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Mahatirth ke Antim Yatri

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Mahatirth Ke Antim Yatri

363 pages, Paperback

First published January 1, 2010

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Vimal De

2 books1 follower

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Displaying 1 - 3 of 3 reviews
70 reviews6 followers
January 4, 2024
Mid 1950s, a runaway teenager from Bengal doing menial jobs, incidentally meets a monk in Gaya, portrays himself as a Mauni Baba (silent ascetic; to cover up for the Indian looks and lack of Tibetan knowhow, particularly the language), and ends up traveling to Lhasa, Kailas and Mansarovar.

That premise itself is enough for a distant Tibet lover. The imagery created by the description of the landscape, Gompas, villages and people is endearing, the travails of the solo travel phase to Mansarovar, Kailas and ahead, fascinating. The hide & seek with the Chinese who had by then started exerting control deep in the land brings a few chuckles.

Tibet has forever been mystical, more so since the Chinese occupation. The travelogue is perhaps the last free(ish) visit of the land by an Indian and also perhaps the best travel writing by an Indian author.


PS- There's an English translation by the name of 'the last time I saw Tibet'; much costlier though.
This entire review has been hidden because of spoilers.
Profile Image for Ekta Kubba.
229 reviews8 followers
November 22, 2020
सोलह वर्ष का नौजवान आम लोगों की तरह सामान्य जीवन को नकारते हुए बिना किसी वस्तु अथवा धनराशि के घर से भाग जाए और भिक्षुक की भांति जीवन व्यतीत कर रहे एक साधू बाबा के व्यक्तितव से प्रभावित हो उनके साथ भिक्षुक की भांति रहने को तैयार हो; और साधू बाबा का साथ न छोड़ने के लिए उन्हीं के संग अनजान पथ पर अनजान देश में चलने को राज़ी हो जाए, कितना अविश्वसनीय सा लगता है यह सब। लेकिन यह कोई काल्पनिक कहानी नहीं, अपितु विमल डे के जीवन को बदल देने वाली यात्रा है। स्कूल, दफतर और अन्य सामान्य जीवन यापन के तरीकों को नकारते हुए विमल डे अपने घर से बिना किसी को सूचना दिए और बगैर कुछ लिए निकल पड़े। एक साधू बाबा से मिले और उनके व्यक्तितव से इस कदर प्रभावित हुए कि उनका साथ छोड़ना असहनीय लगने लगा। साधू बाबा जब तिब्बत में ल्हासा की तीर्थयात्रा के उद्देश्य से विमल को छोड़ निकल पड़े तो उनके बगैर ज़िंदगी व्यतीत करना विमल को इस कदर कष्टदायक लगा कि वह हर तरह की शारीरिक और मानसिक यंत्रणा सहन करते हुए बाबा जी को ढूंढते सिक्किम तक पहुंच गए और उन्हीं के संग तिब्बत की यात्रा पर निकल पड़े। लेकिन यह यात्रा विमल के जीवन को बदल देने वाली साबित हुई। वह पूरी तरह से यायावरी में तल्लीन हो गए।
यह पुस्तक तिब्बत को जानने की चाह रखने वालों के लिए एक खज़ाना है। विमल ने अपने गुरु संग ल्हासा तक की पैदल यात्रा 1956 में सिक्किम से प्रारम्भ की थी। ल्हासा तक पहुँचने में वह इस देश और यहां की धार्मिक एवं सामाजिक संस्कृति से इस कदर प्रभावित हुए कि उन्होंने गुरु जी के जत्थे संग ल्हासा से वापिस भारत जाने का विचार त्याग कर कैलाश-मानसरोवर तक अपनी पैदल यात्रा अकेले ही जारी रखने का निर्णय लिया। 1956 में की गई यह यात्रा उस समय के तिब्बत देश के राजनीतिक हालातों को अच्छे से बयाँ करती है। चीन ने 1950 के दशक के शुरूआती दिनों में तिब्बत पर कब्जे की शुरुआत की थी। इसलिए इस यात्रा के समय तिब्बत के राजनीतिक हालात तेज़ी से बदल रहे थे और सामाजिक एवं धार्मिक भावनाओं और संस्कृति को बचाने की कोशिश नाकाम सी लग रही थीं। ऐसे समय में वहां जाकर खुद को चीनी फौज से बचाकर रखते हुए तेज़ी से लुप्त करवाई जा रही संस्कृति का अहसास पाने की भरपूर कोशिश की विमल ने। उनका व्यक्तितव इस प्रकार का था कि किसी के भी साथ सहजता से स्नेह का रिश्ता कायम कर लेते थे। हर कोई उनकी इमानदारी और दर्ढ़ निश्चय से प्रभावित हुए बिना नहीं रह पाता था। अपनी इन्हीं खूबियों की बदौलत विमल इस यात्रा को पूर्ण करने में सक्षम हुए। बहुत महानुभावों के विचारों का अनमोल खज़ाना पाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ और दलाई लामा जी के दर्शन भी प्राप्त हुए। साथ ही कुदरत की सुन्दरता को बेहद खूबसूरती से जाना उन्होंने और कुदरत के संग कदम मिला कर चलने का ज्ञान प्राप्त किया।
पुस्तक के आखिरी कुछ पन्नों में विमल ने 2000 में फिर से की गई तिब्बत यात्रा का ब्यौरा है। कुछ 50 साल पहले के अनुभवों को फिर से जीने और उस दौर की यादों को ताज़ा करने की उनकी लालसा दिल को अन्दर तक भेद जाती है। तिब्बत के विकास के पीछे जब कहीं पुरानी संस्कृति की हल्की सी भी धूल जमा मिलती है तो बचपन में फिर से मिले एक खोए हुए खिलौने सा अहसास होता है।
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