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अरे यायावर रहेगा याद

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यात्रा संस्मरण,यात्रा वृतांत

180 pages, Paperback

First published January 1, 1943

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About the author

जन्म : ७ मार्च १९११ को उत्तर प्रदेश के देवरिया जिले के कुशीनगर नामक ऐतिहासिक स्थान में।

शिक्षा : प्रारंभिक शिक्षा–दीक्षा पिता की देख–रेख में घर पर ही संस्कृत‚ फारसी‚ अंग्रेजी और बँगला भाषा व साहित्य के अध्ययन के साथ। १९२५ में पंजाब से एंट्रेंस की परीक्षा पास की और उसके बाद मद्रास क्रिश्चियन कॉलेज में दाखिल हुए।वहाँ से विज्ञान में इंटर की पढ़ाई पूरी कर १९२७ में वे बी .एस .सी .करने के लिए लाहौर के फॉरमन कॉलेज के छात्र बने।१९२९ में बी .एस .सी . करने के बाद एम .ए .में उन्होंने अंग्रेजी विषय रखा‚ पर क्रांतिकारी गतिविधियों में हिस्सा लेने के कारण पढ़ाई पूरी न हो सकी।

कार्यक्षेत्र : १९३० से १९३६ तक विभिन्न जेलों में कटे। १९३६–१९३७ में ‘सैनिक’ और ‘विशाल भारत’ नामक पत्रिकाओं का संपादन किया। १९४३ से १९४६ तक ब्रिटिश सेना में रहे‚ इसके बाद इलाहाबाद से ‘प्रतीक’ नामक पत्रिका निकाली और ऑल इंडिया रेडियो की नौकरी स्वीकार की। देश–विदेश की यात्राएं कीं। जिसमें उन्होंने कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय से लेकर जोधपुर विश्वविद्यालय तक में अध्यापन का काम किया। दिल्ली लौटे और ‘दिनमान’ साप्ताहिक, ‘नवभारत टाइम्स’, अंग्रेजी पत्र ‘वाक्’ और ‘एवरीमैंस’ जैसी प्रसिद्ध पत्र पत्रिकाओं का संपादन किया। १९८० में उन्होंने ‘वत्सलनिधि’ नामक एक न्यास की स्थापना की‚ जिसका उद्देश्य साहित्य और संस्कृति के क्षेत्र में कार्य करना था। दिल्ली में ही ४ अप्रैल १९८७ में उनकी मृत्यु हुई।

१९६४ में ‘आँगन के पार द्वार’ पर उन्हें साहित्य अकादेमी का पुरस्कार प्राप्त हुआ और १९७९ में ‘कितनी नावों में कितनी बार’ पर भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार।

प्रमुख कृतियाँ –
कविता संग्रह : भग्नदूत, इत्यलम,हरी घास पर क्षण भर, बावरा अहेरी, इंद्र धनु रौंदे हुए ये, अरी ओ करूणा प्रभामय, आँगन के पार द्वार, कितनी नावों में कितनी बार, क्योंकि मैं उसे जानता हूँ, सागर–मुद्रा‚ पहले मैं सन्नाटा बुनता हूँ‚ महावृक्ष के नीचे‚ नदी की बाँक पर छाया और ऐसा कोई घर आपने देखा है।
कहानी–संग्रह :विपथगा, परंपरा, कोठरी की बात, शरणार्थी, जयदोल, ये तेरे प्रतिरूप।
उपन्यास – शेखरः एक जीवनी, नदी के द्वीप, अपने अपने अजनबी।
यात्रा वृत्तांत – अरे यायावर रहेगा याद, एक बूंद सहसा उछली।
निबंधों संग्रह : सबरंग, त्रिशंकु, आत्मानेपद, आधुनिक साहित्यः एक आधुनिक परिदृश्य, आलवाल,
संस्मरण :स्मृति लेखा
डायरियां : भवंती‚ अंतरा और शाश्वती।

उनका लगभग समग्र काव्य ‘सदानीरा’ ह्यदो खंडहृ नाम से संकलित हुआ है तथा अन्यान्य विषयों पर लिखे गए सारे निबंध ‘केंद्र और परिधि’ नामक ग्रंथ में संकलित हुए हैं।

विभिन्न पत्र–पत्रिकाओं के संपादन के साथ–साथ ‘अज्ञेय’ ने ‘तार सप्तक’‚ ‘दूसरा सप्तक’‚ और ‘तीसरा सप्तक’ – जैसे युगांतरकारी काव्य–संकलनों का भी संपादन किया तथा ‘पुष्करिणी’ और ‘रूपांबरा’ जैसे काव्य–संकलनों का भी।

वे वत्सलनिधि से प्रकाशित आधा दर्जन निबंध–संग्रहों के भी संपादक हैं। निस्संदेह वे आधुनिक साहित्य के एक शलाका–पुरूष थे‚ जिसने हिंदी साहित्य में भारतेंदु के बाद एक दूसरे आधुनिक युग का प्रवर्तन किया।

Sachchidananda Hirananda Vatsyayana 'Agyeya' (सच्‍चिदानन्‍द हीरानन्‍द वात्‍स्‍यायन 'अज्ञेय'), popularly known by his pen-name Ajneya ("Beyond comprehension"), was a pioneer of modern trends not only in the realm of Hindi poetry, but also fiction, criticism and journalism. He was one of the most prominent exponents of the Nayi Kavita (New Poetry) and Prayog (Experiments) in Modern Hindi literature, edited the 'Saptaks', a literary series, and started Hindi newsweekly, Dinaman.

Agyeya also translated some of his own works, as well as works of some other Indian authors to English. A few books of world literature he translated into Hindi also.

