The novel opens with the death of the patriarch, Sher Singh, that forces every member of the family to return back to the haveli and start the funeral progressions. As time goes on and tensions rise, cracks emerge presenting old resentments and new expectations. And as one tragedy strikes after another, holding on to old traditions becomes more and more difficult, bringing to fore the true intentions of the so-called "selfless family members".
Putting "culture" and "tradition" under a microscope, Shuddhi showcases the dichotomy of rural and urban India in a family setting; it tackles the caste, age and gender biases we pass on from generation to generation, what we choose to overlook to protect those biases and more importantly, what we choose to confront to fight them.
Partially written in a satirical form, Shuddhi is a family drama that examines the Indian family system, the superficiality of it's moralistic values and the misogyny it carries.
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उपन्यास की शुरुआत परिवार के मुखिया शेर सिंह की मृत्यु से होती है। पंडित जी के कहे अनुसार मृत व्यक्ति की आत्मा, शुद्धि तक घर में रहने वाली है। बस यहीं से शुरू होता है उपन्यास का ताना-बाना... जहाँ मृतक की पत्नी अपने पति की आत्मा के ज़रिये घर-परिवार के लोगों के बदलते व्यवहार और यहाँ तक कि अपनी औलाद के असली चेहरों को भी देख पाती है। पहली मौत के कुछ दिनों के भीतर ही बुजुर्ग के भाई की मौत से हालात इस तरह बदलते हैं कि दोनों भाईयों के बेटों और शादीशुदा पोतों के परिवार भी एक छत के नीचे, एकसाथ रहने को मजबूर हो जाते हैं। दोनों बुजुर्ग भाईयों की विवाहित बेटियाँ और नातिन भी दुःख जताने पहुँचती हैं। इसी बीच हालात तब और पेचीदा हो जाते हैं जब घर के सबसे महत्वपूर्ण बेटे की पत्नी और उसकी लिव-इन-पार्टनर भी एकसाथ गाँव में पहुँच जाती हैं। वे सभी रिश्तेदार जो कभी एकसाथ रहने को तरसते थे इस समय साथ रहते हुए उनका रिश्तों से मोहभंग, घर के बड़े बेटे-बहू का बदलता व्यवहार, ज़मीन-जायदाद और पैसे के लालच के बीच युवाओं की सोच के साथ करवट लेते रिश्तों के कारण घर में स्थितियाँ लगातार बदल रही हैं। राजस्थान के सीमावर्ती शहर बीकानेर से सटे गाँव उदयरामसर में वर्षों के बिछोह के बाद मिल रही नयी पुरानी पीढ़ियाँ, दुःख के समय को भी हँसते-रोते हुए एकसाथ बिताने का सुख उठाती हैं। कम समय में ज़्यादा से ज़्यादा साथ रहने की इच्छा सबके भीतर होती है कि उसी समय स्थिति अचानक पलट जाती है। नये हालात में तेरह के बजाय साथ रहने वाले दिनों की संख्या लगातार बारी-बारी से बढ़ती रहती है।
Vandana Yadav is a Hindi language writer, motivational speaker and social worker. She was born in Bikaner, Rajasthan and currently resides in New Delhi.
Alongwith novels like 'Kitne Morche' and 'Shuddhi', she has also written a travelogue on Sikkim, published 3 poetry collections, contributed in children's literature among many other literary pursuits. Urdu Dost Foundation translated her poetry collection titled 'Kaun Aaeyga' in 2010.
She has also published short stories like 'Curfew', 'Middle Man' and 'Sugli' in literary magazines and regularly writes for leading newspaper, Jansatta alongwith publications like Purwai, addressing issues ranging from women's rights and self improvement to mental health and preservation of heritage. Her short story 'Middle Man' was translated by her daughter and published in literary journal, Kitaab in February 2024.
