Maanas ka hans is a brillian attempt to bring forth the life of Goswami Tulsidas. The novel is an attempt to address the complications of religion through Tulsidas while portraying him as a person who was afflicted with all the virtues and vices known to human beings. How Tulsidas finds Shri Ram -- is a question that the author answers in a fashion that can only be termed as brilliant for lack of better word. The best thing about the work is that it doesn't attempt to glorify any God or deity, but simple tries to go into the mind of the devotee -- Tulsidas in this case.
He started off as an author and journalist, but moved on to be an active writer in the Indian film industry for 7 years. He worked as a drama producer in All India Radio between December 1953 and May 1956. At this point he realised that a regular job would always be a hindrance to his literary life, so he devoted himself to freelance writing.
Often cited as the true literary heir of Premchand, Amritlal Nagar created his own independent and unique identity as a littérateur and is counted as one of the most important and multi-faceted creative writers of Indian literature.
बहुत ही सुन्दर और अद्भुत पुस्तक| यह पुस्तक तुलसीदास पर आधारित है| तुलसीदास का ऐसा सरल वर्णन जो अपने आप में इस तरह के गहरे महत्वपूर्ण संदेश को समाहित करता है। यह प्रेरणादायक है और आपको बताता है कि एक अनाथ लड़का कैसे जीवन सबसे महान कहानीकार बन जाता है। सबको अवश्य पढ़ना चाहिए| यह कहानी आपको इस तरह से पिरोए रखती है कि आप को पता ही नहीं चलेगा कि यह कहानी कब समाप्त हुई! मेरे पास अमृतलाल जी की दो अन्य पुस्तक भी है गदर के फूल और खंजन नयन|खंजन नयन सूरदास पर आधारित है|आशा है की वो दो पुस्तकें भी जल्द से जल्द पढ़ूं|
This classic work of Amrit lal Nagar successfully portrays the internal conflicts faced by the most famous Indian poet. Goswami Tulsidas emerges as a human being who attains greatness by undergoing unthinkable hardships in this novel. Most remarkably, the manner in which the questions pertaining to religion and devotion have been dealt in lucid details is exemplary. We also get to know the relationship between the common people and the ruling class. Social, religious and economic details of those days attain tangible form and provide the reader a unique perspective to assess and appreciate the past and present. The bottom line of this magnum opus is unflinching devotion and its power to transform the lives of any individual. At the end, one is forced to joyously exclaim- 'JAI SHRI RAM.'
अपने गुरु (श्री विजय कृष्ण ओझा) जी के सुझाव पर इस नवरात्रि मैंने श्री रामचरितमानस का पाठ प्रारम्भ किया जो कल नवमी के दिन सम्पन्न हुआ और संयोग से आज विजयादशमी के दिन अमृतलाल नागर द्वारा लिखित रामचरितमानस के प्रणेता गोस्वामी तुलसीदास जी की जीवनी भी पढ़कर सम्पन्न कर ली। रामचरितमानस पढ़ने के साथ-साथ इसके लिखे जाने के पीछे की कहानी पढ़ना अत्यंत रोचक रहा। इस प्रकार पाठ करने में और भी आनंद आया।
"मानस का हंस" नामक इस पुस्तक में नागर जी ने तुलसीदास जी के जीवन-चरित्र का बहुत ही भावपूर्ण चित्रण किया है। इसके लिए उन्होंने अवधी मिश्रित खड़ी बोली का प्रयोग किया है। हर सनातनी द्वारा निश्चित रूप से इन दोनों पुण्य पुस्तकों का पठन किया ही जाना चाहिए। धार्मिक दृष्टि के अलावा साहित्यिक दृष्टिकोण से भी ये दोनों पुस्तकें अनुपम हैं।
“मानस का हंस” गोस्वामी तुलसीदास के जीवन पर आधारित, अमृतलाल नागर का एक प्रतिष्ठित बृहद उपन्यास है। एक अच्छा उपन्यास (यहां तक कि एक जीवनी भी) पढ़ने के कई फायदों में से एक यह है कि यह आपको उस विशेष अवधि का एक मनोरम दृश्य देता है। यह उपन्यास भी कोई अपवाद नहीं है। इसकी शुरुआत तुलसीदास के जन्म के समय से होती है जब हुमायूं और शेरशाह के बीच अपना वर्चस्व स्थापित करने के लिए बड़े झगड़े चल रहे थे और नवजात शिशु के जीवन पर इसका भयावह प्रभाव पड़ा था। यदि आप मेरी तरह ही इतिहास के छात्र नहीं रहे हैं और उसके बावजूद आप इस बात में दिलचस्पी रखते हैं कि मुग़लों का शासन कैसा था , या उसका भारतीय समाज/ उसकी प्रथाएँ/ सोच/ जीवन पद्धति पर क्या प्रभाव पड़ा या कि हुमायूँ या अकबर या शेरशाह या जहाँगीर के राज करने के तरीकों में आम जनता के लिए क्या अंतर था, तो यह उपन्यास उस दौर