को किसी ने स्थापित किया वो 'अनामदास का पोथा' है। अद्भुत! सन् '46 में द्विवेदी जी ने 'बाणभट्ट की आत्मकथा' लिखी थी और '76 में 'अनामदास का पोथा'। तीन दशकों का अंतर साफ झकलता है। आवश्यक रूप से पढ़ी जानी चाहिए।
Amazing story of Raekya Muni. The story incorporates Hindu philosophy from Upanishads to give a strong message of life. Pain should not lead to grief but should inspire you to to be strong
एक सरल प्रेम कहानी का अंतः एवं जटिल पक्ष का वर्णन करती है आचार्य द्विवेदी की यह कृति। इस पुस्तक में आत्मज्ञान और अध्यात्म के उपदेशों का भी उल्लेख है, जो पाठकों को प्रेम और जीवन के भिन्न स्वरूपों से परिचय करवाता है।