कसप लिखते हुए मनोहर श्याम जोशी के आंचलिक कथाकारों वाला तेवर अपनाते हुए कुमाऊँनी हिन्दी में कुमाऊँनी जीवन का जीवन्त चित्र आँका है। यह प्रेमकथा दलिद्दर से लेकर दिव्य तक का हर स्वर छोड़ती है लेकिन वह ठहरती हर बार उस मध्यम पर है जिसका नाम मध्यवर्ग है। एक प्रकार से मध्यवर्ग ही इस उपन्यास का मुख्य पात्र है। जिन सुधी समीक्षकों ने कसप को हिन्दी के प्रेमाख्यानों में नदी के द्वीप के बाद की सबसे बड़ी उपलब्धि ठहराया है, उन्होंने इस तथ्य को रेखांकित किया है कि जहाँ नदी के द्वीप का तेवर बौद्धिक और उच्चवर्गीय है, वहाँ कसप का दार्शनिक ढाँचा मध्यवर्गीय यथार्थ की नींव पर खड़ा है। इसी वजह से कसप में कथावाचक की पंडिताऊ शैली के बावजूद एक अन्य ख्यात परवर्ती हिन्दी प्रेमाख्यान गुनाहों का देवता जैसी सरसता, भावुकता और गजब की पठनीयता भी है। पाठक को बहा ले जाने वाले उसके कथा प्रवाह का रहस्य लेखक के अनुसार यह है कि उसने इसे ‘‘चालीस दिन की लगातार शूटिंग में पूरा किया है।’’ कसप के संदर्भ में सिने शब्दावली का प्रयोग सार्थक है क्योंकि न केवल इसका नायक सिनेमा से जुड़ा हुआ है बल्कि कथा निरूपण में सिनेमावत् शैली प्रयोग की गई है।
लखनऊ विश्वविद्यालय के विज्ञान स्नातक मनोहर श्याम जोशी ‘कल के वैज्ञानिक’ की उपाधि पाने के बावजूश्द रोजी-रोटी की खातिर छात्र जीवन से ही लेखक और पत्रकार बन गए। अमृतलाल नागर और अज्ञेय - इन दो आचार्यों का आशीर्वाद उन्हें प्राप्त हुआ। स्कूल मास्टरी, क्लर्की और बेरोजगारी के अनुभव बटोरने के बाद 21 वर्ष की उम्र से वह पूरी तरह मसिजीवी बन गए।
प्रेस, रेडियो, टी.वी. वृत्तचित्र, फिल्म, विज्ञापन-सम्प्रेषण का ऐसा कोई माध्यम नहीं जिसके लिए उन्होंने सफलतापूर्वक लेखन-कार्य न किया हो। खेल-कूद से लेकर दर्शनशास्त्र तक ऐसा कोई विषय नहीं जिस पर उन्होंने कलम न उठाई हो। आलसीपन और आत्मसंशय उन्हें रचनाएँ पूरी कर डालने और छपवाने से हमेशा रोकता रहा है। पहली कहानी तब छपी जब वह अठारह वर्ष के थे लेकिन पहली बड़ी साहित्यिक कृति तब प्रकाशित करवाई जब सैंतालीस वर्ष के होने को आए।
केन्द्रीय सूचना सेवा और टाइम्स ऑफ इंडिया समूह से होते हुए सन् ’67 में हिन्दुस्तान टाइम्स प्रकाशन में साप्ताहिक हिन्दुस्तान के संपादक बने और वहीं एक अंग्रेजी साप्ताहिक का भी संपादन किया। टेलीविजन धारावाहिक ‘हम लोग’ लिखने के लिए सन् ’84 में संपादक की कुर्सी छोड़ दी और तब से आजीवन स्वतंत्र लेखन करते रहे।
प्रकाशित कृतियाँ: कुरु-कुरु स्वाहा, कसप, हरिया हरक्यूलीज की हैरानी, हमज़ाद, क्याप, ट-टा प्रोफेसर (उपन्यास); नेताजी कहिन (व्यंग्य); बातों-बातों में (साक्षात्कार); एक दुर्लभ व्यक्तित्व, कैसे किस्सागो, मन्दिर घाट की पैड़ियाँ (कहानी-संग्रह); आज का समाज (निबंध); पटकथा लेखन: एक परिचय (सिनेमा)। टेलीविजन धारावाहिक: हम लोग, बुनियाद, मुंगेरीलाल के हसीन सपने, कक्काजी कहिन, हमराही, जमीन-आसमान। फिल्म: भ्रष्टाचार, अप्पू राजा और निर्माणाधीन जमीन।
सम्मान: उपन्यास क्याप के लिए वर्ष 2005 के साहित्य अकादेमी पुरस्कार सहित शलाका सम्मान (1986-87); शिखर सम्मान (अट्ठहास, 1990); चकल्लस पुरस्कार (1992); व्यंग्यश्री सम्मान (2000) आदि अनेक सम्मान प्राप्त।
इससे पहले प्रेम पर कोई सुंदर किताब 2012 में पढ़ी थी। ओम प्रकाश चतुर्वेदी जी की 'कटते हुए'। वह छोटी सी किताब थी। लेकिन कुछ-कुछ इसी तरह प्रेम के मनोविज्ञान पर आधारित।
उसके बाद अब यह पढ़ी, 'कसप'। प्रेम कथा के हर कोण पर उसके साथ-साथ चल रहे मनोविज्ञान की व्याख्या और उससे बँधे रहना इस किताब के ज़रिए प्रेम का एक अलग ही रस प्रस्तुत करता है। कह सकती हूँ कि जब किताब का रस मिलने लगा तो पहला ख़याल यही आया कि इसे पढ़ने में इतनी देर क्यों की मैंने।
कहानी में सबसे ज़्यादा आकर्षक नायिका है। उसका किरदार आश्चर्यजनक रूप से साधारण होते हुए भी असाधारण है। नायक का चरित्र भी ऐसा है कि आप उससे प्रेम करें, गुस्सा करें, हँसे उस पर और फिर उसके कान पकड़कर उसे नायिका के पास तक लाना चाहें। जीवंत लेखन जो आपको आपके मन की हर उलझन से भी मिलवाता चले। ऐसा इसलिए क्योंकि लेखक ने सिर्फ उसकी कहानी नहीं कही, बल्कि आपके मन में चल रही कई बातों को भी वहाँ लिख दिया है। यह किताब सिर्फ प्रेम कहानी नहीं है। उम्र के अनुभव हैं। प्रेम के सभी रंग हैं। दर्शन है। इसमें पढ़ने में लगा समय सफल हुआ।
समीक्षा पढ़ने दो तरह के लोग आते हैं। एक तो वो, जिनको किताब के बारे में पता चला है, और देखना चाहते हैं समीक्षाएं पढ़कर, कि किताब पढ़ने लायक है या नहीं। और दूसरे वो, जिन्होंने किताब पढ़ ली है, और अब समीक्षाएं पढ़कर देखना चाहते हैं कि और लोगों ने भी वैसा ही सोचा किताब के बारे में जैसा उन्होंने सोचा, या उनसे कुछ "मिस" हो गया।
पहली केटेगरी के सुधी पाठकों को स्पॉयलर न देते हुए इस प्रेम कथा (मान के चल रहे कि इतना तो पता होगा) के बारे में ऐसी बातें बताना, जिससे उनको ये निर्णय लेने में आसानी हो कि किताब पढ़नी चाहिए या नहीं, आसान काम नहीं है, लेकिन फिर भी कोशिश करके देखते हैं। तो कहानी है डी. डी. और बेबी की। डी. डी. होगा कोई बाइस-तेईस बरस का, और बेबी कुछ सत्रह की। मिलते हैं एक शादी में, और जिसे एक हिंदी गीत में कहा गया है, "पहली नज़र में पहला प्यार हो गया"। कहानी वही पुरानी है, लड़का, लड़की, लड़के-लड़की का प्यार, लड़की के माँ बाप और उनकी लड़की के प्रति इच्छाएं वगैरह वगैरह। अब अगर आपके दिमाग में सवाल आ रहा हो कि ये किताब किसी नब्बे के दशक की (या और पहले की भी) हिंदी फिल्मों से किस तरह अलग है, तो सवाल बिलकुल वाजिब है, लेकिन उसका उत्तर थोड़ा टेढ़ा है। थोड़ा सा इसको समझने के लिए, अभी जो रोमांटिक फिल्म की छवि आपके दिमाग में बनी है, उस पर कुछ परतें डालते हैं। पहली परत है छोटे शहरों से बाहर निकलकर स्वतंत्रता के मायने समझने, और इस समझ की वजह से अपनी जड़ों से दूर होते जाने का द्वंद्व। किताब के नायक का, और शायद हम में से कइयों का, इस द्वंद्व से काफी गहरा नाता रहा है। दूसरी परत है भाषा की। इस किताब में कुमाउँनी है, हिंदी है, बनारसी भोजपुरी है, और अंग्रेजी भी है। हर वाक्य इस तरह से लिखा गया है की उससे ज्यादा नेचुरल उस सिचुएशन में और कुछ हो ही नहीं सकता था। अलग अलग भाषाओँ पर ऐसी पकड़ मैंने तो पहले कहीं नहीं देखी। तीसरी परत है डॉक्यूमेंटेशन की। चाहे वर्णन अल्मोड़ा का हो, या बनारस का या गंगोलीहाट का, या कि शादी में हो रही रस्मों का, पाठक अपने आप को वहाँ पायेगा। सबकुछ इतना सजीव, और वह भी बहुत प्राकृतिक तरीके से। अटेंशन टू डिटेल जिसे कहते हैं अंग्रेजी में। चौथी परत है फिलॉसॉफी की। जीवन मृत्यु से लेकर, एक्सिटेंसिअलिस्म, मार्क्सिस्म, रोमांटिसिज्म, फेमिनिज्म, इन सब पर ऐसा व्यावहारिक टीका शायद ही पढ़ने को मिले। इसे पढ़कर अगर कहीं सुधी पाठकों के मन में फिलॉसॉफी की ड्राई किताबों की याद आ रही हो, तो मैं कहना चाहूंगा कि यह एक बहुत बड़ी गलती होगी किताब को परखने के बारे में। इन फैक्ट, मैं ऐसी ड्राई समीक्षा के लिए लेखक से क्षमाप्रार्थी हूँ। परतें और भी बहुत हैं, मानव स्वभाव की, विद्रोह की, हास्य की, चुहलबाज़ी की, वात्सल्य की, करुणा की, जलन की, वगैरह, और इन सबको मिलाकर जो कहानी बनती है, वो ख़तम होने के बाद भी दिमाग में चलती रहती है। शायद इतना काफी हो एक पाठक के मन में उत्सुकता जगाने के लिए।