Wikipedia entry

कविता कोश पता

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Displaying 1 - 12 of 12 reviews
52 reviews29 followers
December 27, 2016
एक बात की दुविधा है कि इस पुस्तक की समीक्षा करते समय इसे एक पुस्तक समीक्षा कहा जाये या एक यात्रा वृत्तांत कहा जाये। इसके पीछे कारण यह है कि इस पुस्तक को पढ़ते पढ़ते पाठक लगभग एक यात्रा ही कर लेता है, इतना सजीव चित्रण किया गया है। अज्ञेय जी का नाम हिंदी साहित्य की यात्रा-वृत्तांत विधा के पुरोधाओं में लिया जाता है, जिसमें अन्य नाम है - मोहन राकेश, राहुल सांकृत्यायन, धर्मवीर भारती आदि । भारती जी की 'ठेले पर हिमालय' जिसने पढ़ी हो भुला नहीं सकता। अज्ञेय जी का तो जीवन ही घुमक्कड़ी करते बीता है। भौतिकशास्त्र में पढ़ाई से लेकर सेना में नौकरी तक उन्होंने किया जिसमें उन्हें जीवन के विभिन्न आयामों, विभिन्न पहलुओं का ज्ञान हुआ और यह उनकी लेखनी में भी झलकता है।

'अरे यायावर रहेगा याद?' में आठ यात्रा वृत्तांत दिए गए हैं और सभी में पर्याप्त विविधता है। यात्राओं में असम, बंगाल, औरंगाबाद, कश्मीर, पंजाब व हिमाचल प्रदेश के भूभागों का वर्णन तो है ही साथ ही साथ तमिलनाडु के अति प्राचीन मंदिरों के बारे में भी बताया गया है । विविधता की बात यही है कि पुस्तक की शुरुआत ब्रह्मपुत्र के मैदानी भाग में अवतरण से हुई, फिर बात हिमालय की दुर्गम झील में डेरा डालने की हुई और अंत हुआ एलोरा की गुफाओं में इतिहास खोजने की कोशिश से । पहला लेख जो 'परशुराम से तूरखम' है उसमें अग्येय जी ने यात्रा एक सैनिक के रूप में की थी जबकि 'किरणों की खोज में' उन्होंने भौतिक शाश्त्र के विद्यार्थी के रूप मे लिखा। अन्य कई लेख उन्होंने साधारण घुमक्कड़ के तौर पर लिखा ।

अज्ञेय जी के यात्रा वृत्तान्तों में एक खास बात उनकी विश्वसनीयता होती है। पाठक को एक बार यही लगेगा कि वह अज्ञेय जी के साथ उन पहाड़ों में, उन नावों में घूम रहा है। अज्ञेय जी ने स्थानीय लोगों के साथ उनकी भाषा में बात करके कई स्थानों के बारे में प्रचलित किंवदंतियों के बारे में बताया है । साथ ही साथ आज़ादी मिलने के कुछ वर्ष पहले पश्चिमी पंजाब के कुछ इलाक़ों में बढ़ती हुई विभाजन की माँग का भी ज़मीनी तौर पर आँखों देखा हाल मिलता है। इसके साथ ही अज्ञेय जी को अपने क्षेत्र का भी ज्ञान है जैसा कि हमने 'किरणों की खोज में' में उनको भौतिकी के विभिन्न पहलुओं को छूते हुए देखा है ।

अज्ञेय जी ने एक लेख में पर्यटकों को ज़िम्मेदारियों का भी बोध कराया है। लाहौली लोगों में अपनी संस्कृति के प्रति अभिमान और बाहर से आने वाले लोगों में उसके प्रति अनभिज्ञता का वर्णन अज्ञेय जे ने किया है। उन्होंने इस बात पर चिंता भी व्यक्त की है कि बाहर से आने वाले लोग किस प्रकार से नशा, व्यसन इत्यादि यहाँ पर लेकर आते हैं । माना कि पहाड़ी जनजातियाँ पर्यटकों की जीवन पद्धति के अनुसार विकसित नहीं हैं लेकिन उनमें विकृतियाँ तो नहीं हैं। बिगड़ती परस्थितियों से लेखक का साक्षात्कार कई बार हुआ जब उसके निरुद्देश्य विचरण को कुत्सित मानसिकता वाले लोगों ने अपने ढंग से समझने की कोशिश की ।

अभी तक मैंने हिंदी में ललित निबंध शैली में ही ज्यादातर विचारोत्तेजक लेख पढ़े थे लेकिन इस बार यात्रा वृत्तांतों में कई विचार की सीमा को धकेलने वाली पंक्तियाँ मिलीं । उदहारण के लिए -
यायावर पुरातत्वविद नहीं होते, न पुरातत्व उनके लिए स्वयं एक साध्य होता है, वह केवल दूसरों के संचित अनुभव के फल के रूप में महत्व रखता है । यह महत्व कम नहीं है, और यह कथन पुरातत्व की अवज्ञा तो कदापि नहीं है । तक्षशिला, नालंदा, सारनाथ ये नाम यायावर के शरीर में पुलक उत्पन्न करते हैं, किन्तु इसलिए नहीं कि ये खण्डहरों के नाम हैं, वरन इसलिए कि ये सांस्कृतिक विकास के समष्टि के अनुभव पर आधारित उन्नततर परिपाटियों के आविष्कार के कीर्ति-स्तम्भ हैं । अंततोगत्वा बात एक ही है, किंतु एक नहीं भी है। भेद आव्यन्तिक वस्तु का नहीं है, केवल दृष्टिकोण का है, वस्तु से व्यक्ति के सम्बन्ध का भेद है ।

अज्ञेय जी के यात्रा वृत्तांतों में पर्यावरण का, इतिहास का, साहित्य का चिंतन देखने को मिलता है । उन्होंने प्रचलित ऐतिहासिक गाथा को उपलब्ध प्राकृतिक अवरोधों से तौलने की कोशिश की है और सोचा है कि उस समय क्या हुआ होगा । अब यह चिंता सिर्फ ऐतिहासिक बातों तक ही सीमित हो ऐसा तो नहीं है । साहित्यिक चिंतन यथेष्ट है । बानगी के लिए -
एक वह दिन था, जब कविता स्वाभाविक उद्रेक राह चलते को खींचता था और फक्कड़ कवियों की बानी सीधे लोक-ह्रदय में जाती थी; एक हमारा दिन है कि .. उस लोक ह्रदय के पास भी नहीं फटकते जो वास्तव में जीवन का मूल स्रोत है । क्योंकि जीवन का स्रोत घटना का स्रोत नहीं है, वह चेतना का स्रोत है । हमारी कविता बानी नहीं रही, लिखतम हो गई है ; ह्रदय तक नहीं जाती वरन एक मष्तिष्क की शिक्षा-दीक्षा के संस्कारों की नली से होकर कागद पर ढाली जाती है जहाँ से दूसरा मष्तिष्क उसे संस्कारों की नली से उसे फिर खींचता है ।

