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हानूश

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Drama

142 pages, Hardcover

First published January 1, 2010

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Bhisham Sahni

82 books90 followers

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Community Reviews

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4 stars
14 (33%)
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14 (33%)
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1 (2%)
1 star
2 (4%)
Displaying 1 - 5 of 5 reviews
26 reviews7 followers
May 4, 2015
"झरोखे" पढ़ने के बाद मैं भीषम साहनी जी की लेखनी से खासा प्रभावित था। इसी लिए प्रगति मैदान में लगे विश्व पुस्तक मेले से उन की लिखी और दो-तीन किताबें उठा लाया। "हानूश" उन में से एक थी। हानूश भीषम जी का लिखा पहला नाटक था। शायद इसी लिए उतना बेहतर नहीं था जितने बाकी नाटक लिखे गए हैं। नाटक की कहानी चेकोस्लोवाकिया की लोक-कथा से प्रेरित है। नाटक के पात्र बहुत सही ढंग से चुने गए हैं। ख़ास कर के दुसरे भाग में व्यापारियों का वार्तालाप अत्यंत रोचक है और "12 एंग्री मेन" की फील देता है। हर एक पात्र का एक उद्देश्य था जो कि बहुत ही सुस्पष्ट था। इसी लिए पढ़ने का और मज़ा आ रहा था।
मगर नाटक में कई जगह ऐसा लगा कि जैसे कुछ संवादों को ज़बरदस्ती कहानी में घुसाया गया है। मैंने भीषम जी की बहुत रचनाएँ नहीं पढ़ी हैं लेकिन जितनी पढ़ी हैं उन से ऐसा लगा कि वह समाज पर बहुत बढ़िया तंज कसते हैं। "झरोखे" भी इस से भरपूर थी। लेकिन हानूश में कई जगह वह तंज सस्ते में निपट गए। ऐसा लगा जैसे सिर्फ तंज मारने को ही वह संवाद लिखा हो, चाहे कहानी से कोई ताल्लुक़ न भी हो।
बहरहाल नाटक की भाषा बहुत सरल है और पढ़ने में ज़्यादा समय नहीं लगता। तो इसी लिए आप सब भी एक बार ज़रूर पढ़ें।
Profile Image for Ved Prakash.
189 reviews28 followers
April 3, 2018
लेखक 1960 के आस-पास चेकोस्लोवाकिया की राजधानी प्राग गए थे। इनके मित्र और प्रसिद्ध साहित्यकार निर्मल वर्मा उन दिनों वहीं थे और उन्होंने ही लेखक के साथ घूमते हुए उन्हें एक मीनार घड़ी दिखलाई जिसके बारे में कहा जाता था कि यह इस शहर की पहली मीनार घड़ी थी और इसे बनाने वाले कारीगर को राजा ने अनोखे ढंग से पुरस्कृत किया था।

इसी कहानी को सुनकर उन्होंने इस नाटक का ताना बाना बुन। प्रमुख पात्र हानूश के नाम पर ही नाटक का शीर्षक रखा गया है। हानूश एक कुफ़्लसाज यानि ताला बनाने वाला गरीब इंसान था जिसके अंदर घड़ी बनाने का जूनून सवार था। तबतक इस देश में किसी ने न तो घड़ी बनाई थी और न ही देखा था। 17 साल के संघर्ष के बाद वो आख़िरकार घड़ी बना ही लेता है।

पुरस्कार पा उसकी मुफलिसी तो ख़त्म हो जाती है लेकिन क्या उसे जो मिला वो सच में पुरस्कार ही था ? क्या मनुष्य अपने प्घुटन की स्थिति में आकर अपने प्रेम/अपने पैशन को हानि पहुंचा सकता है या फिर अपने सबसे प्रिय के सानिध्य में आकर अनिष्ट के लिए उठे हाथ भी रुक सकते हैं ?

समाज के विभिन्न वर्गों में आपसी वर्चस्व की लड़ाई पर भी सटीक तंज कसा गया है।

बहुत ही सरल भाषा में रचित ये नाटक कम समय में आराम से पढ़ा जा सकता है।


218 reviews1 follower
December 22, 2013
Loved to read a Hindi play after a long time!
The play was touching and was a nice read.
Displaying 1 - 5 of 5 reviews

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