"अम्बर पाण्डेय का उपन्यास ‘मतलब हिन्दू’ एक अनोखा उपन्यास है। यह उपन्यास लिखे हुए शब्दों के भेष में बोले गये शब्दों में अपने नरेटिव की ऊँचाइयों को छू लेता है। मैंने इस रचनात्मक प्रयोग को हिन्दी फ़िक्शन में इतनी सुन्दरता और गहनता के साथ बरतते हुए आज तक नहीं देखा। महान चेक उपन्यासकार मिलान कुन्देरा का कहना है कि नॉवेल में अगर अस्तित्व के किसी छुपे हुए आयाम पर प्रकाश नहीं पड़ता, तो नॉवेल लिखना बेकार है। ‘मतलब हिन्दू’ में तो हर पन्ने पर ऐसी रौशनी बिखरी हुई है जो हमारे अन्धकार में छुपे गुनाहों को बहुत बेरहमी से रौशन कर देती है। ‘मतलब हिन्दू’ का बयानिया बहुत घना है और इस घनेपन के रेशों को मानवीय संवेदनाओं और इन्सान के दुखों से बुना गया है। यह उपन्यास हमें बताता है कि हमारी सारी axiology (मूल्यशास्त्र) पहले ही से शायद नकटी है और नक़ली नाकें उस पर कभी भी पूरी तरह फिट नहीं बैठती हैं। ये सब एक भयानक रूप से हास्यास्पद भी है। गांधी जी का चरित्र एक तरह से उपन्यास के बुनियादी चरित्र के लिए एक चैलेंज है जिससे वह जगह-जगह सहमा हुआ सा भी नज़र आता है। उसको यह भी शक होता है कि कहीं गांधी जी भी तो व्यभिचार या फिर अनैतिकता के दोषी थे कि नहीं थे। गांधी जी के चरित्र और उपन्यास में समाये हुए इतिहासबोध ने अविश्वसनीय को जिस तरह विश्वसनीय बना दिया है, वह भी अम्बर पाण्डेय की क़लम का एक करिश्मा ही कहा जायेगा। नॉवेल के अन्त में पहुँचकर मुझे यह भी महसूस हुआ कि जैसे मैंने किसी यूनानी ट्रेजेडी को पढ़कर ख़त्म किया हो। एक ऐसी ट्रेजेडी जो अपनी हास्यास्पदता की वजह से और भी ज़्यादा बड़ी बन गयी हो। यह काम आधुनिक समय में एक बड़ा नॉवेल ही कर सकता है। यह काम इस नॉवेल यानी ‘मतलब हिन्दू’ के ज़रिये अपने अंजाम को पहुँचा। - खालिद जावेद, उपन्यासकार ★★★ इस अद्भुत उपन्यास में एक बीते हुए समय की कहानी अनोखी गुजराती-मालवी-मराठी हिन्दी में लिखी गयी है जिसमें युवा बैरिस्टर गांधी की उपस्थिति शुरू और अन्त में ही नहीं, एक नैतिक कसौटी की तरह बीच-बीच में भी चली आती है। बम्बई में कास्ट आयरन की इमारत में रहते दवे परिवार का रोज़मर्रा का ख़ान-पान, चाय की नयी पाली हुई लत, ढिबरी का प्रकाश ऐसे जगमगाता है कि लगता है यह किसी डेढ़ सौ साल की उम्र के लेखक का आँखों-देखा वर्णन है और सौ साल पुरानी भाषा में ही लिखा गया है। - अलका सरावगी "
"मेरे वास्ते बालिस्टर (गांधी) साधु आदमी थे और रहेंगे। ऐसा सोचकर मैं उनसे जितनी दूर तलक आ सकता था, भाग आया ताकि उनकी तस्वीर मेरे जी में बेदोष रहे।"
यह एक मनुष्य के पतन की गाथा है, जिसने किशोरावस्था में गांधी को करीब से देखा, चोरी छिपे उन्हें घर के काज करते हुए व उनकी बातें सुनी, उनके पत्र चुराकर पढ़ें, उनके साथ संक्षिप्त ही सही मगर जातीय स्वाभिमान जैसे विषय पर वार्ता भी की, और उसके ही शब्दों में "उनकी आत्मा का परिचय" पाया। गांधी यूँ तो शारीरिक रूप से कथा में बस शुरुआत व अंत में थोड़ी देर हैं, मगर कथा नायक (जो कि कथावाचक भी है) के नैतिक निकष के रूप में पूरी कथा में बारम्बार आते रहते हैं। नायक अपने दौर की धार्मिक और सामाजिक नैतिकताओं व रूढ़ियों में बँधा हुआ है, और (विशेषतः पाश्चात्य साहित्य) पढ़ते रहने के कारण इन पर सवाल भी उठाते रहता है। हालांकि हम यह सब उन्नीसवीं सदी के अवसान और बीसवीं के आरंभ में होते देख रहे होते हैं मगर जो नैतिकता संबंधी बातें उस दौर में हो रही थीं, वे उसी रूप में या आमूलचूल परिवर्तन के साथ आज भी अपने आसपास होते देखते हैं, तो क्या इस समाज में प्रगतिशीलता की गति इतनी धीमी है कि १२५ साल बाद भी इसकी सुई उन्हीं प्रश्नों पर अटकी पड़ी है?
अपने विचार व आचरण का एक पैमाना हमेशा ही नायक के मन में रहता है, मगर कभी परिस्थितिवश तो कभी ऐंद्रिय लालसाओं के वशीभूत कई कई बार अनैतिक पापकर्म करता चला जाता है। अपने मूल्यों के विरुद्ध आचरण करता वह हमेशा एक अंतर्द्वंद्व में दिखता है और कई बार अपने पतन को अपने मन में अपनी परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य में उचित ठहराने की कोशिश करता रहता है।
उपन्यास की भाषा बहुत मनोरम लगी। यद्यपि कई शब्दों के लिए शब्दकोश खोलना पड़ा, मगर जिस दौर को यह उपन्यास दर्ज कर रहा है, इसकी भाषा उसे चित्रित करने में महती भूमिका निभाती है।
अंत में नायक के मन में अभी भी गांधी एक मापदंड हैं, मगर एक बदलते औपनिवेशिक देशकाल में कई स्थापित मूल्यों व मान्यताओं से बग़ावत करता या करने की इच्छा रखता वह कई अन्यान्य रूढ़ियों से अभी भी बंधा है, और आगे आनेवाले तेज़ी से परिवर्तित होते समय में वह गांधी के विचार के साथ होता है या उसके बरअक्स, यह देखने के लिए उपन्यास के अगले दो भागों का बेसब्री से इंतज़ार है।