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उर्वशी

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A Hindi poem based on Indian mythology.

156 pages, Paperback

First published January 1, 1994

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About the author

Ramdhari Singh 'Dinkar'

118 books301 followers
Ramdhari Singh 'Dinkar' (September 23, 1908 – April 24, 1974) was an Indian Hindi poet, essayist, patriot and academic,[1][2] who is considered as one of the most important modern Hindi poets. He remerged as a poet of rebellion as a consequence of his nationalist poetry written in the days before Indian independence. His poetry exuded veer rasa, and he has been hailed as a Rashtrakavi ("National poet") on account of his inspiring patriotic compositions.[3]

As a mark of respect for him, his portrait was unveiled in the Central Hall of Parliament of India by the Prime Minister of India, Dr. Manmohan Singh on his centenary year, 2008.[4][5] On 23 November 2012, the President of India, Pranab Mukherjee gave away Rashtrakavi Ramdhari Singh 'Dinkar' Sahitya Ratna Samman to 21 prominent writers and social workers at a function organized in Rashtrapati Bhavan.[6] On the occasion, the President recalled the contribution of Ramdhari Singh 'Dinkar' in the freedom struggle and his service to Hindi literature.[6] Poet and former Prime Minister of India, Atal Bihari Vajpayee spoke of Dinkarji in high esteem.[7] Others who have praised his literary genius include Shivraj Patil, Lal Krishna Advani, Somnath Chatterjee, Gulab Khandelwal, Bhawani Prasad Mishra, and Seth Govind Das.[8]

Dinkar initially supported the revolutionary movement during the Indian independence struggle, but later became a Gandhian. However, he used to call himself a 'Bad Gandhian' because he supported the feelings of indignation and revenge among the youth.[9] In Kurukshetra, he accepted that war is destructive but argued that it is necessary for the protection of freedom. He was close to prominent nationalists of the time such as Rajendra Prasad, Anugrah Narayan Sinha, Sri Krishna Sinha, Rambriksh Benipuri and Braj Kishore Prasad.

Dinkar was elected three times to the Rajya Sabha, and he was the member of this house from April 3, 1952 CE to January 26, 1964 CE,[9] and was awarded the Padma Bhushan in 1959.[9] He was also the Vice Chancellor of Bhagalpur University (Bhagalpur, Bihar) in the early 1960s.

During The Emergency, Jayaprakash Narayan had attracted a gathering of one lakh people at the Ramlila grounds and recited Dinkar's famous poem: Singhasan Khaali Karo Ke Janata Aaati Hai (Devanagari: सिंहासन खाली करो कि जनता आती है; "Vacate the throne, for the people come").[10]

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Displaying 1 - 20 of 20 reviews
Profile Image for Alok Mishra.
Author 9 books1,249 followers
March 18, 2019
I read Urvashi many times. Shringar Ras in full flow... however, Dinkar's other creations are always better to me than this one. It's a little 'more than adequate'.
Profile Image for Rupinder.
191 reviews7 followers
May 30, 2016
This book won Ramdhari Singh Dinkar the prestigious Jnanpith award (India). The book has many layers, and touches on topics of love, lust, asceticism, jealousy between two women wooing the same man, and the most significant of all for this book, whether the love between two persons is superficial and a reflection of love between Man’s soul (Atma) and God (Brahman). I am an atheist, so I have a very different take (!) on many of the poet’s assertions about souls, God, and other metaphysical 'stuff'. But what shines through is the articulate presentation and lyrical, melodious poetry conjured by Dinkar. Part romance ballad and part philosophical treatise, the Hindi in this book is a delight to the reader. I would highly recommend readers to read in the original Hindi if possible.
Profile Image for Abhishek Choudhary.
75 reviews5 followers
November 11, 2017
I did not understand it in its entirety as some of Hindi words are too difficult and never seen by me. But it's a great song, presents some of the truths about life, love, nature of man and woman in a very lucid and intelligent way. Would highly recommend if you understand Hindi.
Profile Image for Kunal.
29 reviews2 followers
July 26, 2015
reading this epic book again. earlier read in school, now after 20 years I am reading it again.
2,142 reviews27 followers
January 17, 2022
Some parts are beautiful. Others, one finds the poet divided between the beautiful legend of an era when Gods and humans and much in between corresponded in myriad ways, and his own when disbelief in Gods, especially those of Indian pantheon, naturally resulted in questioning other beings of in between, and - attempting to round out the narrative - he put in dialogues not in harmony with the beautiful legend.

Perhaps it needed the brilliance of a poet and seer who could realise the truth of the legend in his work, but nevertheless, it's a laudable effort, and has flashes of beauty in consonants with the subject.

*****



"पुरूरवा और उर्वशी की कथा कई रूपों मेें मिलती है और उसकी व्याख्या भी कई प्रकार से की गई है।

"राजा पुरूरवा सोम-वंश के आदि पुरुष हुए हैं। उनकी राजधानी प्रयाग के पास, प्रतिष्ठानपुर में थी। पुराणों में कहा गया है कि जब मनु और श्रद्धा को सन्तान की इच्छा हुई, उन्होंने वशिष्ठ ऋषि से यज्ञ करवाया। श्रद्धा की मनोकामना थी कि वे कन्या की माता बनें, मनु चाहते थे कि उन्हें पुत्र प्राप्त हो। किन्तु, इस यज्ञ से कन्या ही उत्पन्न हुई। पीछे, मनु की निराशा से द्रवित होकर वशिष्ठ ने उसे पुत्र बना दिया। मनु के इस पुत्र का नाम सुद्युम्न पड़ा।

