विष्णु प्रभाकर का जन्म उत्तरप्रदेश के मुजफ्फरनगर जिले के गांव मीरापुर में हुआ था। उनके पिता दुर्गा प्रसाद धार्मिक विचारों वाले व्यक्ति थे और उनकी माता महादेवी पढ़ी-लिखी महिला थीं जिन्होंने अपने समय में पर्दा प्रथा का विरोध किया था। उनकी पत्नी का नाम सुशीला था। विष्णु प्रभाकर की आरंभिक शिक्षा मीरापुर में हुई। बाद में वे अपने मामा के घर हिसार चले गये जो तब पंजाब प्रांत का हिस्सा था। घर की माली हालत ठीक नहीं होने के चलते वे आगे की पढ़ाई ठीक से नहीं कर पाए और गृहस्थी चलाने के लिए उन्हें सरकारी नौकरी करनी पड़ी। चतुर्थ वर्गीय कर्मचारी के तौर पर काम करते समय उन्हें प्रतिमाह १८ रुपये मिलते थे, लेकिन मेधावी और लगनशील विष्णु ने पढाई जारी रखी और हिन्दी में प्रभाकर व हिन्दी भूषण की उपाधि के साथ ही संस्कृत में प्रज्ञा और अंग्रेजी में बी.ए की डिग्री प्राप्त की। विष्णु प्रभाकर पर महात्मा गाँधी के दर्शन और सिद्धांतों का गहरा असर पड़ा। इसके चलते ही उनका रुझान कांग्रेस की तरफ हुआ और स्वतंत्रता संग्राम के महासमर में उन्होंने अपनी लेखनी का भी एक उद्देश्य बना लिया, जो आजादी के लिए सतत संघर्षरत रही। अपने दौर के लेखकों में वे प्रेमचंद, यशपाल, जैनेंद्र और अज्ञेय जैसे महारथियों के सहयात्री रहे, लेकिन रचना के क्षेत्र में उनकी एक अलग पहचान रही।
विष्णु प्रभाकर ने पहला नाटक लिखा- हत्या के बाद, हिसार में नाटक मंडली में भी काम किया और बाद के दिनों में लेखन को ही अपनी जीविका बना लिया। आजादी के बाद वे नई दिल्ली आ गये और सितम्बर १९५५ में आकाशवाणी में नाट्य निर्देशक के तौर पर नियुक्त हो गये जहाँ उन्होंने १९५७ तक काम किया। वर्ष २००५ में वे तब सुर्खियों में आए जब राष्ट्रपति भवन में कथित दुर्व्यवाहर के विरोध स्वरूप उन्होंने पद्म भूषण की उपाधि लौटाने की घोषणा की। उनका आरंभिक नाम विष्णु दयाल था। एक संपादक ने उन्हें प्रभाकर का उपनाम रखने की सलाह दी। विष्णु प्रभाकर ने अपनी लेखनी से हिन्दी साहित्य को समृद्ध किया। उन्होंने साहित्य की सभी विधाओं में अपनी लेखनी चलाई। १९३१ में हिन्दी मिलाप में पहली कहानी दीवाली के दिन छपने के साथ ही उनके लेखन का जो सिलसिला शुरू हुआ, वह आज आठ दशकों तक निरंतर सक्रिय है। नाथूराम शर्मा प्रेम के कहने से वे शरत चन्द्र की जीवनी आवारा मसीहा लिखने के लिए प्रेरित हुए जिसके लिए वे शरत को जानने के लगभग सभी सभी स्रोतों, जगहों तक गए, बांग्ला भी सीखी और जब यह जीवनी छपी तो साहित्य में विष्णु जी की धूम मच गयी। कहानी, उपन्यास, नाटक, एकांकी, संस्मरण, बाल साहित्य सभी विधाओं में प्रचुर साहित्य लिखने के बावजूद आवारा मसीहा उनकी पहचान का पर्याय बन गयी। बाद में अर्द्धनारीश्वर पर उन्हें बेशक साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला हो, किन्तु आवारा मसीहा ने साहित्य में उनका मुकाम अलग ही रखा।
प्रमुख कृतियाँ उपन्यास- ढलती रात, स्वप्नमयी, अर्धनारीश्वर, धरती अब भी घूम रही है, क्षमादान, दो मित्र, पाप का घड़ा, होरी,
नाटक- हत्या के बाद, नव प्रभात, डॉक्टर, प्रकाश और परछाइयाँ, बारह एकांकी, अशोक, अब और नही, टूट्ते परिवेश,
कहानी संग्रह- संघर्ष के बाद, धरती अब भी धूम रही है, मेरा वतन, खिलोने, आदि और अन्त्,
आत्मकथा- पंखहीन नाम से उनकी आत्मकथा तीन भागों में राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित हुई है।
जीवनी- आवारा मसीहा,
यात्रा वृतान्त्- ज्योतिपुन्ज हिमालय, जमुना गन्गा के नैहर मै।
Vishnu Prabhakar was a Hindi writer. He had several short stories, novels, plays and travelogues to his credit. Prabhakar's works have elements of patriotism, nationalism and messages of social upliftment. He was awarded the Sahitya Akademi Award in 1993, Mahapandit Rahul Sankrityayan Award in 1995 and the Padma Bhushan (the third highest civilian honor of India) by the Government of India in 2004.
