लेखक संपूर्ण जीवन को अपनी रचना का विषय बनाता है, रचता है। ऐसे लेखक को फिर अपनी रचना का विषय बनाना एक विषेष प्रकार के अनुभव और संवेदनशीलता की अपेक्षा रखता है। श्रीमती कान्ता भारती ने अपने इस उपन्यास 'रेत की मछली' में' लेखकीय जीवन और उसके निकट परिवेश को मानवीय संदर्भो में रचने का प्रयास किया है। विदेशी साहित्यों मे इस प्रकार की कई औपन्यासिक कृतियाँ प्रसिद्ध हुई है; हिन्दी में यह अनुभव-क्षेत्र अभी नया है, और विशेष संभावनाओ से युक्त है। कान्ता की यह कथा-कृति अपने ब्यौरों में कही निर्मम है तो कहीं सहानुभूतिपूर्ण भी, और इस माने में जीवन के सही अनुपात, को साधती है। पाठक यहाँ रचना की पृष्ठभूमि को रचना के रूप में पाकर एक नये अनुभव-संसार में प्रवेश करता है, जहाँ उसके लिए बहुत-सी उपलब्धियाँ संभव हैं।
शिक्षा : प्रयाग विश्वविद्यालय से दर्शनशास्त्र में एम.ए., हिंदी से एम.ए. और कविवर सुमित्रानंदन पंत पर शोध कार्य कर पी-एच.डी. की उपाधि की।
गतिविधियाँ : देश विभाजन के बाद 1947 में परिवार के साथ इलाहबाद आयीं। यहाँ ‘कविवर सुमित्रानंदन पंत, इलाचंद्र जोशी, महादेवी वर्मा और प्रयाग के साहित्यकारों का सानिध्य मिला और साहित्यिक गतिविधियों से सक्रियता से जुडी।
आकाशवाणी और दूरदर्शन के महत्त्वपूर्ण पदो पर रहीं, और कई चर्चित धारावाहिक फिल्मों का निर्माण और लेखन किया। मीडिया विशेषज्ञ के रूप में कई देशों की यात्रा की।
इस किताब को पढ़ने के बाद सबसे पहला भाव जो मन में आया, वह था ग़ुस्सा उन लोगों के प्रति जिन्होंने इसे उबाऊ कहकर ख़ारिज कर दिया। मुझे समझ नहीं आता, कैसे कोई व्यक्ति किसी स्त्री की पीड़ा और उसके भीतर के संघर्ष में भी ‘रोमांच’ या ‘मनोरंजन’ ढूंढ़ सकता है?
मुझे यह नहीं मालूम कि रेत की मछली और गुनाहों का देवता कितनी हद तक सेमीऑटोबॉयोग्राफिकल हैं, लेकिन इतना ज़रूर समझ आया कि गुनाहों का देवता किताब मेरी आत्मा को क्यों नहीं छू सकी।
उसमें आदर्श थे, एक सतही नायकत्व था पर उसके पीछे कोई तीव्र, सचमुच का दर्द नहीं था। हाँ, धर्मवीर भारती की भाषा निस्संदेह सधी हुई और परिष्कृत है, लेकिन जो चुभन, जो अंदर तक उतर जाने वाली संवेदना कान्ता भारती की लेखनी में है? वह वहाँ नहीं मिलती।
कान्ता भारती की सबसे प्रभावशाली विशेषता यह है कि वे हर दृश्य को एक तरह की काव्यात्मक गहराई में ढाल देती हैं। उनके वाक्यों में ऐसा दर्द है जो शब्दों से ज़्यादा अनुभव में उतरता है। और जब पाठक यह जानता है कि यह कथा केवल कल्पना नहीं, एक स्त्री के जीवित अनुभवों का दस्तावेज़ है? तो वह भीतर तक हिल जाता है।
एक स्थान पर वे लिखती हैं — “शोभन फ़ादर पॉल के पास नितांत शिष्टता के साथ इस तरह खड़े थे जैसे गुनाहों की एक बहुत बड़ी बस्ती में एकमात्र देवता खड़ा हो।” यह पंक्ति पढ़ते ही मन जैसे रुक सा गया, और भीतर एक लंबी निःश्वास उतर आई।
मेरे लिए यह असंभव है कि कोई मुझे यह समझा सके कि गुनाहों का देवता, रेत की मछली से श्रेष्ठ है। चाहे कितने भी दलीलें/तर्क क्यों न दिए जाएँ, मैं उस मत को स्वीकार करने की स्थिति में नहीं रहूँगी।
आप ये किताब इसलिए मत पढ़िए कि एक और कहानी पढ़ने का मन हो गया है, बल्कि इसलिए पढ़िए कि एक पढ़ी हुई कहानी (गुनाहों के देवता) के दूसरे पक्ष को समझ सकें।
आरंभ में ही यह स्पष्ट हो जाता है कि इस कहानी का नायक ही खलनायक है — और इसकी नायिका? उस पात्र को नायिका कहना शायद उचित नहीं होगा। कितनी बार लगा कि कहूँ — किताबी नायिका ऐसी नहीं होती। वह पलटकर जवाब देती है, स्वतंत्र होती है, उसके कंधों पर आधुनिक युग की मशाल लेकर आगे बढ़ने की जिम्मेदारी होती है।
लेकिन इस कहानी की नायिका का हावभाव असल जीवन की आम स्त्री से कितना मेल खाता है!