"युवा होने पर सुद्युम्न, एक बार आखेट करते हुए किसी अभिशप्त वन में जा निकले और शापवश, वे युवा नर से युवती नारी बन गए और उनका नाम इला हो गया। इसी इला का प्रेम चन्द्रमा के नवयुवक पुत्र बुध से हुआ, जिसके फलस्वरूप, पुरूरवा की उत्पत्ति हुई। इसी कारण, पुरूरवा को ऐल भी कहते हैं और उनसे चलनेवाले वंश का नाम चन्द्रवंश है।

"उर्वशी की उत्पत्ति के विषय में दो अनुमान हैं। एक तो यह कि जब अमृत-मन्थन के समय समुद्र से अप्सराओं का जन्म हुआ, तब उर्वशी भी उन्हीं के साथ जन्मी थी। दूसरा यह कि नारायण ऋषि की तपस्या में विघ्न डालने के निमित्त जब इन्द्र ने उनके पास अनेक अप्सराएँ भेजीं, तब ऋषि ने अपने ऊरु को ठोंककर उसमें से एक ऐसी नारी उत्पन्न कर दी, जो उन सभी अप्सराओं से अधिक रूपमती थी। यही नारी उर्वशी हुई और उर्वशी नाम उसका इसलिए पड़ा कि वह उरु से जन्मी थी।

"भगीरथ की जाँघ पर बैठने के कारण गंगा का भी एक नाम उर्वशी है। देवी भागवत के अनुसार, बदरी धाम में जो देवी-पीठ है, उसे उर्वशी-तीर्थ कहते हैं। नर-नारायण की तपस्या-भूमि बदरी धाम में ही थी। सम्भव है, उर्वशी-तीर्थ उसी का स्मारक हो।

"इस कथा का प्राचीनतम उल्लेख ऋग्वेद में मिलता है। किन्तु, उस सूक्त से इतना ही विदित होता है कि उर्वशी पुरूरवा को छोड़कर चली गई थी और विरहोन्मत्त पुरूरवा उसके सन्धान में थे। एक दिन उर्वशी जब उन्हें मिली, उसने यह तो बताया कि वह गर्भवती है, किन्तु, लौटकर फिर उनके साथ रहना उसने अस्वीकार कर दिया। पीछे चलकर, शतपथ ब्राह्मण में और, उसके आधार पर, पुराणों में इस कथा का जो पल्लवन हुआ, उसमें कहा गया है कि उर्वशी के गर्भ से पुरूरवा के छह पुत्र हुए थे, जिनमें सबसे बड़े का नाम आयु था।"


"उर्वशी शब्द का कोषगत अर्थ होगा उत्कट अभिलाषा, अपरिमित वासना, इच्छा अथवा कामना। और पुरूरवा शब्द का अर्थ है वह व्यक्ति जो नाना प्रकार का रव करे, नाना ध्वनियों से आक्रान्त हो।

"उर्वशी चक्षु, रसना, घ्राण, त्वक् तथा श्रोत्र की कामनाओं का प्रतीक है; पुरूरवा रूप, रस, गन्ध, स्पर्श और शब्द से मिलनेवाले सुखों से उद्वेलित मनुष्य।

"पुरूरवा द्वन्द्व में है, क्योंकि द्वन्द्व में रहना मनुष्य का स्वभाव है। मनुष्य सुख की कामना भी करता है और उससे आगे निकलने का प्रयास भी।"


"परिरम्भ-पाश में बँधे हुए प्रेमी, परस्पर एक-दूसरे का अतिक्रमण करके, एक ऐसे लोक में पहुँचना चाहते हैं, जो किरणोज्ज्वल और वायवीय है।

"इन्द्रियों के मार्ग से अतीन्द्रिय धरातल का स्पर्श, यही प्रेम की आध्यात्मिक महिमा है।"


"किन्तु, उर्वशी द्वन्द्वों से सर्वथा मुक्त है। देवियों में द्वन्द्व नहीं होता, वे त्रिकाल अनुद्विग्न, निर्मल और निष्पाप होती हैं। द्वन्द्वों की कुछ थोड़ी अनुभूति उसे तब होती है, जब वह माता अथवा पूर्ण मानवी बन जाती है, जब मिट्टी का रस उसे पूर्ण रूप से अभिसिक्त कर देता है।"


" ... मनुष्य ने जिस परिमाण में बुद्धि अर्जित की, उसी परिमाण में उसने सहज प्रवृत्ति (इंस्टिंक्ट) की शक्ति को खो दिया। तब भी, बुद्धि थोड़ी पशुओं में भी है और सहज प्रवृत्ति, कभी-कभी, मनुष्य में भी झलक मारती है। भेद यह है कि पशु का सारा जीवन सहज प्रवृत्ति से चलता है, केवल उसके किनारे-किनारे बुद्धि की हलकी झालर विद्यमान है। और मनुष्य के सारे जीवन का आधार बुद्धि है, सहज प्रवृत्ति, कभी-कभी ही, बिजली की तरह उसमें कौंध जाती है।"


"पुरूरवा के भीतर देवत्व की तृषा है। इसलिए, मर्त्य लोक के नाना सुखों में वह व्याकुल और विषण्ण है।

"उर्वशी देवलोक से उतरी हुई नारी है। वह सहज, निश्चिन्त भाव से पृथ्वी का सुख भोगना चाहती है।"


