यह किताब एक सजग-संवेदनशील पत्रकार की डायरी है, जिसमें उसकी ‘आँखों देखी’ तो दर्ज है ही, हालात का तथ्यपरक विश्लेषण भी है। यह दिखलाती है कि एक आम बिहारी तरक्की की राह पर आगे बढ़ना चाहता है पर उसके पाँवों में भारी पत्थर बँधे हैं, जिससे उसको मुक्त करने में उस राजनीतिक नेतृत्व ने भी तत्परता नहीं दिखाई, जो इसी का वादा कर सत्तासीन हुआ था। आख्यानपरक शैली में लिखी गई यह किताब आम बिहारियों की जबान बोलती है, उनसे मिलकर उनकी कहानियों को सामने लाती है और उनके दुःख-दर्द को सरकारी आँकड़ों के बरअक्स रखकर दिखाती है। इस तरह यह उस दरार पर रोशनी डालती है जिसके एक ओर सरकार के डबल डिजिट ग्रोथ के आँकड़े चमचमाते दावे हैं तो दूसरी तरफ वंचित समाज के लोगों के अभाव, असहायता और पीड़ा की झकझोर देने वाली कहानियाँ हैं। इस किताब के केन्द्र में बिहार है, उसके नीति-निर्माताओं की 73 वर्षों की कामयाबी और नाकामी का लेखा-जोखा है, लेकिन इसमें उठाए गए मुद्दे देश के हरेक राज्य की सचाई हैं। सरकार द्वारा आधुनिक विकास के ताबड़तोड़ दिखावे के बावजूद उसकी प्राथमिकताओं और आमजन की जरूरतों में अलगाव के निरंतर बने रहने को रेखांकित करते हुए यह किताब जिन सवालों को सामने रखती है, उनका सम्बन्ध वस्तुत: हमारे लोकतंत्र की बुनियाद है।
एक बिहारी होने के तौर से बड़े होते हुए लगातार यह बात सुनी थी या कहें तो पता थी कि एक दिन यहाँ से बाहर निकल जाना है। यह बहुत ही सामान्य बात थी ऐसे जैसे दिन के बाद रात का होना। आसपास लगातार यही होते देखा था। भविष्य हर बार कहीं और था। उस वक़्त ऐसा कोई सवाल मन में नहीं आया कि आख़िर ऐसा क्यूँ है? पर बाहर निकालने के बाद जब होश संभाला तो एक शब्द सीखा "पलायन", अपने भी ब्लॉग का नाम रखा "किराएदार"। मेरी कहानी मेरे प्रदेश की कहानी है जहाँ से हम निकल आए क्योंकि वहाँ रुकने का मतलब था बस रुक जाना। ऐसे ही रुके हुए प्रदेश की कहानी है यह किताब जहाँ "रुकतापुर" euphemism है "बिहार" के लिए। यह किताब पढ़कर समझ आता है कि जो भी मेरे आसपास बचपन में घट रहा था उससे बस निकल भर जाना ही कितनी बड़ी privilege है। कई बार पढ़ते हुए बहुत बुरा भी लगा कि यह राज्य इस हालत ऐन कब तक फँसा रहेगा और क्या इससे बाहर निकालने का कोई और रास्ता है? क्या एक इंसान system के साथ लादकर अपना हक़ पा सकता है या फिर वह हार कर कहीं और चला जाता है जहाँ उसका एक बेहतर ज़िंदगी का इंतज़ार थोड़ा कम हो सके?
बेहद खूबसूरत किताब ...ना सिर्फ उन लोगों के लिए जिनकी जड़े बिहार से हैं...बल्कि हर व्यक्ति के लिए। यह किताब बिहार की इन छिपी हुई, सरकार और लोगों की तरफ से रह जाने वाली उन कमियों को उजागर करता है, जो हमारे देश में इतनी तरक्की के बाद भी हमे पीछे धकेल देता है। सरकार इन पर ध्यान नहीं देती क्योंकि इन्हें मामूल समझती है, पर यह किताब हमे बताती है हम पहुंच तो गए है सातवें आसमान पर, पर आज भी हमारा समाज, हमारी सरकार, जमीन की पांचवी तह पर कहीं से भी ऊपर आने का रास्ता नही निकाल पाई है। और किस किस तरह नीचे स्तर पर लोग दम तोड़ देते है और पड़ोसी को आहट भी नही होती।
पुष्यमित्र जी ज़मीन से जुड़े हुए पत्रकार हैं। एक घुमन्तू पत्रकार के तौर पर उन्होंने सरकारी योजनाओं और घोषणाओं की ज़मीनी हक़ीक़त से रू-ब-रू कराया है वहीं सरकारी आंकड़ों की पोल खोल दी है। सब कुछ देखने-समझने के बावजूद सरल शब्दों में बिहार के तथाकथित विकास की कहानी रुकतापुर बिहारियों के लिए आँखें खोल देने वाली सचाई है। नई पीढ़ी को अपना वर्तमान समझने के लिए इस ज़रूर पढ़ना चाहिए।
इससे पहले इनकी दो पुस्तकें- जब नील का दाग़ मिटा और रेडियो कोसी पढ़ चुका हूँ। दोनों ही बेहतरीन हैं।
Ruktapur is a lucid and undaunting presentataion of the socio-economic realities of Bihar. Very aptly titled, Ruktapur explores all the reasons hurting or hurdling the passion and potential of Biharis in their path to progress and prosperity. A very informative and eye opening guide, equally relevant for students, journalists, researchers as well as the government and its policymakers.