दुखद है कि दूसरी केटेगरी के पाठकों के लिए कुछ ख़ास कहने को है नहीं शायद मेरे पास। लेकिन अगर मैं ऐसे किसी के मिलूं जिसने यह किताब पढ़ी है, तो यह विचार अपने आप में सुकून देने वाला है, कि हम दोनों ने इस किताब को पढ़ा, और जिया है।
आज ५ दिनों के पठन के बाद मैंने ‘कसप’ को जैसा पाया ठीक वैसी ही राय थी मेरी इसके विषय में इसे पढ़ने से पहले। और यही कारण रहा जब भी कोई मुझसे किताबें सुझाने को कहता मैं ‘कसप’ का नाम जरूर लेती। ‘कसप’ से मेरा पहला परिचय कब हुआ था मुझे ठीक से याद नहीं, शायद जब प्रभात रंजन जी की ‘पालतू बोहेमियन’ में पढ़ा था मैंने इसका नाम या शायद जब फेसबुक पर सत्य व्यास ने सुझाया था इस किताब को। इसे पढ़ने से पहले मैंने इस क़िताब पर बहुत कुछ पढ़-सुन रखा था। मैं इसे पढ़ने से पहले से ही बेबी-डी डी को जानती थी। मैं जानती थी यह पहाड़ी पृष्ठभूमि पर लिखा गया उपन्यास है। मैं जानती थी इसमें कुमाऊँनी शब्दों का भरपूर प्रयोग हुआ है। मैं जानती थी कि इसे जोशी जी ने महज ४० दिनों में लिखा था। और जब से मैंने यह जाना था, यह क़िताब मेरी टी.बी.आर. लिस्ट में ऐड हो गई थी। और यह ठहरी एक प्रेम कहानी तो वैसे भी मुझसे जादे दिन बचने वाली थी नहीं।
जैसा कि क़िताब का शीर्षक है - ‘कसप’ यानी ‘क्या जाने’। मैं इस क़िताब के विषय में कुछ कहकर इसके शीर्षक को झुठलाना नहीं चाहती और न मैं कुछ कह ही पाऊँगी। हाँ इतना कहूँगी कि क़िताब के शुरुआत में लेखक की शैली और कुमाऊँनी शब्दों का प्रयोग मुझे थोड़ा अटपटा सा लगा, लेकिन फिर मैं उसकी अभ्यस्त हो चली। लेखक ख़ुद इस कहानी को सुनाता है और जिस तरह वैदिक मन्त्रादि का उल्लेख हुआ है इससे लगता है लेखक काफी विद्वान है और क़िताब के पीछे छपी उनकी छोटी सी तस्वीर में धीर गंभीर चेहरे पर चश्मा लगाए काले घेरे लिए हुए थकी-थकी हुई आँखों से लगता भी है। मैं इस क़िताब के हर दो पन्ने पढ़ने के बाद क़िताब के आखिरी पृष्ठ पर छपी उस धीर गंभीर तस्वीर में अध्ययन करते-करते थक चुकी सी आँखों को देखते हुए यही सोच रही थी कि मैं बियाह करूँगी तो किसी ऐसी ही पढ़ी-पढ़ी सी थक चुकी आँखों वाले से, हालाँकि वो मेरा हमउम्र होगा। लाज़िम ही है ऐसी रसभरी क़िताब पढ़ते हुए ऐसे उलूल-जुलूल से ख़याल पाठक के मन में आ जाएँ। देखते हैं अपनी कहानी कहाँ शुरू होती है। गुसलखाने से तो नहीं ही शुरू होगी, उम्मीद है।
अब यह क़िताब तो पूरी हुई। लेकिन मेरे लिए एक समस्या आ ठहरी कि अब मैं जो भी वाक्य बोल रही उसके अंत में ‘ठहरा’, ‘ठहरी’ और ‘बल’ जैसे शब्द बोलने से ख़ुद को मुश्किल से रोक पा रही। कुछ दिन तो इसका असर रहना ही है।
सैप आप कुमाउनीं नहीं जानते रहे होंगे। सैप आप पहाड़ी नहीं होंगे, हो भी सकते हैं, मैदानी या जंगली भी हो सकते हैं। पर सैप क्या आप कभी अकेले में बैठकर फूट फूट कर रोए हैं और जान नहीं पाए किस बिल्लो बात पर यूं रोना आया? अभी कुछ दिन पूर्व हिंदी साहित्य पर काल्पनिक लानतें भेजते हुए मैंने मन ही मन एक लाइन लिखी 'हिंदी साहित्य एक अजीब किस्म की निष्क्रिय रूमानियत' से परिपूर्ण है। सैप यह सब अलग विमर्श का विषय ठहरा। हम तो यहां नाजुक मिजाज प्रेमी ठहरे। हम को बहुत रोना आता है, इसी वजह कई प्रेमिकाएं छोड़ गईं, अब इस प्राकृतिक डिफेक्ट का कोई क्या करे, नियति मानकर चुप लगा बैठे हैं पर अभी जो रोना आया न उसकी वजह वही रही होगी यह सम्भव नहीं, हां मैं जानता हूँ आप आश्चर्य कर रहे हैं मेरे अपने निज को इस तरह खोल रखने पर पर सैप अब तो वह सिर्फ एक निर्जीव नाम। ढूंढ लाइये आप उसे तो मेरी बला से। खैर अगर यह किताब 100 पन्ने की मान लीजिए तो शुरू के 15 और अंत के बीस पन्नों को छोड़कर यह एक धाकड़ किताब है। ऐसे ऐसे सर्रियल दृश्यों का ताना बाना बुना है जोशी सैप ने, कि मन चमत्कृत होकर कहता वाह, भई यह ठहरा कोई चमत्कार! विनोद कुमार शुक्ल जी की अदभुत दुनिया में जो सामाजिक, दार्शनिक तनाव छूट रहते हैं वे इनके यहां भर भरकर हैं। जोशी जी अपने कुमाउनीं ठहरे बल। कमाल ठहरे बल। हिंदी पढ़ना लिखना जानते हैं तो यह किताब तो बल आपको पढ़नी ठहरी। बाकी फिर फुर्सत से बल, इसे पढ़कर भावनाओं का जो सोता अपने दिल से जो निकल पड़ा है तब तक उसे ठिकाने लगा आते हैं इसलिए नहीं कि वे रूमानी भावनाएं हैं बल्कि इसलिए कि यह सब जो उपक्रम है न बड़ा ही व्यर्थ है। कहाँ जाएं, क्या करें, कहाँ क्या रह गया, जुड़ गया, छूट गया, लुट गया क्या बताएं बल। उपन्यास में जगह जगह सभ्यता के दैन्य का जो खंडहर दिखाई पड़ा वो मर्मान्तक है, कर्णभेदी है और निरुत्तर कर देने वाले दार्शनिक प्रश्नों पटी पड़ी है। खैर, किताब पढ़िए करके। जयहिंद। शब्बा खैर।
कुछ कहानियाँ आपके साथ हमेशा के लिए रह जाती है, यह उनमें से एक हैं। हालांकि मैंने इस उपन्यास से उम्मीद थोड़ी ज्यादा ही की थी मगर कहानी के कुछ हिस्से मेरे मन के कोने में कहीं जाकर बस गए हैं। ऐसा क्यों हुआ? कसप!!
In 1950s Kumaon, twenty-one year old Debidatt ‘DD’ Tiwari, an orphan who now works as a writer in the cinema industry in Bombay, falls in love. Maitreyi ‘Baby’, the object of DD’s affections, looks very much like DD’s dream girl, the Hollywood star Jean Simmons. She’s a teenager, irreverent and playful, and she reciprocates DD’s fascination. Their love story proceeds along somewhat unconventional lines, sometimes funny, sometimes outright ridiculous. Baby’s brothers, especially the eldest, see red. Her father, the studious and somewhat head-in-the-clouds Shastriji, is mostly complacent, even corresponding with DD when the latter returns to Bombay.