को पहचानने में बड़ी सहायक हो सकती है। रामजन्मभूमि के उद्धार की कोशिशों की चर्चा भी होती है और जब पहली बार तुलसीदास अपने गुरु के साथ अयोध्या पहुँचते हैं तो देखकर अचंभित होते हैं की राजा रामचन्द्र की अयोध्या खंडहर जैसी कैसे हो गयी और यहाँ मुग़ल - पठान क्यों लड़ रहे हैं, किसी और बादशाह की हार जीत का प्रश्न क्यों उठ रहा है। काशी नगरी के संबंध में यह भी बताया गया की राजा टोडरमल के पुत्र राजा गोवर्धनधारी ने सुल्तानों के समय तोड़े गए काशी विश्वेश्वर के मंदिर को फिर से बनवाकर नगर का तेज बढ़ा दिया था। उपन्यास में कहानी कहने का एक बहुत ही अनूठा तरीका अपनाया गया है। तुलसीदास के शिष्य संत बेनीमाधव हर जगह उनका अनुसरण करते हैं। कई बार वह उल्लेख करते हैं कि चूंकि वह कभी भी अपने शिक्षक की तरह राममय नहीं हो सकते हैं, इसलिए वह श्री राम के आशीर्वाद की उम्मीद नहीं करते हैं और इसीलिए वह तुलसीदास को अपनी भक्ति का केंद्र बना लेंगे। इस प्रकार पूरे उपन्यास में, बेनीमाधव, तुलसीदास के जीवन के विभिन्न चरणों में विभिन्न घटनाओं के बारे में स्वयं तुलसीदास से और उनके परिचितों से भी पूछताछ करते हैं और इस प्रकार हमें तुलसीदास के जन्म से लेकर उनकी मृत्यु तक की पूरी जीवन कहानी पता चलती है। यह ध्यान देने की बात है कि संत बेनीमाधव को “मूल गोसाई चरित्र” के लेखक के रूप में स्वीकार किया जाता है और इसलिए नागर जी द्वारा बेनीमाधव को उस व्यक्ति के रूप में चुना जाना, जिसके माध्यम से हम तुलसीदास को जानते हैं, बहुत उपयुक्त लगता है। उपन्यास के पहले अध्याय में परम संत महाकवि गोस्वामी तुलसीदास उनसठ वर्षों के बाद (उनकी उम्र उस वक़्त करीब 90 वर्ष थी) अपने घर कि देहरी पर चढ़ रहें हैं। ईश्वर की कृपा; एक धर्मपरायण स्त्री का पतिव्रत धर्म या हनुमान जी कि प्रेरणा, कारण जो भी रहें हो, रत्ना मैया (रत्नावली ) के प्राण अपने पति के इंतज़ार में अटके थे एवं एक बार मिल लेने के बाद आँखों में अपार संतोष लिए एवं कंठ से सीताराम सीताराम कि अस्फुट ध्वनि निकालते सदा सुहागन रत्ना मैया परम शांति पा कर ब्रह्म लोक निवासी हो गईं। शमशान से लौंटने के बाद बाबा (तुलसीदास) की इच्छा संकटमोचन हनुमान जी के चबूतरे पर सोने की थी, लेकिन आसपास के एकत्र हुए बड़े-बड़े लोग उन्हें अपने शिविर में ले जाना चाहते थे। राजा अहिर (बाबा के समकालीन और पुराने मित्र) बोले कि बाबा यहीं रहेंगे जहां उनका घर है, गाँव है और जन्मभूमी है। यह तीन शब्द बाबा के मन में तीन फाँसों सा चुभा और वो बोले कि घर घरयतिन (पत्नी) के साथ गया, गाँव (राजापुर) राजा अहिर के नाम पर था और जन्मस्थान से जन्मते ही उन्हें माता पिता ने अशुभ समझ निकाल दिया था। राजा ने थोरे झेंप के बाद कहा “तो उसमे बुराई क्या भयी? गाँव से निकले तो राम जी कि सरन में पहुंच गए ।“ पूरी उपन्यास का सार इस एक पंक्ति में ही छिपा है – जब भी कुछ अच्छा हुआ वह राम जी कि कृपा थी और अगर कुछ बुरा हुआ तो राम जी परीक्षा ले रहे थे – इसी विश्वास से तुलसीदास ने अपना पूरा जीवन राम को समर्पित कर दिया। कथा के प्रारम्भ में हुमायूँ का राज स्थापित हो रहा था, पठानों, राजपूतों से मुग़लों की लड़ाइयाँ हो रही थी और संपूर्ण देश में मुगलों द्वारा शासन स्थापित करने के लिए लूटपाट की जा रही थी और आतंक का माहौल था। विकरमपुर (विक्रम पुर), जनपद बांदा में रामबोला (तुलसीदास) का जन्म सम्वत 1589 वि० (सन 1532 ई०) में हुआ था। जन्म लेते ही मुख से ‘राम’ शब्द निकालने के कारण उनका नाम ‘रामबोला’ रखा गया था। रामबोला के पिता पंडित आत्माराम दुबे, प्रसिद्ध ज्योतिषी और विद्वान थे। माता का नाम हुलसी था। रामबोला का जन्म अभुक्त मूल नक्षत्र में हुआ था। अतः पंडित जी की गणना के अनुसार वह माता-पिता के लिए काल बन के आया था। यह बात सच ही साबित हुई क्योंकि राम बोला को जन्म देते ही माता हुल���ी का स्वर्गवास हो गया और पंडित आत्माराम मुग़लों के हाथों मारे गए। पंडित आत्माराम के कहने से ही मुनिया दासी रामबोला को लेकर जमुनापार अपनी सास के पास छोड़ आई थी। रामबोला की शरणदायिनी बूढ़ी भिखारिन को वह पार्वती अम्मा कहते थे। पार्वती अम्मा ने ही उन्हें हर पीड़ा में, हर खुशी में राम-राम जपना बताया और जब भी रामबोला को शक्ति, सामर्थ्य, साहस की आवश्यकता होती वह हनुमान जी की गुहार लगाता। दोनों एक दयनीय से झोंपड़ी में रहते और भीख मांग कर गुजारा करते थे। पार्वती अम्मा ने ही रामबोला को सूरदास, कबीरदास और मीराबाई आदि संतों के भजन याद कराये और इतना ही पढ़ा पायी कि जब भी परेशान हो हनुमान जी को टेरो कि वह तुम्हें राम जी के दरबार में पहुंचा दें। रामबोला की 5 वर्ष की उम्र में पार्वती अम्मा का भी स्वर्गवास हो गया और