Embark on a philosophical journey through the life of Socrates with “सुकरात” by Arun Tiwari. In this insightful exploration, Tiwari delves into the teachings, wisdom, and impact of one of history's most influential philosophers, offering readers a nuanced understanding of Socrates and his enduring legacy.
As the pages unfold, immerse yourself in Tiwari's narrative on the life of Socrates. This book is not just a biography; it's a philosophical odyssey that invites readers to reflect on Socratic principles, the pursuit of knowledge, and the Socratic method of questioning that continues to shape intellectual discourse.This isn't just a book on philosophy; it's a guide to timeless wisdom. Tiwari's exploration invites readers to contemplate the relevance of Socratic ideals in contemporary times, fostering a deeper appreciation for the enduring impact of philosophical inquiry.
Now, as you delve into “सुकरात” by Arun Tiwari, you ready to explore the life and philosophy of Socrates through the lens of Arun Tiwari? This book is not just an intellectual journey; it's an invitation to engage with the profound ideas of Socrates and consider their relevance in the context of modern thought.
Open the pages, and let “सुकरात” be your guide in unraveling the philosophical legacy of Socrates, where Tiwari's narrative transports you to ancient Greece, allowing you to witness the intellectual prowess and enduring impact of one of history's greatest thinkers.Whether you are a philosophy enthusiast, a student of history, or someone seeking timeless wisdom, this book offers a compelling exploration of Socrates, illuminating the intellectual landscape of ancient Greece and its resonance in the present.
दुनिया भर के दार्शनिकों में सुकरात का विशिष्ट स्थान है। उनमें सोचने-समझने की क्षमता थी और वह सत्य एवं न्याय की खोज के प्रति दृढ़-संकल्प थे। वह मानते थे कि एक बेहतर विश्व की कल्पना तभी साकार हो सकती है, जब लोग समझदार एवं बुद्धिमान हों। हमें किसी दूसरे के विचारों को यूँ ही स्वीकार नहीं कर लेना चाहिए, बल्कि उनको आलोचनातî
सुकरात कहें कि सोक्रेटीस, अवढव समाप्त नहीं हुई। ईस बात पर कायम हुं की जो ईंसान कुछ लीख नहीं पाया, लिखवा नहीं पाया उसे उसके प्रशंसकों ने सही उंचाई पर पहुंचाया। सुकरात के विचारों में गहराई है, यह गहराई को ओशो ने बखूबी अंजाम दिया है। निर्मल सोच, सचोट वार्तालाप ओर वाद विवाद के साथ सुकरात बहुत कुछ कह गये, ईतने सालों बाद भी आज उपयुक्त है ईसका मतलब यह है कि समाज बदलाव के लिए कतई तैयार नहीं होता है। बदलाव आर्टीफिशियल होतें है, रुहानी नहीं। सेल्यूट एक स्पष्ट विचारक को जीसकी विचारधारा अविरल, अमोघ ओर अविनाशी रहे।
"सुकरात" कोई मात्र जीवनी नहीं, बल्कि मानव विवेक और आत्मा की पहचान का उपक्रम है। अरुण तिवारी ने इस पुस्तक में उस आत्मा का आख्यान रचा है, जो संपूर्ण सत्ता के सामने खड़ी होकर सत्य के पक्ष में विचार और बलिदान का अनोखा संगम बन जाती है।
"सुकरात मरा नहीं, उसने प्रश्न बनकर मानव चेतना में जन्म लिया।"