And there are others: the half-Canadian older woman Gulnar, who comes to India to make films and ends up (sort of) adopting DD. A host of other characters, some briefly encountered, some glimpsed at periodic intervals through the story as it moves on, from the 50s to the 80s.
For me, the characterizations in Kasap were of special note. Manohar Shyam Joshi is brilliant at using dialogue, in particular, to sketch his characters. There’s so much that comes through in the way these people speak: the young Baby’s informal, affectionate, somewhat ungrammatical, unschooled language; DD’s comparatively sophisticated words, but which reveal him as somewhat restrained and controlled (possibly shy?) in contrast to his beloved. Shastriji’s somewhat woolly-headed academic-ness. Even the characters only briefly there, like the old woman DD feeds sweets to in the latter part of the novel, or Baby’s eldest brother’s wife, who meets DD when he calls at their place, are expertly etched.
While on this, I must also applaud the way Joshi weaves in different types of language: the Kumaoni of the local people (and in varying ‘intensities’ too, depending on how much khadi boli they use in addition to the Kumaoni words); the Hindi of the urban lot; the English of Gulnar and of DD, when he is with her. Joshi’s command over each of these languages and dialects is superb, and the way he uses them, with skill and veracity, is brilliant.
The story was a little patchy for me. In tone, the light-hearted, often comic touch of most of the first half is at odds with what happens once DD and Baby get together in Delhi. From there onwards, the entire feel of the novel changes from being something of a rom-com to a cynical, philosophical ‘what if’ situation that was very much less entertaining. And yes, the incident which causes the huge scandal was just very weird. Who does that?!
But overall, mostly because of the characters, the dialogues, and the way Joshi brings Kumaon to life, I’d give Kasap three stars.
The one thing I liked about this book is it's ending. I picked it up because of some great reviews and because it is hailed as at par with Ageya's Nadi ke Dweep. But it didn't even come close to it. The characters are young, granted, but does their story needed to be so juvenile? And the author after every few pages goes off on his writer's meandering which after first couple of times just put me to sleep.
"कसप" एक ऐसा उपन्यास है जो पाठक को एक साथ संताप और सुखदाई अनुभवों से गुजरने पर मजबूर करता है। इसके हास्यपूर्ण चित्रण इतने वास्तविक और जीवंत हैं कि पाठक को पात्रों के साथ जुड़ने में देर नहीं लगती।
लेखक ने इस उपन्यास को थर्ड पर्सन दृष्टिकोण (POV) में लिखा है, जो इसे और भी दिलचस्प बनाता है। इस तरह की शैली में उपन्यास पढ़ना मेरे लिए एक नया अनुभव था। खासकर, जब लेखक बीच-बीच में पात्रों पर टिप्पणी करता है या सीधे पाठकों से संवाद करता है, तो यह अनुभव और भी अधिक प्रभावशाली बन जाता है।
उपन्यास के आधे हिस्से तक, मैंने इसे "गुनाहों के देवता" से ऊँचा स्थान दे दिया था। लेकिन जैसे-जैसे कहानी आगे बढ़ती है और मैं अंत तक पहुँचता हूँ, मुझे दोनों को एक साथ रखना पड़ा। मेरे अनुसार, "कसप" में "गुनाहों के देवता" की तुलना में पात्रों का परिचय और उनकी मनोदशा का चित्रण अधिक प्रभावशाली ढंग से किया गया है। हर पात्र की मनोस्थिति और उनके आंतरिक द्वंद्व को बारीकी से उकेरा गया है, जो पाठक को उनके जीवन का हिस्सा बना देता है।
इस उपन्यास को पढ़ने के बाद, मैं निश्चित रूप से इसे अगले पाँच सालों में फिर से पढ़ना चाहूंगा। यह देखने के लिए कि तब मेरे विचार इसके बारे में कितने बदलते हैं।
This hindi Novel is a soul quenching experience for the Kumaonis and Garhwalis staying away from Pahad ( Hills). The language is full of pahadi(Dialect used in Hills of Uttarakhand in India) words which only a pahadi( Highlander) can feel. Pahad ( Hills of Uttarakhand) literally comes to life while reading this book. The easy meanings of the pahadi words used, helps the readers not knowing those words. At first it took me some time to adjust to writing style of the writer, and once you get into the flow, its a wonderful journey into Manohar Shyam Joshi's Literary world set in the Kumaon Hills. For Hindi readers, its not a soft fiction book, but a literary book. The monologues by the writer ( Which are frequent) need to be read and re read to be fully understood and felt.
Many a times the way writer narrates, reader transcends into the world of cinema, as if you are watching a movie. Specially the end, very poignant. Its not a book to be read in hurry, but to be read with time at your end, enjoying the narration. All in all a wonderful literary novel.
शुरुआत में लगा कि 90s का एक औसत-सा प्रेम कहानी आधारित tv serial देख रही हूँ। पर उपसंहार ने कहा कि यह एक क्लासिक प्रेम उपन्यास की श्रेणी में गिने जाने के योग्य है, विशेषकर नायक के रोने का दृश्य। इच्छा हुई कि इसे किसी दिन थिएटर में मंचित होते देखूं। कसप अपनी शैली में आंचलिकता में पहाड़ की महक से भरा हुआ बचपन वाले प्यार की अनुभूति को दृश्य दर दृश्य दर्ज़ कराता हुआ उपन्यास है।
"जाने का लिख रहा ठेहरा?"माफ़ करियेगा जब से "कसप" पढ़ी है, कुमाऊँनी बोली का जादू सर चढ़ कर बोल रहा है l यह किताब मनोहर श्याम जोशी जी की रचना है जिन्हें टी वी सीरियलस के संसार का "पितामह" भी कहा गया है l "कसप" निश्चित तौर पर उनकी श्रेष्ठ रचनाओं में से एक मानी जायेगी l "कसप" है क्या? इस पर चर्चा करते हैं l
सब से पहले तो इस शब्द का अर्थ जानना जरूरी है कि कसप शब्द है क्या? इसका अर्थ होता है "क्या जाने"l जी हाँ, लेखक इस से बेहतर शीर्षक नहीं सोच पाए l कसप प्रेम की कहानी है l, पूर्ण हो या अपूर्ण, प्रेम तो आखिरकार प्रेम ही है l प्रेम की तलाश में इस उपन्यास के पात्र एक स्थान से दूसरे तक सालों तक की यतरा तय करते हैं l
चलिये, कहानी के मुख्य पात्रों से आपका परिचय करवाते हैं :-
बेबी - हमारी खिलंदड, हँसमुख, अल्हड़ नायिका l पढ़ने लिखने में कोई खास ��ुचि नहीं है इनकी l पाँच भाई बहनों में सबसे छोटी l सबकी दुलारी, खासतौर से अपने पिता की l बेबी में पहाडों वाली लड़की का अल्हड़पन प्रचुरता में उपलब्ध है l इनके शास्त्रीय पिता ने इनका नाम "मैत्रियि" भी रखा है और इस नाम से शायद केवल वही पुकारते भी हैं l
डी डी - उर्फ़ देवदत्त उर्फ देबिया, तिवाड़ी है पहाडों वाला, गंगोलीहाट में बचपन बीता है l माँ, बाप बचपन में गुजर गए l बुआ ने पाल कर बड़ा किया, सारा जीवन करीब करीब अभावों में ही बीता है l किताबें लिख चुका है और खुद को सिनेमा में दिग्दर्शक के तौर पर स्थापित करना चाहता है l सहित्यानुरागी के साथ ही हमारा नायक डी डी दार्शनिक भी ठेहरा और सबसे महत्वपूर्ण ,पत्र लिखने में महारथ हासिल है इसे l अगर सिनेमा में इसका मन ना लगाता तो जरूर हिंदी साहित्य को एक अनमोल रत्न मिला होता l
शास्त्रीय जी - बेबी के पिता l काशी के पंडित, बचपन में पिता से शास्त्रों की शिक्षा ली l अल्मोड़ा शहर आ कर बस गए l साहित्य, कविता, दर्शन आदि कई विषयों पर इनकी पकड़ का क्या कहना l अफसोस शास्त्री जी को शास्त्रार्थ करने के लिए घर पर कोई नहीं है l घरेलू पत्नी हैं, चारो बेटे नौकरी पेशा वाले हुए और पुत्री बेबी को ये बातें पल्ले नहीं पड़ती हैं l शास्त्री जी स्वभाव से घुमक्कड़ भी लगे मुझे l काशी के बेनिया बाग़ से अल्मोड़ा की पहाड़ियाँ l वहाँ से फिर दिल्ली प्रवास और अंत में बिन्सर में प्राण त्यागे l
