व्यक्ति अज्ञेय की चिंतन-धरा का महत्तपूर्ण अंग रहा है, और ‘नदी के द्वीप’ उपन्यास में उन्होंने व्यक्ति के विकसित आत्म को निरुपित करने की सफल कोशिश की है-वह व्यक्ति, जो विराट समाज का अंग होते हुए भी उसी समाज की तीव्रगामी धाराओं, भंवरों और तरंगो के बीच अपने भीतर एक द्वीप की तरह लगातार बनता, बिगड़ता और फिर बनता रहता है ! वेदना जिसे मांजती है, पीड़ा जिसे व्यस्क बनाती है, और धीरे-धीरे द्रष्टा ! अज्ञेय के प्रसिद्द उपन्यास ‘शेखर : एक जीवनी’ से संरचना में बिलकुल अलग इस उपन्यास की व्यवस्था विकसनशील व्यक्तियों की नहीं, आंतरिक रूप से विकसित व्यक्तियों के इर्द-गिर्द बुनी गई है ! उपन्यास में सिर्फ उनके आत्म का उदघाटन होता है ! समाज के जिस अल्पसंख्यक हिस्से से इस उपन्यास के पत्रों का सम्बन्ध है, वह अपनी संवेदना की गहराई के चलते आज भी समाज की मुख्यधारा में नहीं है ! लेकिन वह है, और ‘नदी के द्वीप’ के चरों पत्र मानव-अनुभूति के सर्वकालिक-सार्वभौमिक आधारभूत तत्त्वों के प्रतिनिधि उस संवेदना-प्रवण वर्ग की इमानदार अभिव्यक्ति करते हैं ! ‘नदी के द्वीप’ में एक सामाजिक आदर्श भी है, जिसे अज्ञेय ने अपने किसी वक्तव्य में रेखांकित भी किया था, और वह है-दर्द से मंजकर व्यक्तित्व का स्वतंत्र विकास, ऐसी स्वतंत्रता की उद्भावना जो दूसरे को भी स्वतंत्र करती हो ! व्यक्ति और समूह के बीच फैली तमाम विकृतियों से पीड़ित हमारे समाज में ऐसी कृतियाँ सदैव प्रासंगिक रहेंगी !
जन्म : ७ मार्च १९११ को उत्तर प्रदेश के देवरिया जिले के कुशीनगर नामक ऐतिहासिक स्थान में।
शिक्षा : प्रारंभिक शिक्षा–दीक्षा पिता की देख–रेख में घर पर ही संस्कृत‚ फारसी‚ अंग्रेजी और बँगला भाषा व साहित्य के अध्ययन के साथ। १९२५ में पंजाब से एंट्रेंस की परीक्षा पास की और उसके बाद मद्रास क्रिश्चियन कॉलेज में दाखिल हुए।वहाँ से विज्ञान में इंटर की पढ़ाई पूरी कर १९२७ में वे बी .एस .सी .करने के लिए लाहौर के फॉरमन कॉलेज के छात्र बने।१९२९ में बी .एस .सी . करने के बाद एम .ए .में उन्होंने अंग्रेजी विषय रखा‚ पर क्रांतिकारी गतिविधियों में हिस्सा लेने के कारण पढ़ाई पूरी न हो सकी।
कार्यक्षेत्र : १९३० से १९३६ तक विभिन्न जेलों में कटे। १९३६–१९३७ में ‘सैनिक’ और ‘विशाल भारत’ नामक पत्रिकाओं का संपादन किया। १९४३ से १९४६ तक ब्रिटिश सेना में रहे‚ इसके बाद इलाहाबाद से ‘प्रतीक’ नामक पत्रिका निकाली और ऑल इंडिया रेडियो की नौकरी स्वीकार की। देश–विदेश की यात्राएं कीं। जिसमें उन्होंने कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय से लेकर जोधपुर विश्वविद्यालय तक में अध्यापन का काम किया। दिल्ली लौटे और ‘दिनमान’ साप्ताहिक, ‘नवभारत टाइम्स’, अंग्रेजी पत्र ‘वाक्’ और ‘एवरीमैंस’ जैसी प्रसिद्ध पत्र पत्रिकाओं का संपादन किया। १९८० में उन्होंने ‘वत्सलनिधि’ नामक एक न्यास की स्थापना की‚ जिसका उद्देश्य साहित्य और संस्कृति के क्षेत्र में कार्य करना था। दिल्ली में ही ४ अप्रैल १९८७ में उनकी मृत्यु हुई।
१९६४ में ‘आँगन के पार द्वार’ पर उन्हें साहित्य अकादेमी का पुरस्कार प्राप्त हुआ और १९७९ में ‘कितनी नावों में कितनी बार’ पर भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार।
प्रमुख कृतियाँ – कविता संग्रह : भग्नदूत, इत्यलम,हरी घास पर क्षण भर, बावरा अहेरी, इंद्र धनु रौंदे हुए ये, अरी ओ करूणा प्रभामय, आँगन के पार द्वार, कितनी नावों में कितनी बार, क्योंकि मैं उसे जानता हूँ, सागर–मुद्रा‚ पहले मैं सन्नाटा बुनता हूँ‚ महावृक्ष के नीचे‚ नदी की बाँक पर छाया और ऐसा कोई घर आपने देखा है। कहानी–संग्रह :विपथगा, परंपरा, कोठरी की बात, शरणार्थी, जयदोल, ये तेरे प्रतिरूप। उपन्यास – शेखरः एक जीवनी, नदी के द्वीप, अपने अपने अजनबी। यात्रा वृत्तांत – अरे यायावर रहेगा याद, एक बूंद सहसा उछली। निबंधों संग्रह : सबरंग, त्रिशंकु, आत्मानेपद, आधुनिक साहित्यः एक आधुनिक परिदृश्य, आलवाल, संस्मरण :स्मृति लेखा डायरियां : भवंती‚ अंतरा और शाश्वती।