कुछ दिनों बाद एक छोटी सी बात पर वहीं के पुत्तन महाराज ने रामबोला की बहुत पिटाई की, घर तोड़ा और गाँव से चले जाने को कहा। बहुत देर तक रामबोला बजरंगबली से अपना बदला लेने का निवेदन करने के बाद हतास हो कर गाँव छोड़कर चला गया। रामबोला इधर उधर भटकते, भीख मांगते सूकरखेत (गोंडा) पहुँच गए, वहाँ घाघरा और सरयू के पावन स्थल पर स्थित हनुमान जी के मंदिर पर रहने लगे। उन्होने हनुमान जी से कह दिया कि अब तुम्ही से मांगेंगे और तुम्हारी ही सेवा करेंगे। भक्तगण जो लाई, चना, गुड़ आदि बंदरों के लिए डाल जाया करते थे, वही रामबोला भी बंदरों से संघर्ष कर के खा लेता था। कुछ दिन बाद रामबोला की बन्दरों से दोस्ती भी हो गयी थी। वह कहीं भीख मांगने नहीं जाता था और वहीं मंदिर कि साफ सफाई करता और भजन गाता। हनुमान जी से वह ऐसे बात करता, ऐसी विनती करता जैसे हनुमान जी सब सुन रहें हों। उसी मंदिर में एक साधु बाबा नरहरि दास प्रतिदिन पूजा करने आते थे और उस अबोध बालक को मंदिर में देखा करते थे। बाबा नरहरि दास से रामबोला का परिचय बात हुआ और वह भी रामबोला की बातों और उसकी भक्ति से प्रभावित हुए, फिर बालक को अपने घर लिवा ले गए, साथ रह कर रामबोला जीवन जीना सीखने लगा। बाबा नरहरी दास ने अयोध्या में रथयात्रा के दिन रामबोला का मुंडन और उपनयन संस्कार करवाया। संस्कार समाप्ती पर रामबोला को तुलसी मंडप के नीचे श्री राम की मूर्ति को प्रणाम करने के लिए भेजा गया, जब रामबोला साष्टांग प्रणाम कर रहे थे, तुलसी की एक पत्ती बालक के सिर पर गिर पड़ी। अयोध्या वाले महंत जी ने प्रसन्न हो कर कहा – “उठ उठ बच्चा, तेरा कल्याण हो गया। राम जी ने तेरे मस्तक पर भक्ति – भार डाल दिया है।“ नरहरि दास ने कहा- “………आज से इसका नाम तुलसीदास हुआ।“ इस दौर में जिस बाबर बादशाह ने जन्मभूमी को नष्ट भ्रस्ट किया था उसका बेटा (हुमायूँ) पठानों से हार कर भागा था। मुंडन और उपनयन संस्कार वाले दिन से तुलसीदास की विधिवत पढ़ाई लिखाई शुरू हुई। नरहरि दास तुलसीदास को काशी के प्रकाण्ड विद्वान आचार्य ‘शेष सनातन’ के पास ले जाने का विचार रखते थे जो तुलसीदास को “पंडित” बनाते। इन्हीं दिनों शेरशाह का राज्य स्थापित हुआ और लोगों का यह मानना था की “पठान मुग़लों से अधिक प्रबंधपटु लगते हैं।“ नरहरी बाबा ने जो कहा वह बात आज भी शासकों पर लागू होती है, “नया धोबी कठरी में साबुन। अभी कुछ दिनों तक तो वह अच्छे प्रबन्धक बने ही रहेंगे। उन्हें अपना शासन जमाना है।“ तुलसीदास ‘शेष सनातन’ के पास रहकर भृत्य (सेवक, दास) का कार्य करते थे, और वहीं छत पर बनी एक छोटी-सी कोठरी में रहते थे। रात में पीपल के पेड़ की परछाइयाँ और अलग आवाज़ से डर लगने पर भीषण सर्दी में भी तुलसी के माथे पर पसीना आने लगता था। बजरंग – बजरंग कह कर वह बढ़ते थे और भय पीछे हटता था। “भूत – पिशाच निकट नहीं आवे, महावीर जब नाम सुनावे” इस तरह तुलसीदास जी भूत बाधा दूर करने का मंत्र बनाने लगे। तुलसीदास के सहपाठियों के भय दिखलाने पर वह अमावस्या की आधी रात में हरिश्चंद्र घाट (जहां दाह संस्कार किया जाता था) पर शिव जी के मंदिर में शंख बजाने की चुनौती स्वीकार कर आए। एक दिन पहले उन्होने अपने गुरु से आज्ञा ली और उसी रात हनुमान जी का नाम लेकर मिट्टी की दवात और सरकंडे की कलम से लिखना शुरू किया- “जै हनुमान ज्ञान गुन सागर। जै कपीस तिहुँ लोक उजागर।” और मध्य रात्री तक हनुमान चालीसा पूरी की, जो तुलसीदास (जो करीब 15-16 साल के थे) के तब तक के जीवन का पहला लंबा काव्य था। अगली शाम घर का सारा काम-काज करने के बाद उन्होने गुरु पत्नी से एक शंख लिया और आधी रात में शमशान की जलती बुझती चिताओं के बीच शिव मंदिर की सीढ़ियाँ चढ़ कर और विशाल शिवलिंग के समक्ष खड़े होकर पूरी शक्ति के साथ तीन बार शंख बजा आए। सनातन महाराज के उसी आश्रम में रामबोला अब 23-24 वर्षीय तुलसीदास शास्त्री हो गया था। बाबा नरहरी दास का निधन हो गया था और ‘शेष सनातन’ महाराज ही अब उनके अभिभावक थे। शेष सनातन जी के साले (Brother In Law) और घर और पाठशाला के व्यवस्थापक “मामा जी” तुलसीदास का विवाह कराने की बात सोच रहे थे। तुलसी के विवाह की बात कई जगह चली, तो तुलसीदास ने कहा- “मेरी जन्म कुंडली में साधु होने का योग लिखा है, आई। विवाह करूँगा तो भी मुझे सुख नहीं मिलेगा।” मेघा भगत (तुलसीदास से 8 – 10 साल बड़े) के भंडारे में “मामा जी” और सभी विध्यार्थियों को निमंत्रण था – मिलने पर तुलसीदास प्रभावित तो हुए पर वहाँ एक गायिका का स्वर पावन झकोर बनकर तुलसी के हृदय के पर्दे हिलाने लगा। मेघा भगत के आग्रह पर तुलसी रोज वहाँ जाने लगे, भजन भी गाते लेकिन उनका मन मेघा भगत से ज्यादा मोहिनी की ओर मोहित हो रहा था। बहुत महीनों के आत्म संघर्ष के बाद आखिरकार तुलसीदास मोहिनी को कह पाये, “तुम्हारा कृतज्ञ हूँ मोहिनीबाई, ..............