ज्ञान चतुर्वेदी जी से मेरा प्रथम परिचय बारामासी से हुआ था। मैंने जब बारामासी का पहला पन्ना पढ़ा तभी यह तय हो गया था कि मैं इनकी कोई भी किताब छोड़ने वाला नहीं हूँ। बारामासी, नरक यात्रा और पागलखाना के बाद मैंने मिरिचिका पढ़नी शुरू की। यह किताब के मामलों में अनोखा था। सबसे अनोखी बात थी कि इस व्यंग कृति की पृष्ठभूमि अयोध्या है। अयोध्या में 14 वर्षो के कार्यकाल को पदुकाराज की संज्ञा देकर उसके माध्यम से वर्तमान भारत में व्यापत भ्र्ष्टाचार को दिखाने का सफल प्रयास किया गया है।
इस उपन्यास में जिस चीज ने मुझे सबसे ज्यादा प्रभावित किया वो इसकी अंलकृत भाषा शैली है। विशुद्ध हिंदी शब्दों के प्रयोग से यह कृति अद्धभुत प्रतीत होती है।
इस शठ को ग्रीवा से गहकर दस पच्चीस पादुकायें कपाल पर मारो।
हम किन्चित त्वरा में है।
चार कोस का पद गमन है।
दोपहर के धूप में तड़ाग का जल सवर्ण सम दमक रहा है।
खड़ाऊँ से ठोकना चाहिए इनकी कपालअस्थि को।
इसी तरह की अलंकृत नए शब्दावली के साथ यह उपन्यास हमारे चेतन पर गम्भीर चोट करता है। सारे के सारे पात्र और उनकी शैली आपको खूब हंसाएगी भी और रुलायेगी भी। जब आप भारत के वास्तविक दुर्दशा का चित्रण इस अंलकृत हिंदी में पढ़ते हुए गंभीरतापूर्वक सोचेंगे तो कटुसत्य से परिचय होगा। यह व्यंग्य हमारे ऊपर ऐसा प्रहार है। सबसे अद्भुत यह है कि परिष्कृत भाषा होते हुए भी इसे समझने में कोई परेशानी नहीं होती है। सारे के सारे पात्र काल्पनिक होते हुए भी कृत्य वास्तविक प्रतीत होते है।
बस एक चीज है जो कि खटकती है। हम सबों को अयोध्या से इतना प्रेम है कि इसकी दुर्दशा चाहे वह काल्पनिक ही क्यों नहीं हो मन को बुरा लगता है और ऐसा लगता है काश लेखक ने बाहुबली जैसी काल्पनिक शहर की कल्पना की होती तो श्रध्दा को चोट नहीं पहुंचती। पर लेखक की अपनी मजबूरियां होती है और स्थान बदल देने से सारे के सारे कथनांक का सार बदल जाता है
राग दरबारी पसंद करने वाले पाठको के लिए यह बहुत ही उत्तम रचना है। हमेशा कि तरह चतुर्वेदी जी अपेक्षाओं पर खरे उतरे है। मैं इसे 5 में 4 नम्बर दूँगा।
This is something different, a book written in pure form of hindi and full of sarcasm and humor. Author has a very unique writing style, very much recommend for Hindi readers.