"यदि मनुष्य अपनी गरदन तानकर मस्तक से नक्षत्रों को छूने का प्रयास करे, तो उसके पाँव जमीन से उखड़ जाते हैं, वह वायु में निस्सहाय उड़नेवाला पत्ता बन जाता है।

"और यदि वह पाँव जमा कर धरती पर खड़ा रहे, तो अपने मस्तक से वह नक्षत्र तो क्या, सामान्य वृक्षों के मौलि को भी नहीं छू सकता।

"मनुष्य की कल्पना का देवता वह है, जो जल में उतरने पर भी जल से नहीं भींगता, जिसकी गरदन समुद्र की ऊँची-से-ऊँची लहरों से भी हाथ भर ऊँची दिखाई देती है।

"किन्तु, मनुष्य का भाग्य ऐसा नहीं है। वह तरंगों से लड़ते-लड़ते भी उनसे भींग जाता है और बहुधा लहरें उसे बहाकर औघट घाट में फेंक देती हैं, भँवर का जाल बनकर उसे नीचे पाताल में गाड़ देती हैं।

"तब भी, संघर्ष करना मनुष्य का स्वभाव है।

"वह जल के समान सूर्य की किरणों पर चढ़कर आकाश पहुँचता है और बादलों के साथ पृथ्वी पर लौट आता है। और सूर्य की किरणें, एक बार फिर, उसे आकाश पर ले जाती हैं।

"स्वर्ग और पृथ्वी के बीच घटित इस निरन्तर आवागमन से मनुष्य का निस्तार कभी होगा या नहीं, इसका विश्वसनीय ज्ञान नए मनुष्य को छोड़कर चला गया है। इसलिए मैं इस विषय में मौन हूँ कि पुरूरवा जब संन्यास लेकर चले गए, तब उनका क्या हुआ।

"एक ओर देवत्व की ऊँची-ऊँची कल्पनाएँ; दूसरी ओर उफनाते हुए रक्त की अप्रतिहत पुकार और पग-पग पर घेरनेवाली ठोस वास्तविकता की अभ��द्य चट्टानें, जो हुक्म नहीं मानतीं, जो पिघलना नहीं जानतीं।"


"प्रकृति और परमेश्वर की एकता की एक अनुभूति, संन्यास और प्रेम के बीच सन्तुलन की एक झाँकी महर्षि च्यवन के चरित्र में झलक मारती है। जो नदी पुरूरवा के भीतर बेचैन होकर गरज रही है, वही च्यवन में आकर स्वच्छ, सुस्थिर, शीतल और मौन है।

"संन्यास में समाकर प्रेम से और प्रेम में समाकर संन्यास से बचना जितना कठिन है, संन्यास और प्रेम के बीच सन्तुलन बिठाना, कदाचित, उससे भी कठिन कार्य है।"


"देवता वह नहीं, जो सब कुछ को पीठ देकर, सबसे भाग रहा है। देवता वह है, जो सारी आसक्तियों के बीच अनासक्त है, सारी स्पृहाओं को भोगते हुए भी निस्पृह और निर्लिप्त है।

"फिर वही बात! पानी पर चलो, किन्तु, पानी का दाग नहीं लगे।"

*****


1.

"नीचे पृथ्वी पर वसन्त की कुसुम-विभा छाई है,
ऊपर है चन्द्रमा द्वादशी का निर्मेघ गगन में।
खुली नीलिमा पर विकीर्ण तारे यों दीप रहे हैं,
चमक रहे हों नील चीर पर बूटे ज्यों चाँदी के;
या प्रशान्त, निस्सीम जलधि में जैसे चरण-चरण पर
नील वारि को फोड़ ज्योति के द्वीप निकल आए हों।"

"शान्ति, शान्ति सब ओर, किन्तु,
यह कणन-कणन-स्वन कैसा?
अतल व्योम-उर में ये कैसे नूपुर झनक रहे हैं?
उगी कौन-सी विभा? इन्दु की किरणें लगीं लजाने;
ज्योत्स्ना पर यह कौन अपर ज्योत्स्ना छाई जाती है?
कलकल करती हुई सलिल-सी गाती, धूम मचाती
अम्बर से ये कौन कनक-प्रतिमाएँ उतर रही हैं?
उड़ी आ रहीं छूट कुसुम-वल्लियाँ कल्प-कानन से?
या देवों की वीणा की रागिनियाँ भटक गई हैं?
उतर रही हैं ये नूतन पंक्तियाँ किसी कविता की
नई अर्चियों-सी समाधि के झिलमिल अँधियाले में?
या वसन्त के सपनों की तस्वीरें घूम रही हैं
तारों-भरे गगन में फूलों-भरी धरा के भ्रम से?"

"लो, पृथ्वी पर आ पहुँचीं ये सुषमाएँ अम्बर की,
उतरे हों ज्यों गुच्छ गीत गानेवाले फूलों के।
पद-निक्षेपों में बल खाती हैं भंगिमा लहर की,
सजल कंठ से गीत, हँसी से फूल झरे जाते हैं।
तन पर भींगे हुए वसन हैं किरणों की जाली के,
पुष्परेणु-भूषित सब के आनन यों दमक रहे हैं,
कुसुम बन गई हों जैसे चाँदनियाँ सिमट-सिमट कर।"

"फूलों की सखियाँ हैं ये या विधु की प्रेयसियाँ हैं?"

"नहीं, चन्द्रिका नहीं, न तो कुसुमों की सहचरियाँ हैं,
ये जो शशधर के प्रकाश में फूलों पर उतरी हैं,
मनमोहिनी, अभुक्त प्रेम की जीवित प्रतिमाएँ हैं, ... "

"पर, सुरपुर को छोड़ आज ये भू पर क्यों आई हैं?"