उनका लगभग समग्र काव्य ‘सदानीरा’ ह्यदो खंडहृ नाम से संकलित हुआ है तथा अन्यान्य विषयों पर लिखे गए सारे निबंध ‘केंद्र और परिधि’ नामक ग्रंथ में संकलित हुए हैं।
विभिन्न पत्र–पत्रिकाओं के संपादन के साथ–साथ ‘अज्ञेय’ ने ‘तार सप्तक’‚ ‘दूसरा सप्तक’‚ और ‘तीसरा सप्तक’ – जैसे युगांतरकारी काव्य–संकलनों का भी संपादन किया तथा ‘पुष्करिणी’ और ‘रूपांबरा’ जैसे काव्य–संकलनों का भी।
वे वत्सलनिधि से प्रकाशित आधा दर्जन निबंध–संग्रहों के भी संपादक हैं। निस्संदेह वे आधुनिक साहित्य के एक शलाका–पुरूष थे‚ जिसने हिंदी साहित्य में भारतेंदु के बाद एक दूसरे आधुनिक युग का प्रवर्तन किया।
Sachchidananda Hirananda Vatsyayana 'Agyeya' (सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन 'अज्ञेय'), popularly known by his pen-name Ajneya ("Beyond comprehension"), was a pioneer of modern trends not only in the realm of Hindi poetry, but also fiction, criticism and journalism. He was one of the most prominent exponents of the Nayi Kavita (New Poetry) and Prayog (Experiments) in Modern Hindi literature, edited the 'Saptaks', a literary series, and started Hindi newsweekly, Dinaman.
Agyeya also translated some of his own works, as well as works of some other Indian authors to English. A few books of world literature he translated into Hindi also.
कुछ पुस्तकें ऐसी होती है की आप स्वयं अपने ही कुछ यादों में खो जाते हैं, यह उस पुस्तक में से एक है|
"हम सब नदी के द्वीप हैं, द्वीप से द्वीप तक सेतु हैं। सेतु दोनों ओर से पैरों के नीचे रौंदा जाता है, फिर भी वह दोनों को मिलाता है, एक करता है..!" -अज्ञेय
मुझे हमेशा से यह दुःख रहता था कि आधुनिक भारतीय लेख़कों जैसे प्रेमचंद, मंटो आचार्य चतुरसेन, धर्मवीर भारती निर्मल वर्मा, अमृता प्रीतम, मोहन राकेश या फिर शरतचंद की हिंदी में ऐसी एक भी किताब नहीं हैं जिसे टोलस्टोय, दोस्तोव्यस्की, चेखव, गोरकी, काफ़्का और कामू की रचनाओं के समकक्ष रख सकूँ। लेकिन अज्ञेय की ‘नदी के द्वीप’ पढ़ने के बाद यह शिकायत दूर हो गई। हिंदी में इससे ज़्यादा सारगर्भित व सुंदर किताब मैंने नहीं पढ़ी है।
If you like a story which has very few characters; consists of ordinary life events; has little to offer in terms of a thrilling or suspenseful plot, but despite having all that, has many interesting conversations; has a very poetic prose; makes you think about the profoundness of our simple daily lives, then this is the perfect book for you to read.
And yeah, it is a love story. A love story that has a lot of hope, a lot of waiting, and a lot of pain as well, as one of the characters in the book says:
"कोई भी नहीं सँभाल सकता शायद प्यार का दर्द, इसीलिए शायद प्यार रहता नहीं, दर्द रह जाता है-केवल ईश्वर सँभाल सकता है अगर वह-या कहूँ कि जो सँभाल सकता है वही ईश्वर है"
Sharing a few more highlights from the book:-
• सुन्दर से डरो मत-कभी मत डरना-न डरकर ही सुन्दर से सुन्दरतर की ओर बढ़ते हैं।
• जो जानने का कारण है, उसे लोग कितना कम, और जो जानने का कोई कारण नहीं है उसे कितना अधिक जानते हैं, इसकी पड़ताल की जाये तो कदाचित् यही मान लेना पड़ेगा कि जानने का कारण न होना ही जानने के लिए पर्याप्त और वास्तविक कारण है!
• अन्तिम समय में मानव को अनुताप होता है, तो अपने किये हुए पाप पर नहीं, पुण्य करने के अवसरों की चूक पर नहीं; अनुताप होता है किये हुए नीरस पुण्यों पर, रसीले पाप कर सकने के खोये हुए अवसरों पर...
