कभी साफ़ साफ़ सोचा (और चाहा) नहीं था कि किसी दिन स्वयं अपने थके हुए हाथों से अपनी डायरी के कुछ सम्पादित अंशों की एक पुस्तक बनाऊँगा, लेकिन शायद यह सोच (और चाह) अनेक अँधेरों और अन्देशों से लिथड़ी-लिपटी हुई किसी भीतरी तहखाने में छिपी बैठी चली आ रही थी। यह पुस्तक उसी खुफ़िया सोच (और चाह) की ख़ामोश ज़िद की सफलता का परिणाम और प्रमाण है।