अज्ञेय जी की भाषा संस्कृतनिष्ठ है। यात्रा वृत्तांत की शैली कहानीमय है । ऐसा लगता है जैसे अज्ञेय जी कोई कहानी कह रहे हैं, हम सब जिसके पात्र हैं और उत्सुकता से अपना भाग आने की प्रतीक्षा कर रहे हैं । बीच बीच में अज्ञेय जी ने संस्कृत में सूक्तियाँ भी लिखी और हिंदी की कवितायें भी रचीं जो कि उतनी ही अच्छी हैं जितने अज्ञेय जी के यात्रा वृत्तांत । मिसाल के तौर पर अज्ञेय जी की एक कविता का कुछ अंश यहाँ दिखाता हूँ -
एक बार फिर : रातें अँधियारी हो जाएँगी और दिन उदास,
पत्तियाँ पीली पड़ जाएँगी और तने जलमग्न होंगे,
बिच्छू और सांप के फूत्कारों में क्रोध बेबस हो उठेगा,
बाघ आठ को मार डालेगा
और पुजारी की बहू को झँझोड़ कर छोड़ जाएगा,
और कुँए के पास छः भेड़ों की अँतड़ियां सड़ती रहेंगी,
और मानवीय खोपड़ी के आयतन पर
गलगंडों का विस्तार विद्रूप हँसी हँसेगा !
एक बार फिर
लड़खड़ाते तरु-शिखरों, से युग-दर्शी आँखें
मटमैले प्लावन को हेरेंगी-
काल की भेदक व्यथा ही काल को पारदर्शी बना देगी
और झलकेगा एक स्वप्न, जिसमें
फेन का उफान, हैट जायेगा, और बेट वृक्षों की छड़ी-सी अँगुलियों से
रेशम के पालनों पर झूलते हुए उतरेंगे ।


Originally posted at -
http://www.yayawar.in/2015/12/book-re...
Profile Image for Ankita Jain.
Author 37 books61 followers
December 24, 2019
मैं जब भी भारतीय इतिहास की कोई तस्वीर देखती हूँ तो रोमांचित हो जाती हूँ। बड़े-बुजुर्गों से अक्सर "उस ज़माने में वह शहर कैसा था" यह जानने की कोशिश करती हूँ। कोई नदी कैसी थी, कोई गली कैसी थी, वाहन कैसे थे, दुकानें कैसी थीं, घर कैसे थे। अपनी नानी और दादी के घरों की सबसे पसंदीदा जगह वह अटारी रही जिसमें नीचे मिट्टी-गोबर लिपता था और ऊपर खपरैल। इतिहास मुझे रुचता है।

वैसे यह किताब पढ़कर आप सिर्फ देशाटन का लाभ नहीं लेते बल्कि उस समय देश के हालातों और किस तरह बदलती भौगोलिक स्थितियाँ, तरक्की आदि ने देश के रंग-रूप को ऐसा बदला कि कई स्थान अपनी सूरत ही अब ख़ुद ना पहचान पाएँ; यह भी जान सकते हैं।

यही वजह रही कि अज्ञेय को पढ़ने की शुरुआत उनके इस यात्रा-वृत्तांत से की। इस किताब को पढ़ना जैसे सत्तर वर्ष पहले के भारत को एक घुमक्कड़ की नज़र से देखना। यह किताब एक सच्चे यायावर की कहानी है जिसने देश घूमा, सिर्फ देखा नहीं। ढेर सारी भाषाओं का ज्ञान, बाढ़, आँधी, पानी, सोने की जगह, खाना-पानी आदि की परवाह ���िए बगैर उन विलक्षण स्थानों को देखना जिन्हें "टूरिज़्म" के लिए ज़रूरी ना माना जाता हो, लेकिन एक यायावर वहीं स्वांस पाता है। फिर घुमक्कड़ी के लिए संकट से क्या डरना? अज्ञेय भी कहते हैं, "संकट का बोध न होना बहादुरी नहीं है, सतत वर्तमान संकट को पहचानते हुए टिके रहना बहादुरी है।"

किताब में एक बात राजनीतिक स्थिति के लिए भी कही गई है जो इतने वर्षों में रत्ती भर भी नहीं बदली;

"कहावत तो है कि प्रेम अंधा होता है, पर सत्ता कितनी अंधी होती है इसे कोई समकालीन भारत में देखे! शायद कारण यह है कि प्रेम कितना भी अंधा हो, अलौकिक का संस्पर्शन नहीं खोता; और सत्ता पूरी तरह लौकिक हो जाती है इसलिए उसका अन्धापन एकान्त निरलोक होता है..."

उत्तर-पूर्व मैंने नहीं देखा। देखने की बेचैनी है। इस किताब से वह बेचैनी और बढ़ गई है। हालाँकि इतने वर्षों में वे स्थान और उनकी काया पूरी तरह पलट गई होगी लेकिन एक यायावर बनने, सही मायनों में देश दुनिया घूमने का सबक इस किताब से मिला। तो दोस्त अगर घुमक्कड़ी का शौक़ रखतें हैं तो अज्ञेय की यह बात अब गाँठ बांध लीजिए ;

"जनाब, अपना बोरिया-बिस्तर समेटिए और ज़रा चलते-फिरते नज़र आइए।" यह आपका अपमान नहीं है, एक जीवन दर्शन का निचोड़ है। 'रमता राम' इसी लिए कहते हैं कि जो रमता नहीं, वह राम नहीं। टिकना तो मौत है।"
2 reviews1 follower
March 27, 2020
यात्रा वृत्तांत मेरी पसंदीदा साहित्यिक विधाओं में से एक रहा है।
अब तक पढ़े गए यात्रा वृत्तांतों में अज्ञेय का 'अरे यायावर ! रहेगा याद?' सबसे ज़्यादा जंचा है। वजह : अव्वल तो ये कि अब तक जी गई जिंदगी के मेरे interpretation के हिसाब से अज्ञेय का जीवन दर्शन मुझे दिशा देता है। दूसरे, इन यात्राओं का वर्णन मेरे लिए मज़ेदार, अपनी ज़रूरत के हिसाब से informative और अज्ञेय से मेरे weltanschauung के साम्य की ओर इंगित करने वाला रहा है। उनकी चिर-यायावरी प्रवृत्ति मेरे लिए लालच का विषय है।