नहीं, मैंने तुमसे प्रेम नहीं किया। मैं वस्तुतः तुम्हारे रूप और गायन कला पर आसक्त होकर तुमसे वह अनुभव पाने का अभिलासी हूँ, जिसे पाकर ब्रह्मचारी गृहस्थ हो जाता है। .............. तुम्हें पाकर कदाचित शीघ्र ही मेरे मन में यह असंतोष भरकेगा कि नारी तृष्णा के कारण मैंने राम को खो दिया।“ उसके बाद तुलसीदास मेघा भगत के पास गए और उनसे काशी से कहीं दूर ले चलने का निवेदन किया। तुलसीदास फिर शेष सनातन की आज्ञा ले कर मेघा भगत और कैलाश नाथ के साथ काशी छोड़ कर तीर्थाटन पर निकाल गए। सब लोग मानसरोवर गए, फिर बद्रिकाश्रम आदि होते हुए हरद्वार पहुंचे। वहाँ सुनने में आया कि हुमायूँ ने दिल्ली फिर से जीत ली लेकिन उसकी मृत्यु के पश्चात हेमू बक्कल को गद्दी पर आसीन किया गया था, दिल्ली पृथ्वीराज चौहान के 300 वर्ष बाद फिर स्वतंत्र हुई थी। आपस में आम सहमति न बनने के बावजूद सब दिल्ली की ओर प्रस्थान कर गए। कुरुक्षेत्र में उन दिनों भीषण अकाल परा था। त्राहि त्राहि करती प्रजा एक हिन्दू राजा से उम्मीद कर रही थी। लेकिन एक जीर्ण शीर्ण व्यक्ति ने जो कहा वह आज भी उतना ही सत्य है, “......... हिन्दू – मुसलमान तो हम – तुम पंच होते हैं, राजा – राजा होता है।“ हेमचन्द्र महाराज के भरतपुर के पास एक गाँव में पड़ाव की बात सुन सब उस तरफ चले और रास्ते में एक गाँव में रूक गए। रात में ही वह गाँव मुग़लों की एक टुकड़ी के कब्जे में आ गया और सभी गाँववासी (तुलसीदास आदि के सहित) बंदी बना लिए गए। वहीं तुलसीदास को पता चला कि उनका सहपाठी कृष्ण भक्त कवि नंददास सिंहपुर (इस स्थान से करीब 25 कोस) नाम के एक गाँव में परेशानी में फंसा हुआ था। बाद में खबर आई कि पानीपत के युद्ध में मुग़लों की जीत हुई, हेमचन्द्र विक्रमादित्य पकड़ा और मारा गया। गाँववालों को पकड़कर ले चलने वालों में कुछ उज़्बेक सिपाही थे जिनमें थोड़े वहाँ प्रचलित बौद्ध संस्कार को जानते और मानते भी थे, तो पहले मेघा भगत को छुड़ाया और बाद में अ��नी ज्योतिषी विध्या का प्रभाव और सच्चाई दिखा कर तुलसी और कैलाश नाथ क़ैद से छूट पाये। यहीं पर अकबर की कुंडली देख कर तुलसीदास ने कहा, “राजों – सम्राटों में भी ऐसी जन्मकुंडली किसी बिरले पुरुष की ही होती है..........यह सम्राटों का सम्राट होगा।...................“ मेघा भगत को कैलाश नाथ के साथ वापस काशी के लिए रवाना कर तुलसीदास तीसरे दिन दोपहर तक सिंहपुर के निकट पहुँच गए। नंददास को उसके वेदना से मुक्त करा कर तुलसी मथुरा ले गए और नंददास वहाँ रम गए। वहाँ पर तुलसीदास को भक्तवर सूरदास जी के दर्शन हुए और उनके श्रीमुख से उनका एक पद सुनने का सौभाग्य भी मिला। वहाँ नं���दास से कृष्ण और राम भक्ति की प्रतिद्वंदीता से बचने हेतु तुलसीदास पहले अयोध्या, फिर वराह क्षेत्र, फिर प्रयाग होते हुए अपनी जन्म भूमि को याद कर विकरमपुर पहुंचे। जन्मस्थान, माता पिता आदि के संबंध में बातचीत के बाद वहाँ राजा भगत ने तुलसीदास को पहचाना। राजा भगत ने कहा की पहले कई ब्राह्मण परिवार रहते थे अब गाँव में कोई नहीं है तो एक बस्ती फिर बसाई जाए। तुलसीदास की प्रेरणा से उसका नाम राजापुर रखा गया। परंतु एक जगह रहने के नाम पर, घर गृहस्ती के सपने से भी तुलसीदास को डर लगता था। राजा भगत ऐसी जगह तुलसीदास के लिए कुटी बनवा रहे थे जिस जगह चित्रकूट जाते समय राम जी नाव से उतरे थे और सीता जी और लक्ष्मण जी के साथ विश्राम किए थे। राम के नाम से जुड़कर तुलसीदास में बच्चों सी अकुलाहट रही और फिर वह वहाँ राम कथा बाँचने लगे। जो आमदनी होती थी, उसका हिसाब-किताब राजा भगत रखते थे और कहते थे कि यह मेरी आनेवाली भौजी की है। तुलसीदास की बढ़ती लोकप्रियता के कारण राजापुर और आसपास के गाँवों के ब्राम्हण नाराज होने लगे थे। कई बार उन्हें शारीरिक नुकसान पहूंचाने की भी कोशिश की, किंतु सब असफल रहे। तुलसीदास की तेजवान सूरत, गोरी चिट्टी कसरती देह, प्रवचन और ज्योतिष विध्या से प्रभावित होकर बहुत स्त्रियाँ भी आने लगीं उनमें चम्मो सहुवाइन जैसी सेठानियाँ, राजकुँवरी जैसी रानियाँ डोरे डालने लगी थी, लेकिन तुलसीदास सुरक्षित रहें। तुलसीदास और राजा भगत के प्रयत्नों से हनुमान जी की मूर्ति प्रतिष्ठा का आयोजन किया गया और उसमें हवन के लिए जमनापार के पंडित दीनबंधु पाठक जो तुलसीदास के पिता के समकालीन थे को घर जा कर बुलाया गया। एक दिन पाठक जी ने तुलसीदास से उनके घर पर रहकर उनके गाँव में वाल्मीकि रामायण पढ़ने का आग्रह किया, तो उन्होंने स्वीकार कर लिया। तुलसीदास भी अपनी ज्योतिष विध्या से यह जान गए थे कि उनका विवाह होगा भले ही वह ऐसा चाहते नहीं हों। पाठक जी की