अगर यह कहानी सिर्फ एक कहानी है, तो यह दुःखद है — बेहद कष्टकारक और अगर इसमें रत्ती भर भी सच्चाई है, तो यह पितृसत्ता द्वारा स्त्री समाज के प्रति किया गया एक गंभीर अपराध है।
कांता भारती की यह रचना धर्मवीर भारती के असली व्यक्तित्व को बयान करती है. I have hated Shobhan throughout the book, the character based on Dharmveer Bharti and the atrocities he committed on his first wife (the author). This novel needs more attention and praise than Gunahon ka Devta for all the right reasons.
बहुत दिनों से ये एक किताब सोशल मीडिया में बहुत प्रचलित हो रही है... अब पढ़ ली... . "रेत की मछली" पढ़ना एक तरह में अपने अंदर कुछ टूटने को महसूस करने जैसा था। शुरुआत में कहानी से सहानुभूति होती है, लेकिन जैसे-जैसे आगे बढ़ती है, एक अजीब सा गुस्सा और बेचैनी मन में बैठने लगती है। पढ़ते-पढ़ते लगा जैसे आदर्श, विश्वास और रिश्तों की जो तस्वीर दिमाग में थी, वो धीरे-धीरे गिर रही हो। . कहानी की शुरुआत में जहाँ नायिका के लिए सहानुभूति महसूस होती है, वहीं आगे बढ़ते हुए कुछ घटनाएँ असलियत से दूर लगने लगती हैं। नायिका की लगातार चुप्पी कहीं न कहीं मन में गुस्सा भी भरती है। ऐसा लगता है जैसे यह सिर्फ एक साहित्यिक रचना नहीं, बल्कि अंदर की जमा हुई पीड़ा और गुस्से का विस्फोट है। मन में सवाल उठता है कि कोई स्त्री इतनी तकलीफ़ सहकर, दूसरी औरत की मौजूदगी को भी स्वीकार कैसे कर सकती है और फिर बस एक किताब लिखकर चुप क्यों रह जाती है? क्या चुप रहना भी संस्कार है? . फिर सोचती हूँ कि सच में कोई न कोई मजबूरी रहती होगी महिलाओं की भी जब वे ऐसे अबला बन कर चुप्पी साध लेती हैं। और फिर जब एक प्रतिष्ठित लेखक ऐसे कर्मों में लिप्त है तो समाज की लाज, परंपरा और स्त्रीत्व की रक्षा करती एक पत्नी जिसका जीवन घर की चार दिवारी में क़ैद है, वो कर भी क्या सकती थी? एक पक्ष ये भी है कि इस किताब को 1975 में रिपोर्ट किया गया था, यानि कि घटनाएं उससे भी कई पहले हो चुकी होंगी। क्या उस समय का भारतीय समाज भी इन घोषणाओं के लिए तैयार था? . कई बार लगा कि ये किताब सिर्फ एक कहानी नहीं, किसी के दिल का बोझ है, गुस्सा, पीड़ा, और टूटे भरोसे का एक सलीका-सा दस्तावेज़। धर्मवीर भारती एक बेहतरीन लेखक थे, इसमें कोई शक नहीं। लेकिन जब आप किसी लेखक को उसके शब्दों से प्यार करते हैं, और फिर उसकी ज़िंदगी का ये चेहरा सामने आता है, तो एक हल्का-सा झटका ज़रूर लगता है। . और वो कंटीली बेल शुरुआत से ही उखाड़ कर फेंक क्यों नहीं दी? अपनी जड़ें मज़बूत करने का मौका कैसे दे दिया?🌻🌥️📚 . - आयशा
हुए कुछ रोज किसी मित्र ने एक फेसबुक लिंक भेजी। किसने भेजी ये तक याद नहीं। खोली तो एक लम्बा आलेख था – ‘गुनाहों का देवता’, धर्मवीर भारती के कालजयी उपन्यास की धज्जियाँ उड़ाता हुआ, चन्दर और उसके चरित्र की धज्जियाँ उड़ाता हुआ, चन्दर और सुधा की अमर प्रेमकथा की धज्जियाँ उड़ाता हुआ। आलेख में ‘गुनाहों का देवता’ के इतर एक अन्य उपन्यास का ज़िक्र था, जिसके साथ ‘गुनाहों का देवता’ की तुलना की गई थी। इस दूसरे उपन्यास को ‘गुनाहों के देवता’ के पाठकों के लिए पढ़ना यदि अनिवार्य नहीं तो अति आवश्यक तो जरूर कहा गया था। ये उपन्यास था – ‘रेत को मछली’।
रेत की मछली एक घिनोना उपन्यास है। इसे पढ़ते समय कितनी चीजों के लिए घिन आती है कहना मुश्किल है। ‘रेत की मछली’ धर्मवीर भारती की प्रथम पत्नी श्रीमती कान्ता भारती द्वारा रचित है। ‘गुनाहों का देवता’ के छब्बीस साल बाद सन् पचहत्तर में ‘रेत की मछली’ आया।
ये उपन्यास धीरे-धीरे आगे बढ़ता हुआ भयावह होता चला जाता है। उपन्यास में नायक है, नायिका है; उनके मध्य का स्नेह है, जिसे वो आजीवन पल्लवित करने की इच्छा रख रहे हैं; सामाजिक दुविधाएं हैं, जिसे नायिका का पिता विजातीय विवाह में अपनी असहमति के रूप में प्रकट कर रहा है। येन केन प्रकारेण विवाह सम्पन्न होता है। नायिका अपने पति और उसकी माँ के साथ उज्ज्वल और सुखद भविष्य की कल्पना के साथ ससुराल आती है। क्यारियाँ खोद कर सुंदर और सुगन्धित पुष्पों की पौदों को रोपती है। उन पुष्प वल्लरियों के मध्य एक जंगली बेल भी उग आती है, उगती चली जाती है, इतनी उग जाती है कि सारी वाटिका के फूलों को खा जाती है। ये बिम्ब भयानक था। ये जंगली लता नायक की मुँह बोली बहन है। वो जिससे नायक ने कभी राखी