अज्ञेय experiments को जिंदगी का रूटीन ढर्रा बनाकर चलते हैं। अलीकी जीवन शैली के प्रति उनकी श्रद्धा की एक बानगी देखिए : कलाकार कंवलकृष्ण की साधना का उल्लेख करते हुए अज्ञेय इस बात पर क्षोभ व्यक्त करते हैं कि 'जहाँ घर-गिरस्ती आबाद करना ही जीवन की सफलता हो वहां इस भटक-भटक कर अनुभव-संचय और जीवन के रस-शोध को कौन महत्व देगा!'

अज्ञेय जीवन जीते हैं और उसे देखते हैं- इत्मीनान से और अपनी क्षमतानुसार हर संभव नज़रिए से। उनमें काफी हद तक एक किस्म का passive observer मौजूद है जो जल्दी उद्वेलित नहीं होता, गहरी और बहुपक्षीय जांच पड़ताल के बाद ही किसी निष्कर्ष पर पहुंचता है।

संस्कृति के उजले पहलुओं का वे भरपूर सम्मान करते हैं, हर जगह की संस्कृति की झांकी दिखाते जाते हैं लेकिन अनुचित दिखने वाली चीज का विरोध करने से भी नहीं चूकते हैं।

यायावर के कहीं टिक न पाने के कारण कभी-कभी उदासी लाजिमी है लेकिन अज्ञेय समझते हैं कि 'उसके लिए सब रैन बसेरे हैं, कहीं यात्रांत तो है ही नहीं!'

वो यात्रा में जगहों के सम्मोहन के कारण फिर आने की इच्छा होते हुए भी इस इच्छा की निरर्थकता या सीमा को समझते हैं-'फिर आना वास्तव में कभी होता ही नहीं क्योंकि काल की दिशा में लौटना कभी नहीं होता! प्रत्येक आना नया आना होता है, घटना की आवृत्ति होती है, अनुभूति की नहीं...!'

अज्ञेय की ही तरह सांझ और उदासी का मेरे लिए हमेशा से एक रिश्ता रहा है। इसलिए मेरा मन उनसे गहरे जुड़ जाता है जब वे लिखते हैं- 'सांझ की रंगीनी के साथ उदासी क्यों आती है, क्या इसलिए कि वह रंगीनी अपनी असारता का भी बोध लाती है?'

आजादी अज्ञेय की मूलभूत कंसर्न्स में से एक है। अपने क्रांतिकारी जीवन के बाद और पुलिस के चंगुल में फंसे रहने पर वे इस बात का क्षोभ व्यक्त करते हैं- 'मुझे पहाड़ पर या समुद्र पर या जहन्नम में जाने की अनुमति देने या न देने वाला कोई क्यों है?

अज्ञेय स्थापित नेरिटिव्स को अपनी समझ से जांचते-परखते चलते हैं और यथासंभव स्वतंत्र सोच रखने की कोशिश करते हैं इसलिए किसी भी बने बनाए वाद या प्रोपेगेंडा से कई बार बच निकलते हैं।

उनका इतिहास और मिथक ज्ञान गहरा है। सनातन संस्कृति के चमचम पहलुओं का उनका वर्णन और विदेशी आक्रांताओं के प्रति उनका रोष और दुख मुझे प्रभावित और प्रेरित करता है। भारत की एक सीमा तक tolerant और accepting संस्कृति के सामने वो श्रद्धानवत है।

किताब के 'बहता पानी निर्मला' भाग में अज्ञेय अपने यायावरी दर्शन को सारगर्भित कर देते हैं। वो अपने अलीकीपन में दृढ़-निष्ठा और दुनिया के चालू ढर्रे के प्रति विनम्रता बड़ी सहजता से एक साथ लेकर चलते हैं- 'लोग कहते हैं कि मैंने अपने जीवन का कुछ नहीं बनाया, मगर मैं बहुत प्रसन्न हूं, और किसी से ईर्ष्या नहीं करता!'

भाषा और ज़िंदगी की रवानी का मिलाप अज्ञेय में अद्भुत है- 'मैं भी ऊंघने लगा, ऊंघ का जादुई मरहम मेरे थके अंगों और टूटती हड्डियों को सहलाने लगा! '

अदरक की खताइयां, बाकरखानी, शीरमाल,किशमिश और खसखस वाली मीठी खमीरी रोटी, भुना मांस, उर्द की गर्म कचोरियां, चाय, नारियल के लड्डू, दूध की रबड़ी जमा कर बनाई गई मीठी दही- इन सब का का जगह-जगह रसीला उल्लेख मुझ जैसे चटोरे, खद्दू इंसान को आध्यात्मिक सुख दे डालता है।

अज्ञेय की यात्राएं जीवन भर चलती रही और उनके बाद भी उनके अनेक पाठकों के जरिए अनवरत चलती रही हैं, चलती रहेंगी।

#पोथी_पढ़ि_पढ़ि
Profile Image for Rajiv Choudhary.
41 reviews4 followers
August 30, 2019
नौंवी कक्षा में पहली बार इनकी रचना 'बहता पानी निर्मला' पढ़ा था. जिसका पहला वाक्य आज तक याद है, 'मुझे बचपन से नक्शे देखने का शौक है...' उसके बाद उनकी यात्रा का विस्तार. जिसका असर उस उम्र में काफी हुआ. या यूं कहे पहली बार कोई यात्रा-वृत्तांत लेख इनका ही पढ़ा था. तब यह भी मालूम न था कि यात्रा-वृत्तांत की अपनी शैली और दुनिया है. आज जब यात्रा-वृत्तांत को पढ़ना और घुमक्कड़ी प्रमुख शौक में शामिल हैं. तब इस किताब को पढ़ना (जिसमें 'बहता पानी निर्मला' भी शामिल है) फिर से स्कूली दिनों में ले गया. आज उस लेख का एक्शटेंशन इस पुस्तक में मिला. और पाया की नौंवी कक्षा में पढ़ी गई वह रचना इसी यात्रा-वृत्तांत पुस्तक का अंश है. और खासकर जिस कालखंड एवं परिस्थितियों में इन यात्राओं को अंजाम दिया गया है वह अपने आप में काबिले-तारीफ है.

