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खुदाई में हिंसा

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छोटे शहरों के रचनाकारों के बड़े केन्द्रों में उत्प्रवास और उनके मनोजगत में केन्द्र के सर्वग्रासी प्रसार और आधिपत्य के इस भयावह दौर में बद्री नारायण की कविता गुलाब के बरक्स कुकुरमुत्ते के बिम्ब को रचने वाली काव्य-परम्परा का विस्तार है। यह एक ऐसा समय है जब केन्द्र अपने अभिमत का उत्पादन ही नहीं कर रहा है, उसका प्रसार भी कर रहा है। वह कुछ हद तक अपनी मान्यताओं से अलग दिखती धारणाओं और काव्य-भंगिमाओं को भी लील जाने को आतुर है। इसलिए कोई भी अन्य काव्य-भंगिमा उसके लिए असहनीय हो गई है। वह तर्क से या कुतर्क से उसे खारिज कर देने पर आमादा है। यह समय कविता परिदृश्य के आन्तरिक जनतन्त्र को बचाने के कठिन संघर्ष का समय है। बद्री नारायण की कविता वस्तुतः जनतान्त्रिक समय में एक संवादी नागरिक होने की इच्छा की कविता है। वह सीमान्त पर खडे़ समुद्र से बात करने की इच्छा और कोशिश की कविता है। वह अपेक्षाओं और उसकी सीमा को जानती है। उसमें सपनों और आकांक्षाओं के पूरा न हो पाने की उदासी है लेकिन यह कविता अपने को उस कवि की वंश परम्परा से जोड़ना चाहती है जिसका गीत मछुआरों की बस्ती के बाहर गोल बनाकर बैठी स्त्रियाँ गाती हैं। बद्री नारायण की कविता भारतीय समाज के निम्न वर्ग के ऐसे मिथकों, आख्यानों और इतिहास के अलक्षित सन्दर्भों के पास जाती है जिनमें उनकी पीड़ाएँ, अवसाद और संघर्ष की अदीठ रह गई गाथाएँ छिपी हैं। बद्री नारायण की कविता में वर्चस्वशाली शक्तियों द्वारा स्वीकृति प्राप्त कर चुके प्रचलित मिथक लगभग नहीं हैं। अप्रचलित मिथकीय आख्यानों का पुनर्पाठ करने की कोशिश भी यहाँ नहीं है। इन कविताओं में तो ऐसी जातियों और मानव-समूहों के अपने आख्यानों और जन-इतिहासों के चरित्र और गाथाएँ हैं जो उत्पादन की गतिविधियों से जुड़े होने के बावजूद समाज की परिधि पर नारकीय जीवन जीने को अभिशप्त हैं। बद्री नारायण की कविता उन बहुसंख्य मानव समूहों के सपनों, आकांक्षाओं, उनकी कमजोरियों और उनकी शक्ति का भाष्य तैयार करती है। वस्तुतः कवि का काव्य-व्यवहार ही इस कविता की राजनीति का साक्ष्य है। ये कविताएँ, कहा जा सकता है कि हमारे समाज के बहुजन की थेरी गाथाएँ हैं।

152 pages, Hardcover

Published January 1, 2010

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About the author

Badri Narayan

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बद्री नारायण गोविन्द बल्लभ पन्त सामाजिक विज्ञान संस्थान, इलाहाबाद में सामाजिक इतिहास/सांस्कृतिक नृतत्वशास्त्र विषय के प्रोफेसर तथा सामाजिक विज्ञान संस्थान, मानव विकास संग्रहालय एवं दलित रिसोर्स सेन्टर के प्रभारी हैं।

यू.जी.सी., आई.सी.एस.एस.आर., आई.सी.एच.आर., तथा इंडियन इंस्टीटयूट ऑफ एडवांस्ड स्टडीज, शिमला (1998-99) के अलावा इंटरनेशनल इंस्टीटयूट ऑफ एशियन स्टडीज, लाइडेन यूनिवर्सिटी, द नीदरलैंड (2002), मैसौन द साइंसेज द ला होम, पेरिस के फेलो रहे हैं। फुलब्राइट एवं स्मट्स फेलोशिप (सितम्बर 2005-अप्रैल 2007) भी आपको मिल चुकी है।

हिन्दी के महत्त्वपूर्ण कवि के रूप में स्थापित। तीन कविता संकलन 'सच सुने कई दिन हुए’, 'शब्दपदीयम’ व 'खुदाई में हिंसा’ चर्चित रहे।

सम्मान : साहित्यिक औरी अकादमिक उपलब्धियों के लिये विभिन्न सम्मानों से सम्मानित किया गया है जिनमें भारत भूषण अग्रवाल स्मृति पुरस्कार, बनारसी प्रसाद भोजपुरी सम्मान एवं 'केदार सम्मान’ प्रमुख है। तीसरे कविता संकलन 'खुदाई में हिंसा’ के लिए स्पन्दन कृति सम्मान, राष्ट्रकवि दिनकर सम्मान से सम्मानित। वर्ष 2011 में कविता के लिए प्रतिष्ठित शमशेर सम्मान व मीरा स्मृति पुरस्कार (2012), से सम्मानित।

अंग्रेजी पुस्तकें : 'कांशीराम : लीडर ऑफ द दलित्स’, 'द मेकिंग ऑफ द दलित पब्लिक इन नॉर्थ इंडिया : उत्तर प्रदेश 1950-प्रेजेंट’, 'फैसिनेटिंग हिन्दुत्वा—सैफरान पालिटिक्स एंड दलित मोबलाईजेशन’, 'विमेन हिरोज एंड दलित एसरसन इन नार्थ इंडिया’, 'मल्टीपल मार्जिनेल्टिज : एन एंथोलॉजी ऑफ आइडेंटिफाइड दलित राइटिंग्स’, 'डाक्युमेंटिग डिसेंट : कंटेस्टिंग फेबल्स, कंटेस्टेड मेमोरिस् एंड दलित पॉलिटिकल डिस्कोर्स।

हिन्दी पुस्तक लोक संस्कृति में राष्ट्रवाद, लोक संस्कृति और इतिहास, संास्कृतिक गद्य।

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