लेखक ने वर्षों तक रिसर्च कर कथा-शिल्पी शरतचन्द्र की जीवनी लिखी है। पुस्तक को तीन भाग में बाँटा गया है ― दिशाहारा, दिशा की खोज और दिशांत। लेखक कहते हैं कि आवारा मनुष्य में सब गुण होते हैं पर उसके सामने दिशा नहीं होती। जिस दिन उसे दिशा मिल जाती है उसी दिन वह मसीहा बन जाता है। ये पुस्तक भी एक दिशाहीन व्यक्ति का जीवन यात्रा है जिसमें अंततः उस व्यक्ति को दिशा प्राप्त होती है और वे साहित्य जगत के चन्द्रमा बनकर अमर हो जाते हैं।
इस पुस्तक को पढ़ने के बाद इनकी कहानियाँ/उपन्यास को पढ़ा जाए तो पात्रों को देखने का नजरिया बदल जाएगा and vice versa. उन्होंने अपने सारे पात्र अपने आस-पास से ही चुने थे। अपने संपर्क के कुछ लोगों को उन्होंने अपने साहित्य में पात्र बनाकर अमरता भी प्रदान कर दी।
शरतचन्द्र जी ने कोई ऐसा कर्म नहीं छोड़ा था जिसे सामाजिक मान्यताओं के हिसाब से कुकर्म की श्रेणी में न रखा जाए। लेकिन मुझे ये भी दिखा कि वे अपने कर्म से अपने को निर्लिप्त भी रखे रहे। कई बार अपने पास्ट के लिए उनके मन में गिल्ट भी दिखा। और सफलता के शिखर पर पहुँच कर भी उनका स्वाभाव नहीं बदला, खुद को विशिष्ट नहीं समझे वे।
एक और चीज़ जो मुझे दिखी वो है कि काल कोई भी हो समकालीन लेखकों के मध्य ईर्ष्या की ज्वाला भभकती रहती है। इससे न तो टैगोर बच सकें और न तो शरत् बाबू। तो मेरी इस धारणा को, खासकर निवर्तमान लेखकों के लिए, और भी बल मिला कि लेखक के लेख से मतलब रखें उनकी जाति ज़िन्दगी से बिलकुल भी नहीं।
P. S. : प्राण त्यागने से पहले शरतचन्द्र जी के अंतिम शब्द थे, "आमाके.... आमाके.... दाओ, आमाके... दाओ ( मुझे दो, मुझे दो।) इस अंतिम वाक्य के अनेक अर्थ लगाये गए हैं, जैसे – पानी माँगा हो या फिर पीड़ा से मुक्ति।
इतने महान व्यक्ति के अंतिम शब्द पर मीमांशा हुई ही होगी। लेकिन अगर मैं अपनी सीमित बुद्धि से इस शब्द का अर्थ लगाऊं तो मुझे लगता है कि उन्होंने उम्र मांगी होगी, मृत्यु से दूरी मांगी होगी।
जीवनी साहित्य अपने आप में एक अद्भुत विधा है। किसी लेखक, कवि आदि की जीवनी है तो प्रमाण जुटाने हेतु काफ़ी मेहनत भी करनी होती है क्यों कि कई तरह की बातें प्रचलन में आ जाती हैं और सच झूठ को अलग करना ज़रा कठिन प्रतीत होता है। उस में भी लेखक यदि शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय जैसा हो तो क्या ही कहना। फ़िर भी इस जीवनी के लेखक ने कोई कसर नहीं रखी इसे पूरा करके पाठकों के समक्ष लेकर आने की। लेखक ने बांग्ला भाषा सीखी, कई बार लेखक की कर्मभूमि रंगून शहर गए, शरतचन्द्र के अनेक मित्रों, रिश्तेदारों आदि से भी मिले और यह प्रयास सतत् चौदह वर्षों तक यूं ही निरंतर चलता रहा। इस तपस्या का ही परिणाम है यह बेहतरीन जीवनी। जब लेखक विष्णु प्रभाकर जी ने प्रमाण जुटाने के क्रम में लोगों से बात की, तो कुछ ऐसी चीज़ें सुनी :-