माझुली की यात्रा और उनका विवरण शायद ही किसी लेखक ने सबसे पहले और इतने डिटेलिंग के साथ की हो. या यूँ कहे माझुली को मुख्यधारा में लाने का काम अज्ञेय ने किया. नामालूम यह जगह असम में आज भी बहुत कम लोगों के नज़र में जाती है. जबकि लेखक का यात्रा-ब्यौरा आज से साठ साल पहले के करीब है, जिससे कल्पना की जा सकती है.

वही 'किरणों की खोज में' कोंसरनाग के यात्रा का विवरण दिलचस्प लगा और गुदगुदाया भी. बाकी कश्मीर, कुल्लू मनाली, असम, एलोरा, बंगाल आदि का दृश्यात्मक विवरण ध्यान खींचता है.

घुमक्कड़ों के साथ हर एक के लिए पठनीय. बाकी अब इनका दूसरा यात्रा वृत्तांत - 'एक बूंद सहसा उछली' पढ़ने की चाह और बढ़ गई.

अंत में बकौल लेखक के बातों का निचोड़ - जिंदगी में टूरिस्ट नहीं ट्रेवलर बनिए... जनाब, अपना बोरिया-बिस्तर समेटिए और जरा चलते-फिरते नज़र आइए. यह आपका अपमान नहीं हैं, एक जीवन दर्शन का निचोड़ है.

'रमता राम' इसीलिए कहते हैं कि जो रमता नहीं, वह राम नहीं. टि���ना तो मौत है...
Profile Image for Himanshu Rai.
73 reviews57 followers
August 18, 2020
पार्श्व गिरि का नम्र, चीड़ों में
डगर चढ़ती उमंगों-सी।
बिछी पैरों में नदी ज्यों दर्द की रेखा।
विहग-शिशु मौन नीड़ों में।

मैं ने आँख भर देखा।
दिया मन को दिलासा-पुन: आऊँगा।
(भले ही बरस-दिन-अनगिन युगों के बाद!)
क्षितिज ने पलक-सी खोली,

तमक कर दामिनी बोली-
'अरे यायावर! रहेगा याद?'

माफ्लङ् (शिलङ्), 22 सितम्बर, 1947
Profile Image for Arun Mishra.
41 reviews
January 4, 2021
साल का अंत आते आते मेरे अंदर का यायावर भी जाग उठा और मैंने एक छोटी किंतु रोचक यात्रा तय की। इस साल कोरोना महामारी की वजह से जो चीज़ सबसे ज्यादा खली वो थी यात्रा ना कर पाने की बाध्यता। इसी यात्रा के दौरान मैंने दो यात्रा वृतांत पढ़े,अज्ञेय जी का वृतांत बड़ा असरदार लगा और सोचा इस पर अपने विचार साझा करूं। आज के तकनीक और संसाधनों से लबरेज़ युग में यात्रा करना काफ़ी सुगम है। रास्ता भटके तो जीपीएस तकनीक से ढूंढ लिया, ये तक पता चल गया कि कितनी दूरी पर कोई होटल, ढाबा आदि है या अमुक जगह से अमुक जगह तक पहुंचने में ट्रैफिक की मौजूदा स्थितिनुसार कितना समय लगेगा। पर इस पुस्तक में लेखक ने अपने सारे यात्रा वृतांत ऐसे काल में पूर्ण किये जब ये सभी सहूलियतें स्वप्न मात्र रहीं होंगी। आज हम कहीं पहुंचने से पहले वहां के मौसम, ख़ान पान आदि की जानकारी प्राप्त कर लेते हैं पर तब ये नामुमकिन था। जहां जो उपलब्ध हुआ वही खाकर आगे बढ़े, जो मिला सहर्ष, बिना किसी ना नुकुर ग्रहण किया। आज एयरबीएनबी के माध्यम से हम यात्रा शुरु होने से पहले कमरा बुक कर सकते हैं लेकिन लेखक महोदय की यात्राएं इतनी आयोजित ना थीं, कभी किसी ड़ाक बंगले में रुक गये तो कभी किसी गांव में घर के बाहर ही बिस्तरा डाल कर आराम किया। और यात्रा में इस्तेमाल होने वाली गाड़ियों का तो जनाब पूछिये ही मत। कभी आर्मी का खटारा ट्रक, कहीं हाथी की सवारी तो कहीं खच्चर की, कहीं किसी डोंगी की सैर और कुछ ना मिला तो ईश्वर प्रदत्त टांगों का ही सुचारू रूप से उपयोग। आजकल समाज में सोलो (अकेले) यात्रा करने का भी एक चलन है, इसके बाद अमुक यात्री गर्व और अहंकार की मिश्रित प्रतिक्रिया सोशल मीडिया पर दर्ज़ करता है। लेखक महोदय ने ऐसी बहुत सी एकांकी यात्राएं आज़ादी पूर्व और उसके पश्चात भी पूरी की। आगे बात करते हैं किताब में दर्ज़ यात्राओं की।

किताब में कुल मिलाकर आठ यात्राओं का वर्णन है, सभी एक दूसरे से भिन्न और अपने आप में अनूठी। पहली यात्रा असम में ब्रह्मपुत्र नदी के किनारे से शुरु होती है, यायावर फ़ौजी है और मिलिट्री ट्रक में सवारी कर रहा है। फ़ौजी ट्रक में सवार होकर असम से आज़ादी पूर्व पंजाब, लाहौर, पेशावर, नौशेरा, खैबर पास आदि की रोमांचक यात्रा का लेखा जोखा है। आज़ादी के बाद इस यात्रा में तय किया हुआ एक हिस्सा पाकिस्तान बन गया और लेखक फ़िर कभी उधर नहीं जा पाये ।