• “मेरे गुरु कहा करते थे, 'जो विचार स्पष्ट कहना नहीं आता, वह असल में मन में ही स्पष्ट नहीं है। स्पष्ट चिन्तन हो तो स्पष्ट कथन अनिवार्य है'।” भुवन ने कुछ गम्भीरता से, कुछ चिढ़ाते हुए कहा। “चिढ़ा लीजिए। पर मैं जो सोच रही हूँ, वह मेरे आगे बिलकुल स्पष्ट है। कह नहीं सकती तो-इसलिए कि सोचना चित्रों से, प्रतीकों से होता है, कहना शब्दों से; और-शब्द-अधूरे हैं।”
• इस जीवन से आगे कुछ नहीं है गौरा, यही सम्पूर्ण है, यही अन्त है। लोग ऐसा मानने से डरते हैं, मुझे लगता है, यही तो जीवन को अर्थ देता है। इस जीवन का दर्द इसलिए मूल्यवान् नहीं है कि किसी दूसरे जीवन में उसका पुरस्कार मिलेगा; इसलिए मूल्यवान् है कि जीवन से आगे और कुछ नहीं है।
Essentially a love story. A hindi modernist love story written in 1952.
One can't help but complaint whether the profound interactions between the characters are a deliberate display of high-brow, not-for-the-average brand of literature. Even though the characters are all amply educated and travelled, such layered conversations can be hard to imagine in everyday life. That way this work may be said to portray and represent a very small percentage of even the intelligentsia.
There are a few passages that need careful reading (and re-reading). The hindi can be heavy and sentences long. One feels that the author could have made the task of extracting the ideas easy, and though the ideas themselves are at times deep and beautiful, at other times they just leave you confounded.
Agyeya is aware of it and addresses it in the book's forwarding saying categorically that he doesn't belong to the school which says that the writing should read effortless. He does'nt mind exerting the reader. And so the lovers sitting in a coffee-shop do discuss the relativity or individualism of truth. Nor do they shy away from expanding on free-will and existentialism on train journeys or freely quoting Lawrence and Eliot in their letters.
The narrative, which has now been revealed to be more than loosely based on author's own life (author's biography by Akshay Mukul), flows and meanders on his command and i did feel like following along and not loosing hold.
I have long feared reading Agyeya. Will perhaps still need a bout of audacity to pick up another work from the author. It would be interesting to see if the subsequent works kept marrying Sartre with Dickens (or whether they were more palatable!). Be that as it may, Agyeya was a legend even while he was alive. And though this book does'nt exactly show why, i would give it to him for writing this as far back as 1952.
‘Nadi Ke Dweep’ is not a search for any ideal. It is an exploration of the experienced truths.
In the novel, the expressions of the characters’ mentalities adorn themselves at the level of simplicity. This, by itself, is not less than an ideal because the novel places before us some questions.
It places to view social inconsistencies in the form of those questions. And, it searches for the significance of the individual’s role in the form of a Dweep i.e., an ‘island’ within the Nadi i.e., the ‘river’.
The individuals, who are important units of the society, assume the form of society by getting inter-related with each other. Their thoughts and philosophies constitute the prosperity and success ofthe society. However, there are certain situations reaching which the individual gets cut off and disjointed from the society and appears as a totally different unit.
