नब्बे का दशक सामाजिक और राजनीतिक मूल्यों के लिए इस मायने में निर्णायक साबित हुआ कि अब तक के कई भीतरी विधि-निषेध इस दौर में आकर अपना असर अन्तत: खो बैठे। जीवन के दैनिक क्रियाकलाप में उनकी उपयोगिता को सन्दिग्ध पहले से ही महसूस किया जा रहा था लेकिन अब आकर जब खुले बाज़ार के चलते विश्व-भर की नैतिकताएँ एक दूसरे के सामने खड़ी हो गईं और एक दूसरे की निगाह से अपना मूल्यांकन करने लगीं तो सभी को अपना बहुत कुछ व्यर्थ लगने लगा और इसके चलते जो अब तक खोया था उसे पाने की हताशा सर चढ़कर बोलने लगी। मंडल के बाद जाति जिस तरह भारतीय समाज में एक नए विमर्श का बाना धरकर वापस आई वह सत्तर और अस्सी के सामाजिक आदर्शवाद के लिए अकल्पनीय था। वृहत् विचारों की जगह अब जातियों के आधार पर अपनी अस्मिता की खोज होने लगी और राजनी
बिहार के मधुबनी जि़ले के रुद्रपुर गाँव में 31 जुलाई, 1978 को जन्मे नवीन चौधरी राजस्थान विश्वविद्यालय से अर्थशास्त्र में परास्तानक हैं। पढ़ाई के दौरान छात्र-राजनीति में खूब सक्रिय रहे। इन्होंने एमबीए की डिग्री भी हासिल की है। 'दैनिक भास्कर’, 'दैनिक जागरण’ और आदित्य बिड़ला गु्रप के ब्रांड और मार्केटिंग डिपार्टमेंट में विभिन्न पदों पर रह चुके नवीन फोटोग्राफी, व्यंग्य-लेखन एवं ट्रैवलॉग राइटिंग भी करते हैं। इनकी ट्रेवल तस्वीरें गेटी-इमेजेज द्वारा इस्तेमाल होती हैं। इनका लोकप्रिय फेसबुक पेज 'कटाक्ष’ और ब्लॉग 'हिन्दी वाला ब्लॉगर’ के नाम से है। इनके कई व्यंग्य वायरल हुए और कई न्यूज़ वेबसाइट पर भी प्रकाशित होते रहे हैं। नवीन के पुराने आर्टिकल उनकी वेबसाइट www.naveenchoudhary.com पर पढ़े जा सकते हैं।
वर्तमान में ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, नोएडा में मार्केटिंग हेड और दिल्ली एनसीआर में रहनेवाले नवीन चौधरी से सम्पर्क का ज़रिया है—naveen2999@gmail. com
बहुत कम बार ऐसा होता है कि आप कहानी या उपन्यास पढ़ते हुए ऐसा फील करने लगो कि कोई कल्ट फ़िल्म देख रहे हो.. एकदम रॉ, प्योर और एक ही समय पर सब जगह हमेशा होते रहने पर भी ओरिजिनल.. जब हम कॉलेज या यूनिवर्सिटी के मुट्ठी भर लौंडों को नारेबाजी करते देखते हैं.. तो सब ड्रामा, टाईमपास और दो कौड़ी की गुंडागर्दी लगती है.. वो इसलिए कि उससे हमारे आसपास क्या बदल रहा है और क्या अचानक बदल जाएगा, इसका हमें अंदाज़ा नहीं होता.. राजनीति चाहे जितने तरह की हो और जिस किसी लेवल पर हो, लोगों से ही होती है.. लोग चाहे राजनीति छोड़ दें, इग्नोर करें, दूर रहें.. राजनीति आपको नहीं छोड़ेगी.. नवीन चौधरी की "जनता स्टोर" ने जिस खुलेपन के साथ छात्र राजनीति और उसकी सर्पिल रगों को उघार कर हमारे सामने रखा है, शायद ही किसी किताब या अभिव्यक्ति के किसी और माध्यम में रखा गया हो.. यहाँ नवीन जी ने कहानी बताई है.. क्या होता है, बताया है.. खुले तौर पर, बिना किसी लाग लपेट के.. सही-गलत या नैतिक शिक्षा खोजने वालों के लिए नहीं है ये किताब.. इतनी बहती हुई कहानी है कि मुश्किल हो जाता है रुक-रुक कर पढ़ना.. एक एक किरदार आपके आसपास का है.. कोई आदर्श नहीं.. कोई बनावटी दूर देश का प्राणी नहीं.. सब वही हैं जो आपके आसपास हैं.. नवीन जी ने भाषा को फाइबर ऑप्टिक बनाया है, जिससे वो सबसे तेजी से कनेक्ट होती है, न कि खांटी साहित्यकारों की तरह जो भाषा को हथियार बना कर पाठक को पढ़ने-समझने के संघर्ष में उलझा देते हैं.. एक बेहतरीन किताब, बांधती हुई पटकथा जिस पर फ़िल्म बननी ही चाहिए और न बने तो ये हिंदी फिल्म जगत और दर्शकों की बदकिस्मती.. बहुत शुक्रिया ये लिखने का और आगे की किताबों के लिए अगणित शुभकामनाएं..!