आसपास के गाँव में ही नहीं बल्कि बांदा से चित्रकूट तक उनकी बड़ी प्रतिष्ठा थी, वह विदुर थे और अपनी एकमात्र कन्या को एक सुपात्र को सौंपना चाहते थे। पाठक जी की युवा सुशील सुकन्या रत्नावली को पहली बार देखते ही तुलसीदास के हृदय में मचती हुई हलचल थम गयी। राजा भगत के प्रयत्नों से तुलसीदास का विवाह रत्नावली से विधि-विधान के साथ संपन्न हो गया। पंडित दीनबंधु पाठक के कोई पुत्र न था, उनहोंने अपनी पुत्री रत्नावली को ही अच्छे से पढ़ाया लिखाया था और कहीं मन में उनकी एक आस थी की कोई लड़का घर जमाई बन कर उनकी पीढ़ी संभाल ले, लेकिन तुलसीदास से यह उम्मीद रखना भी बेमानी था। दिनोंदिन उनकी ज्योतिष विध्या की प्रसिद्धि बढ़ती गयी और उनके पास मुगल शासक और पठान भी अपनी ग्रह चाल जानने आते थे। तुलसीदास की प्रसिद्धि और समृध्दि से उन्हीं का चचेरा साला गंगेश्वर जलने लगा था। उसे लगता था की पंडित पाठक के बाद उसे ही उनकी गद्दी मिलनी चाहिए थी। तुलसीदास और गंगेश्वर में अक्सर तना-तनी बनी रहती थी, रत्नावली होशियारी से समझौता करा दिया करती थी। रत्नावली द्वारा गंगेश्वर की गलती पर भी उसका समर्थन करने पर तुलसीदास दुखी होते थे, लेकिन रत्नावली का यह मानना था कि, “पीहर का कुत्ता भी प्यारा लगता है, यह तो मेरा भाई है।” अपनी मायके की गलतियों में भी समर्थन देने से तुलसीदास को रत्नावली के प्रति दुख हुआ। मन में कहीं रत्नवाली को यह खेद भी था कि अगर वह पुत्र होती तो पंडित पाठक कि पुश्तैनी गद्दी खाली न होती। कुछ समय बाद रत्नावली ने एक शिशु को जन्म दिया, जिसका नाम रखा- ‘तारापति।’ बहुत दिनों तक अपने मन के द्वंद्व से जूझने के बाद तुलसीदास ने यह निश्चय किया कि वह काशी को अपना कार्यक्षेत्र बनाएँगे और इस बीच रत्नावली अपने पीहर में रहेगी और साथ में अपने वृद्ध पिता दीनबंधु पाठक की सेवा भी कर लेगी। बहुत परेशानियों का सामना करते हुए तुलसीदास ने अपनी भक्ति और अपने ज्ञान के बल पर काशी में बहुत नाम और द्रव्य कमाया। फिर अपने पुत्र और उससे भी बढ़कर रत्नावली को याद करते हुए राजापुर के लिए निकल गए। असल में यहाँ वह अपने रुपए पैसे राजा भगत के यहाँ जमा करने आए थे क्यूंकी रत्नावली तो अपने पीहड़ में रह रही थी। तुलसीदास को राजा भगत ने बहुत समझाया कि “जमाईराज का बे बुलाए पहुँचना उचित नहीं”, पर तुलसीदास रात भर का भी सब्र न कर सके। तेज बारिश में नदी पार कर आधी रात वह अपने ससुराल पहूंचे और बहुत खटखटाने पर द्वार खुला। उनके साले रतनेश्वर, उसकी पत्नी और रत्नावली सबने तुलसीदास के उतावलेपन का मज़ाक उड़ाया। अकेले में भी रत्नावली ने कई बातें तुलसीदास को कुछ हंसी - दिल्लगी में तो कुछ गंभीरता से कहीं। इन्हीं में से कोई बात तुलसीदास के कलेजे को छू गयी और वह मन ही मन अपने को “कामी” और राम को छोडकर “चाम” (Skin / Female Body) चाहने वाला समझने लगे और अपने आप को मन ही मन धिक्कारने लगे। उसके बाद रत्नावली के बहुत मनाने कि कोशिश के बीच उन्होने मन ही मन ठान लिया कि अब वह प्रेम का निष्काम रूप देख कर ही रहेंगे, “अब लौ नसानी अब न नसयहौं। राम – कृपा भव – निसा सिरानी , जागे पुनि न डसयहौं। “ (व्याख्या - अब तक तो यह आयु व्यर्थ ही नष्ट हो गई, परंतु अब इसे नष्ट नहीं होने दूँगा। श्रीराम की कृपा से संसाररूपी रात्रि बीत गई है, अब जागने पर फिर माया का बिछौना नहीं बिछाऊँगा।) आधी रात को पत्नी और बच्चे को गहरी नींद में सोता छोर कर तुलसीदास घर का दरवाजा धीरे से बंद कर चोर की तरह निकल गए और अब उनके सामने एक मुक्त संसार था। रास्ते में शारीरिक और मानसिक कष्ट सहते हुए आखिरकार वह चित्रकूट पहुँच गए। वहाँ तुलसीदास एक पर्वत के सूने कोने पर किंकर्तव्यविमूढ़ बैठे थे, तब उन्हें एक साधु ने सलाह दी की कुछ दिनों तक अपने पोथियों के ज्ञान को भूल जाओ और सिर्फ “राम कहो, राम सुनो”। नतीजा यह हुआ कि तुलसीदास हर परिस्थिति को श्रीराम के लिए अपने मन में आस्था और उत्साह बढ़ाने के मौके कि तरह उपयोग करने लगे। एक दिन राजा भगत ढूंढते हुए वहाँ पहुँच गए, तुलसीदास ने कहा कि फिर वही आग्रह (घर वापस चलना) करने आए हो? तब राजा भगत ने बताया कि तुलसीदास जी का बेटा तारापति “बड़ी माता” (Small Pox) के कारण गुजर गया और रत्नावली सिर्फ एक बार दर्शन कि अभिलाषी है। तुलसीदास फिर भी घर न गए और बहुत दबाव बनाए जाने पर उन्होने चित्रकूट भी त्याग दिया। चलते-चलते तुलसीदास जगदंबा के नैहर जनकपुरी पहुँच गए। वहाँ कुछ दिनों के प्रवासके बाद कुछ समय सीतामढ़ी में बिताया जहां राम जी की आज्ञा से लखनलाल जगदंबा को वाल्मीकि जी के आश्रम में छोड़ गए थे। वहीं पर स्वप्न में सीता माँ के दर्शन करके तुलसीदास ने कहा- मेरा मार्ग मुझे दिखाओ अम्ब। सीता माँ ने उत्तर