दूसरी यात्रा में यायावर भौतिक शास्त्र का एक विद्यार्थी है और कॉस्मिक किरणों पर अपने शोध हेतु कश्मीर के दुर्गम झीलों तक का सफ़र तय करता है। कश्मीर की नैसर्गिक सुंदरता, गुजरों (पहाड़ों पर रहने वाले) की जीवन शैली आदि का विस्तृत वर्णन है। इस यात्रा में हमें भौतिक शास्त्र के कई सिद्धांतों की भी जानकारी होती है। इस यात्रा में लेखक अपने गुरु और जोशी बंधु के साथ होते हैं। दुर्गम इलाकों और कठोरतम परिस्थितियों में भी हास्य का पुट विद्यमान है जो कि पाठक के तौर पर मुझे अच्छा लगा।

तीसरी और चौथे प्रसंग में लेखक महोदय ने पर्वत प्रदेश हिमाचल के कुल्लू, मनाली, दाना, रोहतांग आदि स्थान नाप डाले। लेखक पहाड़ों पर शांति की तलाश में जाते हैं और उनका मुख्य उद्देश्य लेखन कर्म होता है। यहां आकर उन्हें अलग तरह की अनुभूति होती है। मौत की घाटी में लेखक ने एक अति दुर्लभ यात्रा का भी वर्णन किया है जहां वो बाल बाल बचे थे। पहाड़ों पर रहने वाले मासूम गांव वालों की ज़िंदगी के बहुत से तथ्य हमारे सामने आते हैं। लेखक समतल भूमि पर रहने वाले तथाकथित सभ्य मानव को कोसते भी हैं कि हमने इन पहाड़ियों को कलुषित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। सैलानियों को अपनी ज़िम्मेदारियों का बोध होना नितांत आवश्यक है।

पांचवीं यात्रा महाराष्ट्र में औरंगाबाद के निकट खुल्दाबाद और एलोरा की गुफाओं का सौंदर्य चित्रण है। गुफाओं में मूर्तियों का शिल्प लेखक को खूब आकर्षित करता है। छठी यात्रा में लेखक ने माझुली द्वीप का ज़िक्र किया है, असम स्थित यह द्वीप भौगोलिक परिस्थितियों के कारण अपने आप में अनूठा है। लेखक द्वीप पर रहने वालों से अपनी मुलाक़ात, द्वीप वासियों की दिनचर्या, रहन सहन, ख़ान पान, शिल्प कला आदि की ढेर सारी जानकारी पाठक के सामने रखते हैं। प्रतिकूल परिस्थतियों में भी माझूली द्वीप के बासिंदों के संघर्ष को लेखक ने नमन किया है।

सातवीं कहानी फ़िर से ब्रह्मापुत्र नदी के उफ़ान की गाथा है और आखिरी कहानी में लेखक महोदय दक्षिण के मंदिरों और वहीं की यात्रा का विवरण देते हैं। लेखक का यह भी मानना है कि दक्षिण में लोगों ने अपनी संस्कृति, धर्म, परंपरा आदि का संरक्षण बेहतर तरीक़े से किया है और उत्तर भारत में रहने वालों के लिए यह अनुसरणीय होना चाहिए।

सभी कहानियों में पाठक के तौर पर आपको ऐसा प्रतीत होगा कि आप एक सहयात्री हैं और आप स्वयं इन स्थलों से होकर गुजरे हैं। लेखक ने सैलानियों को आगाह किया है कि जब आप किसी जगह जाते हैं तो वहां की स्थानीय परंपराओं और रिवाजों का सम्मान करें और किसी तरह की गंदगी ना फैलायें, सजग, चिंतनशील और जागरूक बनें। लेखक के प्रसंगों में समाज, इतिहास, प्रकृति, दर्शन, धर्म आदि सब विषयों पर पर्याप्त और अच्छी जानकारी है। लेखक को अपने समय का विद्वान कहना कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।
लेखक की भाषा शैली संस्कृतनिष्ठ है, मुझ जैसे सीमित भाषा ज्ञान वाले औसत पाठक को कई बार शब्दकोश का सहारा लेना पड़ा। पर इसी क्रम में मैंने बहुत से नए शब्द भी सीखे। लेखक ने वृत्तांत में संस्कृत की सूक्तियां और हिंदी की कविताएं भी रची हैं , एक आपके सामने प्रस्तुत है :-

आज भी मेमने आ कर मेरी पुस्तकों को उलटा जाएँगे,
और नीलकंठ किंशुक के ठूँठ पर ऊँघेगा और
सेमल की बुढ़िएँ हवा पर तैरती चली जाएँगी।
आज भी धुँधला आर्द्र प्रकाश बिछल जाएगा
नील स्फटिक खंडों पर चिकनी लचकीली ग्रीवाओं और
तरंगायित नितम्ब-लहरियों के,
ओज भी वस्त्र-खंडों में से कुच-मुकुलों का निर्व्याज सौन्दर्य झाँक जाएगा निरायास स्वच्छन्दता की ही ओट ले कर! आज भी फूस के छप्परों को छितरा जाएगी ढोलकों की गमक,.......