बंधाई। कहानी बढ़ती है और ऐसा मालूम होता है जैसे कोई विषैला जीव चमड़ी के नीचे रेंग रहा हो। आपको लगता है क्यों पढ़ र��े हो आप ये सब? किस लिए? कहानी कितनी तेजी में विषैली होती चली जाती है आपको मालूम तक नहीं चलता। नायक अपनी मुँह बोली बहन को भोगता है। न केवल भोगता है बल्कि उसके लिए बेहूदगी से भरी तर्कसंगतियाँ भी रखता है। कथानायक अपनी बीमार पत्नी की उपस्थिति में उसी कमरे में उस दूसरी स्त्री को भोगता है जिसे वो समाज में बहन कर रहा है। और वीभत्सता के अगले चरण पर बढ़कर वह अपनी पत्नी को इसमें सहर्ष सम्मिलित होने का आग्रह भी करता है। नायिका की उत्सवधर्मिता दिन प्रतिदिन मरती जा रही है। दिन प्रतिदिन वह मानसिक बीमारी और अवसाद के अंधकार में घिरती जा रही है। उसका हृदय कष्ट के, वेदना के उस रसातल में डूबता जा रहा है जहाँ से उसका लौटना असम्भव है। कथा यहीं अपनी नृशंसता पर नहीं रुकती। नायक आगे अपनी कथित बहन के साथ कई बार अपनी पत्नी की उपस्थिति में सहवास करता है और उसे ये देखने पर विवश करता है, वह अपनी पत्नी का यातना से लिप्त चेहरा देखकर मुस्कुराता है। उस मुस्कान की उपस्थिति को पढ़कर आपके समस्त स्नायुतंत्र में एक सिरहन दौड़ जाती है। नायक के लिए पत्नी और उसकी आने वाली सन्तान उस परस्त्री के सम्मुख गौण हो जाते हैं। नायक अपनी पत्नी को पीटता है, और यह क्रम निरतंरता की ओर चला जा रहा है। इससे भी संतुष्ट न होकर वह अपनी पत्नी को ये लिखने पर विवश करता है कि वो दुष्चरित्रा है, उसके अन्यत्र सम्बंध हैं। कथा में ये सब तब चलता है जब कथा का नायक विश्विद्यालय में प्राध्यापक है, समाज में बुध्दिजीवी के रूप में प्रतिष्ठित है, बहुचर्चित साहित्य का रचयिता है और समाज के प्रति बौद्धिक उत्तदायित्व पर बहस करने वाली गोष्ठियों का अध्यक्ष है।
करीबन सवा सौ पन्ने की ये किताब पढ़ते समय आप इसे बीस बार पटकते हैं। आखिरी के बीस पन्ने पढ़ते समय लगता है अभी एक कुल्हाड़ी आपके सर पर गिरेगी और सर फट जाएगा। इस कथा के नायक को नायक कहा जाना भी न्यायोचित है या नहीं ये तक विवाद मालूम होता है।
इसकी तुलना ‘गुनाहों का देवता’ से की गई है। मैं इससे बचना चाहता हूँ। आरोप है कि ‘गुनाहों का देवता’ पितृसत्ता की ध्वजवाहक है। चन्दर अपने आसपास उपस्थित प्रत्येक स्त्री को बस कामोत्तेजक तनाव देना चाहता है और वही करता है। क्लिष्ट शब्दों में भारी प्रतीत होने वाली चिकनी चुपड़ी बातें करता है। मैं इसमें विश्वास नहीं करना चाहता। मैं आगे बढ़कर विरोध भी करता हूँ। चन्दर को जब तक स्वयं मालूम चलता है कि वो किसी के प्रेम में तब तक वो महानता प्राप्त करने के लालच में त्याग नाम के उपकरण का उपकरण का प्रयोग कर उसे किसी ओर को स्वयं सौंप चुका है। कथा के अंत तक कोई सर्वाधिक त्रस्त मालूम होता है तो वो चन्दर ही है। आरोप ये भी है कि चन्दर को धर्मवीर भारती ने खुद के आधार पर रचा है वहीं ‘रेत की मछली’ उनकी भार्या कान्ता भारती ने अपने निजी वैवाहिक जीवन के ऊपर लिखा है। कथानायक का जन्मदिन क्रिसमस के दिन पड़ता है। गौरतलब है कि धर्मवीर भारती का जन्म भी इसी रोज है। यदि ऐसा है तो ये सचमुच भयानक है।
‘गुनाहों का देवता’ एक सच में कालजयी उपन्यास है। भाषागत उत्कृष्टता से कथा का प्रवाह सबकुछ उत्तम है। उसके चरित्र सुधा और चन्दर हिन्दी भाषियों के लिए परिचित हैं और जब तक हिन्दी भाषा और इसका साहित्य प्रासंगिक रहेगा तब तक ये चरित्र भी परिचित रहेंगे। ‘रेत की मछली’ भाषागत दृष्टि से ‘गुनाहों का देवता’ के सम्मुख कुछ नहीं है। परन्तु यदि ये उपन्यास दस फीसदी भी सत्यता पर आधारित है तो एक बात के निर्णय पर हमें खींच ले जा सकता है कि मानव मूल रूप से दोगलेपन से ग्रसित है। ये डॉक्टर भारती की समस्त विरासत पर एक जोरदार चांटा है।
‘रेत की मछली’ को किसी पूर्वप्रकाशित और बाहुचर्चित उपन्यास की व्याख्या मात्र से यदि मुक्त रखा जाए तो अपने आप में ये एक सीधा परंतु तीक्ष्ण उपन्यास है। सीधे संवाद, सरल बहाव, स्पष्ट कथानक। बिम्ब है तो बस एक, वो जंगली बेल जो सारी फुलवारी खा गई। हर बार उसके उल्लेख से आपका हृदय ऐंठने लगता है। ‘रेत की मछली’ एक ऐसा उपन्यास है जिसे आप किसी तरह निगल तो सकते हैं पर पचा नहीं सकते। ऐसे उपन्यास को पढ़ते और उनके ऊपर टिप्पणी करते समय, लिखते समय बस यही दिमाग में आता है कि क्या इसे किसी को पढ़ने के लिए भी कहा जा सकता है?!