In the views of Bhuvan, man and woman being on the experienceable level is ‘love’. Indirect expression of this can be observed in these words of Bhuvan - "एक दूसरे को पहचानने के बाद आश्चर्य यह नहीं है प्रेम है, कि हम प्यार करते हैं; आश्चर्य यही है कि हम हैं; होना ही एक नए प्रकार का संयुक्त होना है (After getting familiar with one another, it is no surprise that there is love, that we love; the surprise is that we exist, to be existent is only a new form of getting connected together)"
That was most profound book written in hindi. When you read it you become quite. It was like floating gems in sea of consciousness. Definitely a re-read book
उपन्यास : नदी के द्वीप रचनाकार : सच्चिदानंदहीरानंद वात्स्यायन "अज्ञेय"
किरदार : भुवन, रेखा, गौरा, चंद्रमाधव, हेमेंद्र और डॉक्टर रमेशचंद्र
कहानी की पृष्ठभूमि : नदी के द्वीप अज्ञेय का लिखा ऐसा उपन्यास है जो 4 प्रमुख किरदारों के जीवन पर प्रकाश डालता है। नाम के अनुरूप उनका जीवन भी एक द्वीप के समान है जो कभी कभी तो सुंदर और ख़ुशियों से भरा हुआ है पर जिसकी सुंदरता ज्यादा समय तक नहीं रह पाती क्योंकि हर वक़्त उन्हें ख़तरा रहता है आँधियों का। यह उपन्यास भुवन, गौरा, रेखा और चन्द्रमाधव के जीवन को केंद्र पर रख कर लिखी गया है। यह एक प्रेम कहानी है जहाँ रेखा और गौरा भुवन से प्यार करते हैं और उसके जीवनशैली से बहुत हद तक प्रभावित होते हैं। दोनों ही के जीवन में उसका आगमन बहुत अलग तरह से होता है। रेखा से उसकी मुलाक़ात उसके मित्र चन्द्रमाधव के माध्यम से होती है जो मूलतः एक पत्रकार होता है और साहित्य जगत से जुड़ा होता है। वहीं भुवन कॉस्मिक रश्मियों पर शोध करने वाला देश का उभरता हुआ एक वैज्ञानिक होता है। गौरा से उसका पुराना परिचय रहता है। भुवन एक मास्टर के रूप में बचपन से उसे हिडिम्बा के नाम से चिढ़ाया करता है तथा जीवन के मुश्किल क्षणों में उसका मार्गदर्शन करता रहता है। चन्द्रमाधव स्वभाव से कुटिल होता है और रेखा से प्रेम कर बैठता है परंतु रेखा को भुवन की और आकर्षित होते देख उसके सीने पर साँप लौटने लगते हैं और वो ख़ुद को महान बताने के प्रयास में जो भी कदम उठाता है वो सब पैतरे उसपर ही भारी पड़ते हैं।
ये कहानी है गौरा के धैर्य की, रेखा के समपर्ण की, भुवन के परिताप की तथा जीवन को अपने शर्तों पर जीने वाले और प्रैक्टिकल होने का दावा करने वाले चन्द्रमाधव की।
इस किताब को क्यों पढ़ें :
1- नदी के द्वीप में चारों किरदारों की भूमिका, उनका जीवन चरित्र परिस्थितियों के अनुकूल किया गया है। किसी एक को प्रधान मान कर उसे महान बताने की चेष्ठा नहीं की गई है और पाठकों को ये सुविधा दी गयी है कि वो हर किरदार का अपने विवेक के अनरूप आँकलन कर सकें। गौरा का धैर्य, भुवन का प्यार और रेखा का त्याग तथा भुवन को लेके उनकी श्रद्धा पूरे उपन्यास में दिखती है। चंद्रमाधव का किरदार कुछ इस तरह से बुना गया है जो कहानी को आगे ले जाने में सहायक सिद्ध होता है। भले उसे आप स्वार्थलोलुप की श्रेणी में रखें परन्तु लोगों को जोड़ने तथा रेखा और गौरा का आपसी परिचय कराने में उसकी भूमिका अहम रही है। उन्हें मिलाने के पिछे का निकृष्ट भाव दरकिनार करते हुए अगर आप देखें तो कहानी को आगे ले जाने में ये मिलन बहुत सहायक सिद्ध होता है।
2- इस कहानी के संवाद बहुत गहरे, जटिल और सभ्य तरीक़े से पेश किए गए हैं । कुछ संवाद भावविभोर कर रख देते हैं तो कुछ संवाद फ़लसफ़े की दास्तां व्यक्त करते हैं । उदाहरण
(१) - जब भुवन रेखा के सामने शादी का प्रस्ताव रखता है तो वो बेबाक होकर अपनी राय रखती है और बोलती है कि "यह घटना परिमामस्वारूप हुई है ना कि कारणस्वरूप अगर आप मेरे साथ रात ना गुजारते तो शायद आप ये मांग ना रखते । मुझे आपसे बस प्रेम चाहिए"।
इस कथन से रेखा ने यह साफ़ कर दिया कि वो आत्मनिर्भर नारी है और प्रेम में किसी को बांध कर रखना नहीं चाहती। वो प्रेम में आज़ादी चाहती है जो उसके व्यक्तित्व को निखारता है। रेखा को आप "गुनाओं का देवता" के पम्मी से भी जोड़ कर देख सकते हैं और दोनों किरदारों की समानता और विचार आपको शशक्त नारी का एक बेजोड़ नमूना दिखा जायेंगे। रेखा शुरू से अंत तक क़िस्मत की मारी स्त्री तो है किंतु टूटी हुई और दुर्लभ स्त्री नहीं है।