छात्र राजनीति से सम्बन्धित एक महत्वपूर्ण उपन्यास. इस उपन्यास में कहानी मुख्य है और शायद इसीलिए पात्र की गहराई में हम उतना नहीं उतर पाएंगे जितना की ज़रूरी है. एक यूनिवर्सिटी में चुनाव और उसका असर, राज्य सरकार और युनिवर्सिटी के चुनावों में जो रिश्ता है उसे बहुत बारीकी से समझा जा सकता है इस किताब में. राजनैतिक मित्रता कोई मित्रता नहीं होती और अगर कुछ बचता है तो केवल शत्रुता, यह बात शायद इस उपन्यास के केंद्र में है.एक आम राजनैतिक उपन्यास जो अक्सर व्यंग का सहारा ले लेता है, जनता स्टोर ऐसा कुछ नहीं करता और अपनी शैली को अंत तक बनाये रखता है. एक पठनीय उपन्यास.
कहानी बहुत ही दिलचस्प होती जाती है हर अगले पन्ने से और ये कहना गलत नही होगा कि लेखक ने पाठक को कहानी में बांध लिया है। अगर लेखक ने पुस्तक की दूसरी कहानी पहले न लिखी होती तो आधी पुस्तक तक ये समझ पाना ही मुश्किल था कि कहानी का असली हीरो कौन है, क्योकि हर मुख्य किरदार अपने आप में एक मजबूत व्यक्तित्व है। कहानी के पहले पन्ने पर जो गोलियां चलाई गई है वह कहानी के आखिर में इतने रोचक मोडों से होती हुई मिलेंगी ऐसा तो सिर्फ इस कहानी में ही हो सकता था।
नवीन चौधरी की "जनता स्टोर" ने जिस खुलेपन के साथ छात्र राजनीति और उसकी सर्पिल रगों को उघार कर हमारे सामने रखा है, शायद ही किसी किताब या अभिव्यक्ति के किसी और माध्यम में रखा गया हो.. यहाँ नवीन जी ने कहानी बताई है.. क्या होता है, बताया है.. खुले तौर पर, बिना किसी लाग लपेट के.. सही-गलत या नैतिक शिक्षा खोजने वालों के लिए नहीं है ये किताब.. इतनी बहती हुई कहानी है कि मुश्किल हो जाता है रुक-रुक कर पढ़ना.. एक एक किरदार आपके आसपास का है.. कोई आदर्श नहीं.. कोई बनावटी दूर देश का प्राणी नहीं.. सब वही हैं जो आपके आसपास हैं..