दिया- अयोध्या जाओ, तुम्हारी मनोकामना अवश्य पूर्ण होगी। फिर उन्हें हनुमान जी जो कपीश्वर से कवीश्वर (वाल्मीकि) बन जाते हें - दिखाई पड़े। उन्होंने कहा कि जन की भाषा में रामायण की रचना करो। अयोध्या में जीवन यापन के लिए उन्होने रामानुजी संप्रदाय के मठ में कोठारी बन गए। राम को ध्यान में लाने का आग्रह दिनोंदिन बढ़ता गया। तुलसीदास जी की ख्याति एक खरे भगत के रूप में फैलती जा रही थी जो राम जन्मभूमी वाली मस्जिद के पास एकांत में बैठा बैठा माला जपा करता था। इसी भक्ति के अपमान के कारण तुलसीदास ने वह स्थान छोड़ दिया। लेखक अमृतलाल नागर जी ने मार्मिकता के साथ लिखा- “ माँग कर खाना, रात में राम जन्मभूमि के ऊपर बनी मस्जिद के बाहर फकीरों के बीच में सोना, यही उनका जीवन क्रम बन गया।” इस बीच तुलसीदास ने अकाल और ऐसी भयानक त्रासदियाँ देखी की जी थक गया। यह अकाल भी इंद्र का कोप नहीं था बल्कि राज-समाज की ऐश्व��्या-लिप्सा थी। रामघाट पर तुलसीदास ने एक बूढ़े पंडित जी को अपना पिता तुल्य माना और उनकी आसन पर बैठकर पुरानों की कथा, राम जी के बाखँ, अपने रचित दोहे कविता और बीच – बीच में वाल्मिकीय रामायण के श्लोक भी गाते चलते थे। यहाँ भी तुलसीदास की अयोध्यावासियों के बीच बढ़ती लोकप्रियता से पुराने पंडित दुखी हो गए और उन्हें नीचा दिखने और बदनाम करने का प्रयास करने लगे। उन श्रोताओं में से कुछ लोगों ने कहा कि बंगभाषा में और द्रविड़ भाषा में भी रामायण है सो हमारी बोली में भी रामायण कि रचना होनी चाहिए। दोहे चौपाइयों के प्रति जन मानस का प्रेम देखकर तुलसीदास ने यह निर्णय किया कि रचना दोहे चौपाइयों में ही रची जाएगी। मुग़ल शासकों के द्वारा नवरात्रि आरंभ होते ही अयोध्या के किसी भी सार्वजनिक स्थान पर राम कथा सुनने पर पाबंदी लगा दी जाती थी। तुलसीदास को इस बात से असह्य पीड़ा हुई। प्रभु राम कि कृपा से राम नवमी के दिन ही शहँशाह अकबर के दिल्ली दरबार से सरकारी आदेश आया कि बाबरी मस्जिद के भीतर मैदान में चबूतरा बना कर लोग उसपर नवमी के दिन राम जी कि पूजा कर सकते हैं। और राम जी का नाम ले कर तुलसीदास ने रामचरितमानस कि रचना प्रारम्भ कि, जिसके संबंध में स्वयं तुलसीदास ने लिखा है- “संबत सोरह सै इकतीसा। करहुँ कथा हरि पद धरि सीसा।।” (बालकाण्ड 02/34) (सम्वत 1631 वि० = सन 1574 ई०) उपन्यास का अंतिम अंक अश्रुपूरित है। तुलसी की उम्र काफी हो चुकी थी। तुलसीदास कराहते हुए कहते थे कि सुख से दुख भला, जो राम को याद करा देता है। वो स्वप्न देख रहे थे कि गणेश फिर क्रमशः सूर्य, शिव-पार्वती, गंगा-यमुना, काशी, चित्रकूट आदि की झलकियाँ एक के बाद एक आ रही थीं। तुलसीदास यह सब स्वप्न में देखकर हनुमान जी को विनय पत्रिका देते हुए कहते हैं कि इसे श्रीराम केपास पहुँचा
अद्भुत पुस्तक । बालक रामबोला से गोस्वामी तुलसीदास जी बनने की बहुत ही भावपूर्ण रचना जो प्रारंभ से अंत तक बांधे रखती है। ऐसा लगा की तुलसीदास बाबा के साथ सोरो चित्रकूट अयोध्या काशी हर जगह घूम लिया ।
तुलसीदास जी की जीवनी से संबंधित पुस्तकों में वर्णित तथ्यों को लेकर विद्वानों में मतभेद है। इस उपन्यास में उनसे जुड़ी विभिन्न पुस्तकों और तुलसीदास जी की रचनाओं के आधार पर तथ्य एकत्रित कर कहानी का ताना-बाना बुना गया है।
एक अभागे और जन्म लेते ही त्याग दिए गए बालक के जन्म से लेकर उसके जनप्रिय, परोपकारी संत और कवि के रूप में ख्याति प्राप्त कर गोलोकधाम गमन तक की यात्रा को कहानी के रूप में वर्णन किया गया है।
अन्न के एक-एक दाने के लिए संघर्ष से लेकर एक धनी और प्रकांड पंडित बन जाने के बाद धन, यश और काम की इच्छा पर विजय के लिए तुलसी जी द्वारा किए गए जीवन संघर्ष को बखूबी उकेरा गया है।
इस उपन्यास में तुलसी खुद से कहते हैं, "यश की चाह, धन की चाह और कामिनी की चाह, यह तीनों एक ही हैं तुलसी। इनमें अंतर मत समझ। केवल स्त्री को ध्यान से हटा देने मात्र ही से तू निष्काम नहीं हुआ। यश की लालसा भी काम ही है। तू कुछ दिनों तक कथा व्यापार बंद कर, नहीं तो तेरा दंभ फूल उठेगा।"
तुलसी जी में वही गुण और अवगुण थे जो कि एक आम इंसान में होता है। इसमें उनके किसी चमत्कार या किसी दैवीय शक्ति का महिमा-मंडन न कर आस्था से उपजी शक्ति और संघर्ष द्वारा खुद की इन्द्रियों के ऊपर विजय कर एक आत्मा का महात्मा बनने की कहानी है।
तुलसीदास कहते हैं,"श्रद्धा और विश्वास ऐसी संजीवनी बूटी है कि जो एक बार घोलकर पी लेता है वह चाहने पर मृत्यु को भी पीछे ढकेल देता है।"
Tulsidas wrote "Ramcharitmanas" and this book can be called "Tulsicharit"- an apt tribute to Goswami Tulsidas written by Amritlal Nagar. Looking forward to reading some more books from the author.