"यों ही, किरणों के तारों पर चढ़ी हुई, क्रीड़ा में,
इधर-उधर घूमते कभी भू पर भी आ जाती हैं।
या, सम्भव है, कुछ कारण भी हो इनके आने का
क्योंकि मर्त्य तो अमर-लोक को पूर्ण मान बैठा है,
पर, कहते हैं, स्वर्ग-लोक भी सम्यक् पूर्ण नहीं है।
पृथ्वी पर है चाह प्रेम को स्पर्श-मुक्त करने की,
गगन रूप को बाँहों में भरने को अकुलाता है।
गगन, भूमि, दोनों अभाव से पूरित हैं, दोनों के
अलग-अलग हैं प्रश्न और हैं अलग-अलग पीड़ाएँ।
हम चाहते तोड़कर बन्धन उड़ना मुक्त पवन में,
कभी-कभी देवता देह धरने को अकुलाते हैं।"

*****

2.

"निपुणिका

"उस दिन जब पति का पूजन करके लौटीं, आप प्रमदवन से
"सन्तोष हृदय में भरके, लेकर यह विश्वास, रोहिणी और चन्द्रमा जैसे
"हैं अनुरक्त, आपके प्रति भी महाराज अब वैसे
"प्रेमासक्त रहेंगे, कोई भी न विषम क्षण होगा,
"अन्य नारियों पर प्रभु का अनुरक्त नहीं मन होगा,
"तभी भाग्य पर देवि! आपके कुटिल नियति मुसकाई,
"महाराज से मिलने को उर्वशी स्वर्ग से आई।"

"प्रकटी जब उर्वशी चाँदनी में द्रुम की छाया से,
"लगा, सर्प के मुख से जैसे मणि बाहर निकली हो,
"याकि स्वयं चाँदनी स्वर्ण-प्रतिमा में आन ढली हो;
"उतरी हो धर देह स्वप्न की विभा प्रमद-उपवन की,
"उदित हुई हो याकि समन्वित नारीश्री त्रिभुवन की।"

"हिमकण-सिक्त-कुसुम-सम उज्ज्वल अंग-अंग झलमल था,
"मानो, अभी-अभी जल से निकला उत्फुल्ल कमल था।"


"औशीनरी

"गृहिणी जाती हार दाँव सम्पूर्ण समर्पण करके,
"जयिनी रहती बनी अप्सरा ललक पुरुष में भरके।
"पर, क्या जाने ललक जगाना नर में गृहिणी नारी?
"जीत गई अप्सरा, सखी! मैं रानी बनकर हारी।"


"निपुणिका

"इतना कुछ जानते हुए भी क्यों विपत्ति को आने
"दिया, और पति को अपने हाथों से बाहर जाने?
"महाराज भी क्या कोई दुर्बल नर साधारण हैं,
"जिसका चित्त अप्सराएँ कर सकतीं सहज हरण हैं?
"कार्त्तिकेय-सम शूर, देवताओं के गुरु-सम ज्ञानी,
"रवि-सम तेजवन्त, सुरपति के सदृश प्रतापी, मानी;
"घनद-सदृश संग्रही, व्योमवत् मुक्त, जलद-निभ त्यागी,
"कुसुम-सदृश मधुमय, मनोज्ञ, कुसुमायुध-से अनुरागी।
"ऐसे नर के लिए न वामा क्या कुछ कर सकती है?
"कौन वस्तु है जिसे नहीं चरणों पर धर सकती है?"


"औशीनरी

"अरी, कौन है कृत्य जिसे मैं अब तक कर न सकी हूँ?
"कौन पुष्प है जिसे प्रणय-वेदी पर धर न सकी हूँ?
"प्रभु को दिया नहीं, ऐसा तो पास न कोई धन है।
"न्योछावर आराध्य-चरण पर सखि! तन, मन, जीवन है।
"तब भी तो भिक्षुणी-सदृश जोहा करती हूँ मुख को,
"सदा हेरती रहती प्रिय की आँखों में निज सुख को।
"पर, वह मिलता नहीं, चमक, जानें, खो गई कहाँ पर!
"जानें, प्रभु के मधुर प्रेम की श्री सो गई कहाँ पर!
"सब कुछ है उपलब्ध, एक सुख वही नहीं मिलता है,
"जिससे नारी के अन्तर का मान-पद्म खिलता है।
"वह सुख जो उन्मुक्त बरस पड़ता उस अवलोकन से,
"देख रहा हो नारी को जब नर मधु-मत्त नयन से।
"वह अवलोकन, धूल वयस की जिससे छन जाती है,
"प्रौढ़ा पाकर जिसे कुमारी युवती बन जाती है।
"अति पवित्र निर्झरी क्षीरमय दृग की वह सुखकारी,
"जिसमें कर अवगाह नई फिर हो उठती है नारी।"


"मदनिका

"तिमिराच्छन्न व्योम-वेधन में जो समर्थ होती है,
"युवती के उज्ज्वल कपोल पर वही दृष्टि सोती है।
"जो बाँहें गिरि को उखाड़ आलिंगन में भरती हैं,
"उरःपीड-परिरम्भ-वेदना वही दान करती हैं।
"जितना ही जो जलधि रत्न-पूरित, विक्रान्त, अगम है,
"उसकी वाड़वाग्नि उतनी ही अविश्रान्त, दुर्दम है।
"बन्धन को मानते वही, जो नद, नाले, सोते हैं,
"किन्तु, महानद तो, स्वभाव से ही, प्रचंड होते हैं।"