२) - प्रश्न सारा यही है कि किस व्यक्ति को कितना ‘फ़्लैटर’ करना उचित है—आज उसका जो पद है उसे ध्यान में रखते हुए, या कल उससे जो काम निकालना है उसे देखते हुए। ‘पम्प’ कर के बात निकालने के लिए उसी अनुपात में पम्प (फूँक भरना) भी तो होगा—यह पंजाबी मुहावरा कितना मौजूँ है। और आपकी चाटुकारिता को कोई कितना सीरियसली ले, यह आपकी पोशाक पर निर्भर है—अगर आप अच्छे कपड़े पहने हैं तो आपकी की हुई प्रशंसा ठीक है और स्वीकार्य है, आप पारखी पत्र-प्रतिनिधि हैं; अगर रद्दी कपड़े पहने हैं तो वह काम निकालने के लिए की गई झूठी खुशामद है, आप टुटपुँजिए रिपोर्टर हैं और तिरस्कार के पात्र। "
असल साहित्यकार और पत्रकार के बीच का फ़र्क इस पुस्तक में बहुत अच्छे तरीक़े से दर्शाया गया है। लिखने का कौशल रखने वाला प्रत्येक व्यक्ति साहित्यकार नहीं हो जाता। कहीं न कहीं भुवन का मानना था कि साहित्यिक पत्रकारिता में सच की रक्षा करना चाहिए। जमाना सिर्फ़ उन्हें ही याद रखता है जो सच के साथ रहते हैं और सच की रक्षा करते हैं।
यहाँ लेखक ने खुल कर चाटूकारिता और देश मे फैल रहे भ्रष्टाचार पर तंज कसा है। तारीफ़ के पीछे छुपे मक़सद को जानने को प्रेरित किया है और सही ग़लत में अंतर जानने की और सबका ध्यान केंद्रित भी किया है। अव्वल दर्ज़े के चाटुकार अपने हर काम में आपका नाम तब तक डालते रहेंगे जब तक कि उनके साथ आप जुड़ न जायें या फिर वो आपकी तारीफ़ अपने मुँह से न कर दें। उनके प्रेरणास्रोत कभी कोई एक या दो नहीं बल्कि दर्ज़न भर लोग होंगे। लेखक ने इस और भी इशारा किया है।
3- चंद्रमादव और भुवन दोनों ही मुझे रेलगाड़ी के दो पटरी जैसे लगे जो चलते तो साथ हैं लेकिन कभी मिल नहीं सकते। दोनों का होना ही इस उपन्यास को महत्वपूर्ण बनाता है पर दोनों का साथ रहना दुर्लभ कार्य है। उनकी सोच उनके सिद्धान्त एक दूसरे से रगड़ खाते हैं। चंद्रमादव दिल की बात कहना जानता है। वो अपनी बात कहने से चुकता नहीं है। वो अपना काम निकालना जानता है। उपन्यास में उसका ग्रे शेड है।
4- गौरा का किरदार बहुत ही मर्यादित और शांत स्वभाव का बताया गया है। वो धैर्य की मूरत है। सब कुछ सहज भाव से स्वीकार करती है। मुझे उसके अंदर कोई लड़ाका नज़र नहीं आया। वो ख़ुश रहना जानती है। दूसरे शब्दों में कह लें वो हमेशा ख़ुद से पहले दूसरों की भावनाओं का ख़्याल करती है। गौरा एक बहती नदी है जो अपनी निर्मल धारा से चट्टानों तक को उखाड़ दे पर उसमें ममत्व की भावना कहीं न कहीं प्रबल रूप से देखने को मिलती है। गौरा जब भुवन के मुँह से उसके और रेखा के मध्य पनप रहे प्यार की कथा सुनती है और परिताप के अग्नि में जल रहे भुवन को सहारा देती है तो वो भुवन को एक नई ज़िन्दगी प्रदान कर रही होती है। उसे वापस प्रेम करना सीखा रही होती है और रेखा को दीदी कहकर संबोधित करते हुए उदारता का परिचय भी देती है।
5- प्रेम कहानी के साथ साथ सामाजिक मुद्दे और मनोवैज्ञानिक स्तर पर ये उपन्यास बहुत अहम सवाल खड़े करता है और सोचने पर विवश करता है। उपन्यास की ये पंक्तियाँ देखें कि " असल में सब सिद्धान्त क्षतिपूरक होते हैं : आप जो हैं, जैसे हैं, उससे ठीक उल्टा सिद्धान्त गढ़ कर उसका प्रचार करते फिरते हैं। इससे एक तो आप अपने लिए एक सन्तुलन स्थापित कर लेते हैं, दूसरे औरों को ग़लत लीक पर डाल देते हैं ताकि आपको ठीक-ठीक कोई पकड़ न पा सके। " रेखा और भुवन दोनों ही इसके शश्क्त उदाहरण हैं जो लोगों को अपने मन में चल रही बातों से अवगत कराना पसंद नहीं करते हैं और हर बार एक नई थ्योरी को जन्म देकर लोगों को मन के भीतर झाँकने वाले द्वार से भटकाते रहते हैं। इसी तरह विज्ञान के इस्तेमाल पर भी किरदारों के मध्य बातचीत देखना एक सुखद अनुभव रहा। भुवन एक पत्र में लिखते हैं कि " नीति से अलग विज्ञान बिना सवार का घोड़ा है, बिना चालक का इंजिन वह विनाश ही कर सकता है। और संस्कृति से अलग विज्ञान केवल सुविधाओं और सहूलियतों का संचय है, और वह संचय भी एक को वंचित कर के दूसरे के हक में और इस अम्बार के नीचे मानव की आत्मा कुचली जाती है, उसकी नैतिकता भी कुचली जाती है, वह एक सुविधावादी पशु हो जाता है…और यह केवल युद्ध की बात नहीं है, सुविधा पर आश्रित जो वाद आजकल चलते हैं वे भी वैज्ञानिक इसी अर्थ में हैं कि वे नीति-निरपेक्ष हैं : मानव का नहीं, मानव पशु का संगठन ही उन का इष्ट है। " जो मानवता के प्रति भुवन की संवेदनशीलता ज़ाहिर करता है और समाज में चल रहीं गतिविधियों पर लगातार नज़र गड़ाये लेखक की मनोदशा भी परत दर परत खोलता चलता है।