A good book to know how government policies work or don't work in Bihar. This book is a true account of a nomadic reporter who has travelled throughout to know the reality and report them.
बिहार: यह रुकतापुर है विकास का, सफलता का, सजगता का, संपन्नता का, सुदृढ़ता का, आधुनिकीकरण का। यह बिहार रुकतापुर क्यों नहीं है- अपराध का, भ्रष्टाचार का, बाढ़ का, पलायन का, बेरोजगारी का,लाचारी का, मजबूरी का? यही सब समझने के लिए आपको रुकतापुर पढ़ना होगा।
बिलगोटिया का इंतजार हो या भैंस का देवर हो, या रजिया खातून का निकाह हो, या फिर भागलपुर तेजाब कांड हो या फिर भोजपुरी गाना-एमए में लेके एडमिसन , कंपीटिशन देता हो इन सभी आकर्षक बानगी के लिए आपको रुकतापुर को स्थिरता से चलतापुर बनाना होगा, यानी कि पढ़ना होगा।
यह किताब एक सजग-संवेदनशील पत्रकार की डायरी है, जिसमें उसकी ‘आँखों देखी’ तो दर्ज है ही, साथ ही साथ बिहार के वर्तमान हालातों का एक तथ्यपरक विश्लेषण भी है। यह दर्शाता है कि एक आम बिहारी तरक्की की राह पर आगे बढ़ना तो चाहता है पर उसके पाँवों में भारी पत्थर बँधे हैं, जिससे उसको मुक्त करने में उस राजनीतिक नेतृत्व ने भी तत्परता नहीं दिखाई, जो इसी का वादा कर सत्तासीन हुआ था।
आख्यानपरक शैली में लिखी गई यह किताब आम बिहारियों की जबान बोलती है, उनसे मिलकर उनकी कहानियों को सामने लाती है और उनके दुःख-दर्द को सरकारी आँकड़ों के बरअक्स रखकर दिखाती है। इस तरह यह उस दरार पर रोशनी डालती है जिसके एक ओर सरकार के डबल डिजिट ग्रोथ के आँकड़े चमचमाते दावे हैं तो दूसरी तरफ वंचित समाज के लोगों के अभाव, असहायता और पीड़ा की झकझोर देने वाली कहानियाँ हैं। इस किताब के केन्द्र में बिहार है, उसके नीति-निर्माताओं की 73 वर्षों की कामयाबी और नाकामी का लेखा-जोखा है, लेकिन इसमें उठाए गए मुद्दे देश के हरेक राज्य की लगभग सच्चाई है। सरकार द्वारा आधुनिक विकास के ताबड़तोड़ दिखावे के बावजूद उसकी प्राथमिकताओं और आमजन की जरूरतों में अलगाव के निरंतर बने रहने को रेखांकित करते हुए यह किताब जिन सवालों को सामने रखती है, उनका सम्बन्ध वस्तुत: हमारे लोकतंत्र की बुनियाद है।
बिहार में बाढ़ हो, चमकी बुखार हो, या गर्भवती महिलाओं द्वारा शिशु जन्म हो, बिहार में इन सभी स्तिथि में मृत्यु के असामयिक आंकड़े बढ़ा देते हैं। यह मृत्यु बिहार पर कलंक का ठप्पा है। जिसे किसी भी चुना से नहीं मिटाया जा सकता है। बिहार विधानसभा 2015 के चुनाव से लेकर 2020 तक के चुनाव का सफर आपको इसी किताब में मिलेगा।
जमीनी स्तर पर उत्कृष्ट रिपोर्टिंग और बहुत अच्छी तरह से लिखा गया है। रूकतापुर उन सभी चित्रों को दिखा रहा है जिन्हें हमें देखने की आवश्यकता है। यह पुस्तक हिंदी के पाठकों को अवश्य पढ़ी जानी चाहिए। हमें हर राज्य के लिए इस तरह की किताब की जरूरत है ताकि सरकारें छोटे मुद्दों पर गौर कर सकें।
