एक कविता संग्रह में अगर ४-५ भी अच्छी रचना मिल जाती है तो लगता है अच्छा रहा| इस एक कविता संग्रह में बीसियों रचनायें मिलेंगी जो मन मोह लेंगी, छाप छोड़ देंगी, उदास कर देंगी, और सोचने पर मजबूर कर देंगी| सर्वेश्वरदयाल सक्सेना ने बहुत कुछ देखा और समझा दिया मुझे और समाज को इन रचनाओं से|
प्रणाम|
बनारस
बहुत पुराने तागे में बंधी एक ताबीज़ ,
जो एक तरफ़ से खोलकर
भांग रखने की डिबिया बना ली गयी है ।
-----------
पोस्टमार्टम की रिपोर्ट
गोली खाकर एक के मुँह से निकला - 'राम'।
दूसरे के मुँह से निकला- 'माओ'।
लेकिन तीसरे के मुंह से निकला- 'आलू'।
पोस्टमार्टम की रिपोर्ट है कि पहले दो के पेट भरे हुए थे।
----------------------
पिछड़ा आदमी
जब सब बोलते थे वह चुप रहता था, जब सब चलते थे वह पीछे हो जाता था, जब सब खाने पर टूटते थे वह अलग बैठा टूँगता रहता था, जब सब निढाल हो सो जाते थे वह शून्य में टकटकी लगाए रहता था लेकिन जब गोली चली तब सबसे पहले वही मारा गया।
राजकमल समूह के प्रतिनिधि कविताएँ संकलन में सर्वेश्वर जी की काव्ययात्रा से गुज़रा जा सकता है. 1949 से लेकर 1981 के बीच प्रकाशित कविताएँ इसमें संकलित है. जिन्हें चुनने एवं संकलन करने में उन्होंने संपादक प्रयाग शुक्ल काे मदद भी किया.
कविताएँ आम लहजे में कहने में राजनीति से घरघोर प्रेरित कही जा सकतीं है. लेकिन इसका फलक विस्तृत है.
और कवि का पक्ष लगभग तय. इंसान के पक्ष में.
इसलिए किसी भी काल खंड, संघर्षों एवं आज के समय में भी यह कविताएँ उतनी ही सार्थक नज़र आती है.
भरी हुई बोतलों के पास ख़ाली गिलास-सा मैं रख दिया गया हूँ।
धीरे-धीरे अँधेरा आएगा और लड़खड़ाता हुआ मेरे पास बैठ जाएगा। वह कुछ कहेगा नहीं मुझे बार-बार भरेगा ख़ाली करेगा, भरेगा—ख़ाली करेगा, और अंत में ख़ाली बोतलों के पास ख़ाली गिलास-सा छोड़ जाएगा।
मेरे दोस्तो! तुम मौत को नहीं पहचानते चाहे वह आदमी की हो या किसी देश की चाहे वह समय की हो या किसी वेश की। सब-कुछ धीरे-धीरे ही होता है धीरे-धीरे ही बोतलें ख़ाली होती हैं गिलास भरता है, हाँ, धीरे-धीरे ही आत्मा ख़ाली होती है आदमी मरता है।
उस देश का मैं क्या करूँ जो धीरे-धीरे लड़खड़ाता हुआ मेरे पास बैठ गया है।
मेरे दोस्तो! तुम मौत को नहीं पहचानते धीरे-धीरे अँधेरे के पेट में सब समा जाता है, फिर कुछ बीतता नहीं बीतने को कुछ रह भी नहीं जाता ख़ाली बोतलों के पास ख़ाली गिलास-सा सब पड़ा रह जाता है— झंडे के पास देश नाम के पास आदमी प्यार के पास समय दाम के पास वेश, सब पड़ा रह जाता है ख़ाली बोतलों के पास ख़ाली गिलास-सा
धीरे-धीरे'— मुझे सख़्त नफ़रत है इस शब्द से। धीरे-धीरे ही घुन लगता है अनाज मर जाता है, धीरे-धीरे ही दीमकें सब-कुछ चाट जाती हैं साहस डर जाता है। धीरे-धीरे ही विश्वास खो जाता है सकंल्प सो जाता है।