6- हर किरदार इतना शसक्त है कि विभिन्न नज़रियों का एक संगम बनता हुआ नज़र आता है जिसमें डूब कर जीवन की दुर्गम परिस्थितियों का बोध होता है, उदासीनता से रूबरू होकर उससे निकलने की प्रेरणा नसों में फूटती है, देश के प्रति प्यार उमड़ता है, कला का महत्व समझ आता है और सच्चे मन से किये गए प्रेम की अनुभुति भी होती है जो ह्रदय को शान्ति प्रदान करती है। इस उपन्यास की कुछ अंतिम पंक्तियाँ मुझे बहुत ज्ञानवर्धक लगती हैं और हमेशा मेरा मार्गदर्शन करती रहेंगीं।
अज्ञेय किताब के अंत में लिखते हैं कि " हर व्यक्ति एक अद्वितीय इकाई है, और हर कोई जीवन का अन्तिम दर्शन अपने जीवन में पाता है, ��िसी की सीख में नहीं। पर दूसरों के अनुभव वह खाद हो सकते हैं जिस से अपने अनुभव की भूमि उर्वरा हो "। ये पंक्तियाँ इस बात की और इशारा भी करती हैं कि आप अपने निर्धारित लक्ष्य की ओर अग्रसर रहें और दूसरों के अनुभवों से सीखते रहें। ख़ुद की लड़ाई पूरी ईमानदारी से लड़ें और ख़ुद को निखारते हुए एक ईमानदार व्यक्ति बनने की चाह रखें जो दुनिया को कुछ दे कर ही जाये।
सुनने में आया था कि यह हिंदी उपन्यासों में सबसे बेहतरीन किताब है। इस पुस्तक को पढ़ना ना जाने क्यों कुछ साल से ठहरा हुआ था। आरंभ तो कर दिया था पढ़ना लेकिन कई महीनों तक बात 10 पृष्ठों से आगे बढ़ती ही न थी। अज्ञेय की पहली कृति है जो मेरे हाथ लगी।
मेरी कहानी लौटने की कहानी है। कितने समय बाद लौटूँगी ये निर्धारित नहीं हो पाता, लेकिन मैं लौटती ज़रूर हूँ। तो मैं लौटी।
और बदले में अज्ञेय मुझे बहा कर ले गए भुवन, रेखा और गौरा की कहानी में। बहते बहते कब उन्होंने मुझे मेरे पूर्वाभासों और धारणाओं के किनारे से दूर ले जा कर परले किनारे पर टिका दिया। और मैंने जाना कि नज़ारा यहाँ से भी उतना ही, बल्कि पहले से ज़्यादा खूबसूरत है।
प्रेम कहानियों की परिभाषा को बदल दिया अज्ञेय ने मेरे लिए। नदी के द्वीप बिल्कुल उचित नाम है, क्योंकि इसे पूरा करने के बाद अनुभव हो रहा है कि मैं भी एक द्वीप ही हूँ जो जीवन, ज्ञान, शब्दों की नदी में प्रवाहित हूँ। अज्ञेय ने मेरे पाठक हृदय को तोड़ा, ये नहीं कह सकती, लेकिन उसे लेकर, पिघलाकर, एक नए सांचे में डाल कर मुझे लौटा दिया है। और इस नए, और विकसित हृदय में प्रेम के लिए जगह पहले से अधिक है, बढ़ी है, बड़ी है।
चार पात्र हैं यानी चार ही प्रेम त्रिकोण हैं। मानव मन की जटिलता पर पाठक से पत्रों के रास्ते संवाद करते हैं 'अज्ञेय'
प्रेम ऐसी भावना है कि जिस पर हर एक का निजी अधिकार और निजी अनुभव होता है। अनवरत चलने वाली प्रक्रिया है प्रेम। उपन्यास भी यही बात करता है। आदर्शों को परे धकेलते हुए। जीवन प्रेम में होने का पर्याय है। फिर प्रेम देह से हो या देह की स्मृति से।
2 महीना (4 oct - 3 dec ) में 300 पन्नों वाली 'नदी के द्वीप' पढ़ लिया।
तारीफ लिखूँ, बुराई करूँ या कह दूँ कि समझ ही नहीं आया ?
फ़ास्ट पढ़े जाने लायक पुस्तक नहीं है। मनोरंजक भी नहीं है। कई सारे सुन्दर और गहरे भाव वाले कोट्स हैं जिन्हें पढ़कर कुछ देर सोचना/मथना पड़ता है।
आत्मालाप है, आत्मपीड़न है और आत्मपीड़न से आत्म-परिष्करण की थ्योरी। एकाध जगह सॉफ्ट इरोटिका भी है।
पात्र न तो इस दुनिया के लगते हैं और ना ही उन्हें दुनियादारी से कोई लेना देना है। मुख्य पात्र पश्चिमी कवियों, साहित्य और दर्शन का चश्मा लपेटे हुए हैं।
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"हम अधिक से अधिक इस प्रवाह में छोटे-छोटे द्वीप हैं, उस प्रवाह से घिरे हुए भी, उससे कटे हुए भी; भूमि से बँधे और स्थिर भी, पर प्रवाह में सर्वदा असहाय भी...”