This entire review has been hidden because of spoilers.
Ret Ki Machhli, written by Kanta Bharti, is a stark, psychologically intense novel that delves into the inner life of a woman trapped in the arid expectations of a patriarchal society. The title, which translates to “A Fish in the Sand,” becomes an aching metaphor — portraying a soul meant for emotional fluidity and freedom, stranded in a life that offers no nourishment, no escape.
The protagonist — a woman unnamed, voiceless in many ways — becomes the embodiment of psychological suffocation, bound not by visible chains but by the invisible norms of gender, duty, and silence. Her life unfolds in the domestic space, a space traditionally assigned to women, but Bharti reveals how this space becomes a psychic desert, eroding identity, desire, and the self.
Through deeply introspective narration, Bharti explores themes of emotional alienation, repressed sexuality, social invisibility, and mental stagnation. The woman’s internal world, rich with unspoken fears, quiet anger, and longing for connection, stands in sharp contrast to her outer life — mechanical, thankless, and unchanging. Her silence is not passivity; it is resistance, grief, and slow-burning awareness.
What makes this novel powerful from a psychological standpoint is its raw portrayal of the fragmentation of the self. The protagonist is not mentally “ill” in a clinical sense, but she is gradually disassociating from the version of herself that society demands. Her mind becomes a battleground between survival and authenticity.
Bharti writes with minimalism and restraint — making the novel feel like an echo, a whispered scream. Ret Ki Machhli doesn’t offer resolution, and that is its truth. It portrays the lived experience of countless women whose identities are buried under roles, whose feelings are never validated, and whose silences are misunderstood as acceptance.
Ultimately, this is not just a feminist novel — it is a psychological indictment of how societies quietly erase women by denying them emotional space. Kanta Bharti’s work remains a haunting reminder that not all prisons have bars — some are made of sand, and some, of silence.
This is a disturbing story about the breaking up of a marriage, that's told with vividly upsetting and graphic details. Although the central character aka. the narrator describing the occurrences gives you a feeling that a lot could have been done, and the ultimate destruction happened also because of her cowardice.
this author has a very interesting way with words, unfortunately she uses them to hurt me. quite literally an emotional & a complex read when i tell you, and on a side note [this is not an actual review, but just my 2 cents, as im busy w exam prep rn] while i was reading Gunaho ka Devta, i always sensed there was sumn fishy abt how Dharmveer bharti portrayed himself as chander (never liked that bast@rd), and now after finishing Ret Ki Machli, im 110% sure RKM is counter narrative to GKD, and every idea that book perpetuates, dharamvir bharti is not what he has shown to the entire world, and it breaks my heart how the ‘open ended tragedy’ of the protagonist directly corresponds/coincides w kanta bharti’s real life, ppl who think highly of GKD, they really need to read RKM to know the other side of the story.
दुख की उत्तरोत्तर व्याख्या करती ये किताब चरम पर जा पहुंचती है। प्रत्येक पृष्ठ के साथ दुख का एक स्तर बढ़ाती। मन अगर संयमित ना हो तो अवसाद में डाल सकने की क्षमता है इसमें। लेखकों के भोंडेपन को उजागर करती है, उनका मुखौटा नोचती है और इस हद तक ले जाती है कि घृणा हो जाए। वैचारिक थोथलेपन को उद्घाटित करती है और मानवीय पाशविकता की यथार्थता को मनुष्य का एकमात्र सत्य बताती है। किताब में लिखा अगर एकांश भी भारती जी के सम्बंध में सत्य है तो आपको भारती के सम्पूर्ण साहित्य पर उबकाई आ जाएगी। गुनाहों के देवता के अगर उपासक हैं तो दूर रहें। ये किताब आ��के लिए ईशनिंदा के बराबर है।
The writer of the book has moulded the character of Shobhan on Dharmaveer Bharti who as reported by her ex wife and author of this book once called himself as Indian Sartre. He should have added that he rivalled him as much in sexual partners as in literary popularity.