कुल मिलाकर विभिन्न जगहों के साथ ही मुझे और भी ढेर सारी जानकारी प्राप्त हुई और किसी भी घुमक्कड़ प्रवृति वाले मित्र के लिए यह "भटक शास्त्र" पढ़ी जाने वाली किताब है। अंत, मैं लेखक की कुछ पंक्तियों से ही करना चाहूंगा :-

कहते हैं कि मैंने अपने जीवन का कुछ नहीं बनाया, मगर मैं बहुत प्रसन्न हूँ, और किसी से ईर्ष्या नहीं करता। आप भी अगर इतने ख़ुश हों तो ठीक—तो शायद आप पहले से मेरा नुस्खा जानते हैं—नहीं तो मेरी आपको सलाह है, “जनाब, अपना बोरिया-बिस्तर समेटिए और ज़रा चलते-फिरते नज़र आइए।” यह आपका अपमान नहीं है, एक जीवन दर्शन का निचोड़ है। ‘रमता राम’ इसी लिए कहते हैं कि जो रमता नहीं, वह राम नहीं। टिकना तो मौत है।

टिकना तो मौत है, घूमते रहीये
#kitaabgoi
18 reviews
January 6, 2018
Another masterpiece from Agyeya. This is my second book after "Nadi Ke Dweep" from the same author.
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March 5, 2022
सच्चिदानंदहीरानंद वात्स्यायन "अज्ञेय" को प्रतिभासम्पन्न कवि, शैली���ार, कथा-साहित्य को एक महत्त्वपूर्ण मोड़ देने वाले कथाकार, ललित-निबन्धकार, सम्पादक और सफ़ल अध्यापक के रूप में जाना जाता है। इनका जन्म ७ मार्च १९११ को उत्तर प्रदेश के देवरिया जिले के कुशीनगर नामक ऐतिहासिक स्थान में हुआ। बचपन लखनऊ, कश्मीर, बिहार और मद्रास में बीता। बी.एस.सी. करके अंग्रेजी में एम.ए. करते समय क्रांतिकारी आन्दोलन से जुड़कर फरार हुए और १९३० ई. के अन्त में पकड़ लिए गये।

अज्ञेय को पढ़ना सरल नहीं रहा कभी, हिन्दी के क्षेत्र में मैं उन्हें " बहुमुखी प्रतिभा का धनी " कहता हूँ । आजआप सब के सामने उनकी लिक्खी एक पुस्तक की समीक्षा रखने जा रहा हूँ जिसका नाम है " अरे यायावर रहेगा याद "

अरे यायावर रहेगा याद एक यात्रा वृतांत है जिसे ८ भागों में बाँटा गया है । इस यात्रा वृतांत में असम, कश्मीर, बंगाल, हिमाचल प्रदेश के अलग अलग स्थानों का वर्णन तो है ही पर सबसे रोचक बात ये है कि हर घटना की व्याख्या वाला लेखक कभी ख़ुद को सैनिक की तरह तो कभी एक विद्यार्थी की तरह तो कभी घुम्मकड़ की तरह ख़ुद को हमारे सामने प्रस्तुत करता है।

अगर आप ध्यान से देखें तो यायावर का अर्थ और उसके रोमांच को पूरे पुस्तक में अग्रगण्य रखा गया है। हर नए पृष्ठ पर स्थानों से जुड़ी जानकारियाँ भी हैं और लेखक का उससे जुड़ाव भी उभर कर सामने आ रहा है। बात चाहे कुण्डिनपुर की हो जहाँ रुक्मणि ने कृष्ण जी की प्रतीक्षा की होगी या गौहाटी का उल्लेख हो जो वास्तव में गुवा हाटी है, असमीया सुपारी ( गुवाफल ) की प्रसिद्ध प्राचीन हाट। हर स्थान को बारीकी से समय देकर अपने मस्तिष्क में सब जानकारियाँ ग्रहण करने की लालसा अपने चरम पर है।

यायावर आपको भूगोल, इतिहास, लोग गीत, सांस्कृतिक केंद्र, विज्ञान और जहाँ जहाँ विचरण करता जाएगा वहाँ की कहानियों से अवगत कराता चलेगा। फिर वो तक्षिला के कुणाल स्तूप का वर्णन हो या तिष्यरक्षिता का। तिष्यरक्षिता (सम्राट अशोक की पत्नी) ने बोधिवृक्ष को कटवाया था। वह बौद्ध धर्म के समर्थन में नहीं थी। अशोक की एक रानी तिष्यरक्षिता (पालि साहित्य की तिस्सरक्खिता) थी, जो सम्राट् से अवस्था में बहुत ही कम और स्वभाव से अत्यंत कामातुर थी। कुणाल की सुंदर आँखों पर मुग्ध होकर उसने उससे प्रणप्रस्ताव किया। उसके पुत्रकक्ष कुणाल के लिए उस प्रस्ताव को ठुकरा देना अत्यंत स्वाभाविक था। और क्यों उन्होंने कुणाल की आँखों को निकालने का आदेश दिया आप समझ गए होंगे।

जब लेखक हमसे कहता है कि

"विकसित नागरिक सभ्यता के पापों का बोझ अविकसित वन्य जातियों द्वारा ढोया जाता है"।

तो वो उन सभी अनिष्ठ कार्य की और संकेत करते हैं जिससे यायावर हिमाचल या किसी भी स्थान पर जाके वहां की सुंदरता का नाश करने पर उतारू है। उनके लिए घूमना कितना ज़रूरी है इस पंक्ति से पता लगता है कि
" प्राण संचार के लिए पहली शर्त है गति गति गति " !

तो पुस्तक के अंत में वो कहते हैं नक्शों की दुनिया अलग ही होती है उनका मनना है कि

" नक़्शों से यह फ़ायदा होता है कि मन के घोड़े पर सवार हो कर कहीं चले जाइए, कोई रोक नहीं, अड़चन नहीं, और जब चाहे लौट आइए, या न भी लौटिए—कोई पूछने वाला नहीं कि हज़रत कहाँ रम रहे" !

सबसे अनूठी बात जो लगी वो थी दूरदृष्टि ! लेखक ने बहुत बार अलग अलग घटनाओं और कहानियों के द्वारा हमें बताया दिया कि हम किस दिशा की ओर अग्रसर हैं। उन्होने आगरा में नज़ीर अकबराबादी की कब्र देखी और उनके लिक्खे नज़्म को याद करते हुए एक बहुत अलौकिक बात लिक्खी लिखने के संदर्भ में जो हर लेखक के लिए चिंतन का विषय होनी चाहिये। क्योंकि आजकल की रचनाये जीवन धारा के बीचों बीच नहीं रहती जिस तरह नज़ीर साहब की रचना रहा करती थीं।

" जीवन का स्रोत घटना का स्रोत नहीं है, वह चेतना का स्रोत है। हमारी कविता बानी नहीं रही, लिखतम हो गई है; हृदय तक नहीं जाती वरन् एक मस्तिष्क की शिक्षा-दीक्षा के संस्कारों की नली से हो कर कागद पर ढाली जाती है जहाँ से दूसरा मस्तिष्क अपने संस्कारों की नली से उसे फिर खींचता है"।