"दुख ही व्यक्ति को माँजता है। दुख सबको माँजता है और चाहे स्वयं को मुक्ति देना वह न जाने, किंतु जिनको माँजता है, उन्हें यह सीख देता है कि सबको मुक्त रखे।"
"तुमने एक ही बार वेदना में मुझे जना था, माँ पर मैं बार बार अपने को जनता हूँ, और मरता हूँ। पुनः जनता हूँ और पुनः मरता हूँ और फिर जनता हूँ, क्योंकि वेदना में मैं अपनी ही माँ हूँ।"
"डीयरेस्ट, द पेन ऑफ़ लविंग यू इज़ ऑलमोस्ट मोर दैन आइ कैन बेयर"
नदी के द्वीप कमाल का उपन्यास है खासकर अपनी संरचना की दृष्टि से। ले दे के चार मुख्य पात्र जिनमें 3 तो एक प्रेम त्रिकोण का हिस्सा हैं और चौथा एक विलन है। खास बात यह है कि इन चारों के बीच का संवाद ज्यादातर पत्रों के माध्यम से चलता है।
कभी-कभी ये किरदार प्रत्यक्ष रूप से भी मिल लेते हैं। आपस में बौद्धिक बहसें करते हैं और इन बहसों के बीच अचानक ही गहरा कुछ निकल कर ऐसा आता है जिससे पाठक अज्ञेय की लेखनी से अभिभूत हो जाता है। पर ये भी है कि पुस्तक के कुछ हिस्सों में किरदारों के व्याख्यान इतने गहरे और बोझिल हो जाते हैं कि उनकी एक एक पंक्ति पर दिमाग खपाने का दिल नहीं करता और उन हिस्सों को सरसरी निगाह से पढ़कर निकल जाना होता है बिना गहरे डूबे हुए।
है तो यह एक प्रेम कथा ही और वो भी बिना किसी ज्यादा घुमाव या तेजी से बदलती घटनाओं के। कथा का कालखंड 80-90 साल पुराना है पर पर जिन व्यक्तित्वों को अज्ञेय ने गढ़ा है वह आज के चरित्रों से बहुत पुराने नहीं हैं। ऐसा इसलिए है कि अज्ञेय की दृष्टि तत्कालीन घटनाओं से ज्यादा व्यक्ति की आंतरिक चिंतन धारा और मानसिक उथल-पुथल पर ज्यादा है और आदमी तो अंदर से एक सदी में भी कहां बदला है?
इसलिए किताब के प्राक्कथन में कहा गया है कि उपन्यास में लेखक ने व्यक्ति के विकसित आत्म को निरूपित करने की सफल कोशिश की है। वह व्यक्ति जो विराट समाज का अंग होते हुए भी उसी समाज की तीव्रगामी धाराओं, भावनाओं और तरंगों के बीच अपने भीतर एक द्वीप की तरह लगातार बनता, बिगड़ता और फिर बनता रहता है। वेदना जिसे मांजती है, पीड़ा जिसे व्यस्क बनाती है और धीरे-धीरे द्रष्टा।
जो विशुद्ध हिंदी भाषा के प्रेमी हैं उन्हें अज्ञेय की लेखनी से सीखने को बहुत कुछ मिलेगा। मैंने तो इस किताब को पढ़ते हुए हिंदी के दर्जन भर ऐसे शब्द जाने जिनका इस्तेमाल मैं तो अब तक नहीं करता था। क्योंकि इस 310 पन्नों के इस उपन्यास को हिंदी की एक क्लासिक किताब का दर्जा प्राप्त है इसलिए आप में से कईयों ने इसे पढ़ा होगा। मैं जानना चाहूंगा कि आपको भुवन, रेखा, गौरा और चंद्र माधव में किस किरदार ने सबसे ज्यादा प्रभावित किया और क्यूं ?
मुझसे पूछेंगे तो गौरा का सहज व्यक्तित्व मेरे दिल के सबसे करीब रहा। शायद इसलिए कि प्रेम जिस स्वरुप में उसे मिला या नहीं मिला वह उसी में संतोष करती हुई अपने ध्येय को साध्य करने के लिए पूरी मेहनत से जुटी रही। प्रेम में आहत होने के बावजूद उसके प्रेमी के व्यक्तित्व को मलिन करने की चेष्टाएं उसके विश्वास पर जरा भी असर नहीं करतीं और फिर उसका सहज हास्य बोध मन को तरंगित भी करता रहता है :)
i am disappointed... recently i came across a thread where people have shared their lists of best hindi books and i found nadi ke dweep ( NKD) appearing very frequently in the list along with Kasap. somehow i started reading Kasap first and on the back over page of Kasap it was written that Kasap is considered second best love novel after NKD so it was but natural that after finishing Kasap i would read NKD but but but i am hugely disappointed.. Agyey is considered to be one of the greatest but for me Kasap is 100 times better, far more grounded, natural and near to realty. NKD is very difficult to read. even if it is written in era of 1940s i doubt that people spoke to each other in such difficult hindi in that era. No offence but writer said in one of its forward that he want his reader to make an attempt to read and understand,,, why so .. isnt the writer trying to make himself kind of elite writer. in that attempt, isnt he making his material available to only a particular class of readers. what about average hindi reader. but this is my opinion. after reading Kasap i read 5 more novels of MSJ and all were equally interesting and remarkable twist. Perhaps Agyey was of older generation. but glad to have read the book and in my library. at least if someone ask me i can say that i have read NKD and it is in my library.