न जाने कितनी तारीफों और चर्चाओं ने ये किताब पढ़ने पर मजबूर तो किया पर इसे पढ़ने को तैयार नहीं किया। इतने सालों में शायद ही किसी उपन्यास ने मन में इतनी उथल पुथल मचाई हो। उपन्यास यूं तो काल्पनिक ही होता है पर ‘रेत की मछली’ एक–एक शब्द से वास्तविकता झलकती है जैसे लेखिका ने अपना सर्वस्व लिख दिया है। इतनी कातरता और इतनी सच्चाई की कई घटनाओं को पढ़ते हुए आंसू बरबस ही आ गए और उपन्यास समाप्त करते करते जैसे अंतर्मन भी आंखों के साथ भीग गया। कहानी का नायक ‘शोभन’ एक साहित्यकार है, कहते हैं कि एक भावुक व्यक्ति ही अच्छा साहित्यकार बनता है पर जब व्यक्तिगत जीवन की आती है तो वही संवेदनशील व्यक्ति कैसे इस क़दर पशु बन जाता है कि हिंसा पर उतर आए? और नायिका ‘कुंतल’, प्रेम में हारी हुई स्त्री जिसे टूटन की सीमा तक प्रेम में मिली हुई सारी यातना स्वीकार्य है और अंत में ये यातना शारीरिक हिंसा तक भी पहुंच जाती है। ये हिंसा जितना शरीर को चोट नहीं देती उससे कहीं ज्यादा मन को तोड़ देती है, ये वार व्यक्तित्व पर होता है। कुंतल तो इस सीमा तक सहनशील है कि वो इस अवसाद में जाकर भी प्रेम का बंधन तोड़ नहीं पाती। क्या प्रेम किसी को इतना मजबूर कर सकता है? क्या व्यक्ति अपने सामने अब कुछ होते हुए भी उसे सिर्फ इसलिए अनदेखा कर देता है कि वो पूर्व के सुखद क्षणों के मोह में अब तक है? पूरे उपन्यास में एक प्रतीक बार बार आता है, लहलहाते गुलाबों के बीच एक जहरीली कंटीली लता जो धीरे–धीरे सारे पौधों को समाप्त कर देती है। ये लता है ‘मीनल’ जो शोभन और कुंतल के बीच आकर उनके रिश्ते को खोखला कर कुंतल से सब कुछ छीन ले जाती है। पर कोई भी तीसरा व्यक्ति एक विवाह में तब तक अपनी जगह नहीं बना सकता जब तक उसे विवाह में बंधे दो व्यक्तियों में से किसी एक का साथ न मिले। उसे शोभन से वही साथ मिला। और शोभन ने उसके लिए कुंतल को चरित्रहीन तक घोषित कर दिया। एक बार गया व्यक्ति वापस वैसा ही नहीं आता, फिर भी क्यों उस व्यक्ति और प्रेम के विचारों को हम अपने इतने निकट रखते हैं कि वो हमें बार बार तकलीफ पहुंचा सके। क्या सब कुछ छोड़ना इतना मुश्किल होता है? हर एक पुस्तक आपको थोड़ा बदलती है पर इस उपन्यास ने शायद मन में कुछ तोड़ दिया है, उसे वापस जोड़ पाना शायद अब संभव नहीं है।
This entire review has been hidden because of spoilers.
रेत की मछली" पढ़ना केवल एक पुस्तक का पाठ नहीं, बल्कि एक स्त्री के भीतर की चुप्पी, घुटन और अंततः फूट पड़ने वाली आवाज़ को सुनना है। यह किसी कथा का नहीं, एक जिए गए जीवन के ज़ख़्मों का दस्तावेज़ है।
कहानी एक ऐसी लड़की की है जो प्रेम के लिए अपने परिवार की मर्ज़ी के खिलाफ जाकर शादी करती है, लेकिन यह प्रेम जल्द ही धोखे, उपेक्षा और हिंसा की अंधी गलियों में खो जाता है। धीरे-धीरे पाठक की सहानुभूति गुस्से में बदलने लगती है—न सिर्फ़ नायक की क्रूरता पर, बल्कि नायिका की लगातार चुप्पी पर भी। बार-बार मन में सवाल उठता है: आखिर क्यों? क्यों वह औरत सब सहती रही? शायद यह उस दौर की विवशता थी। 1970 के दशक में एक औरत का अपने वैवाहिक जीवन पर लिखना ही एक साहसिक कदम था। और जब उसका पति समाज में एक प्रतिष्ठित लेखक की हैसियत रखता हो, तो इस ‘सच’ को लिखना अपने आप में विद्रोह जैसा है। कांता भारती ने केवल पुरुष की बेवफाई एवं क्रूरता को नहीं दिखाया, बल्कि उस पितृसत्तात्मक ढांचे को उकेरा है जिसमें स्त्रियाँ ही स्त्रियों की दुश्मन बनती हैं, और माँ जैसी सशक्त छवि भी चुपचाप तमाशा देखती रह जाती है।
पढ़ते हुए जब इस पंक्ति पर पहुंची "शोभन फ़ादर पॉल के पास नितांत शिष्टता के साथ इस तरह खड़े थे जैसे गुनाहों की एक बहुत बड़ी बस्ती में एकमात्र देवता खड़ा हो।” तो मन कुछ देर के लिए थम गया। गहरी सांस लेकर किताब बंद की, और कुछ देर टहलने के बाद ही किताब को दुबारा पढ़ने का मन हुआ।
इस किताब ने "गुनाहों का देवता" की आदर्शवादी छवि को पूरी तरह तोड़ दिया। कई बार लेखक की निजी ज़िंदगी को उसके लेखन से अलग करना संभव नहीं हो पाता। "रेत की मछली" पढ़ने के बाद "गुनाहों का देवता" एक आत्म-औचित्य की कोशिश जैसा प्रतीत होता है—जैसे चंदर के ज़रिए लेखक अपने सभी पापों को क्षमा कराना चाहते हों, अपने आपको निर्दोष साबित करना चाहते हों। "गुनाहों का देवता" अब भी एक उत्कृष्ट रचना है, इसमें कोई संदेह नहीं, लेकिन "रेत की मछली" पढ़ने के बाद उसकी प्रामाणिकता वैसी ही महसूस होती है, जैसे किसी सुंदर संदूक को खोलने पर उसमें केवल मकड़ी के जाले और सन्नाटा मिले।
Ret Ki Machhli by Kanta Bharti is a remarkable and deeply moving novel; one that reads almost like a semi-autobiographical account of the author’s own life. Beneath its simple narrative lies a raw, painful truth about what it means to be a woman trapped in a suffocating marriage.
