जन्म : ७ मार्च १९११ को उत्तर प्रदेश के देवरिया जिले के कुशीनगर नामक ऐतिहासिक स्थान में।
शिक्षा : प्रारंभिक शिक्षा–दीक्षा पिता की देख–रेख में घर पर ही संस्कृत‚ फारसी‚ अंग्रेजी और बँगला भाषा व साहित्य के अध्ययन के साथ। १९२५ में पंजाब से एंट्रेंस की परीक्षा पास की और उसके बाद मद्रास क्रिश्चियन कॉलेज में दाखिल हुए।वहाँ से विज्ञान में इंटर की पढ़ाई पूरी कर १९२७ में वे बी .एस .सी .करने के लिए लाहौर के फॉरमन कॉलेज के छात्र बने।१९२९ में बी .एस .सी . करने के बाद एम .ए .में उन्होंने अंग्रेजी विषय रखा‚ पर क्रांतिकारी गतिविधियों में हिस्सा लेने के कारण पढ़ाई पूरी न हो सकी।
कार्यक्षेत्र : १९३० से १९३६ तक विभिन्न जेलों में कटे। १९३६–१९३७ में ‘सैनिक’ और ‘विशाल भारत’ नामक पत्रिकाओं का संपादन किया। १९४३ से १९४६ तक ब्रिटिश सेना में रहे‚ इसके बाद इलाहाबाद से ‘प्रतीक’ नामक पत्रिका निकाली और ऑल इंडिया रेडियो की नौकरी स्वीकार की। देश–विदेश की यात्राएं कीं। जिसमें उन्होंने कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय से लेकर जोधपुर विश्वविद्यालय तक में अध्यापन का काम किया। दिल्ली लौटे और ‘दिनमान’ साप्ताहिक, ‘नवभारत टाइम्स’, अंग्रेजी पत्र ‘वाक्’ और ‘एवरीमैंस’ जैसी प्रसिद्ध पत्र पत्रिकाओं का संपादन किया। १९८० में उन्होंने ‘वत्सलनिधि’ नामक एक न्यास की स्थापना की‚ जिसका उद्देश्य साहित्य और संस्कृति के क्षेत्र में कार्य करना था। दिल्ली में ही ४ अप्रैल १९८७ में उनकी मृत्यु हुई।
१९६४ में ‘आँगन के पार द्वार’ पर उन्हें साहित्य अकादेमी का पुरस्कार प्राप्त हुआ और १९७९ में ‘कितनी नावों में कितनी बार’ पर भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार।
प्रमुख कृतियाँ – कविता संग्रह : भग्नदूत, इत्यलम,हरी घास पर क्षण भर, बावरा अहेरी, इंद्र धनु रौंदे हुए ये, अरी ओ करूणा प्रभामय, आँगन के पार द्वार, कितनी नावों में कितनी बार, क्योंकि मैं उसे जानता हूँ, सागर–मुद्रा‚ पहले मैं सन्नाटा बुनता हूँ‚ महावृक्ष के नीचे‚ नदी की बाँक पर छाया और ऐसा कोई घर आपने देखा है। कहानी–संग्रह :विपथगा, परंपरा, कोठरी की बात, शरणार्थी, जयदोल, ये तेरे प्रतिरूप। उपन्यास – शेखरः एक जीवनी, नदी के द्वीप, अपने अपने अजनबी। यात्रा वृत्तांत – अरे यायावर रहेगा याद, एक बूंद सहसा उछली। निबंधों संग्रह : सबरंग, त्रिशंकु, आत्मानेपद, आधुनिक साहित्यः एक आधुनिक परिदृश्य, आलवाल, संस्मरण :स्मृति लेखा डायरियां : भवंती‚ अंतरा और शाश्वती।
उनका लगभग समग्र काव्य ‘सदानीरा’ ह्यदो खंडहृ नाम से संकलित हुआ है तथा अन्यान्य विषयों पर लिखे गए सारे निबंध ‘केंद्र और परिधि’ नामक ग्रंथ में संकलित हुए हैं।
विभिन्न पत्र–पत्रिकाओं के संपादन के साथ–साथ ‘अज्ञेय’ ने ‘तार सप्तक’‚ ‘दूसरा सप्तक’‚ और ‘तीसरा सप्तक’ – जैसे युगांतरकारी काव्य–संकलनों का भी संपादन किया तथा ‘पुष्करिणी’ और ‘रूपांबरा’ जैसे काव्य–संकलनों का भी।
वे वत्सलनिधि से प्रकाशित आधा दर्जन निबंध–संग्रहों के भी संपादक हैं। निस्संदेह वे आधुनिक साहित्य के एक शलाका–पुरूष थे‚ जिसने हिंदी साहित्य में भारतेंदु के बाद एक दूसरे आधुनिक युग का प्रवर्तन किया।
Sachchidananda Hirananda Vatsyayana 'Agyeya' (सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन 'अज्ञेय'), popularly known by his pen-name Ajneya ("Beyond comprehension"), was a pioneer of modern trends not only in the realm of Hindi poetry, but also fiction, criticism and journalism. He was one of the most prominent exponents of the Nayi Kavita (New Poetry) and Prayog (Experiments) in Modern Hindi literature, edited the 'Saptaks', a literary series, and started Hindi newsweekly, Dinaman.
Agyeya also translated some of his own works, as well as works of some other Indian authors to English. A few books of world literature he translated into Hindi also.