सुन्दर कथा| केवल चार पात्रों के माध्यम से प्रेम, त्याग, समप्रण, पीड़ा का अद्भुत अन्वेषण |
अज्ञेय का शब्द संसार अद्भुत है, पात्रों के मुख से यदा कदा इलियट, ब्राउनिंग, लॉरेंस, बाइबिल, रबीन्द्र संगीत की पंक्तियाँ निकलती रहती हैं जो पढने के अनुभव को और शानदार कर देती हैं| यह उपन्यास मुझे हमेशा इस गीत की याद दिलाएगा -
अंतिम पृष्ठों के कुछ शब्द मन में चिपक गए हैं - "आनंद अनुभूति में नहीं है, किसी भी अनुभूति में नहीं, आनंद मन की एक प्रवृति है, जो सभी अनुभूतियों के बीच बनी रह सकती है"
कुछ उपन्यास इत्मीनान मांगते हैं! 'नदी के द्वीप' पढ़कर ऐसा ही लगा।
"शब्द अधूरे हैं क्योंकि उच्चारण मांगते हैं" ये वाक्य जो इसे समाप्त करने के बाद भी मेरे साथ रह गया।
हां शब्द अधूरे ही हैं, उनका उच्चारण ही उन्हें पूर्ण बनाता है, पर भावनाएं वो शायद स्वयं में ही पूर्ण हैं, बिना शब्द के या बिना नाम के... भावनाएं तो बस... भावनाएं ही हैं।
ये उपन्यास 4 पात्रों के साथ हमें उनके जीवन में प्रवेश देता है, पात्र भी पहले स्वयं में और फिर संबंधों में उलझे हुए। न कभी पूर्णतः • सही न पूर्णतः ग़लत ।
शब्द का अधूरा होना ही उनका प्रतिनिधित्व करता है और उन्हें स्वयं के पास भी ले जाता है और दूर भी...
ज़बरदस्त.. अगर आप बोलचाल की हिंदी पढ़ने के शौकीन हैं तो शायद आपको भाषा थोड़ी क्लिष्ट लगे..l पर एक बात जरूर है कि आप पुस्तक खत्म करते करते वो होकर नहीं निकलेंगे जो होकर पढ़ने पहुंचे थे..अगर आप कुछ गहरा और गंभीर पढ़ना चाहते हैं तो इसके लिए जाइए..अगर हल्का फुल्का पढ़ने के शौकीन हैं तो ये आपके लिए नहीं है..
नदी के द्वीप हिंदी साहित्य की एक अनुपम धरोहर है इसको पढ़ना एक सुखद अनुभूति देता है अपने पाठकों को शुरू से अंत तक अपने अंतर्द्वंद में बांध कर रखती है इस किताब को पढ़कर ही आप समझ सकते हैं कि इस प्रकार की अद्भुत प्रेम कहानी के ऊपर लिखी यह किताब विश्व साहित्य की एक अमूल्य कृति क्यों है?
मालूम नहीं उपन्यास पहले लिखा अज्ञेय ने या फिर कविता। मगर दोनों साथ मिलकर एक पूरा चित्र बनाते हैं। क्षण भर के लिए पूरा क्योंकि हमेशा के लिए तो शायद होता नहीं।
बहुत कम ऐसी किताबें हैं जिनको पढ़ते पढ़ते खुद के अंदर बहुत उथल पुथल और खोज बीन हो जाती है। ये है एक ऐसी ही किताब।
We see everything so superficially, we try to force the “right” and “wrong” narratives to prove superiority but this book explores love, lust, infidelity, loyalty and so much more without painting anyone a villain, and just showing you the characters as humans.
Mujhe nahiñ pata ki is kitaab ko kis tarah se liya jaana chahiye bas itna jaanta huuñ ki agyeya sach meiñ agyeya haiñ! Itna kuch, itne bhaav sanchit haiñ ismeiñ ki sabko piro kar ikattha kar pana hi ek kathin kaarya prateet hota hai! Hindi Sahitya Agyeya ka sadaiv rini rhega 🌻
खतों के जरिए जो नजदीकियां अज्ञेय जी ने यहां बयां की हैं उनको उनसे बेहतर इस फॉर्मेट में शायद कोई दूसरा बयां कर पाएगा। अज्ञेय के लेखन शैली सी यथार्थवाद की सुगंध आती है जो धीमे धीमे आपके भीतर प्रवेश कर आपके शरीर से भी महकने लगती है।
Kitab ne dill chu liya mujhe yaken nahi hua ki kitab itne pehele likhi gae thi itne khule vicharo or prem bhav se, kitab mein kuch hai jo aapko iskay aalag nahi hone deta jarur padhe.