Through the central character, Shobhan is widely believed to be inspired by the celebrated Hindi writer Dharamveer Bharti, Kanta Bharti’s husband. The novel exposes the emotional and psychological abuse she endured. The husband’s manipulation, his cruelty masked as affection, and his exploitation of her innocence paint a harrowing picture of a relationship built on imbalance and betrayal.
Kanta Bharti’s writing burns with emotional intensity and unflinching honesty. She lays bare the pain, suppression, and identity erosion faced by women who are silenced within their own homes. The title itself Ret Ki Machhli (A Fish in the Sand) becomes a haunting metaphor for suffocation, helplessness, and the slow death of individuality in a toxic marriage.
What makes this novel stand apart is its rawness and authenticity. There is no attempt to beautify the suffering or disguise the ugliness of reality. Instead, Bharti’s words flow with a restrained power, allowing readers to feel the suffocation and heartbreak of her protagonist.
In many ways, Ret Ki Machhli surpasses Dharamveer Bharti’s celebrated Gunahon Ka Devta. While the latter romanticizes love and longing, Kanta Bharti’s novel exposes the darker, unspoken truths behind those very emotions. This book is not an easy read nor should it be. It demands empathy, reflection, and courage from its readers. But for anyone interested in women’s inner worlds, in literature born from lived experience, or in the hidden costs of silence, Ret Ki Machhli is an essential and unforgettable work.
आज तो समझ ही नहीं आ रहा क्या लिखूं। ऐसा बहुत ही कम होता है कि किसी किताब को पढ़ने के बाद में नितांत निशब्द हो जाऊं, इस बार ऐसा हुआ है।
कहानी है कुंतल, उसके पति शोभन और मीनल की। कैसे धीरे धीरे वह अपने संसार को बदलते हुए, अपने प्राण प्रिय को किसी और का होते हुए देखती है, घुटती है पर फिर भी वो आखिरी पन्ने तक एक उम्मीद लगाए बैठी रहती है कि शोभन के मन में अभी भी उसके लिए कुछ तो जगह बाकी होगी। ऐसा लगता है जैसे हर अगले पन्ने पर दिल टूट के बिखर जाएगा। आखिर कोई कितना अत्याचार सह सकता है? क्या सीमा होती है उस दर्द की जिसके बाद हम कभी उस संसार में वापस नहीं जाना चाहते जहां कभी हम अपना सर्वस्व न्योछावर किया करते थे? शायद वो सीमा मर्यादा और उम्मीद के आगे तब तक दिखाई ही नहीं देती जब तक हमारे अंदर थोड़ी सी भी संवेदना बची रहती है तब तक बस आत्मसमर्पण की आग में जलते रहते हैं।
मीनल और शोभन से इतनी घृणा हो रही थी कि लग रहा था आगे पढ़ना ही बंद कर दूं। पर फिर भी उम्मीद में आगे बढ़ती गई और दुख गहरा ही होता गया।
ये किताब धर्मवीर भारती की पहली पत्नी कांता भारती ने लिखी है और कहा जाता है कि ये गुनाहों के देवता का एक प्रतिक्रिया स्वरूप है और दोनों की असल जिंदगी पर आधारित है। नहीं जानती इस बात में कितना यथार्थ है कितना नहीं, पर अगर इसका आधा भी है न तो बहुत असहनीय रहा होगा ये अनुभव। 😔
लेखन शैली बहुत ही सुंदर है। अपने अनुभव को इस तरह साझा किया गया है कि अंतरात्मा झझकोर जाती है। अपने छोटे से गार्डन में उगती हुई एक झाड़ी को पूरी बुक में बहुत ही सुंदर तरीके से metaphorically use किया गया है।
ऐसी किताबों का review नहीं किया जा सकता। शोभन और मीनल बहुत ही छिछले लोग हैं जो अपनी करतूतों पर शर्म के पर्दे की झूठी परत भी चढ़ना ज़रूरी नहीं समझते। I hated them with all my heart!
आप अपने risk पे पढ़िए because this book is going to break you!