"कंचुकी

"जय हो भट्टारिके! मार्ग भट्टारक को दिखलाने
"और उन्हें सक्षेम गन्धमादन गिरि तक पहुँचाने
"जो सैनिक थे गए, आज वे नगर लौट आए हैं,
"और आपके लिए सन्देशा यह प्रभु का लाए हैं।

""पवन स्वास्थ्यदायी, शीतल, सुस्वादु यहाँ का जल है,
"झीलों में, बस, जिधर देखिए, उत्पल-ही-उत्पल है।
"लम्बे-लम्बे चीड़ ग्रीव अम्बर की ओर उठाए,
"एक चरण पर खड़े तपस्वी-से हैं ध्यान लगाए।
"दूर-दूर तक बिछे हुए फूलों के नन्दन-वन हैं,
"जहाँ देखिए, वहीं लता-तरुओं के कुंज-भवन हैं।
"शिखरों पर हिमराशि और नीचे झरनों का पानी,
"बीचोंबीच प्रकृति सोई है ओढ़ निचोली धानी।
"बहुत मग्न अतिशय प्रसन्न हूँ मैं तो इस मधुवन में,
"किन्तु, यहाँ भी कसक रही है वही वेदना मन में।
"प्रतिष्ठानपुर में भू का स्वर्गीय तेज जगता है,
"एक वंशधर बिना, किन्तु, सब कुछ सूना लगता है।
"पुत्र! पुत्र! अपने गृह में क्या दीपक नहीं जलेगा?
"देवि! दिव्य यह ऐल वंश क्या आगे नहीं चलेगा?
"करती रहें प्रार्थना, त्रुटि हो नहीं धर्म-साधन में,
"जहाँ रहूँ, मैं भी रत हूँ ईश्वर के आराधन में।"

*****

3.

"उर्वशी

"जब से हम-तुम मिले, न जानें, क्या हो गया समय को,
"लय होता जा रहा मरुद्गति से अतीत-गह्वर में।
"किन्तु, हाय, जब तुम्हें देख मैं सुरपुर को लौटी थी,
"यही काल अजगर-समान प्राणों पर बैठ गया था।
"उदित सूर्य नभ से जाने का नाम नहीं लेता था,
"कल्प बिताए बिना न हटती थीं वे काल-निशाएँ

"पर, तुम आए नहीं कभी छिपकर भी सुधि लेने को।
"निष्ठुर बन निश्चिन्त भोगते बैठे रहे महल में
"सुख प्रताप का, यश का, जय का, कलियों का, फूलों का।
"मिले, अन्त में, तब, जब ललना की मर्याद गँवाकर।
"स्वर्ग-लोक को छोड़ भूमि पर स्वयं चली मैं आई।"


"पुरूरवा

"चिर-कृतज्ञ हूँ इस कृपालुता के हित, किन्तु, मिलन का,
"इसे छोड़कर और दूसरा कौन पंथ सम्भव था
"उस दिन दुष्ट दनुज के कर से तुम्हें विमोचित करके
"और छोड़ कर तुम्हें तुम्हारी सखियों के हाथों में
"लौटा जब मैं राज-भवन को, लगा, देह ही केवल
"रथ में बैठी हुई किसी विध गृह तक पहुँच गई है;
"छूट गए हैं प्राण उन्हीं उज्ज्वल मेघों के वन में,
"जहाँ मिली थीं तुम क्षीरोदधि में लालिमा-लहर-सी।
"कई बार चाहा, सुरपति से जाकर स्वयं कहूँ मैं,
"अब उर्वशी बिना यह जीवन भार हुआ जाता है,
"बड़ी कृपा हो उसे आप यदि भूतल पर जाने दें।
"पर मन ने टोका, “क्षत्रिय भी भीख माँगते हैं क्या?’’
"और प्रेम क्या कभी प्राप्त होता है भिक्षाटन से?
"मिल भी गई उर्वशी यदि तुम को इन्द्र की कृपा से,
"उसका हृदय-कपाट कौन तेरे निमित्त खोलेगा?
"बाहर साँकल नहीं जिसे तू खोल हृदय पा जाए,
"इस मन्दिर का द्वार सजा अन्तःपुर से खुलता है।"

*****


"जिस प्रकार, नगराज जानता व्यथा विन्ध्य के उर की,
"और हिमालय की गाथा है विदित महासागर को,
"वर्तमान, त्यों ही, अपने गृह में जो कुछ करता है,
"भूत और भवितव्य, उभय उस रचना के साखी हैं।
"सिन्धु, विन्ध्य, हिमवान् खड़े हैं दिगायाम में जैसे
"एक साथ; त्यों काल-देवता के महान् प्रांगण में
"भूत, भविष्यत्, वर्तमान, सब साथ-साथ ठहरे हैं
"बातें करते हुए परस्पर गिरा भाषा में।"

*****

"पुरूरवा

"छूट गई धरती नीचे, आभा की झंकारों पर
"चढ़े हुए हम देह छोड़ कर मन में पहुँच रहे हैं।"

*****

4.