अन्य किरदार कहानी में आते जाते रहेंगे जैसे बेबी के भाई, भौजाई और चचेरी, मेमेरि बहनें l डी डी का मित्र बब्बन, इसी के यहाँ एक शादी में हमारे नायक नायिका पहली बार मिलते हैं l गुलनार जी भी हैं जो हमारे नायक की पथ प्रदर्शिका बन कर उसे पाश्चात्य संस्कृति से अवगत कराती हैं l गुलनार जी आधी हिंदुस्तानी हैं और शादी व्याह जैसी दकियानुसी चीजों में जरा कम आस्था रखती हैं l
कहानी का कथानक बेजोड़ है l हम इंटरनेट युग में प्रेम को परिभाषीत करने वालों को थोड़ा अटपटा भी लगे कि कैसे किसी ज़माने में प्रेमी एक दूसरे को खत लिखकर एक दूसरे का हाल समाचार दिया करते थे l अपने यात्रा वृतान्त से लेकर रोजमर्रा की बातें, भविष्य की योजनायें और यहाँ तक कि प्रेमियों के मध्य होने वाली बातें सब पत्राचार से l न व्हाट्सएप, न फेसबुक ;) यकीन हो रहा है या आप सब के लिए यह गल्प की श्रेणी में आ रहा है ? हमारे दार्शनिक, विद्वान लेकिन अनाथ गरीब नायक का प्रेम बेबी जैसी संभ्रांत घर की लड़की के भाईयों को कतई नहीं सुहाता है l फ़िर भी फिल्मी स्टाइल में नायक अपने प्यार का इज़हार करने में कोई कसर नहीं रखता है l शास्त्रीजी वैसे तो नायक को अपना जमाता बनाने के योग्य मानते हैं लेकिन घर परिवार, समाज के दबाव के आगे असह्या महसूस करते हैं l हमारी नायिका वैसे यहाँ बाजी मार ले जाती है l चाहे अपने प्यार के लिए घर वालों की रजामंदी लेनी हो या फिर अपने माँ बापू के सुख के लिए खुद को नायक से अलग करना, नायिका तटस्थ रहती है l ऐसे सारे फ़ैसले वो अपनी मर्ज़ी से लेती है बिना किसी के दबाव में और एक अल्हड़, दबंग, खिलंदडी बेबी से संभ्रांत, कुलीन, विदुषी मैत्रेयी बनने तक का सफर तय करती है l नियति को इनका मिलना मंजूर है या बिछड़ना यह आपको उपन्यास पढ़कर पता लगेगा l
इस कहानी को सिर्फ प्रेम कहानी कहना भी उपन्यास के साथ अन्याय होगा l कहानी में सन् 1910 का काशी है, 1950 के दशक का का नैनीताल, अल्मोड़ा, वराणसी, बंबई, और थोड़ा दिल्ली भी l कहानी का अंत 80 के दशक में आकर होता है l इतने लंबे अंतराल में देश में भी कई बदलाव आते हैं l कला, समाज, राजनीति, साहित्य, धर्म आदि हर तरफ़ नवीनिकरण और आधुनिकता की बयार बह रही है l 80 के दशक में तो पहाडों तक पर कच्चे मकान अब पक्के होते जा रहे हैं, घर बड़े, पैसे ज्यादा पर आपसी मेलजोल कम होता चला जाता है l भौतिक सुख सुविधा अर्जित करने के बाद भी नायक वैमनस्य की स्थिति में रह जाता है l उपन्यास की भाषा कुमाऊनी हिंदी है ,आंचलिक शब्दों की भरमार है और आंचलिकता का यह पुट भाषा तथा भाव को और निखार ही देता है l कई बार मुझे किंडल पर उपलब्ध राजपाल हिंदी शब्दकोश का भी सहारा लेना पड़ा l कुछ हिस्से जो मुझे बहुत पसंद आये, उन्हें यहाँ नीचे लिख रहा हूँ :-
"जो एक-दूसरे से प्यार करते हैं वे लौकिक अर्थ में एक-दूजे के लिए बने हुए होते नहीं।"
"बेबी बैडमिण्टन में जिला-स्तर की चैम्पियन है, यह बात अलग है कि इस जिले में बैडमिण्टन स्तरीय नहीं!" (हास्य)
"दो लोग, दो घड़ी, साथ-साथ इतना-इतना अकेलापन अनुभव करें कि फिर अकेले न रह पायें।"
"प्यार एक उदास-सी चीज है, और बहुत प्यारी-सी चीज है उदासी।"
"प्यार के कैमरे के दो ही फोकस हैं—प्रिय का चेहरा, और वह न हो तो ऐसा कुछ जो अनन्त दूरी पर स्थित हो।"
"वर्षों-वर्षों बैठा रहूँगा मैं इसी तरह इस गाड़ी में जिसका नाम आकांक्षा है। वर्षों-वर्षों अपनी ही पोटली पर, मैले फर्श पर, दुखते कूल्हों, सो जाती टाँगों पर बैठा रहूँगा मैं। संघर्ष का टिकट मेरे पास होगा, सुविधा का रिजर्वेशन नहीं।"
“और याद रखना, सभी निर्णय गलत निर्णय होते हैं, किसी-न-किसी सन्दर्भ में, किसी-न-किसी के सन्दर्भ में। हमें वही निर्णय करना चाहिए जो हमारे अपने लिए, हमारे विचार से सबसे कम गलत हो।”
मैंने यह किताब नहीं पढ़ी| पढ़ नहीं पाया, जितनी बार पढ़ना चाहा उतनी बार जोशी ज्यू के कुमाँऊनी पात्रों ने मेरे मन में बोलना शुरू कर दिया| इसलिए यह कहना उपयुक्त होगा कि मैंने कसप को सुना-पढ़ा - सुना वो जो कुमाँऊनी बोली में कहा गया (और जीवन का एक पुराना अध्याय जी लिया), पढ़ा वो जो जोशी ज्यू ने लिखा या बेबी (मैत्रेयी) के बाजु (पिताजी) ने कहा| शायद ही कोई कुमाँऊनी (या वो जो कुमांऊँ से परिचित हैं) इस कहानी को पढ़ सकता है, इसे बस सुना जा सकता है मन ही मन में, या इसे जिया जा सकता है...
कुमाँऊनी में कसप का अर्थ है - क्या जाने? यह एक विस्मयकारी अभिव्यक्ति है - प्रश्नवाचक भी, दार्शनिक भी और वार्ता में अल्पविराम/विराम लाने वाली भी| कुमाँऊनी का उपयोग न केवल स्थान दर्शाता है बल्कि प्रेम क्या है - इस पर विस्तृत दृष्टिकोण को भी| नायक इसे "हां की" या "यह या वह" कहता है, जबकि अधिक सूक्ष्म नायिका कहती है, ""क्या मेरा होना, प्यार में होना नहीं है?" जब लेखक कथा में हस्तक्षेप करता है, तो वह संस्कृतकृत खड़ी बोली का उपयोग करता है।
जब नायिका के पिता, संस्कृत के विद्वान दुखी और असहाय महसूस करते हैं, तो वे वाराणसी की बोली बोलते हैं, जहाँ वे रहते थे - कुमाँऊनी के बजाय भोजपुरी और अवधी का मिश्रण। वो चिल्लाते हैं - "कार्तिकेय कस माहतारी", न कि "कार्तिकेयक इजा"। दूसरी बोली में वापस आना इस प्रकार उदासीन निराशा के लिए एक प्रतिमान बन जाता है।
रेणु के मैला आँचल के बाद कसप शायद आंचलिक बोली की सबसे बेहतरीन रचना है| कुमाँऊनी सामाजिक परिप्रेक्ष को लेखक ने जैसे कागज़ पे उकेर कर जीवंत कर दिया है| उदहारण के तौर पर किसी नव अवंतुक के परिचय का तरीक़ा - "'कौन हुए' का सपाट सा जवाब परिष्कृत नगर समाज में सर्वथा अपर्याप्त माना जाता है। यह बदतमीजी की हद है कि आप कह दें कि मैं डीडी हुआ। आपको कहना होगा, न कहिएगा तो कहलवा दिया जाएगा, मैं डीडी हुआ दुर्गादत्त तिवारी, बगड़गाँव का, मेरे पिताजी मथुरादत्त तो बहुत पहले गुजर गए थे, उन्हें आप क्या जानते होंगे, बट परहैप्स यू माइट भी नोइंग बी.डी तिवारी,वह मेरे एक अंकल ठहरे…..वे मेरे दूसरे अंकल ठ��रे। उम्मीद करनी होगी कि इतने भर से जिज्ञासु समझ जाएगा। ना समझा तो आपको ननिहाल की वंशावली बतानी होगी।"
जोशी ज्यू की नायिका सशक्त है और नायक लुंज-पुंज| बेबी भले ही खिलंदड़ हो, अल्हड़ हो, उसमे एक स्थिरता है| जब एक बार उसने ठान लिया की डी डी से ही शादी करेगी, उसको स्वीकार करेगी उसकी हर कमी के साथ, तो फिर उसका इरादा टस से मस नहीं हुआ| नायक को जनेऊ दिया, और मान लिया पति गणानाथ के सामने, वो भी तब ज��� उसका विवाह किसी और से तय हो चुका था| सारे समाज से भिड़ गयी वो और करा ली अपनी बदनामी…
नायक डी डी को पता है की कर्नल साब और बेबी के पीछे तल्लीताल बस स्टैंड जाने का मतलब फिर से बेइज़्ज़ती करवाना होगा, वह भी सबके समझाने के बाद लेकिन वो फिर भी जाता है, लौ की तरफ खिंचते पतंगे की तरह... दोस्तोएव्स्की को पढ़ने से पहले जोशी ज्यू को पढ़ लेना चाहिए|
नायिका के पिता का पात्र भी अत्यंत सजीव है - बौद्धिक, बेटी के प्रेम में उसको स्वछन्द होने देते हैं पर सांसारिक कलापों में अपनी पत्नी और बेटों से उन्नीस| हर ज़िद को बाल-हठ कहकर टाल देते हैं... उपन्यास में एक प्रसंग है जहाँ नायक नायिका को पत्र लिखता है, पर नायिका उनको इतना गूढ़ पाती है की वो पत्र अपने पिता को दे देती है, कि पढ़ें और उसे समझाएं की उसके प्रेमी ने आखिर लिखा क्या है| और पिता पढ़ के समझाते भी हैं और नितांत आनंद भी पाते हैं - एक बौद्धिक दामाद की उम्मीद में|
लेखक नायक और नायिका के अलग होने पर कहानी का अंत कर सकते थे, पर मारगांठ जैसे केवल एक गाँठ खुल जाने से सुलझती नहीं, वैसे ही पुनर्मिलन भी ज़रूरी था| किताब के उन अंतिम पन्नों में लेखक के खुद के खोये अतीत और वर्तमान की अनिश्चितता साफ़ दिखती है| आधुनिकता धीरे धीरे पैर पसार रही थी, सामाजिक परिवर्तन धीरे धीरे हो रहा था. एक और चीज़ जो उभर कर सामने आती है वह है, सामाजिक परिप्रेक्ष में सफलता का मयार …
Joshi brings together a collage of regional language touch, with pure Sanskrit-based Hindi, and a dash of deteriorated French and English as well. The book is totally formulaic. However, what makes it a pleasure to read is Joshi's sharp writing, witty dialogues, scenic locales, and humorous style.