"दो चार गुंडों-बदमाशों का जीवन देख लो करीब से, शरतचंद्र की जीवनी तैयार हो जाएगी ।"
“छोड़ो भी, क्या था उसके जीवन में जो तुम पाठकों को देना चाहोगे। नितान्त स्वच्छन्द व्यक्ति का जीवन क्या किसी के लिए अनुकरणीय हो सकता है?”
“तुम शरत् की जीवनी नहीं लिख सकते। अपनी भूमिका में यह बात स्पष्ट कर देना कि शरत् की जीवनी लिखना असम्भव है।”
कई सज्जनों को इस बात से भी आपत्ति हुई कि इस अप्रतिम बांग्ला साहित्यकार की जीवनी एक गैर बंगाली कैसे लिख सकता है। लेकिन लेखक को इस किताब के विषय में शोध करते हुए काफ़ी आनंद आया और परिणाम हमारे सामने है - कथाशिल्पी शरतचंद्र की जीवनी आवारा मसीहा। "आवारा मसीहा" नाम के पीछे भी लेखक ने अपने तर्क दिए हैं, वो कहते हैं, "आवारा मनुष्य में सब गुण होते हैं पर उसके सामने दिशा नहीं होती। जिस दिन उसे दिशा मिल जाती है उसी दिन वह मसीहा बन जाता है।" पूरी किताब तीन भागों में बंटी हुई है - दिशाहारा, दिशा की खोज और दिशांत, काफ़ी कुछ इन भागों के नाम से ही स्पष्ट हो रहा होगा।
पहला भाग दिशा हारा शरत के बचपन का लेखा जोखा है, दुःख, अपमान, अभाव और तिरस्कार से भरा हुआ बचपन । घोर गरीबी के कारण कभी अपने नाना के यहां भागलपुर में समय व्यतीत किया तो कभी देवानंद पुर में। कहते हैं ना "होनहार बीरवान के होत चिकने पात", बचपन से ही कपोल कल्पना के सागर में गोते लगाने वाला शरतचंद्र अपने मोहल्ले और इलाके में एक कहानीकार की तरह प्रसिद्ध था। सुमधुर कंठ जो अच्छे अच्छों का मन मोह लेता था और तेज़ दिमाग़ की वज़ह से पढाई में भी अव्वल थे। पढ़ाई लिखाई पैसों के अभाव में पूरी नहीं कर पाये पर लोक कल्याण के ढेर सारे काम किए। दया, करुणा, कृतघ्नता आदि गुण इनके अंदर शूरू से ही व्याप्त थे। चाहे किसी लावारिस लाश का अंतिम संस्कार करना हो या किसी गरीब दुखिया की कोई मदद, शरतचंद्र कभी पीछे नहीं हटे l उनकी कहानियों के बहुत से पात्र भी यहां के उनके जीवन में सम्मिलित लोगों में से ही थे। किसी का भी दुख ना देख पाने वाले बालक शरत को कई बार रूढ़िवादी समाज की तीक्ष्ण आलोचना का शिकार भी होना पड़ा पर इस से उनके स्वभाव में कुछ खास फ़र्क नहीं आया। कहीं ना कहीं इन सारी बातों और बचपन के अनुभवों ने ही बालक शरतचंद्र को एक आकार दिया।