पर हाँ गुनाहों का देवता पढ़ने के बाद अगर आपको उस ढकोसले करने वाले पुरुष को आईने में देखना हो तो ज़रूर पढ़ सकते हैं।
हाल ही में मैंने कांताभारती का उपन्यास “रेत की मछली” पूरा किया। यह किताब मेरे लिए सिर्फ़ एक पाठ नहीं रही, बल्कि एक तरह से सोच बदल देने वाला अनुभव रही। खासकर इसलिए कि इसे धर्मवीर भारती की कालजयी कृति “गुनाहों का देवता” के उत्तर के रूप में लिखा गया है।
जब मैंने पहली बार गुनाहों का देवता पढ़ा था, तो चंदर और सुधा की करुण प्रेमकथा दिल को छू गई थी। वह रोमानी दुनिया बहुत सुंदर लगती है, लेकिन कहीं-न-कहीं उसमें स्त्री का पक्ष अधूरा सा महसूस होता है। रेत की मछली ने वही खाली जगह भर दी। कांताभारती ने इस उपन्यास में स्त्री की आँखों से प्रेम और जीवन को दिखाया है।
इस किताब ने मुझे सबसे ज़्यादा प्रभावित किया क्योंकि इसमें भावनाएँ कल्पना नहीं, बल्कि सच्चाइयों से टकराती हैं। पात्र आदर्शवादी न होकर बिल्कुल हमारे-आपके जैसे लगते हैं—संघर्ष करते हुए, सवाल उठाते हुए, और अपनी इच्छाओं को ढूँढते हुए। खासकर स्त्री पात्रों की आवाज़ ने मुझे सोचने पर मजबूर कर दिया कि समाज ने उन्हें हमेशा कितनी सीमाओं में बाँधा है।
भाषा सीधी-सादी है, मगर हर वाक्य के पीछे एक गहराई छुपी है। हो सकता है कुछ पाठकों को फुलबगिया की उस लतर ने उबाऊपन अनुभव करा दिया हो लेकिन मेरे लिये ये लेखिका की मनःस्थिति को रेखांकित करने लिए के लिए बेहद महत्वपूर्ण जान पड़ा। पढ़ते-पढ़ते कई जगह मुझे लगा कि यह उपन्यास गुनाहों का देवता की भावुकता को चुनौती देता है और हमें यह समझाता है कि प्रेम सिर्फ़ त्याग या बलिदान नहीं है—यह सामाजिक ढाँचों और असमानताओं से जुड़ा हुआ एक जटिल सच है।
कुल मिलाकर, रेत की मछली मेरे लिए एक आईना रही, जिसमें मैंने न सिर्फ़ साहित्य बल्कि समाज और स्त्री-जीवन का यथार्थ देखा। यह उपन्यास पढ़कर लगा कि प्रेम और संबंधों की चर्चा अधूरी है अगर उसमें स्त्री की अपनी आवाज़ शामिल न हो।
रेत की मछली धर्मवीर भारती की पहली पत्नी कांता भारती द्वारा लिखी गई एक बेहद मार्मिक और सच्ची रचना है। इसमें उन्होंने अपनी ज़िंदगी, ख़ासकर अपनी वैवाहिक जीवन की कड़वी सच्चाइयों को बहुत ही सुंदर और संवेदनशील शब्दों में उकेरा है। किताब की भाषा, भावनाएँ और शब्दों का चयन इतना सजीव है कि हर पंक्ति दिल को छू जाती है।
यह किताब उस दर्द का चित्रण है जो किसी स्त्री को तब होता है जब उसका अपना ही जीवनसाथी उसे धोखा देता है। असल जीवन में धर्मवीर भारती (शोभन) ने कांता भारती (कुंतल) को शादी के बाद अपनी ही भाभी मीनल के साथ धोखा दिया था और यह किताब उसी दर्द की कहानी है। कई जगहों पर यह स्पष्ट संकेत मिलते हैं, जैसे- मीनल का अपने भाई द्वारा डाँटा जाना (“तू वहाँ पढ़ने गई थी या अपने जीजा के साथ सोने?”) या फिर किताब के पेज नंबर 113 पर 24 दिसंबर की रात का ज़िक्र, जहाँ कुंतल कहती हैं: “कल तो तुम्हारा जन्मदिन है।” वास्तविक जीवन में भी धर्मवीर भारती का जन्म 25 दिसंबर को ही हुआ था। ऐसे कई प्रसंग और तारीखें हैं जो किताब और वास्तविक घटनाओं को जोड़ देती हैं।
इस किताब को पढ़कर यह गहराई से समझ आता है कि किसी का साहित्यिक या बौद्धिक कद भले ही कितना ऊँचा क्यों न हो, पर उसकी निजी ज़िंदगी हमेशा वैसी नहीं होती। हमें कभी भी किसी व्यक्ति का मूल्यांकन केवल उसकी प्रसिद्धि या उपलब्धियों के आधार पर नहीं करना चाहिए।
कुल मिलाकर, रेत की मछली एक बेहद ईमानदार, भावनात्मक और खूबसूरती से लिखी गई आत्मकथात्मक रचना है। अगर आप जीवन के सच्चे और दर्दभरे पहलुओं को समझना चाहते हैं, तो यह किताब ज़रूर पढ़ें।
रेत की मछली, कांता भारती बहुत वक्त बाद कोई उपन्यास पढ़ा और पढ़ कर एस लगा की ये पहले क्यों नहीं पढ़ा। बहुत लोग बहुत बात कहते है इस किताब के बारे में। पर मैं सिर्फ इतना कहना चाहती हूँ की ये हमारे देश की Silvia Plath है। लोग कहते है की ये किताब कांता भारती के निजी जीवन की बात है। अगर ऐसा उनका निजी जीवन रहा है तो मैं इतनी तकलीफ़ में किसी भी इंसान को नहीं देख सकती। ये कहानी किसी एक इंसान की कैसे ही हो सकती है ये तो उस वक्त की हर एक महिला की कहानी होंगी जिसने कभी भी बाहर आ कर अपनी आवाज़ ना उठाई हो।
इस कहानी में वो एसबी था जो आज भी औरतों के साथ होता है, आज भी उनके साथ प्यारे के झूठे वादे किए जाते है, आज भी उनकी आवाज़ को दबाने के लिए अलग अलग तरकीबे लगाये जाते है, आज भी उनके साथ domestic violence होता है। आज भी उन्हें एक आदमी के सामने झुकने को कहा ही जाता है। बस आज और उस वक्त में बात एक ही अलग है की आज औरत उतनी चुप नहीं रहती है। आज उसी औरत को जवाब देना आ गया है।