A must read for any romance fan, or q curious traveller to the mountains.
समीक्षा करना तो नही आता पर इतना ज़रूर कहूंगा कि भाषा की कठिनाई को साइड रखते हुए अंत तक इस किताब के साथ बने रहिएगा। नायक नायिका दोनो अपनी ज़िंदगी मे सफ़ल हैं पर क्या ज़िन्दगी सफ़ल रही? खासकर नायक की?
This entire review has been hidden because of spoilers.
कसप शब्द का अर्थ है क्या जाने। मनोहर श्याम जोशी द्वारा रचित ये उपन्यास अपने शीर्षक के साथ न्याय तो करता ही है लेकिन अंत तक आते आते कहानी को छोटी छोटी पगडंडियों से होते हुए एक ऐसे शिखर पर ले जा के स्थापित करता है कि वहाँ तक जाने की इच्छा हर बढ़ते पृष्ठ के साथ प्रबल होती जाती है।
कहानी के प्रमुख किरदार :- दुर्गादत्त तिवारी उर्फ़ डीडी नायक , मैत्रेयी उर्फ़ बेबी नायिका, शास्त्री जी बेबी के पिता, गुलनार - डॉक्यूमेंट्री बनाने भारत आयी एक स्त्री जिसके साथ डीडी काम करता है, बब्बन डीडी का बचपन का मित्र इत्यादि
कहानी - कसप एक प्रेम कहानी है और दो अलग अलग किरदारों को मरकज़ पर रख कर लिक्खी गयी है। लेखक ने पूर्णतः अपनी पत्नी को समर्पित करते हुए ये प्रेम कहानी रची है क्योंकि उन्हें प्रेम कहानियों का शौक था। इस कहानी को कोई बोल सकता है कि ये एक प्रेम कहानी है जहाँ नायक नायिका शादी के उपलक्ष पर मिलते हैं, दोनों के मध्य बातचीत होती हैं, शरारतें होती हैं और प्यार का बीज अंकुरित हो उठता है। फिर इस प्रेम कहानी में दिलचस्प मोड़ आते हैं। रिश्तेदारों का जमघट लगता है नायक की भरे शहर में पिटाई होती है। नायक और नायिका के मध्य पत्रों का आदान प्रदान होता है, कहीं कहीं शरारती नोंक झोंक होती है और कहीं कहीं हॉर्मोन्स की इंटेंसिटी इतनी ज़ियादा हो जाती है कि एक दूसरे को स्पर्श करने की चाह चरम पर होती है जैसा अमूमन प्रेम जोड़ियों में देखा जाता है। अच्छी खासी प्रेम कहानी पर क़िस्मत की गाज गिरती है और नायक औए नायिका दोनों अपने अपने रास्ते चल पड़ते हैं पर प्रेम उन्हें जोड़े रखता है।
पर किसी के लिए ये सिर्फ़ एक प्रेम कहानी न हो कर एक ऐसी कहानी हो सकती है जो ताक़त देती है किरदारों को और रास्ता दिखाती है आगे बढ़ कर ख़ुद को उठाने की। मेरे लिए ये सिर्फ़ प्रेम कहानी नहीं है एक आत्ममंथन का विषय भी है और किरदारों के आपसी द्वंत द्वारा जीवन को समझने का एक प्रयास भी है।
उपन्यास की विशेषता -
१- कसप को आप पढ़िए क्योंकि ये एक प्रेम कहानी के साथ साथ कहानी है लक्ष्य पर नज़रें गढ़ाये आगे बढ़ने की। प्रेम कहानी में एक तूफ़ान आता है जब नायिका से मिलने नायक अंतिम बार आता है उसे मनाने के लिए कि वो उसे कैलिफोर्निया जा कर पढ़ने दे और सिने शास्त्र का अध्ययन करने दे परन्तु बेबी सहमत नहीं होती है और प्रस्ताव रखती है कि या तो कैलिफोर्निया जा या मुझसे शादी करने ख़ातिर यहीं भारत में रह कर दिल्ली में अध्ययन कर। नायिका निःवस्त्र जाकर पलँग पर लेट जाती है और कहती है मेरा भोग लगा कर जाओ और अपमानित नायक उसपर चादर डाल देता है, जैसा कह रहा हो तुम ज़िंदा लाश हो। एक स्त्री का ऐसा उपहास कि वो बन जाती है श्रेष्ठ हर मुमकिन क्षेत्र में किंतु बदला लेने ख़ातिर नहीं। नायिका का भक्ति और रस सिद्धान्त पर लिखा शोध प्रबंध पीएचडी से सम्मानित होता है, बैडमिण्टन और संगीत में आगे बढ़ जाती है और वापस टकराती है प्रेमी से सालों बाद। नायक भी दरिद्रता का शिकार सिनेमा जगत में एक नामी हस्ती बन कर उभरता है।
किताब की ये कुछ पंक्तियाँ कितनी सार्थक हैं देखें आप सभी कि " जीवन में कुछ भी 'फ्रीज' नहीं होता। प्रवाहमान नद है जीवन। क्षण-भर भी रुकता नहीं किसी की कलात्मक सुविधा के लिए। ‘फ्रीज' नहीं होता, 'सीज' अलबत्ता होता है और सो भी भयावह निर्णयात्मकता से। यों नद का यह रूपक भी अपने अधूरेपन में कम त्रासद नहीं। कौन जानता है किस सागर में विलीन होता है यह नद? "
२- नायक-नायिका तो हमेशा साथ रहते हैं पाठक के पर यहाँ साथ रह जायेंगे शास्त्री जी बेबी के पिता। उनका क़िरदार बहुत ही प्रभावशाली है। उनका संयम, उनका शिष्टाचार, उनका ज्ञान अनुकरणीय है। पाँच भाईयों की इकलौती बहन बेबी को पालने में उन्होंने कोई कमी नहीं छोड़ी और उसे भी पढ़ा लिखा कर इस क़ाबिल बना दिया कि वो सर ऊँचा कर समाज में रह सके और उसे उसके काम के कारण लोग जानें। प्यार के बारे में शास्त्री जी का ये मानना है कि " प्यार वह भार है जिससे मानस- पोत जीवन-सागर में सन्तुलित, गर्वोन्नत तिर पाता है। इस भार के लिए छोड़े गये स्थान की पूर्ति हम यथाशक्य अपने प्रति अपने प्यार से करते हैं किन्तु कुछ स्थान फिर भी बच रहता है। इसे कैसे भी, किसी वस्तु, व्यक्ति या विचार के प्रति प्यार से भरा जाना जरूरी है, भरा जाता भी है। इस आवश्यकता की पूर्ति के लिए हम किसी अज्ञात, अनाम तक से भी प्यार कर सकते हैं। " न जाने ऐसे कितने ही रोचक मोड़ हैं इस उपन्यास में जहाँ उन्होंने अपने संयम और विवेक से पाठकों का मन मोह लिया है। आपको इनसे प्यार हो जाएगा। दर्द को सीने में छुपा आगे बढ़ते रहने का पर्याय हैं बेबी के पिता जी।
३- इस उपन्यास शुरुवात में ही नायक ने जो लक्ष्य कायम किया था उसने उसे कैसे पूर्ण किया नायक ने इस उतार चढ़ाव को जानने के लिए ज़रूर पढ़ें कसप। जब वो बरेली से दिल्ली जाता है ट्रैन में तो वो ख़ुद को कहता है कि " वर्षों-वर्षों बैठा रहूँगा मैं इसी तरह इस गाड़ी में जिसका नाम आकांक्षा है। वर्षों-वर्षों अपनी ही पोटली पर, मैले फर्श पर, दुखते कूल्हों, सो जाती टाँग���ं पर बैठा रहूँगा मैं। संघर्षका टिकट मेरे पास होगा, सुविधा का रिजर्वेशन नहीं। " ख़ुद को क़ाबिल बना कर दिखाता है और अंततः उसके अंदर के अधूरेपन से मिलने का मौका मिलेगा पाठकों को।
इस कहानी की शुरुवात बहुत ही धीमी है और शादी घर का चित्रण इतने विस्तार में है कि कहीं न कहीं वो कहानी से भटका देता है और कहानी को नीरस भी बनाने लग जाता है। शुरुवाती 60 पृष्ठ तक कहानी में रोचकता की कमी है और ऐसा बिंब कम नज़र आता है जिसके कारण इसको पढ़ा जाए मगर फिर जैसे जैसे कहानी आगे बढ़ती है शुरुवाती बिम्बों का महत्व समझ आने लगता है। आँचलिक उपन्यास की श्रेणी में कसप कहीं न कहीं मैला आंचल से सबक ले कर लिखी गयी पुस्तक है जिसे पढ़ना थोड़ा ज़ियादा सरल है और शब्दों के अर्थ उसी जगह दे दिए गये हैं।
I liked the story and the turmoil both the character goes through. But I didn’t liked the way story has been. The narrative way shouldn’t have been there, rather it has to be constructive by the reader’s mind. I must say a different way to describe the story. Characters were well constructed and defined.
