एक लड़की जो अलग-अलग देशों में जाती है और अलग-अलग जींस और जज़्बात के लोगों से मिलती है। कहीं गे, कहीं लेस्बियन, कहीं सिंगल, कहीं तलाक़शुदा, कहीं भरे-पूरे परिवार, कहीं भारत से भी ‘बन्द समाज’ के लोग। कहीं जनसंहार का—रोंगटे खड़े करने और सबक देने वाला—स्मारक भी वह देखती है जिसमें क्रूरता और यातना की छायाओं के पीछे ओझल बेशुमार चेहरे झलकते हैं। उनसे मुख़ातिब होते हुए उसे लगता है, सब अलग हैं लेकिन सब ख़ास हैं। दुनिया इन सबके होने से ही सुन्दर है। क्योंकि सबकी अपनी अलहदा कहानी है। इनमें से किसी के भी नहीं होने से दुनिया से कुछ चला जाएगा। अलग-अलग तरह के लोगों से कटकर रहना हमें बेहतर या श्रेष्ठ मनुष्य नहीं बनाता। उनसे जुड़ना, उनको जोड़ना ही हमें बेहतर मनुष्य बनाता है; हमारी आत्मा के पवित्र और श्रेष्ठ के पास हमें ले जाता है। ऐसे में उस लड़की को लगता है—मेरे भीतर अब सिर्फ़ मैं नहीं हूँ, लोग हैं। लोग—जो मुझमें रह गए! लोग जो मुझमें रह गए—‘आज़ादी मेरा ब्रांड’ कहने और जीने वाली अनुराधा बेनीवाल की दूसरी किताब है। यह कई यात्राओं के बाद की एक वैचारिक और रूहानी यात्रा का आख्यान है जो यात्रा-वृत्तान्त के तयशुदा फ्रेम से बाहर छिटकते शिल्प में तयशुदा परिभाषाओं और मानकों के साँचे तोड़ते जीवन का दर्शन है। ‘यायावरी आवारगी’ श्रृंखला की यह दूसरी किताब अपनी कंडीशनिंग से आज़ादी की एक भरोसेमन्द पुकार है।
Unconventionally brought up, home-schooled, ex-national chess champion Anuradha currently lives in London. She teaches chess in London for living and writes about her day-to-day experiences in a foreign country!
लेखक अनुराधा की ये दूसरी कड़ी है यानी “आज़ादी मेरा ब्रांड”का एक्सटेंशन कह सकते है जिसमें ये समझने में ज़रा भी दिक़्क़त नहीं होती है कि दूसरे शहर दूसरे देश के अनजाने लोग कैसे आपके भीतर रह जाते है जिनको हर मौक़े को आप जब चाहे अपने अंदर चहलक़दमी करवा सकते है। ये तों लाज़िम है जब आप दूसरे देश में होते है तो आपको तुलना करना आसान हो जाता है अपनी सामाजिक स्ट्रक्चर और दूसरे देश की सामाजिक स्ट्रक्चर कई बारी आपको असहज कर सकती है लेकिन साथ साथ परिपक्वता और नज़रिया भी आपके अंदर दे जाती है। फिर चाहे बीना शादी के साथ रह रहे लोगों की बात हो या लड़कियों की आज़ादी की बात हो उनकी प्रॉपर्टी की बात हो या फिर उनके जीवन का नज़रिया हो सब कुछ आपको ये सोचने पर मजबूर तो करता है कि हम जिस सामाजिक व्यवस्था में है वो सही है या नहीं।
जब आप भारत में किसी भी अनजान इंसान से बात करने से पहले दस बार समझना चाहते है कि उससे ये बात की जाय या नहीं तो वैसे में दुनिया घूमना और दुनिया के कल्चर को समझना और समझने से पहले किसी अनजान इंसान पर विश्वास करना कठिन तो होता होगा इस कठिनाई और ऊहापोह में ख़ुद से कितना लड़ना होता होगा उसकी भी एक जर्नी जो आसान नहीं होती है वो भी शब्दों में और शब्दों के भाव में समझ आता है।
जिस तरह से अलग अलग लोगों को सुनना अलग अलग ज़िंदगी के गलियों में घूमना है उसी तरह इस किताब के अलग अलग चैप्टर और उनके कैरेक्टर को पढ़ना आपको ज़िंदगी के क़रीब और उनके गलियों में बहा ले जाते है।
पुस्तक अपने नाम के अनुरूप ही यात्रा दौरान मिले लोगों, उनके विचारों, उनकी संस्कृतियों के सम्बंध में उल्लेख करती हैं साथ ही लेखिका को स्वयं की संस्कृति व विचारों को अन्य संस्कृतियों से तुलना करने का अवसर देती हैं किंतु लेखिका संस्कति व विचारो के तुलनात्मक अध्ययन में केवल महिला सम्बन्धी पक्ष पर अधिक केंद्रित होती नजर आती हैं ; जो कि शायद लाज़मी भी हैं ।
पिछले कुछ महीनों से मैंने यात्रावृतांत के बारे में सर्च करना शुरू किया तब स्क्रॉल करते करते मुझे ये किताब मिली। मैंने ब्रीफ डिस्क्रिप्शन पढ़ते ही ऑर्डर कर दी। जब इसे हाथ में लिया तब मैने बहुत वक्त सिर्फ इसके कवर को देखा और सोचती रही कि लड़कियां सच में किसी से कम नहीं हैं! सपनों जैसी लगता है ऐसी कहानियां !
इस किताब के बारे में लिखने जैसा कुछ है नहीं क्योंकि ये पढ़ने के लिए बनी हीं नहीं है इसे महसूस किया जा सकता है। सफर यात्रा ये लफ्ज पढ़े नहीं जाते इन्हें जीना पढ़ता है। लेखिका विभिन्न देशों की यात्रा करती हैं। और बहुत आसान शब्दों में थोड़ा थोड़ा हर जगह, शहर, देश के बारे में लिखती हैं। मैं ये जानकर हैरान रह गई कि couch surfing जैसा साहसिक काम लड़कियां भी करती हैं! इसमें रूस और तुर्की का बहुत खूबसूरत वर्णन किया गया है। अगर आप travel literature के प्रेमी हैं तो बेशक इस किताब को पढ़ना चाहिए।