किसी भी रचनाकार को अपनी रचना प्रक्रिया से गुजरते हुए बार बार स्वयं से साक्षात्कार करना पड़ता है। उसकी संवेदनशीलता, विषयगत अनुभवों व भाषा पर सही और मज़बूत पकड़ उसे बड़ा रचनाकार बनाते हैं। मनीष दुबे के उपन्यास जेल जनर्लिज्म को पढ़ते हुए यह तथ्य पुख्ता होता है कि उनका संबंधित विषय का अनुभव संसार बहुत विस्तृत, संवेदनशीलता बहुत ही सघन और भाषा से संयत तथा अभिव्यक्ति को अपेक्षित धार देने वाली है। चूंकि मनीष एक सजग पत्रकार हैं इसलिये उनका घटनाओं को लेकर कुछ अलग ही नजरिया रहता है। यही कारण है कि वह उपन्यास के हर पात्र की प्रस्तुति के साथ न्याय कर सके हैं।
उपन्यास के केंद्र में एक पत्रकार अमर यानी कि स्वयं लेखक है जिसे उसी के आसपास के लोग झूठे मामले में फंसा कर थाने और फिर थाने से जेल तक पहुंच देते हैं... यहीं से शुरू होता है, लोकतंत्र पुलिस, न्यायतन्त्र, राजनीति और आम जनता के साथ खबरों का स्टिंग अ१परेशन।
अपने नाम के अनुरूप उपन्यास में जेल के भीतर जेल नियमों के बार बार टूटने, कैदियों की सोच और संवेदना, खाकी वर्दी की क्रूरता, छोटे छोटे लालच में बिखरती कड़क वर्दी की अकड़, कानून की उड़ती धज्जियां, कैदियों की आंखों में घर परिवार व रिश्तों के टूटते बिखरते सपने, कभी तय समय में परिजनों से मुलाकात होने पर मन मस्तिष्क पर होती सुकून की बूंदाबांदी जैसे तमाम रेखाचित्र शब्दों की कूची से कागज़ के कैनवास पर बखूबी उंकेरने में सफल रहा है लेखक।
उपन्यास की भाषा आडंबरों से दूर और सहजता के निकट है। पुलसिया भाषा संवाद में कहीं कहीं उन वर्जित शब्दों का प्रयोग भी सहजता के साथ हुआ है जो शब्द पुलिस और गुंडों की भाषा के सम्पुट माने जाते हैं। केंद्रीय पात्र अमर का अपनी प्रेयसी की याद में कविता गुनगुनाना, संमोहित करने वाला है।
कुल मिला कर उपन्यास जेल जनर्लिज्म रोचक और सच की जमीन पर अनुभवों की फसल उगाने वाला तो है ही पाठकों को जेल जीवन के विसंगतियों से भी रूबरू कराने वाला है। मुझे विस्वास है कि उपन्यास पाठकों के बीच एक सम्मानजनक स्थान बनाएगा।