रोमांस मेरा प्रिय विषय नहीं है—बल्कि सच कहूं तो मुझे इस शैली की बहुत ही कम किताबें पसंद आती हैं। परिणीता और Pride and Prejudice शायद गिनती की अपवाद हैं, जो इस श्रेणी में मुझे सच में अच्छी लगीं। हिंदी साहित्य में विशेषकर, प्रेम कहानियों में अक्सर पात्रों का चित्रण बेहद सतही, आत्ममुग्ध और वास्तविकता से दूर होता है। पुरुष पात्र या तो घमंडी "अल्फा" होते हैं, या फिर बेचारे लाचार; और स्त्री पात्रों को केवल सुंदर, मासूम और प्रायः बौद्धिक रूप से कमजोर दिखाया जाता है। उनके भाव, व्यवहार या प्रेम की गहराई को शायद ही कभी समझा या प्रस्तुत किया जाता है। और सबसे बड़ी बात—स्त्रियों की वस्तु के रूप में प्रस्तुति बहुत ही खलने वाली होती है।
कसप भी इस ढांचे से बहुत अलग नहीं है। इसमें भी प्रेम का वही पुराना ढंग है, वही आदर्शवाद, वही संगीतमय उदासी, और वही एकतरफा भावुकता। हाँ, इस किताब में मुख्य पात्र की मानसिक स्थिति को थोड़ी गहराई से दर्शाया गया है, जो सराहनीय है। उसके भीतर की उलझन, प्रेम की चाह और द्वंद्व को लेखक ने कहीं-कहीं अच्छे से छुआ है।
लेकिन लेखक के दार्शनिक और भावुक व्याख्यान मुझे कहीं-कहीं बेहद थकाऊ लगे। वह प्रेम को समझाने की बजाय, उस पर भाषण देने लगते हैं।
कुल मिलाकर, कसप मेरे लिए एक "ओके" किताब रही। अगर हिंदी प्रेम साहित्य में थोड़ी और गहराई, यथार्थ और मानसिक जटिलता लाई जाए, तो शायद यह शैली ज़्यादा आकर्षक लगे।
मेरा उत्तरांचल से क्या संबंध है? कुछ ख़ास नहीं। बस इतना भर कि रुड़की में मैं डेढ़ वर्ष रहा हूँ और प्रवीण सिंह खेतवाल जो मेरे यात्रा विवरणों में आपको हमेशा दिखाई पड़ते हैं और मेरे अभिन्न मित्र हैं, खुद कुमाऊँ से हैं। पर रुड़की का मेरा प्रवास हो या खेतवाल जी का सानिध्य, कोई मुझे उत्तरांचल की मिट्टी के इतने पास नहीं ले गया जितना वो शख़्स जिससे मैं कभी नहीं मिला और ना ही मिल पाऊँगा। जी हाँ, मैं मनोहर श्याम जोशी जी की बात कर रहा हूँ।
आज आपके समक्ष जोशी जी के एक अलग तरह के उपन्यास 'कसप' की चर्चा करूँगा। अलग इसलिए कि जोशी जी अपने व्यंग्यात्मक लेखन कौशल के लिए ज़रा ज्यादा जाने जाते हैं और ये कथा है गाँव के एक अनाथ, साहित्य सिनेमा प्रेमी, मूडियल लड़के देवीदत्त तिवारी यानि डीडी और शास्त्रियों की सिरचढ़ी, खिलन्दड़ और दबंग लड़की बेबी के प्रेम की। किताब में इस बात का जिक्र है कि जोशी जी ने ये उपन्यास अपनी पत्नी भगवती के लिए लिखा और वो भी मात्र 40 दिनों में।
सोलह-सतरह साल की लड़की और बाईश-चौबीस साल के युवक की प्रेम कहानी में प्रेम है....जीवन दर्शन है....जीवन का सार...रिश्तों का सार.....समाज का सार छुपा है। जीवन संघर्ष की भी कहानी है...उत्थान में छुपा हुआ पतन और पतन में भी छुपा हुआ उत्थान.... दुत्कार में भी छुपा प्यार....प्यार में भी छुपा तिरस्कार......मौन में छुपा गहन वार्तालाप....वर्तालाप में छुपा मौन....
बहुत कुछ पाठक के इन्टरप्रेट( interpret) करने के ढंग पर भी निर्भर करता है।
मुख्य कहानी के सामानांतर चलती एक-दो और कहानी भी आपको मिल सकता है अगर फील(feel) कर सकें।
चाहे जैसा भी आप इन्टरप्रेट करें....
दर्द होगा....मीठा सा... मीठास का अनुभव होगा तीखा सा...
कुमाऊं के ग्राम्य जीवन का सजीव चित्रण है जो मैदान के गांवों के लिए भी उतना ही सटीक बैठता है...शायद दक्षिण के गांवों के लिए भी सटीक बैठे। कुमाऊं की हिंदी का प्रयोग किया गया है लेकिन समझने में कोई दिक्कत नहीं आती...शब्दों के अर्थ वहीं दे दिए गए हैं । इधर तो मैं भी कई वाक्य उसी डायलेक्ट (dialect) में बोलने लगा हूँ।
कसप एक बहुत ही खूबसूरत प्रेम कहानी है। मनोहर जी को इस उपन्यास के लिए साहित्य अकादमी अवार्ड मिला था। यह उपन्यास मानवीय रूपों, दर्शन और आंचलिकता का पूरा संग्रह है। कहानी के मुख्य पात्र भी समय के साथ परिपक्व होते जाते हैं। और सार ये कहता है कि जिंदगी में आप सब कुछ नहीं हासिल कर सकते, ज़िन्दगी के दोराहे पर दिल या दिमाग में से किसी एक का चुनाव करना कठिन होता है। लेकिन कोई भी रास्ता आप चुनें, गम और खुशी दोनों ही मिलती है, समुद्र मंथन से निकलने वाले अमृत और विष की तरह। दोनों को अभिशप्त करना ही जीवन का सार है। मुझे नायिका का मजबूत चरित्र अच्छा लगा। छोटी सी उम्र में उसका एक परिपक्व समझ रखना समय समय पर आपको अचंभित करेगा। किताब के अंत में आपको दर्द और उदासी तो होगी, लेकिन वह भी मीठी सी। शायद प्रेम कहानियों का यही पर्याय होता हो।
Is is an unique experience to read this one......You will end up with many questions to ponder upon. A perfect literature piece....It couldn't have been better.
The word “Kasap,” originating from the Kumaoni region of Uttarakhand, which translates to “Who knows.” This novel, written by Manohar Shyam Joshi, does justice to its title, but by the end, it takes the story through small paths to such a peak that the desire to go there becomes stronger with every growing page.
Story - Kasap is a love story and has been written on two different characters. The author has composed this love story completely dedicated to his wife because he was fond of love stories. This book explores the journey of a love story that begins with an instant connection between the hero and heroine. Their relationship is marked by playful interactions, pranks, and a growing affection. An unexpected twist occurs during a family gathering, leading to a separation. Despite this, they maintain a connection through letters and mischievous gestures, highlighting the intense emotions and longing between them. Ultimately, fate intervenes, and they part ways, yet love remains a binding force.
But for someone, it is not just a love story, it can be a story that gives strength to the characters and shows the way to move forward and lift themselves up. For me, this is not just a love story, it is also a subject of introspection and an attempt to understand life through the mutual duality of the characters. “Kasap is a heartfelt tale of love, ambition, and personal growth. It’s a story about two people who are trying to figure out their relationship while chasing their dreams. The book beautifully combines themes of love, self-discovery, and overcoming challenges, making you think about what it means to be human.