ऐसी ही न जाने कितने रोचक तथ्यों का समावेश है, कितनी इच्छाओं की प्रभल धारा है, कितने ज्ञानचक्षु को खोलने वाली इंद्रियां हैं और कितने वर्षों की मेहनत और लगन है ये पुस्तक । यहाँ राहुल सांकृत्यायन का अंश भी है और यहाँ से प्रेरणा लेता ट्राउट मछली को पकड़ने का ख़्याल पालता शायद कृशन चन्द्र की पुस्तक 'मेरी यादों का चिनार' का क़िरदार भी होगा। जाते जाते उनकी ही पुस्तक की एक पंक्ति आप सब के लिए छोड़ जाता हूँ

" ‘सृष्टि का सिरताज मानव’ शक्ति के घोड़े पर चढ़ कर पतन के कितने गहरे गर्त में जा सकता है, इस की कोई सीमा नहीं है…"

©® तरुण पाण्डेय
© Zindagi Ek Kavita
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13 reviews
July 7, 2024
आपके जन्मदिन के दिन आपकी किताब को पूरा कर रहा हूँ, यायावर! साथ ही अपनी भी एक यात्रा के बढ़ते कदमों की आहट सुन पा रहा हूँ। आपका लेखन अच्छे-भाले घर-बैठे सुस्ताते मानव के पैरों में भौंरी पैदा कर देगा। काव्योचित अनुरंजनाओं से लबालब इस किताब का स्तर आप इस बात से निर्धारित कर सकते हैं कि इसको समाप्त करने साथ ही इसके हाइलाइट्स को दोबारा पढ़ना प्रारम्भ कर दिया। प्रत्येक पृष्ठ पर इतनी सुंदरता और भाषा-गौरव है कि साहित्यिक रुचिवान आराम से अमृत-स्नान कर ले।


ठीक ही लिखा यायावर आपने कि ― ‛केवल भौगोलिक प्रसार की चादर पर यात्रा-पथ की गोट टाँक देना भी काफ़ी नहीं लगता जब तक कि उसके द्वारा कोई आकार उभर कर न आए। यात्रा वही सफल गिननी चाहिए जो किसी अर्थवत्ता का आभास दे सके।’ ― इसका आशय यह कि यात्राऐं इतनी कोरी न हों कि हम मात्र उनको मात्र इंस्टाग्राम के पोस्ट बढ़ाने का और मित्र-मंडली में अंधे-अभिमानगत फूलने का एक साधन बनाकर रह जायें। यात्राऐं जितनी बाहरी हों उससे कई ज़्यादा भीतरी हों। जितनी बाह्य इमारत, पहाड़ और बगीचों को निहारने की हो उससे अधिक स्वयं को टटोलने और समझने की हों।


इस किताब में आपने अपनी लाहौर, कश्मीर, पंजाब, औरंगाबाद, बंगाल, असम आदि प्रदेशों की यात्रा का वृत्तांत एवं संस्मरण जिस नूतनता और सहित्यिकरूप से पिरोया है उनका एक गहरा असर पाठक के मन में छा जाता है!


अक़्सर हम अपनी यात्राओं के अंत में उदास हो बैठते हैं क्योंकि हमारे पुराने जीवन के भूत हम पर हावी होने लगते हैं लेकिन यायावर ने मेरे बालों को सहलाते हुए कहा कि ― ‛यायावर का मन स्तब्ध था। उसके लिए सब रैन-बसेरे हैं, कहीं यात्रान्त तो है ही नहीं, इसलिए कहीं से चलने पर मन उदास होना निरर्थक है; किंतु किसी-किसी पड़ाव पर जो शांति और स्नेह मिल जाता है, उसका आकर्षण तो बना ही रहता है...रहे, मगर राह पर जो आज मिला, उसे आज की लब्धि नहीं, कल का पाथेय मानना होगा, और चलना होगा...चल यायावर, चल! कल का पाथेय मिला है तो कृतज्ञ हो, प्रणाम कर और आगे बढ़!’ ― यह शब्द भी किसी पाथेय से कम नहीं। 


इस किताब को आप लोग न पढ़ें। काश, मैं इसे स्वयं के लिए मात्र सीमित कर दूँ। कितना स्वार्थी विचार!...रहे!


आपका प्रश्न था कि 'अरे यायावर रहेगा याद?’ तो उत्तर सिर्फ इतना कि ‛हाँ यायावर, रहेगा याद!’


अस्तु
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83 reviews3 followers
September 7, 2020
Awesome.. a travelogue or novel.. takes you through all the places he passes through and that too with a good conversation.
Profile Image for Arvind Yadav.
17 reviews
April 24, 2023
नई दिल्ली..सबकी वह भाभी, जो एक ग़रीब की जोरू नहीं है ! जिसकी मुस्कान की अपेक्षा सबको है, लेकिन जिससे ठिठोली करने की हिम्मत किसी को नहीं होती !-
अरे यायावर रहेगा याद (अज्ञेय)
Profile Image for Mihir Chhangani.
Author 1 book12 followers
May 26, 2021
A travel memoir full of information, humour, social commentary and movement, this book leaves you with a feeling of packing your bags and following the circuit as the author does so that you can see all that he describes – not just the journey, but the destination as well as the people.

Of course I could not visit all the places which are mentioned or go through the exact roads which the writer travels because: Firstly, this book was written during the 1940s and some places which are described in the book do not exist anymore owing to geological changes. Secondly, there are a lot of places which are now a part of Pakistan. Combining these with the fact that India is going through the second wave of COVID-19 pandemic, it just left me with a yearning to leave as soon as things come back to the normal.

There are 3 key components which make up traveling – journey, people and the destination. Agyeya describes the destinations just as beautifully as he describes the path he takes to reach those destinations, and his fellow travelers. This makes the book a wholesome read since you feel like a travel-partner of Agyeya on his journey where you’re very aware of everything which goes on– even in the mind of the writer.
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