मैं इन सब औरतों को सैलूट करती हूँ जिन्होंने सारी बंधीशों को तोड़ कर अपनी आजादी चुनी और उस आजादी को चुनें के लिए हमे सिख दी है।
कहानी पूरी करते-करते मन भी उसे रेट में तड़पती मछली जैसा हो गया है । यह केवल एक कहानी नहीं है बल्कि एक स्वाभिमानी लड़की के शादी के बाद खोता आत्मसम्मान ,दबते इच्छाएं, टूटते सपने और चुप रहकर जीने का दर्द का मार्मिक चित्रण है। यह समाज की कटु सच्चाई और औरतों की अनदेखी दास्तान को कुछ पन्नों में उजागर करता है । हर पन्ना पढ़ते समय मन में दर्द की लहर उठती है , जैसे कोई रेत में फंसी मछली अपने जीवन की राह खोज रही हो । शादी के औरतें भी अपनी जगह खोजने की इसी तड़प में फंसी रहती है । शादी के बाद बदलता जीवन क्या यह दिखावा है या खोकला सच ? यह वह खोखला सच है जिसे यह पितृसत्तात्मक समाज कभी समझ नहीं सका ।इस समाज की तमाम बंदिशे महिलाओं के सपनों और इच्छाओं को दबाकर सिर्फ दिखावे तक सीमित कर देती है ।
शादी के बाद क्यों लड़की की हंसी खो जाती है ? यह कहानी उसे चुप्पी ,उसे दर्द और उसे असली संघर्ष का आईना है जिसे समाज अक्सर अनदेखा करता है....
Is kitaab me shobhan aur meenal ki neechta, aur kuntal ki chuppi hi padhne walo ko aashcharyachakita aur krodhit karne ke liye paryapt hai... Agar upanyas ke mayine me dekhe to ant tak pratadna sirf saha hai kuntal ne jo ki kuch seekhne yogya nhi, avoid karne yogya hai.
Pr agar is baat se rubaroo ho jaye ki ye kanta ji ne apni niji jindagi aur apne pati pr kataksha likha hai to is kitaab ke mayine hi badal jate hai... Kisi jaane maane insaan ka ye ghinauna roop, jo sabke saamne aa jata hai.
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In the initial part of the book, Kuntal is portrayed as a strong, independent woman who defies her family to marry him. However, in the latter part, her character shifts dramatically, and she is shown suffering like a helpless, uneducated woman.
I have read "Gunahon Ka Devta", and reading "Ret Ki Machhli" afterward offers a completely different perspective. It exposes the stark contrast between the idealism in Gunahon Ka Devta and the author’s troubling real-life personality, which reshapes how one perceives the novel.
Finished this book after reading Gunaho ka Devta. Had a hunch that since this has been written by the first wife of Dharamvir Bharti, it will definitely be something related to their relationship. And I’m sure it is. The book touches you, hits you, traumatises you in myriad ways. You’re disgusted to read what’s happening with the female protagonists in the book. Don’t have enough words to express what I’m feeling rn! A must read for folks who have read GKD.
I started this book after reading Gunahon Ka Devta. The stark difference between the two lies in the way their characters are presented. While Chander evokes sympathy and emotional conflict, here Shobhan mostly evokes anger. His wrongdoings and the way he becomes indifferent to his moral values and responsibilities, all for mere lust, are disheartening to witness.
Definitely, not a pleasant read, but something that will linger for a long time after you have read the book.
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book is very well written . You will connect with characters and also hate some character . You will connect with characters more if you know the history about writer history with dharmvir bharti and you engage with book till the end but if you don't know about writer then your interest may be kill . This book very well show the societal condition of women around 1975 , how evil human can be in lust .
ताकत और कमजोरी से परे हटकर सिर्फ चुप चाप किसी देवता का रूप धारण किए इंसान को जानवर से भी बद्तर बनते देखना, और उस बीच कहीं खुद को पा लेना (दुख और अंधेरे के अनन्त शैलाब के साथ ही सही)। कुछ ऐसा ही एक अनुभव की कहानी है ये, जो साथ ही दुनिया और इंसान के भेस में रहने वाले जानवरों की असलियत भी बखूभी दिखाती है।