Life is like a fleeting moment, a beautiful snapshot that can’t be frozen forever, even for the sake of art. We can’t truly ‘freeze’ time, but it’s more like a ‘siege,’ where time feels like it’s under pressure. This metaphor and vivid explanation of author put us on perspective where we get to see nothing can come between true love , a point of balance or transition, is just as tragic because it represents a moment of pause that never really ends. And making a scary decision is like that too, filled with uncertainty and a sense of incompleteness, just like not knowing where a river will eventually meet the ocean.
Blinded by the love and the rush of dopamine from first love, we often overlook the responsibilities that come with it. In this novel, the female lead’s father, Shastri Ji, beautifully weaves the thread of responsibility. He repeatedly tries to convince the protagonist to earn well for his sake and everyone else. No doubt, he’s my favourite character from this novel. Shastri ji had a lovely idea about love. He said, “Love is like a weight that helps us find a sense of balance and pride in life.” We try to fill the space left for this weight with our love for ourselves, but there’s still something missing. No matter how it is, we need to love something, someone, or an idea. And guess what? We can even love someone we don’t know or even an anonymous person. This novel is full of interesting twists and turns that will keep you hooked from beginning to end. Shastri ji’s restraint and conscience make it a truly captivating read. You’ll absolutely love it! And let’s not forget the female lead’s father, who embodies the power of keeping pain hidden and moving forward.
In the beginning of this novel, the hero finally reaches his goal. To really get a sense of his journey, you’ve got to read this book. The story starts off a bit slow, and the description of the wedding house is so detailed that it feels like it’s taking a detour from the main plot and making the story a bit dull. It’s hard to get into the story at first because the image of the wedding house is so vivid. But once you get past that, the story picks up pretty quickly. We get to understand through narration that sometimes in order to achieve or accomplish something we often had to sacrifice and overcome multiple obstacles. Was all the hard decisions worth it? That’s up to you to decide!
कैसे बताऊँ कि कसप क्या है? किताब कहूँ तो बहुत छोटा शब्द लगने लगता है।
ये कहानी छूती नहीं — भीतर उतरती है। धीरे-धीरे, जैसे कोई पुरानी याद, जो हमने भुला दी थी पर उसने हमें नहीं। इसकी दुनिया सीधी-सादी है — कस्बे की, गलियों की, चाय और धूल की — पर भीतर कुछ ऐसा है जो बेचैन करता है। ये मेरी कहानी हो सकती थी। तुम्हारी भी। शायद है ही।
प्यार की कहानी है — पर वैसी नहीं जैसी हम सुनते आए हैं। समाज पर टिप्पणी है — पर बिना भाषण दिए, बिना ऊँगली उठाए। ये उस जगह को भरती है जहाँ हिंदी साहित्य अक्सर ठिठक जाता है — जहाँ सामान्य खत्म होता है और सच शुरू। कुमायूँ की मिट्टी, उसकी बोली, उसका सलीका — सब इस किताब में ऐसे घुला है जैसे चाय में गुड़।
कभी मुस्कराती है ये किताब, वैसे कि होंठ हिलते हैं और आँखें थोड़ी गीली हो जाती हैं। कभी हँसाती है — और अगली ही पंक्ति में कुछ ऐसा कह जाती है कि भीतर सन्नाटा उतर आता है। कसप दिलासा नहीं देती; याद दिलाती है कि जीना और महसूस करना दो अलग बातें हैं।
जोशी जी की आवाज़ यहाँ कथावाचक नहीं, खुद कहानी की साँस है। वो तीसरे पुरुष में बोलते हैं, पर भीतर से ही — जैसे कोई अपने ही किस्से पर तटस्थ टिप्पणी कर रहा हो, और फिर खुद ही उसमें फँस जाता हो। वो कभी दर्शक लगते हैं, कभी पात्र — और यही इस किताब का जादू है।
बीच-बीच में अंग्रेज़ी, फ़्रेंच, संस्कृत के वाक्य आते हैं — पर अजनबी नहीं लगते। वो भाषा में ऐसे बस जाते हैं जैसे पहाड़ों में धुंध — ज़रा-सी देर को ढकती है, फिर और सुंदर बना देती है। दर्शन, विज्ञान, समाज — इन सब पर जोशी जी की बातें किताब में ऐसे उतरती हैं जैसे कोई पुराना दोस्त बरसों बाद मिलने पर अपनी ज़िंदगी के टुकड़े बाँट रहा हो — बिन बनावट, बिन दिखावे।
ये कहानी हिंदी साहित्य के महानतम में क्यों नहीं गिनी जाती?
कसप
शायद इसलिए कि कसप किसी खांचे में फिट नहीं होती — न पूरी तरह प्रेमकथा, न दार्शनिक ग्रंथ, न सामाजिक दस्तावेज़। ये सब कुछ है, और फिर भी इन सबसे अलग।
कसप सिर्फ़ पढ़ी नहीं जाती — जी जाती है, महसूस की जाती है, और कहीं भीतर उतरकर अपना छोटा-सा घर बना लेती है। शायद गलती हमारी है। या शायद कुछ किताबें तभी दिखती हैं जब हम देखने लायक हो जाते हैं।
अगर आप ऐसी हिंदी किताब ढूँढ रहे हैं जो न सिर्फ़ विश्व साहित्य के साथ कंधे से कंधा मिलाकर खड़ी हो, बल्कि कभी-कभी उसे देख कर मुस्करा भी दे — तो बस, कसप ही वो किताब है। -------------------------------------------
How do I even begin to describe this book?
Kasap didn’t just touch my heart — it carved a quiet ache into it, the kind that lingers long after you’ve turned the last page. Beneath the simplicity of its small-town setting lies a story so raw, so familiar, it could have been mine. Or yours. In fact, it probably is.
It's a love story. But it's more than that. It's a social commentary. But it's more than that. It fills a huge gap in the Hindi literature for writing beyond the normal and expected. It makes Kumayuini writing accessible. But it's more than that.
It makes you smile, even laugh at times. It makes you sad with the tug at heart. It even makes you uncomfortable at certain scenes. But it's more than all that.
Joshi Ji's third person ongoing commentary feels like the voice describing the story. But this is the story. His voice is like a living consciousness not outside of the story but it's the breath of the story.
It’s as if the storyteller himself is both observer and participant, breaking the fourth wall of Hindi fiction in the most intimate way.
The scattered English, French, and Sanskrit dialogues never jar; instead, they enrich the text — like unexpected brushstrokes that complete the canvas. His musings on philosophy, science, and society never feel like an academic showing off, but like an old friend talking late into the night, wandering from one topic to another, knowing you’ll listen because you care.
I honestly don’t know why Kasap isn’t spoken of with the reverence it deserves. Perhaps the fault is mine — perhaps I simply arrived late to its brilliance.
But if you’re searching for a Hindi novel that doesn’t just match world literature in depth and craft, but stands beside it unflinchingly — This is it!