मसालेदार और ज़ायकेदार कहानी। कोई शक़ नहीं कि कहानी बहुत रोचक है, रोमांचक है, कुछेक जगहों पर गुदगुदा देती है तो कहानी का क्लाइमेक्स और अंत तक आते-आते आप किसी किरदार के लिए बेहद सहानुभूति से भर जाते हैं, इतना कि मन करने लगे कि कहानी में घुसकर उसे बचा लिया जाए।
कहानी अंत मे बेहद भावुक कर देती है, दुष्यंत की हत्या काफी खल गयी । पढ़ते- पढ़ते इतना खो गया की आखिर में लगा यह किताब इतनी जल्दी क्यों खत्म हो गयी । इतना बेहतरीन लिखा गया है कि निश्चित ही इसके किरदार कुछ दिन तक मेरे मस्तिष्क में घर किये रहेंगे । लेखन का शिल्प हो या कहानी बयां करने का तरीका सबकुछ बेहद शानदार है ।
राजनीतिक मुद्दे पर लिखी इस किताब के किरदारों को काफी खूबसूरती से गढ़ा गया है
एक बेहतरीन किताब, बांधती हुई पटकथा जिस पर फ़िल्म बननी ही चाहिए।
I don’t remember, the last time I read a book in Hindi. For the last many years I have been reading books primarily in English. I know some of the reasons. The bookstores I buy books from have a limited range of books in Hindi. Moreover, most of them are old books, or English authors work translated into English. Additionally, there is a lack of contemporary writers, and the last one may not agree with.
So, when my friend Naveen Choudhary sent me his debut novel ‘JANTA STORES’, I started reading it with not much expectation. The basic framework of College politics, election and Politicians manipulating the student leaders for their benefit is nothing new. I doubted if it would give me the same thrill? Will it be a page-turner I like?
After reading the book, I can say; there is a different flavour of reading good books in your language.
वर्तमान में प्रचलन में आये हुए नए लेखकों की भांति ही नवीन जी ने भी इस पुस्तक को बुना है जिस कारण कहानी में कुछ-कुछ एकरसता या कहे एक रूपता की झलक महसूस की जा सकती हैं । कहानी का एक महत्व पूर्ण चरित्र (मयूर) छात्र राजनीति में इस तरह विकास करता प्रतीत होता हैं मानो की वह राजनीति न हुई किसी शादी की पंगत ; कि आओ , खाओ और निकल लो उपरोक्त के बाबजूद भी यह उपन्यास पढ़ा जा सकता हैं क्योंकि यह छात्र राजनीति एवम मुख्य धारा की राजनीति के गठजोड़ पर स्पष्ट प्रकाश डालता हैं साथ ही एक राजनीतिक दल के अंदर चलने वाले कुचक्रो ; पुलिस के बेजा इस्तेमाल एवम खासतौर पर राजस्थान के परिपेक्ष्य में जातिगत गठजोड़ों को भी दर्शाने का प्रयत्न करता हैं ।
One the best political story. Politics based novel generally become more political than interesting in mid and end but this book just kept the balance. The student politics has been narrated with fine balance of humour, friendship and romance. Story also touches the role of state politics and affairs with gunda raj. The story has been set in 1997-1999.
A must read for every new hindi reader out there. A story which serves real and raw experiences of a college life fantastically woven together with caste system and state politics. Every character is carved out with amazing intricate intentions and human density. I'm for sure going to recommend this book left and right and up and down. I very highly recommend it.
Gripping story line. After finishing this novel, your Political IQ will be few points up. If you are interested in knowing how Student politics and mainstream politics work and what is the relation between the two, then you should definitely give it a try.
I started this book with not much expectations but this book surprised me till the last line. Well build characters and tight storyline made this story very interesting. I finished it in just 2 days. Great read.
4.5/5 कहानी फ्लैशबैक के टुकड़ों में शुरू होती जो आगे चल के जुड़ती हैं और एक बेहतरीन उपन्यास में तब्दील होती है। -0.5 क्योंकि कहानी के शुरुआत में ही फ्लैशबैक वो भी कई टुकड़ों में थोड़ा कंफ्यूजन पैदा कर देता है।
ब्राह्मण, जाट, राजपूत और बनियों को लेकर एक बढ़िया पोलिटिकल थ्रीलर लिखा है जिसमें हर पेज पर एक्शन+ट्विस्ट भरे पड़े हैं. पर्सनली मुझे शक्ति का ढूढा बनना, पुनिया का रॉड उठाना, मयूर का दिमाग, हेतराम के चांटे तो बहुत पसंद आया. Its a must read for political lover❤❤❤
This book is a window into the new and evolving face of student politics in post reform India. The author has a powerful way of writing - the text flows - which has captured the raw ambition, caste considerations, and moral corruption at every level prevalent in a Rajasthan which is modern yet traditional. He succeeds in weaving a rich tapestry of emotions- loyalty, love and betrayal in the backdrop of student politics and that with a touch of wry humour. The end is unexpected and the characters stay with us till long after we finish reading the book. I think I will read it once again and then again....