दूसरे भाग "दिशा की खोज में" शरतचंद्र जीविका की खोज में रंगून (म्यांमार) निकल जाते हैं। रंगून में बंगाली भद्र लोक की मौजूदगी और उनकी संपन्नता ही कारण थी कि शरतचंद्र यहां तक आये। यहां पर प्लेग, मलेरिया जैसी असाध्य बीमारियां पहले से ही बुरी तरह से फैली हुईं थीं। अपने रंगून प्रवास के दिनों में शरत ने जमकर पढाई की और काफ़ी कुछ लिखा भी, अपने लेखन को हालांकि उन्होंने यहां पर कभी भी गंभीरता से नहीं लिया, हमेशा इसी भ्रम में रहे कि उनकी लेखनी अपरिपक्व है। कुछ कहानियां जब मित्रों के आग्रह पर कलकत्ता के साहित्यिक पत्रों में छपी तो जैसे बंगाल के साहित्यिक समाज में भूचाल आ गया हो। कविगुरु रवीन्द्रनाथ ने स्वयं इनकी भूरी भूरी प्रशंसा की। भद्र लोक के बीच ना रहकर एक मलिन बस्ती में प्रवास किया और यहां रहने वाले गरीबों का ढेर सारा सुख दुःख भी साझा किया। अपनी कहानियों के बहुत से पात्र भी उन्हें यहां पर मिले। शरतचंद्र की कहानियों में हर वर्ग, जाति की महिलाओं को जो सम्मान मिलता है , उसका काफ़ी श्रेय उनके रंगून प्रवास को भी देना वाजिब होगा। रंगून में शरत ने काफ़ी कुछ पाया और संभवतः उस से कई गुणा ज्यादा खोया। गांजा, अफ़ीम, शराब की उनकी लत यहां बदस्तूर जारी थी या यूं कहिये कि अपने चरम पर थी। उनके चरित्र पर भी काफ़ी लांछन लगे और इतना गुणी होने के बाद भी उनको भद्र लोक सम्मान की दृष्टि से नहीं देखता था। लगातार गिरते स्वास्थ्य के बावजूद भी शरतचंद्र ने यहां रहकर बहुत सी रचनाएं लिखीं और प्रकशित होते रहे।
तीसरा भाग है दिशांत का जहां शरतचंद्र अपने मित्रों, प्रशंसकों के आग्रह पर स्वदेश लौटकर आ जाते हैं। कई बार लोगों ने कलकत्ता के बदनाम कोठों पर शरत बाबू को रचनाकर्म में भी तल्लीन पाया। उन्हें ���स बात की कोई फ़िक्र ना थी कि समाज उनके चरित्र के विषय में कैसी बातें करता है। बंगाल की महिलाओं ने तो उनके प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट करते हुए ��रत बाबू को सम्मानित भी किया। किसी भी नारीवादी लेखन में रुचि रखने वाले साथी को शरतचन्द्र का साहित्य ज़रूर पढ़ना चाहिए। एक और जहां लोग उन्हें बेइंतहा पसंद करते थे , वहीं दूसरी तरफ़ उनके आलोचकों की भी कमी नहीं थी, आये दिन उनकी कहानियों के किरदारों के ऊपर आपत्ति प्रकट करने लोग आ जाते थे और अपना रोष विभिन्न तरीकों से व्यक्त करते थे। शरत बाबू को जानवरों से भी उतना ही या सच कहूं तो संभवतः ज्यादा स्नेह था, अपने कुत्ते भेलू को तो वो अत्यधिक प्रेम करते थे। राजनीति में भी देशबंधु चितरंजन दास के साथ मिलकर शरतचंद्र कुछ समय तक सक्रिय रहे। जीवन के अंतिम वर्षों में उनका स्वास्थ्य लगातार गिरता रहा और मात्र ६२ वर्ष की आयु में मृत्यु ने आखिर इस महान कथाशिल्पी को भी हमसे दूर कर दिया। सोचता हूं इस से साहित्य की कितनी क्षति हुई।
किताब की भाषा सरल, प्रवाहमयी और पाठक को बांधने वाली है। लेखक ने घटनाओं के माध्यम से जगह जगह बताया है कि शरतचंद्र के वास्तविक जीवन के कौन से पात्र उनकी कहानियों में किस रूप में अवतरित हुए हैं। "आवारा मसीहा" पढ़कर मन कर रहा है कि शरतचंद्र की कहनियां फ़िर से दोहराऊं, इस बार शायद मुझे देवदास, श्रीकांत, परिणीता और चरित्रहीन के किरदार नई रोशनी में बेहतर समझ आयें। इस बेहतरीन प्रयास के लिए आवारा मसीहा के लेखक को नमन।