"उर्वशी

"चन्द्रमा चला, रजनी बीती, हो गया प्रात;
"पर्वत के नीचे से प्रकाश के आसन पर
"आ रहा सूर्य फेंकते बाण अपने लोहित,
"बिंध गया ज्योति से, वह देखो, अरुणाभ शिखर।

"हिम-स्नात, सिक्त वल्लरी– को देखो, पति को फूलों का "नया हार पहनाती है,
"कुंजों में जनमा है कल कोई वृक्ष कहीं, वन की प्रसन्न "विहगावलि सोहर गाती है।

"कट गया वर्ष ऐसे जैसे दो निमिष गए, प्रिय!
"छोड़ गन्धमादन को अब जाना होगा,
"इस भूमि-स्वर्ग के हरे-भरे, शीतल वन में
"जानें, कब राजपुरी से फिर आना होगा!"

"कितना अपार सुख था, बैठे चट्टानों पर हम साथ-साथ झरनों में पाँव भिंगोते थे,
तरु-तले परस्पर बाँहों को उपधान बना हम किस प्रकार निश्चिन्त छाँह में सोते थे!

जाने से पहले चलो, आज जी खोल मिलें निर्झरी, लता, फूलों की डाली-डाली से,
पी लें जी भर पर्वत पर का नीरव प्रकाश, लें सींच हृदय झूमती हुई हरियाली से।

*****


"उर्वशी

"कल से मुझ पर पहाड़ टूटेगा। यज्ञ पूर्ण होगा,
"विमुक्त होते ही आचारों से
"कल, अवश्य ही, महाराज मेरा सन्धान करेंगे।
"और न क्षण भर कभी दूर होने देंगे आँखों से।
"हाय, दयित जिसके निमित्त इतने अधीर, व्याकुल हैं,
"उनका वह वंशधर जन्म ले वन में छिपा पड़ा है।
"और विवशता यह तो देखो, मैं अभागिनी नारी
"दिखा नहीं सकती सुत का मुख अपने ही स्वामी को,
"न तो पुत्र के लिए स्नेह स्वामी का तज सकती हूँ।
"भरत-शाप जितना भी कटु था, अब तक वह वर ही था;
"उसका दाहक रूप सुकन्ये! अब आरम्भ हुआ है।"


"सुकन्या

"(उर्वशी से)

"तो यह दारुण नियति-क्रीड़ कब तक चलता जाएगा?
"कब तक तुम इस भाँति नित्य छिपकर वन में आओगी
"सुत को हृदय लगा, क्षण भर, मन शीतल कर लेने को?
"और आयु, कुछ कह सकती हो, कब तक यहाँ रहेगा?
"हे भगवान्! उर्वशी पर यह कैसी विपद् पड़ी है।"

*****

5.

"पुरूरवा

"देखा, सारे प्रतिष्ठानपुर में कलकल छाया है,
"लोग कहीं से एक नव्य वट-पादप ले आए हैं।
"और रोप कर उसे सामने, वहाँ, बाह्य प्रांगण में
"सींच रहे हैं बड़ी, प्रीति, चिन्ताकुल आतुरता से।
"मैं भी लिए क्षीरघट, देखा, उत्कंठित आया हूँ;
"और खड़ा हूँ सींच दूध से उस नवीन विरवे को।
"मेरी ओर, परन्तु, किसी नागर की दृष्टि नहीं है,
"मानो, मैं हूँ जीव नवागत अपर सौर मंडल का,
"नगरवासियों की जिससे कोई पहचान नहीं हो।
"तब देखा, मैं चढ़ा हुआ मदकल, वरिष्ठ कुंजर पर
"प्रतिष्ठानपुर से बाहर कानन में पहुँच गया हूँ।
"किन्तु, उतर कर वहाँ देखता हूँ तो सब सूना है,
"मुझे छोड़, चोरी से, मेरा गज भी निकल गया है।
"एकाकी, निःसंग भटकता हुआ विपिन निर्जन में
"जा पहुँचा मैं वहाँ जहाँ पर वधूसरा बहती है,
"च्यवनाश्रम के पास, पुलोमा की दृगम्बु-धारा-सी।


"उर्वशी

"च्यवनाश्रम! हा! हन्त! अपाले, मुझे घूँट भर जल दे। "

"[अपाला घबरा कर पानी देती है। उर्वशी पानी पीती है।]


"पुरूरवा

"देवि! आप क्यों सहम उठीं? वह, सचमुच, च्यवनाश्रम था।
"ऋषि तरु पर से अपने सूखे वसन समेट रहे थे।
"घूम रहे थे कृष्णसार मृग अभय वीथि-कुंजों में;
"श्रवण कर रहे थे मयूर तट पर से कान लगा कर
"मेघमन्द्र डुग-डुग-ध्वनि जलधारा में घट भरने की।
"और, पास ही, एक दिव्य बालक प्रशान्त बैठा था
"प्रत्यंचा माँजते वीर-कर-शोभी किसी धनुष की।
"हाय, कहूँ क्या, वह कुमार कितना सुभव्य लगता था!


"उर्वशी

"दुर्विपाक! दुर्भाग्य! अपाले! तनिक और पानी दे।
"उमड़ प्राण से, कहीं कंठ में, ज्वाला अटक गई है।
"लगता है, आज ही प्रलय अम्बर से फूट पड़ेगा।

"[पानी पीती है।]


"पुरूरवा

"देवि! स्वप्न से आप अकारण भीत हुए जाती हैं।
"मैं हूँ जहाँ, वहाँ कैसे विध्वंस पहुँच सकता है?
"भूल गईं, स्यन्दन मेरा नभ में अबाध उड़ता है?
"मैं तो केवल ऋषि-कुमार का तेज बखान रहा था।"


"विश्वमना

"वरुण करें कल्याण। देव! तब सुनें, सत्य कहता हूँ।
"अमिट प्रव्रज्या-योग केन्द्र-गृह में जो पड़ा हुआ है,
"वह आज ही सफल होगा, इसलिए कि प्राण-दशा में
"शनि ने किया प्रवेश, सूक्ष्म में मंगल पड़े हुए हैं।
"अन्य योग जो हैं, उनके अनुसार, आज सन्ध्या तक
"आप प्रव्रजित हो जाएँगे अपने वीर तनय को
"राज-पाट, धन-धाम सौंप, अपना किरीट पहना कर।
"पर, विस्मय की बात! पुत्र वह अभी कहाँ जनमा है?"