मैं उस लेखक का लेखन सार्थक मानती हूँ जिसकी लिखी कहानी आपको कहानी के चलचित्र आँखों के सामने बनाने के लिए मजबूर कर दे। बधाई नवीन जी को कि इनके लेखन में वो बात है। ख़ुशी इस बात की भी हुई आज जहाँ प्रेम कहानियों की बाढ़ आई है वहां ये पहली किताब में एक अलग प्लॉट के साथ उतरे और उसे निभाया भी। राजनीतिक कहानी होते हुए भी कहीं कोई टेक्निकल झोल नहीं मिला, यह इस किताब को पढ़ने की एक और अच्छी वजह है। फ़िल्म लाइन वाले भी इसे अप्रोच करके एक मसालेदार और ज़ायकेदार फ़िल्म परोस सकते हैं।
अपने स्कूल-कॉलेज के दौरान मेरी छात्र संघ की राजनीति में ना तो दिलचस्पी थी, न ही कभी उससे पाला पड़ा। अगर कभी कौतूहल वश कुछ देखती-सुनती भी तो मध्यम-वर्गीय परिवारों के माता-पिता बच्चों को इतनी हिदायतें दे देते हैं कि वे राजनीति को देखकर भी अनदेखा कर दें। हम भी उन्हीं में से थे। इसलिए छात्र संघ की राजनीति पर आधारित इस किताब की विषयवस्तु मेरे लिए बहुत नई थी।
कोई शक़ नहीं कि कहानी बहुत रोचक है, रोमांचक है, कुछेक जगहों पर गुदगुदा देती है तो कहानी का क्लाइमेक्स और अंत तक आते-आते आप किसी किरदार के लिए बेहद सहानुभूति से भर जाते हैं, इतना कि मन करने लगे कि कहानी में घुसकर उसे बचा लिया जाए। कौन क्या नहीं बताउंगी वह आप ख़ुद किताब पढ़िए और जानिए।
बस इतना कहूँगी कि नए लेखकों की किताबें पढ़ रहे हैं तो इसे सबसे ऊपर लिस्ट में रखें, मज़ा आएगा।
पहली बार किसी कहानी में सूत्रधार को खलनायक जैसी भूमिका में देखा तो थोड़ा अजीब लगा। दुष्यंत अगर जिंदा रह जाता तो शायद कहानी हैप्पी एंडिंग सी लगती। पर राजनीति ऐसी ही है क्रूर, निर्दयी , विश्वासघाती। बाकी बहुत कुछ हासिल फ़िल्म जैसा लगा, बढ़े नेता का छात्र राजनीति में हस्तक्षेप, गांव में जातिवादी हत्याकांड, एक बड़े छात्र नेता का एक अभिनेता लड़के से
पहली बार किसी कहानी में सूत्रधार को खलनायक जैसी भूमिका में देखा तो थोड़ा अजीब लगा। दुष्यंत अगर जिंदा रह जाता तो शायद कहानी हैप्पी एंडिंग सी लगती। पर राजनीति ऐसी ही है क्रूर, निर्दयी , विश्वासघाती। बाकी बहुत कुछ हासिल फ़िल्म जैसा लगा, बढ़े नेता का छात्र राजनीति में हस्तक्षेप, गांव में जातिवादी हत्याकांड, एक बड़े छात्र नेता का एक अभिनेता लड़के से मदद लेके विश्वासघात करना। किताब पढ़ने लायक तो बेशक है।
Unbelieveable piece of writing. It makes me to wake upto 6:43 AM in morning. You can guess how much I liked it. It is great novel focus on real student politics. Amd, its great fun with best thriller and suspense.