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लेखक, मोटिवेशनल स्पीकर, और समाज सेविका वन्दना यादव का जन्म 9 सितंबर को बीकानेर, राजस्थान में हुआ। हरियाणा की रहने वाली वन्दना जी का वर्तमान निवास स्थान दिल्ली है।
'कितने मोर्चे' और 'शुद्धि' उपन्यास के साथ यात्रा वृत्तांत, कविता-कहानी और बाल साहित्य की लगभग एक दर्जन पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। आप आधा दर्जन से अधिक पुस्तकों की एडिटर रही हैं। 'पुरवाई' अंतरराष्ट्रीय पत्रिका में साप्ताहिक कॉलम लिखने वाली वन्दना जी आकाशवाणी पर रचना पाठ एवं समाचार-पत्र, पत्रिकाओं में मानसिक स्वास्थ्य, महिला अधिकारों और अन्य सम-सामयिक विषयों पर निरंतर लेखन कर रही है।
एक संयुक्त परिवार उस समाज का एक छोटा रूप होता है जिसमें आने वाली परेशानियों को,उनके रिश्तों के बीच की कड़वाहट को , और हर उस पक्ष को समझा जा सकता है जिसकी वजह से एक समाज दूसरे से अलग साबित होता है या होना चाहता है। ऐसा ही एक परिवार है शेरशिंह का जिसके बारे में ये उपन्यास "शुद्धि" हमें कई सारे पक्षों से रूबरू करवाता है जिसे लेखिका वन्दना यादव जी ने बड़ी बारिकी से लिखा है। इसमें शेरसिंह जो की अपने परिवार में सबसे बड़ा है उसकी मृत्यु के बाद कैसे परिवार के लोगो और रिश्तों में आपसी मतभेद ऊबर कर आते है और कैसे इस परिवार की महिलाओं के हिस्से आने वाले सभी अनुभवों को समाज और परिवार के अन्य सदस्य देखते है समझते है और शायद महसूस भी करते है बस उसी की कहानी है ये उपन्यास। कहानी में शेरसिंह के मरने के बाद उसकी आत्मा की मदद से पुरुष पक्ष को भी व्यक्त करने का प्रयास किया गया है जो मेरे हिसाब से बड़ी रोचक कोशिश थी। कहानी के मुख्यपात्र की बात करे तो वो शेरसिंह ना होकर उनकी धर्मपत्नी रामप्यारी का किरदार है जो बेहद कमाल ढंग से लिखा गया है और उपन्यास के शुरुआत से लेकर उसके अंत तक उस किरदार का सफर एक पूरा जीवन प्रतीत होता है ढेरों उतर चढ़ाव और भावनाओं से ओतप्रोत परिस्थितियों में भी रामप्यारी का किरदार कमाल का बनकर सामने आता है। इसके अलावा जितने भी दूसरे किरदार है जैसे चाहे हो सुलोचना हो, पुष्कर हो, पार्वती हो, सीमा हो या लाल सिंह का किरदार हो सभी के परिवार के साथ और बाकी लोगो के साथ जैसे उन्हें बुना गया है वो आपकों पढ़ने में बहुत साधारण सा प्रतीत होगा उनके डर और उनके चयन जीवन को लेकर बहुत स्वाभाविक से लगेंगे आपकों जो शायद इस उपन्यास की सबसे कमाल बात रही मेरे लिए। एक के बाद आने वाली परेशानियों से ये पूरा परिवार किस तरह तेरहवीं का और शुद्धि का कार्यक्रम करवाता है बस उसी 27 दिनों की कहानी है ये उपन्यास, उपन्यास राजस्थान की पृष्ठभूमि पर आधारित है और उस हिसाब से भाषा शैली काफ़ी हद तक सही रखी गई है बस कहीं कहीं क्लिष्ट राजस्थानी शब्दों का प्रयोग है इसके अलावा वाक्य विन्यास और कहानी को जिस तरह लिखा गया है वो अच्छा है। लेखिका की लेखिनी में धार आपकों काफ़ी जगह देखने को मिलेगी और साथ ही व्यंग्य करते हुए कई सारे हिस्से मिलेंगे। कहानी में एक दूसरा परिवार भी है जिसके बारे में भी लिखा गया है जहां शेर सिंह का किरदार पुनः जन्म लेने वाला है वो पूरा प्लॉट ही मुझे व्यक्तिगत रूप से कहानी में कुछ ऐसा विशेष जोड़ता हुआ नही लगा। अब अगर कमियों की बात की जाए तो मुझे सबसे बड़ी शिकायत ये रही की उपन्यास पढ़ते हुए लगता है जैसे कहानी को विस्तार देने के लिए कथानक को थोड़ा खींचा गया है, मृत्यु और उसके बाद उसके दुःख को तीन बार लिखा गया है जो एक वक्त के बाद वहीं बातों को दोहराती हुई लगती है , कहानी में शेरसिँह के किरदार को और अच्छे से कहानी में इस्तेमाल किया जा सकता था ,उस किरदार के साथ बहुत कुछ कमाल का किया जा सकता था उसे बस पितृसत्तात्मक समाज के चेहरे बनाकर सीमित कर दिया गया है। बाकी अगर आपने "रामप्रसाद की तेरहवीं " फ़िल्म अगर देखी है तो आपकों ये उपन्यास कई जगह उस फिल्म की याद दिलाएगा जो सामान्य सी बात है विषय ही ऐसा इसलिए। अगर आप भी कुछ ऐसा पढ़ना चाहें तो इस उपन्यास को ऑनलाइन अमेज़न से ऑर्डर कर सकते है। वन्दना यादव जी को शुभकामनाएं और आभार ।
भारत एक विभिन्न संस्कृति, संस्कार और भाषाओं का देश है। जितनी इस देश की संस्कृति प्राचीन है उतनी ही परंपराएं.... इस उपन्यास में राजस्थान की प्राचीन संस्कृति और वर्तमान में परंपराओं का लेखा जोखा मिलता है... यह अपनी तरह का अनूठा उपन्यास है जिसमें किसी की मृत्यु के बाद जिन