"उर्वशी

"आह! क्रूर अभिशाप! तुम्हारी ज्वाला बड़ी प्रबल है।
"अरी, जली, मैं जली, अपाले! और तनिक पानी दे।
"महाराज! मुझ हतभागी का कोई दोष नहीं है।

"[पानी पीती है। दाह अनुभूत होने के भाव।]


"पुरूरवा

"किसका शाप? कहाँ की ज्वाला? कौन दोष? कल्याणी!
"आप खिन्न हो कर निज को हतभागी क्यों कहती हैं?
"कितना था आनन्द गन्धमादन के विजन विपिन में!
"छूट गई यदि पुरी, संग हो कर हम वहीं चलेंगे।
"आप, न जानें, किस चिन्ता से चूर हुई जाती हैं!
"कभी आपको छोड़ देह यह जीवित रह सकती है?

"[प्रतीहारी का प्रवेश]


"प्रतीहारी

"जय हो महाराज! वन से तापसी एक आई हैं;
"कहती हैं, स्वामिनी उर्वशी से उनको मिलना है!
"नाम सुकन्या; एक ब्रह्मचारी भी साथ लगा है।"


"पुरूरवा

"सती सुकन्या! कीर्त्तिमयी भामिनी महर्षि च्यवन की?
"सादर लाओ उन्हें; स्वप्न अब फलित हुआ लगता है।
"पुण्योदय के बिना सन्त कब मिलते हैं राजा को?

"[सुकन्या और आयु का प्रवेश]

"पुरूरवा

"इलापुत्र मैं पुरू पदों में नमस्कार करता हूँ।
"देवि! तपस्या तो महर्षिसत्तम की वर्धमती है?
"आश्रम-वास अविघ्न, कुशल तो है अरण्य-गुरुकुल में?"


"सुकन्या

"जय हो, सब है कुशल। उर्वशी! आज अचानक ऋषि ने
"कहा, "आयु को पितृ-गेह आज ही गमन करना है!
"अतः, आज ही, दिन रहते-रहते, पहुँचाना होगा,
"जैसे भी हो, इस कुमार को निकट पिता-माता के।"
"सो, ले आई, अकस्मात् ही, इसे; सुयोग नहीं था
"पूर्व-सूचना का या इसको और रोक रखने का।
"सोलह वर्ष पूर्व तुमने जो न्यास मुझे सौपा था,
"उसे आज सक्षेम सखी! तुम को मैं लौटाती हूँ।
"बेटा! करो प्रणाम, यही हैं माँ, वे देव पिता हैं।

"[आयु पहले उर्वशी को, फिर पुरूरवा को प्रणाम करता है। पुरूरवा उसे छाती से लगा लेता है।]


"पुरूरवा

"महाश्चर्य! अघटन घटना! अद्भुत अपूर्व लीला है!
"यह सब सत्य-य���ार्थ या कि फिर सपना देख रहा हूँ?
"पुत्र! देवि! मैं पुत्रवान् हूँ? यह अपत्य मेरा है?
"जनम चुका है मेरा भी त्राता पुं नाम नरक से?
"अकस्मात् हो उठा उदित यह संचित पुण्य कहाँ का?
"अमृत-अभ्र कैसे अनभ्र ही मुझ पर बरस पड़ा है?
"पुत्र! अरे मैं पुत्रवान् हूँ, घोषित करो नगर में,
"जो हो जहाँ, वहीं से मेरे निकट उसे आने दो।
"द्वार खोल दो कोष-भवन का, कह दो पौर जनों से,
"जितना भी चाहें, सुवर्ण आ कर ले जा सकते हैं।
"ऐल वंश के महा मंच पर नया सूर्य निकला है;
....
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August 22, 2018
Beautiful prose, as usual by Dinkar. The ideas of beauty, the feminine and its relationship with the masculine, the interplay between the mortal and the immortal all wonderfully explored. However, needs very high level of Hindi language skills
Profile Image for Anant Raj.
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October 14, 2017
It took too long to motivate myself to read this book. What a book it is. I have rarely seen such an intense expression for love and lust in other books I have read so far.
76 reviews1 follower
March 19, 2023
The poetry is a 5+/5. That was never in question. Those metaphors, those allegories, those similes, that multidimensional philosophical discourse - Dinkarji exhibits his immense versatility as a poet, from the pathos of heroism (वीर रस) in 'रश्मिरथी', to the subtle passion of romantic love (श्रृंगार) in 'उर्वशी'.