Manas Ka Hans by Amritlal Nagar- Novel- Hindi- This book is a classic novel by the author. In the Introduction to the Book, author has mentioned that though there are 5 biographies of Tulsidas, first by Raghubardas, second by Benimadhavdas, third by Krishan Dutt Mishra, fourth by Avinash Rai, fifth by Sant Tulsi sahib but the author has based his novel on the basis of books by Tulsidas- Vinay Patrika, Hanuman Bahuk, Kavitavali, Dohavali etc. In this novel, Tulsidas has been depicted as a human being with fallacies and frailities. Tulsidas is the author of the poetry version of the Great Epic poem Ram Charit Manas. His journey of life has been depicted in the novel. This book narrates the story of a child whose parents Hulsi & Atmaram Dubey die. His caretaker servant named Chunia expires when he is about five and - a half year old. He is a Brahmin and begs from door to door for a living. Ramanandi Vaishnav Saint Narharidas visits his village and takes him as a disciple. Now, he is educated in Sanskrit Grammar, Ved, Vedanga, Astrology, Hindu religious scriptures. After completion of his education, he shifts of Varanasi where he starts Ram Katha for the people. He moves from place to place, Ayodhya, Soron, Chitrakoot, Allahabad as a saint. During his time, Sanskrit was the language of the Brahmins but Hindi Awadhi/Devnagri script was the language of the common man. During delivering public talks on RamKatha, Tulsidas realized that this popular Ramkatha should be scripted in Hindi so that ordinary Indian may relate to the story and learn examples of better life from role of Ram, and his family members who are prepared to leave the Kingdom for one another, as Kings their aim is to serve the people by leading a moral life. Tulsidas begins to scribe Ramcharitmanas, Awadhi version of Sanskrit text Ramayana by Valmiki. He starts to write at Ayodhya and moves to Allahabad, Chitakoot to complete the inspiring Epic. Tulsidas also writes Vinay Patrika, Hanuman Bahuk, Kavitavali, Dohavali, Hanuman Chalisa, Janki Mangal, Vairagya Sandipani. Tulsidas started Ramlila- folk-theature adaption of Ramayana in various parts of Varanasi. This novel begins with the end- Tulsidas had promised his wife Ratnawali that he will visit her once in her life. Now, Ratnawali is weak, ill and on death bed. She leaves for her heavenly abode in his presence. From the boo runs in flash back. It is a classic novel for all to read.
We are often in awe of great people/things. What makes them great?
This book is a biography style novel about Goswami Tulsidas. He is popularly introduced as the one who created the Raamacharitmaanas and the Hanumaan Chaalisaa . He took knowledge from the courts of the privileged to the masses. He was especially known for his art of recital. While that speaks of greatness by itself, why one would read this is to know the human being behind. That he faced similar problems and challenges as anyone would. How he overcomes lust, anger, greed and each one of these words means more than is immediately obvious. This text is truly multidimensional -dimensions not of space, but of human thought. The predominant emotion is bhakti (devotion), what it means and also what it does not. Several anecdotes put forth various ideas. It is only laughable how we today spread hatred in the name of religion or something else. Read it and you'll be more than surprised! Incomplete knowledge has always been detrimental, but more so is the false pride that often rides along. Here is some text I highlighted from the book, crudely translated:
"Ghosts from around the world come to Kaashi (old name of the city of Benaras, now Varanasi)." "Delusion (of wealth) is a great thief, I've discerned." "A thief may quit robbery, but how does he quit foul play?" "One finds what one seeks, if he seeks in deep waters." "It is only you and me who are Hindu or Muslim, a king is a king." "... as if there is no word called 'happiness' in the world. It is only the ones with full stomachs that keep talking about it." "Tulsidas, never forget that an idol which gets worshipped in the temple, also has to endure several wounds of hammers of the sculptors." "Dirt keeps getting rinsed off with harsh criticisms of the critics." "A child passionate about play does not pay heed to the pain. To become such a child, is very difficult." "I feel Ratna, that there is no difference between devotion and maya(here, ~wealth,wordly pleasures). Devotion is love and maya, the test of love." "When the Alaknandaa of introspection and Bhagirathi of consciousness meet, Gangaa, bearing the face of Raam will be spontaneously formed." (Alaknanda, Bhagirathi and the Gangaa are rivers) "I have seen a lot of preachers. When they don't have money, that's when they become philosophical and when they get it, they live so lavish that even emperors and kings are no match." "A desire arose to ask the giver - water, water!"