मेरे दोस्तो! मैं उस देश का क्या करूँ जो धीरे-धीरे धीरे-धीरे ख़ाली होता जा रहा है भरी बोतलों के पास ख़ाली गिलास-सा पड़ा हुआ है।
धीरे-धीरे अब मैं ईश्वर भी नहीं पाना चाहता, धीरे-धीरे अब मैं स्वर्ग भी नहीं जाना चाहता, धीरे-धीरे अब मुझे कुछ भी नहीं है स्वीकार चाहे वह घृणा हो चाहे प्यार।
मेरे दोस्तो! धीरे-धीरे कुछ नहीं होता सिर्फ़ मौत होती है, धीरे-धीरे कुछ नहीं आता सिर्फ़ मौत आती है, धीरे-धीरे कुछ नहीं मिलता सिर्फ़ मौत मिलती है, मौत— ख़ाली बोतलों के पास ख़ाली गिलास-सी।
सुनो, ढोल की लय धीमी होती जा रही है धीरे-धीरे एक क्रांति-यात्रा शव-यात्रा में बदल रही है। सड़ाँध फैल रही है— नक़्शे पर देश के और आँखों में प्यार के सीमांत धुँधले पड़ते जा रहे हैं और हम चूहों-से देख रहे हैं।
कितना अच्छा होता है
कितना अच्छा होता है एक-दूसरे को बिना जाने पास-पास होना और उस संगीत को सुनना जो धमनियों में बजता है, उन रंगों में नहा जाना जो बहुत गहरे चढ़ते-उतरते हैं।
शब्दों की खोज शुरू होते ही हम एक-दूसरे को खोने लगते हैं और उनके पकड़ में आते ही एक-दूसरे के हाथों से मछली की तरह फिसल जाते हैं।
हर जानकारी में बहुत गहरे ऊब का एक पतला धागा छिपा होता है, कुछ भी ठीक से जान लेना ख़ुद से दुश्मनी ठान लेना है। कितना अच्छा होता है एक-दूसरे के पास बैठ ख़ुद को टटोलना, और अपने ही भीतर दूसरे को पा लेना।
समाज और प्रकृति को एक ही कैनवास पे इतनी खूबसूरती और वास्तविकता के साथ पिरोते है कि रचना मन में रूप लेने लगती है।
तुम्हारे साथ रहकर, भूख, कितना अच्छा होता है, पिछड़ा आदमी, पोस्टमार्टम की रिपोर्ट, रिश्ते, रिश्ता, अपनी बिटिया के लिए दो कविताएँ, पाँच नगर-प्रतीक, इस मृत नगर में, गोबरैले, भेड़िया-3, तुम्हारा मौन, तुमसे, बाँसगाँव, गरीबा का गीत, जूता भाग 1-4, रंग तरबूजे का, हजूरी, मैं नहीं चाहता और 'अन्त में' पहले पाठन में अत्यंत पसंद आयी।
तीन रचनायें कुआनो नदी शिर्षक पे दशकों की कहानियाँ सुनाती है जिसमें गाँव, गरीबी, भूख, मृत्यु, समाज और जनतंत्र का जर्जर ढ़ाचा और ज़िन्दगी के निरंतर चलते रहने की छोटी छोटी कड़ियाँ है। सर्वेश्वरदयाल सक्सेना जी की ये प्रतिनिधि कविताएँ जितनी बार पढ़े आपको एक नया दर्शन ही देगी।
I'm a little dense when it comes to poetry - it doesn't quite speak to me as prose does. Often, it needs musical accompaniment for the imagery to hit the right way. This was written in Devnagari - an additional hurdle. Nonetheless, reading a poem a day from this book has been a reward, and I will hunt for more collections like it.