The views expressed by Dinkarji are fascinating, especially the conversation between Urvashi and Pururava, which forms the most definitive feature of the book. Is it necessary for love to transcend physical boundaries and evolve purely into a meeting of souls? Or is physical experience an indispensable part of love, a pleasure that humans are delusionally trying to escape in a search for abstruse transcendence? By extension, is it necessary to abandon the world around us to attain salvation and escape the cycle of rebirth, or is Nature (प्रकृति), which we mistakenly view as an obstacle towards enlightenment, one and the same as the source and truth of our origin (पुरुष)? Essentially, is sacrifice equivalent to understand the meaning of life, or is embracing the earthly world, the path towards true realisation?
It was extremely intriguing and simulating, and I have great admiration for how Dinkarji sublimely balanced both views, thereby allowing the reader to engage in their own contemplations and form their own thoughts.

However, I did not agree with the gender dichotomy presented in the end of this 'कथाकाव्य'. The characterisation of Aushinari as the ever-suffering, all-sacrificing tragic heroine whose entire identity rests upon a husband who never truly loved her (and later, a son whom she meets for the first time when he's 16), was not unexpected given the mythological and historical context of the story. Yet, I believe that there could have been considerable nuance added to this through Sukanya's monologue, instead of her simply justifying why women have been ignored in history, or how their purpose in life is to serve their husbands, or how their essence is all about compassion, silence, mercy, sacrifice...etc. This wouldn't even have been a major complaint if it was another author (because context, again), but Dinkarji has already shown what he can do with complex inequalities, be it caste or gender. So, I believe it was fair to expect more, especially given the extensive and profound Foreword that precedes the tale.

Bottom line: 'उर्वशी' (Urvashi) is undoubtedly a must-read for anyone interested in classic Hindi literature/poetry and Hindu philosophy.
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November 30, 2021
हम सभी ने दिनकर को कई रूपों में देखा है| कभी वे जनसंघर्षों को अपनी वाणी देते हैं तो कभी भीष्म से युद्ध आकलन करवाते है| कभी वे कर्ण की कथा से हमारे समाज की पूरी कहानी कह देते है और कभी संकृति के अध्यायों से हमारा परिचय करवाते है|
इस पुस्तक में दिनकर थोडा अलग हैं, उनकी वाणी में ठहराव है| हर पृष्ठ पर प्रेम आर सौंदर्य बिखरा हुआ है| इस काव्य के मुख्या पात्र पुरुरवा और अप्सरा उर्वशी हैं| दिनकर के शब्द नारी के श्रृंगार से पुरुष के हृदय तक सब कुछ पूर्ण सौ काव्यात्मकता के साथ वर्णित करते है|
मैं अपने शब्दों मैं क्या कहूँ, खुद दिनकर के शब्दों में देखिये पौरुष और प्रेम विवशता को एक साथ चित्रित किया जा सकता है -

"मर्त्य मानव की विजय का तूर्य हूँ मैं,
उर्वशी! अपने समय का सूर्य हूँ मैं
अंध तम के भाल पर पावक जलाता हूँ,
बादलों के सीस पर स्यंदन चलाता हूँ
पर, न जानें, बात क्या है !
पर, न जानें, बात क्या है !
इन्द्र का आयुध पुरुष जो झेल सकता है,
सिंह से बाँहें मिलाकर खेल सकता है,
फूल के आगे वही असहाय हो जाता ,
शक्ति के रहते हुए निरुपाय हो जाता

विद्ध हो जाता सहज बंकिम नयन के बाण से
जीत लेती रूपसी नारी उसे मुस्कान से "
Profile Image for Madhu Singh.
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December 28, 2024
राजा पुरूरवा और उर्वशी की प्रेम कथा की कविता के रूप में व्याख्या की गई हैं। उर्वशी की उत्पत्ति के विषय में दो अनुमान है एक तो यह कि जब अमृत मंथन के समय समुद्र से अप्सराओं का जन्म हुआ, तब उर्वशी भी उन्हीं के साथ जन्मी थी। दूसरा यह की नारायण ऋषि की तपस्या में विग्रह डालने के निमित्त जब इंद्र ने उनके पास अनेक अप्सराएं भेजी, तब ऋषि ने अपने ऊरु को ठोक कर उसमें से एक ऐसी नारी उत्पन्न की जो उन सभी अप्सराओं से अधिक रूपमती थी । यही नारी उर्वशी हुई और उर्वशी का नाम उसका इसलिए पड़ा कि वह उरु से जन्मी थी।
राजा पुरूरवा के बारे में कहा जाता है कि वह मनु और श्रद्धा की संतान सुधुम्न के पुत्र हैं जो शापवश , युवा नर से युवा नारी बन जाते हैं और उनका नाम इला होता है और इसी इला का प्रेम चंद्रमा के नवयुवक पुत्र बुध से हुआ, जिसके फलस्वरुप पुरूरवा का जन्म हुआ । पुरूरवा को ऐल भी कहते हैं और उनसे चलने वाले वंश का नाम चंद्रवंश हैं।
Profile Image for Shaily.
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September 30, 2020
No love story has touched me as this one. Indians shouldnot miss out on this.
85 reviews
February 15, 2023
उत्कृष्ट

अवश्य पठनीय। अदभुत भाव चित्रण! चेतना के स्तर को उन्नत करती अद्भुत काव्य। इसे बार बार पढ़ना उपयोगी होगा।
मनोवैज्ञानिक एवं दार्शनिक काव्य।
132 reviews3 followers
September 8, 2024
Tough Hindi. Though reputed to be amongst the best of Dinkar, Frankly saying, couldn't understand most of it. Tough Hindi words.Sorry. Not my cup of tea/coffee
Profile Image for Vinayak.
9 reviews
February 27, 2025
मर्त्य मानव के विजय का तुर्य हु मैं।
उर्वशी अपने समय का सूर्य हु मैं।।
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