यह सरल हिंदी में लिखी गई एक उत्कृष्ट पुस्तक है जिसमें बताया गया है कि किस तरह बिहार की 30 वर्षों तक शासन करने वाली दो सरकारों ने राज्य को विफल कर दिया|
पुष्यमित्र बिहार के सर्वश्रेष्ठ रिपोर्ट लेखकों में से एक हैं और अखबारों एवं वेब न्यूज पोर्टल में विभिन्न मुद्दों के बारे में उनकी कवरेज ने विकास के हलकों में बहसें तेज कर दी हैं। इस पुस्तक को उस स्थिति में पढ़ें जब आप यह देखना चाहते हैं कि नीति के स्तर पर विफलता आम जनता को कैसे प्रभावित करती है।
【मुझे व्यक्तिगत तौर पर पढ़ते वक्त यह लगा कि पुष्यमित्र और भी बहुत कुछ कहना चाहते थे जो वो कह नहीं पाए। इसे एक सकारात्मक भाव से लीजियेगा कि उनके कलम के अंदर से ऐसे बहुत से सवेंदनशील पन्ने और भी निकले होंगे जिसे या तो समय के आभाव या किताब में और भी पन्ने ना बढ़ाने के कारण छूट गया हो। पर जो इसमें समेटा गया है वो बिहार के हालात जानने के लिए हृदय विदारक है। 】
पत्रकार महोदय ने बहुत ही वस्तुनिष्ठ ढंग से बिहार की तथ्यात्मक आंकड़ों के साथ इसके विकास होने या ना होने का वर्णन किया है बिहार के बाढ़ स्वास्थ्य व्यवस्था शिक्षा एवं सड़क तथा औद्योगिक क्षमता का आंकड़ों और तथ्यों की सहायता से बिना किसी पूर्वाग्रह के जो विश्लेषण किया है वह इस किताब को संग्रहनीय बना देता है| मखाना उद्योग मेसी का बटन उद्योग बरौनी थर्मल पावर या मिथिला के तालाबों का विवरण हो तथ्यों को पढ़ते हुए आपकी आंखें वास्तविकता को देखकर खुली की खुली रह जाती है लेखक को साधुवाद जो इतनी मेहनत के साथ बिहार के तथ्यों का वर्णन किया है यदि आप बिहार के बारे में कुछ रूचि रखते हैं या उसके पिछड़ापन की मूल कारण जाना चाहते हैं तो राजनीतिक दावों चाहे वह समाजवाद की तरफ से हो या समावेशी विकास की तरफ से उनकी और ना जाकर इन तथ्यों को देखें तो अपने आप समझ में आ जाएगा कि आखिर बिहार रुकतापुर क्यों बना?
मैं चौंक गया था “रुकतापुर” नाम देख कर लैंड्मार्क्स में ऐसे टहलते हुए। मुझे याद है जब पहली बार यह शब्द सुना था मेरे गाँव से २०-२५ किमी दूर एक आउटर सिग्नल पर जब ज़ंजीर खींचकर ट्रेन रोकी थी किसी ने। बस फिर मैंने ये किताब यूँ ही उठा लिया।
क्या बेहतरीन किताब है! ना सिर्फ़ आँकड़ों और तथ्यों के साथ, बल्कि उसके बावजूद भी बांधे रखती है पढ़ने वाले को। बिहारी इससे बहुत जल्दी जुड़ पाएँगे, इसके नैरटिव से, लेकिन ऐसी किताब देश के सारे हिस्सों में पढ़ी जानी चाहिए। “रुकतापुर” को मैं “The Silent Coup” और “Everybody Loves a Good Draught” की श्रेणी में रखूँगा।
Violent as in Gangs of Wasseypur or, Romantic as in Panchayat?
The author dives deep and connects high-talk of politicians with lived-reality of common people. What emerges is a rooted and accurate portrait of Bihar.
Aptly named and plainly written. This book provides a closer look at Bihar from a reporter's perspective. It is a brilliant report's diary and should be read as one.