कमतर ही ऐसा होता है की जब क़िताब आपको compassion से ज्यादा relatable वाली फीलिंग दे। ‘कसप’, जिसके मानी हैं “क्या पता”, ऐसी ही एक क़िताब है। मेरे अंदर एक यह डर हमेशा से रहा है की “क्या हो की मैं वहाँ पहुँच जाऊॅं जहाँ, मुझे लग रहा था की कोई मेरा इंतज़ार कर रहा है मगर, कोई न हो।” यह डर उस बारहवीं के लड़के का है जो फुटबॉल के फाइनल में हाफ टाइम पर अपने उस अतीत की तरफ़ रुख़ किया था जो कभी उसका भविष्य नहीं हो सकता था। वह उसका वर्तमान भी न बन सका था। यह क़िताब आपको ऐसी ही किसी चेतना की भुलाई जा चुकी याद की तरफ़ ले जाएगी।
यह लिखने के लिए मैं भी हतप्रभ हूँ इसलिए क्योंकि यह याद दिलाती है मुझे मेरी ज़िंदगी की एक ऐसी ही किसी स्मृति से। बात होती है की नायिका का ताल्लुक सरकारी अफ़सरशाही से हो चला है। उस याद की भी कहानी कहीं इसी मोड़ पर आ पहुँची है उनकी ज़ाती ज़िंदगी में। अक्सर हम कहानियों में खुद को ढूंढ ही लेते हैं। मगर मैं खुद को नहीं ढूंढ पाया, मगर पाया मैंने ‘उनको’ इस कहानी में।
यह हमारी कैसी विषमता है की जिस भूत से भाग कर हम जाना चाहते हैं वह किसी न किसी रूप में आ खड़ा होता है हमारे सामने। अभी जब मैं यह लिख रहा हूँ तो याद कर रहा हूँ वो फोटो उनका जहाँ अपनी कनखियों से देख रहीं हैं वह पीछे मुड़कर, सीढ़ियों से उतरते हुए।
यह रंगरेज़ का कितना ही ख़ूबसूरत खेल है की हम सही इंसान से सही वक्त पर शायद ही कभी मिलते हों। आज उन्हें याद करते हुए, यह क़िताब पढ़ते हुए याद आ रहा है जयश्री रॉय जी की लघुकथा का वो अंश जो शायद मृत्यु तक मेरे साथ रहेगा। वे लिखती हैं कुछ ऐसा कि, “जीवन बिछड़ने का, बिछड़ते चले जाने का सिलसिला मात्र है, एक चटक रंग कोलाज जिसका आखिरी सच शून्य है। इसकी आदत डाल लो, और कोई विकल्प नहीं…”
एक अफ़सोस ये भी रहता है मुझे कि मुझे बहुत सारी बातें याद रह जाती हैं। यूं तो मुझे अपनी बातचीत के अंश साझा करना पसंद नहीं, अगर वह हास्यास्पद हों तो बात अलग है। एक अंश आपके बीच छोड़ते जा रहा हूँ ताकि जब आप यह पढ़ें तो मेरे लिए उनकी स्मृति का भी हिस्सा बनें।
एक विशाल प्रश्न मेरे सामने यह है कि छूट चुके लोगों की स्मृतियों को कब-तक और कहाँ-तक अपने साथ रखना चाहिए? इसका एक ही उत्तर है मेरे पास इस घड़ी, ‘कसप’।
कसप कुमाऊंनी भाषा का शब्द है जिसका अर्थ है – क्या जाने। ऐसे शब्द वाला शीर्षक सुनने में अवश्य पठनीय लगता है पर अर्थ जानने के बाद शायद ही ऐसा लगे।
मनोहर श्याम जोश���, जिनका पहला परिचय कई हिंदी TV सीरियल के कथाकार के रूप में है, उनकी इस किताब "कसप" का जिक्र सभी हिंदी पाठक अपनी पढ़ी हुई सर्वश्रेष्ठ प्रेम कहानियों में करते हैं। हालांकि इसे बस एक प्रेम कहानी कहना इसके साथ ज्यादती होगी।
कसप की सबसे अनूठी बात है इसका परिप्रेक्ष्य। कुमाऊं के एक गांव की कहानी जो पगडंडियों से चल कर गाड़ी के अनुरूप रास्ते तक का सफर तय करती है। देवीदत्त तिवाड़ी और बेबी/मैत्रेयी की यह प्रेम कहानी बिलकुल मानवीय मालूम पड़ती है। रिश्तों के बीच कई पड़ाव मानवीयता के भिन्न रंगों को दर्शाते हैं और कभी ये मालूम नहीं पड़ने देते कि सिर्फ पात्र हैं।
कई बार कहानी में असमंजस की स्थिति आती है जो पढ़ते समय दोनों मुख्य किरदारों के नजरिए से देखने पर एक आत्मीयता का अनुभव कराती हैं। कई प्रसंगों में आप किरदारों का खालीपन महसूस कर सकते हैं। ये सारे अनुभव ही एक पाठक को एक प्रेम कहानी में खींचते हैं और अंत तक समेटे रखते हैं।
हालांकि इसमें कई चीजें बहुत अच्छी नहीं भी हैं, कई बार विषयांतर कहानी से आपका सम्बन्ध थोड़ी देर के लिए टूटता हैं। कई बार कहानी एक काफी औसत सी पटकथा भी लगती है पर जब कहानी को एक साथ देखा जाए तो काफी मार्मिक भी मालूम पड़ती है। अंत तक ये नहीं जान पाना कि ये कहानी किसके दृष्टिकोण से है इसका थोड़ा दुःख तो होता है पर इसे पढ़ने का अनुभव सुखद है इसकी ख़ुशी है। जब आप इसे पढ़ना शुरू करेंगे तो भाषा थोड़ी अटपटी जरूर लगेगी पर खत्म होते होते आप इस भाषा और लहजे के प्रशसंक हो जायेंगे।
कसप- डीडी तिवारी और बेबी की कहानी। यह इस शैली की अब तक की सबसे अच्छी किताबों में से एक थी। मैं इसे "गुनाहों का देवता" से ऊपर रखूँगा।
क्योंकि इसकी कहानी ज़्यादा वास्तविक, ज़्यादा सटीक और समय के अनुकूल लगती है। मैं इसके कुछ हिस्सों से खुद को भी जोड़ पाता हूँ कि कैसे हमें एक अनोखी जगह पर प्यार हुआ, कैसे हम अपने प्रियजन से मिलने के लिए अपनी सारी हदें पार कर जाते हैं, कैसे हम अपने परिवार और दोस्तों को नज़रअंदाज़ कर देते हैं और इस रिश्ते में क्या-क्या खतरे आ सकते हैं।
लेकिन जैसे-जैसे हम रिश्ते में गहराई तक पहुँचते हैं, हमें पता चलता है कि रिश्ते में सिर्फ़ प्यार ही ज़रूरी नहीं है।
कैसे समय के साथ एक व्यक्ति आगे बढ़ गया और कैसे एक व्यक्ति जाने-अनजाने अतीत में ही रह गया। यह किताब ऐसे ही पलों से भरी है। ऐसे पल जो आपको प्यार और दुख, दोनों से रुला देंगे।
मैं कहीं न कहीं अपनी इस कहानी से खुद से बहुत मिलता-जुलता हूँ, शायद इसलिए मुझे यह ज़्यादा पसंद है, लेकिन किरदारों और कहानी के अलावा इसका वर्णनात्मक लेखन भी वाकई अच्छा है।
जो भी प्रेम कहानियों का शौकीन है, उसे इसे अवश्य पढ़ना चाहिए, लेकिन अपना दिल मजबूत रखना ।
कसप पूरी हुई। कसप में कसप (का जाने) के साथ कुछ कसक सी थी। कहानी है कुमाऊँ के मध्यमवर्गीय पर्वेश की। कहानी है एक सोलह साल की लड़की की। जो घर की सबसे छोटी है। जिसने कभी नहीं देखा की अभाव। कहानी है बेबी की, कहानी है मैत्रेयी की। कहानी है एक चौबीस साल के युवक की। जो अनाथ है जिसे उसकी बुआ ने पाला है। अभाव ही जिसके जीवन का दूसरा शब्द है। कहानी है डी डी की। कहानी है देवीदत्त की। कहानी है, कैसे कथानायक् का किसी के लिए कुछ बनते बनते अंततः खुद के लिए कुछ बन जाने की। कहानी है कैसे कथानायिका का खुद के लिए बनने से अंततः अलग तरह की छन जाने की। कथावाचक ने बहुत बार पाठकों के अनुमान को गलत भी ठहराया है। और कई बार छोड़ दिया है उसे पाठकों पर judge करने को। कुल मिलाकर कसप को मैं केवल एक प्रेम कहानी नहीं कह सकती। इसको कह सकती हु कहानी जो हमारे समाज की है। कहानी जो केवल दो नहीं कई लोगों की है। कहानी ही नहीं ये कथा है हमारे कहीं कूर्म प्रदेश की।
इस उपन्यास को पढ़ते हुए ऐसी इच्छा थी कि ये कभी समाप्त ही न हो!
ऐसे ही चलती रहे बेबी और डीडी की कथा निर्बाध्य...
पर हर प्रेम कहानी शायद पूरी होने के लिए नहीं बनी होती...
हिंदी की प्रेमकहानियां ज्यादातर मार्मिक अंत को ही प्राप्त होती हैं और ये रचना अपवाद नहीं है। बहुत विचित्र है कुमाऊं, काशी और अल्मोड़ा के सुंदर दृश्यों में गुंथी हुई बेबी और डीडी की प्रेमकथा।
एक कथा जिसका समापन इसलिए नहीं होता कि प्रेमियों का अंत हो जाता है बल्कि इसलिए क्योंकि उनके बीच के प्रेम का अंत हो जाता है... ये तथ्य कई मायनों में प्रासंगिक है आज भी।
परंतु इस प्रेम की समाप्ति के बाद न डीडी ‘डीडी’ रह जाता है न बेबी ‘बेबी’ वो दोनों देवीदत्त और मैत्रेयी में परिवर्तित हो जाते हैं और कथा तब भी चलती है... निर्बाध्य!
शीर्षक ही इसका उत्तर देता है शायद ‘कसप’ (क्या जाने!)
हालाँकि मैंने कई किताबें गुडरीॾस पर रिव्यू की हैं, हिन्दी में रिव्यू पहली बार लिख रही हुं। इस कहानी में कुमाऊँनी बोलचाल के अतिरिक्त उपयोग के कारण मैं लेखक के व्याख्यान को ज़्यादा समझ नहीं पाई। कहानी समझ आई और पात्रों से लगाव भी हुआ, पर काश भाषा ओर लेखन और समझ आ पता। इसीलिए मैंने कम रेटिंग दी है। अगर पढ़ने वाला हिन्दी में सशक्त हो तो शायद यह किताब और पसन्द आए। इस किताब ने मुझे हिन्दी की और किताबें पढ़ने के लिए ज़रूर प्रेरित किया है। सो औन टू द नैक्स्ट वन (हिन्दी में अन्गरेज़ी लिखनी भी इस कथा की एक शैली हे। तो यह वाक्य उसी को समर्पित )। इस किताब के बारे में अभिनेता गोपाल दत्त ने एक इनटरव्यू में ज़िक्र किया था। सो थैंक्स टू हिम
Never read a love story this was my first one. I like the character arc of the story. Baby and dd are good characters and in between scenic explanation by the writer is also good.
I like the shashtriji character. The story of his marriage and how he was an adult still kinda dumb and not so confident in himself. Always had a self doubt on not being a good son, husband and father. I resonate with him (idk maybe I'm dumb and low self esteem) I would like to more about the relationship between shashtriji and his wife. But it was a good story in itself. Learn for me was adults like shashtriji also had self doubt so don't think adults have all figured out they're confused too.