पंख से पंख मिला कर आकाश में उड़ना- शिखरों से एक-साथ सरसराते हुए नीचे झपटना और उसी गति के सहारे, केवल पंख थोड़े मोड़ कर, फिर ऊपर उड़ जाना- निःसन्देह वह प्रेम है। पर उतना ही भर प्रेम नहीं है। पंख- टूटे साथी को धीरे-धीरे बढ़ावा देते हुए उस से वह उड़ान भरा लेना जो वह केवल अपने भरोसे न कर सकता- वह भी प्रेम है; और प्रेम अनिवार्यतया यह भी मांगता है: दूसरे को सहायता देने में स्वयं को जोखिम में डालना भी वह मांगता है।
‘कवि-मन’ अज्ञेय जी के डायरी अंशों का संकलन है। साधारणतया हम किसी रचनाकार की कृति को तभी देखते हैं जब वह रचनाकार उस से पूर्णतया संतुष्ट होता है और उसे लगता है कि अब इसे पाठकों के समक्ष लाया जा सकता है, लेकिन किसी लेखक की डायरी में उसके विचार, उसके सोचने के तरीके का पता लगता है। ‘कवि-मन’ में हम अज्ञेय जी के इसी रूप से रूबरू होते हैं। इस संकलन में अज्ञेय जी ने समाज, राजनीति और साहित्य के विभिन्न पहलुओं पर अपनी राय रखी है। कई जगहों पर लघुकथायें हैं जिन पर बाद में अज्ञेय जी ने शायद विस्तृत कहानियाँ लिखी हों। कुछ कविताओं के अंश हैं, जो शायद पूर्ण होने के बाद किसी काव्य-संकलन में स्थान पा गए हों।
विभिन्न ‘टीपों’ में अज्ञेय जी का राजनीतिक वर्ग के विरुद्ध गुस्सा झलकता है। ऐसे ही कुछ विचार हमने उस दौर के अन्य साहित्यकारों की रचनाओं में भी देखे हैं, जैसे दुष्यंत कुमार की ‘साये में धुप’ और धर्मवीर भारती के ‘ठेले पर हिमालय’ के साहित्यिक निबन्ध इत्यादि। एक ‘टीप’ देखिये - “लेखक है? आज़ाद है? मारो साले को। पिटाई से न सधे बदनाम करो; संखिया-धतूरा कुछ खिला दो, पागलखाने में डाल दो। ये सब भी बेकार हो जायें तो शाल-दुशाला, पद-पुरस्कार से लाद कर कुचल दो - वह तो ब्रह्मास्त्र है।” अज्ञेय जी आज़ादी की लड़ाई में स्वयं जेल गए थे इसलिए स्वतंत्रता के बाद की सरकारों से उनकी उम्मीदें भी अधिक थीं, जिन्हें पूरा होते न देख उनका निराश होना स्वाभाविक था।
अज्ञेय जी ने पश्चिमी और भारतीय साहित्य के बीच तुलना को लेकर भी सवाल खड़े किये हैं। उनका कहते हैं कि भारतीय साहित्य पश्चिम के साँचे में क्यों ढले। भारतीय साहित्य का एक अलग और स्वतंत्र स्वरुप भी तो हो सकता है। शायद अज्ञेय जी का ऐसा सोचना सही भी था क्योंकि जिस परिवेश में भारतीय साहित्य की रचना हुई थी वह पश्चिम के वातावरण से बहुत भिन्न था और कभी कभी मुंशी प्रेमचंद के खांटी गँवई माहौल वाली कहानियाँ या उपन्यास पढ़ते समय आपको यह अहसास हुआ भी हो; या कभी धर्मवीर भारती के उपन्यास पढ़ते समय लगा हो कि यह परिवेश पश्चिम के साहित्य में नहीं उमड़ सकता। डायरी की एक कतरन में अज्ञेय जी ने पौराणिकी का अध्ययन करने वाले लोगों की पुनर्लेखन की मनोवृत्ति पर भी प्रहार किया है। उनका कहना है कि ये धार्मिक रचनायें उस समय के परिवेश के लिए उचित थीं, उसका इस समय से तुलना करना सही नहीं है।
इन डायरी के अंशों में अज्ञेय जी को अपने कवि होने का बखूबी अहसास है। उन्होंने कई ‘टीपों’ में समाज को एक कवि के नज़रिए से देखने का प्रयास किया है। और कई अंशों में तो लघु कविता का विषय ही यही है कि किसी सामान्य घटना को कवि कैसे अलग तरह से देखता है। शायद कविता के प्रसंग ऐसे ही निकलते हों। अज्ञेय जी ने एक कवि के दायित्व को भी कुछ ‘टीपों’ में स्थान दिया है। अज्ञेय जी एक सच्चे विद्रोही थे जिनकी ज़िन्दगी और जिनकी रचनायें काल और स्थान की सीमाओं को लाँघने के लिए बेताब थी और जिनके लिए प्रचलित परिपाटी को चुनौती देना लेखनी का एक उद्देश्य था। अज्ञेय जी सोचने के लिए मजबूर करते हैं। एक जगह वह सवाल करते हैं कि जैसे जनता को वही सरकार मिलती है जिसके वह लायक होती है, तो क्या समाज को वही साहित्य मिलता है जिसके लिए वह योग्य होती है।