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विषयवस्तु की दार्शनिक संरचना:
यह कृति सुकरात के जीवन-संग्राम को ऐतिहासिक घटनाओं से आगे जाकर दर्शन और नैतिकता की दृष्टि से विश्लेषित करती है। अरुण तिवारी न तो सुकरात को एक मिथक बनाते हैं, न ही केवल नायक। वे उसे प्रस्तुत करते हैं —
एक प्रश्नकर्ता के रूप में,
एक लोकनायक के रूप में,
और अंततः एक अज्ञेय बलिदानी आत्मा के रूप में, जो कहती है:
"मैं कुछ नहीं जानता, यही मेरी विद्या है।"
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संवादात्मक दृष्टिकोण और लोकतांत्रिक आत्मा:
लेखक ने सुकरात की विचारधारा को समकालीनता के परिप्रेक्ष्य में जोड़ते हुए बताया है कि –
कैसे एक व्यक्ति, जो न किसी ग्रंथ का प्रचारक था, न किसी सत्ता का विरोधी, फिर भी लोकतंत्र को असहज कर गया।
उसका अपराध केवल यह था कि वह युवाओं को सोचने के लिए प्रेरित करता था।
"ज्ञान, जब सत्ता को छूने लगता है, तो वह अपराध बन जाता है।"
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शिल्प, भाषा और प्रस्तुति:
अरुण तिवारी की लेखनी सरल, किंतु बौद्धिक है। वह सुकरात के जीवन को कथा के रूप में नहीं, बल्कि संवाद की शैली में खोलते हैं — जिससे पाठक न केवल पढ़ता है, बल्कि सोचता है, भीतर उतरता है।
पुस्तक में कहीं-कहीं संक्षिप्त दार्शनिक उद्धरण हैं, जो सुकरात की शैली में हैं — जैसे: "सत्य कोई निष्कर्ष नहीं, यात्रा है।"
भाषा में कोई कृत्रिमता नहीं, बल्कि सहज प्रश्नों की कठोरता है।
--- प्रासंगिकता और समकालीन चेतावनी:
आज के युग में जहाँ सत्ता के सम्मुख मौन और सहमति ही पुरस्कार हैं, वहाँ सुकरात हमें सिखाते हैं कि –
"विवेक, जब डरने लगे, तब न्याय मर जाता है।"
अरुण तिवारी यह संकेत देते हैं कि सुकरात की पुनः आवश्यकता है — विद्यालयों में, संसद में, और हृदयों में। क्योंकि आज भी जब कोई किशोर प्रश्न करता है — "क्यों?" तो कहीं कोई सत्ता उसे विरोध मान बैठती है।
--- निष्कर्ष:
"सुकरात" केवल सुकरात की कथा नहीं, यह प्रश्न और विवेक की परंपरा का पुनर्जन्म है। अरुण तिवारी ने इस कृति में नायक नहीं, नैतिक चेतना की मूर्ति गढ़ी है, जो मृत्यु से डरता नहीं, बल्कि उसे अधूरे उत्तरों का उत्तर बना देता है।
जरूर पढ़ें! इस किताब में सुकरात की नजर से दर्शनशास्त्र के वास्तविक अर्थ की अनुभूति बहुत सरल और सहज समझ के साथ प्राप्त होगी। सुकरात कभी जवाब नहीं देता है, बस प्रश्न पूछता है और निकटतम परिणाम तक पहुँचने की कोशिश करता है।
किताब में सुकरात के कुछ कथन इस प्रकार है-
"यह जानना ही असली ज्ञान है कि तुम कुछ नहीं जानते। सच्चे ज्ञान का यही अर्थ है।"
"जीना महत्त्वपूर्ण नहीं, सही तरह से जीना महत्त्वपूर्ण है।"
"अपरीक्षित जीवन जीने के लायक नहीं है।"
"एक बार औरत को आदमी के बराबर बना दो, औरत उससे बेहतर हो जाती है।"
"बुद्धि आश्चर्य से शुरू होती है।"
"साधारण लोगों को लगता है कि यह एहसास नहीं है कि जो अपने पर सही तरह से दर्शन लागू करते हैं, वे सीधे हैं और अपने ही कार्यों से वे स्वयं को मौत के लिए तैयार कर रहे हैं।"
one of the worst book. Why Dr. Kalam agreed to write a forward to this ... only god knows and since writer had worked with him.. no sir pair no continuity , no meaning..