विष्णु प्रभाकर की लिखी हुई उपन्यासात्मक जीवनी 'आवारा मसीहा' हिंदी साहित्य की ख्यात कृति है. इसका लगातार भारतीय छात्र/ छात्राओं के हिंदी प्रश्नपत्रों में बने रहना, पूर्वोक्त बात का प्रमाण है. यह पुस्तक बांग्ला के दिग्गज साहित्यकार शरतचंद्र के बारे में विस्तार से जानकारी देती है. इस किताब का लेखन जरूर बहुत श्रमसाध्य काम रहा होगा. दशकों तक विष्णु प्रभाकर इसके लिए रिसर्च में लगे रहे हैं. इस दौरान उन्होंने शरतचंद्र से अलग-अलग तरह से संबंध रखने वाले सैकड़ों लोगों का साक्षात्कार किया. शरतचंद्र के भागलपुर, कलकत्ता, रंगून और फिर सामता और कलकत्ता प्रवास के दौरान के जीवन को कई-कई सूत्रों से जानने और फिर उपलब्ध जानकारियों के सत्य का परीक्षण वे सालों तक बड़ी मेहनत से करते रहे. यह मेहनत किताब में प्रतिफलित भी होती है.
यह मेहनत ही है, जो विष्णु प्रभाकर से इस पुस्तक के शरतचंद्र के बारे में सबसे तथ्यपरक होने का दावा करवाती है. हालांकि किताब में पचास ऐसे मौके आते हैं, जब लेखक किसी वाकये का जिक्र करते हैं और फिर उसे खारिज करते हुए कहते हैं कि ऐसे कई अपवाद शरतचंद्र के बारे में प्रचलित हो गये थे. कई बार तो वे यह भी कहते हैं कि शरतचंद्र ने जानबूझकर ऐसे कई अपवाद अपने बारे में प्रचलित कर दिये थे.
बहरहाल शरतचंद्र के उत्तर काल के बारे में किताब जितनी तथ्यपरक है, उतनी उनके शुरुआती सालों के बारे में नहीं है. ऐसा जरूर उपलब्ध स्त्रोतों की गुणवत्ता के चलते हुआ होगा. वहीं इसलिए किताब की जरूर तारीफ की जानी चाहिए कि यह शरतचंद्र के बारे में हज़ारों किस्से सुनाती है, जिससे उनके जीवन में रुचि रखने वाला पाठक उनके व्यक्तित्व और लेखकीय गुणों के बारे में अपनी राय बना सके. लेकिन एक समस्या भी इससे उत्पन्न हुई है. किताब में शरतचंद्र के बारे में ज्ञात-अज्ञात अधिकतम प्रकरणों को शामिल कर लेने के लेखक के मोह ने इसे कई जगहों पर बोझिल बना दिया है. इससे यह हुआ है कि किताब को पढ़ते हुए कई जगहों पर आपको यह भी लग सकता है कि यह किताब न सिर्फ आपकी पाठकीय क्षमता बल्कि नींद की परीक्षा भी ले रही है.
शरतचंद्र चट्टोपाध्याय की जीवनी 605 पन्नो में विष्णु प्रभाकर द्वारा लिखी गई है। शरतचंद्र उन लेखकों में है जिन्हें पढ़ना हमेशा से रोचक रहा है। मानवीय भावनाओं के गहराई में उतरता हुआ लेखन हर किसी को प्रभावित करता है।
घटनाओं का बार बार दोहरीकरण मुझे थोड़ा नीरस लगा। किंडल वर्जन में कई जगह वर्तनी में गलतियां थी जिसके वजह से पढ़ने में बहुत परेशानी हुई।
इन सब के बाबजूद अपने प्रिय लेखक को करीब से जानने के लिए महत्वपूर्ण रचना है आवारा मसीहा।