'मानस का हंस' अमृतलाल नागर रचित महाकवि तुलसीदास के जीवन पर आधारित उपन्यास है जिसमे उनके बचपन से लेकर मृत्यु तक का विवरण है।
उपन्यास में प्रसिद्धि, गृहस्थी, काम, अहंकार , रामभक्ति आदि को लेकर तुलसीदास के मन मे चलते द्वंद को उत्कृष्ट भाषा शैली से दर्शाया गया ह���। रामायण को स्थानीय अवधि भाषा मे लिखने के उनके निर्णय के कारण अयोध्या के महंतो काशी के रूढ़िवादी ब्राह्मणों से उनके संघर्ष, मन मे चल रहे द्वंद को लेकर रामचरित्र, कबीर के दोहो आदि का संदर्भ, सूरदास से भेंट जैसे प्रसंग उपन्यास को रोचक बनाते हैं।
उनके निवास के दौरान सोरो, राजपुर, चित्रकूट, अयोध्या, काशी का उस काल का विवरण, मुग़ल पठानों की लड़ाइयों के चलते राजनीतिक अस्थिरता का विवरण भी दिलचस्प है।
अच्छा उपन्यास है पठनीय है पूरे समय बांधे रखता है ।
बहुत ही उम्दा तरीक़े से और आसान शब्दों में नागर जी ने कवि शिरोमणि गोस्वामी तुलसीदास के जीवन को पाठकों के सामने रखा है। सरल भाषा एवं बिंबों का ऐसा साधा हुआ प्रयोग पाठक को ऐसा अनुभव देता है कि मानो तुलसी स्वयं पाठक को अपनी कथा सुना रहे है। विशेषकर रत्नावली तुलसीदास प्रसंग जो आज तक हमारे सामने केवल तुलसी के जीवन के नकारात्मक पहलू की तरह सामने आता था, उसको नागर जी एक नयी दिशा एवं आयाम दिया है एवं रामचरितमानस की रचना में रत्नावली के योगदान को भी दिखाया है। मध्यकालीन भारत में तुलसी ने मानस रूपी जिस वट वृक्ष को खड़ा किया था वह आज के समय में भी भारतीय जनमानस के मध्य आस्था का एक पुल बन कर खड़ा हुआ है।
Excellent! Superb! It is necessary to read this biography of Goswami Tulsidas ji for better understanding and enjoyment of Shri Ramcharitmanas.
This book very inspiring and enlightening re-establish ing confidence that any one with positive resolve can attain height by faith. This is irrebuttable evidence, nay proof, of spirituality which is transforming in promotion of further evolution of humanity.
Covers the life of Goswami Tulsidas; the struggle, the journey. Rings familiar at many levels especialy wrt conficts inside (even though the realizations made & the path taken thereafter by the protagonist seem superhuman and sometimes unreasonable). Expecting clarity or contentment is probably too much to ask from a single piece of art but the work definitely draws you in and uplifts you by the end.
The book is a spiritual experience. Will make u find out and feast on more works of Sh. Amritlal Nagar.
अमृतलाल नागर जी का "मानस का हंस" गोस्वामी तुलसीदास जी के जीवन पर आधारित एक अत्यंत सजीव और हृदयस्पर्शी कृति है। इसे पढ़ते हुए लगता है मानो तुलसीदास जी हमारे सामने बैठे हों और उनकी संपूर्ण जीवन-लीला आँखों के सामने घट रही हो। प्रसंग इतने जीवंत हैं कि पाठक स्वयं को कहानी का हिस्सा महसूस करता है। भाषा सरल, प्रभावी और भावपूर्ण है, जो उस समय के सामाजिक व सांस्कृतिक परिवेश को भी बखूबी उकेरती है। यह उपन्यास तुलसीदास जी के व्यक्तित्व और भक्ति-भाव को समझने के लिए अनमोल है।
संत तुलसीदास के जीवन के ऊपर आधारित ये ऐतिहासिक उपन्यास उनका एक मार्मिक और मानवीय ररूप प्रस्तुत करता है। उनके जन्म से लेकर मृत्यु तक, उनकी निगुण और सगुन राम के प्रति आस्था को दर्शाने में नागर बहुत ही सामर्थय रहे हैं। मध्यकालीन उत्तर भारत की लोक मान्यताओं और जटिल कुप्रथाओं को भी लेखक ने अच्छी तरह से उजागर किया है, जिसके बीच में रहकर तुलसी राम प्राप्ति का जतन करते दिखते हैं। ये वो समय है जब युद्ध, महामारी और अकाल बहुत ही नियमित और स्वाभाविक बात है और मानवता का ह्रास चहुओर दिखाई पड़ता है। इन सब के बीच में राम भक्ति के द्वारा मोक्ष प्राप्ति की कामना तुलसीदास में देख कर पाठक का मन हर्षित भी होता है और उद्वेलित भी। कोई इतनी पीड़ा सह कर भी और अपने आस पास इतनी पीड़ा देख कर भी मन राममय कैसे रख सकता है। ये बात उपन्यास का एक केंद्रीय बिंदु है। साथ ही साथ तुलसीदास का मानवरूपी कमजोरी, काम, क्रोध और माया का विकार भी लेखक ने उजागर किया है और उसी मन के अंतरिये से अंतरिये अंतर्मन में, ईश्वर के द्वारा प्रदत इन् विकारों के नाश की इच्छा शक्ति को भी दर्शाया गया है जो की प्रेरणादायक लगता है। कबीर के निगुण आदर्शों को मानने वाले अनुयायिओं की अतिवादिता को लताड़ता हुआ तुलसी का रूप भी दीखता है और काशी में क्रांति को प्रेरित करता हुआ भी उनका रूप दीखता। अंत में, इस घोर कलिकाल में भी, ईश्वर और उसके अनेक रुपी मानवों के निहित अच्छाई के प्रति आस्थावान कैसे रहा जाए, ये इस उपन्यास का मूल प्रश्न है।
बहुत आशाओं के साथ ये उपन्यास पढ़ना प्रारंभ किया परन्तु जैसे जैसे उपन्यास को पढ़ता गया वैसे वैसे ही पढ़ने का आनंद कम होता गया। कल्पना को इतिहास से जोड़ने का लचर प्रयास है ये उपन्यास।