वाणी प्रकाशन प्रस्तुत करता है साठोत्तरी पीढ़ी के अत्यन्त महत्त्वपूर्ण कवि और हिन्दी कविता के 'एंग्री यंग मैन' धूमिल का अन्तिम और दुर्लभ कविता संग्रह 'सुदामा पाँड़े का प्रजातन्त्र'। इस संग्रह के बारे में विष्णु खरे लिखते हैं : "‘सुदामा पाँड़े का प्रजातन्त्र’—कविता तथा संग्रह का यह शीर्षक ही कवि एवं उसके सृजन संसार के बारे में हमें आगाह कर देता है। धूमिल उसमें अपने वास्तविक जन्म-नाम का प्रयोग कर रहे हैं किन्तु वे स्वयं को ब्राह्मणत्व तथा सम्भावित अभिजात साहित्यिकता का प्रतीक ‘पाण्डेय’ नहीं लिखते, न वे ठेठ ‘पाण्डे’ का प्रयोग करते हैं बल्कि अपने आर्थिक वर्ग तथा समाज के व्यंग्य-उपहास को अभिव्यक्ति देने वाले ‘पाँड़े’ को स्वीकार करते हैं। ‘सुदामा’ के अतिरिक्त सन्दर्भों से यह पूरा नाम और कई अर्थ प्राप्त कर लेता है। ऐसे मामूली नाम वाले व्यक्ति का ‘प्रजातन्त्र’ कैसा और क्यों हो सकता है वही इन कविताओं में बहुआयामीय अभिव्यक्ति पाता है। इसमें सुदामा पाँड़े ‘दि मैन हूँ सफ़र्स’ हैं जबकि धूमिल ‘दि माइंड विच क्रिएट्स’ हैं। आप चाहें तो इन पर ‘द्वा सुपर्णा’ को भी लागू कर सकते हैं।”
शिक्षा : प्रारम्भिक शिक्षा गाँव में। कूर्मि क्षत्रिय इंटर कॉलेज, हरहुआ से 1953 में हाईस्कूल।
आजीविका के लिए काशी से कलकत्ता तक भटके। नौकरी मिली तो मानसिक यंत्रणा भारी पड़ी। ब्रेन ट्यूमर से पीडि़त रहे।
धूमिल साठोत्तर हिन्दी कविता के शलाका पुरुष हैं। पहली कविता कक्षा सात में लिखी। प्रारम्भिक गीतों का संग्रह—‘बाँसुरी जल गई’ फिलहाल अनुपलब्ध। कुछ कहानियाँ भी लिखीं। धूमिल की कीर्ति का आधार वे विलक्षण कविताएँ हैं जो संसद से सडक़ तक (1972), कल सुनना मुझे और सुदामा पाण्डेय का लोकतंत्र (1983) में उपस्थित हैं।
धूमिल सच्चे अर्थ में जनकवि हैं। लोकतंत्र को आकार-अस्तित्व देनेवाले अनेक संस्थानों के प्रति मोहभंग, जनता का उत्पीडऩ, सत्यविमुख सत्ता, मूल्यरहित व्यवस्था और असमाप्त पाखंड धूमिल की कविताओं का केन्द्र है। वे शब्दों को खुरदरे यथार्थ पर ला खड़ा करते हैं। भाषा और शिल्प की दृष्टि से उन्होंने एक नई काव्यधारा का प्रवर्तन किया है। जर्जर सामाजिक संरचनाओं और अर्थहीन काव्यशास्त्र को आवेग, साहस, ईमानदारी और रचनात्मक आक्रोश से निरस्त कर देनेवाले रचनाकार के रूप में धूमिल विस्मरणीय हैं।