"अपने-अपने अजनबी - 'अपने-अपने अजनबी' अज्ञेय कृत एक अस्तित्ववादी उपन्यास है। इस उपन्यास की पृष्ठभूमि विदेशी है और दो विदेशी केन्द्रीय पात्रों सेल्मा और योके के माध्यम से उपन्यासकार ने पात्रों के अन्तर्द्वन्द्व, अकेलेपन, मृत्युभय, आस्था-अनास्था आदि आन्तरिक भावनाओं को सुन्दर और गहन रूप से अभिव्यक्त किया है। आधुनिक युग की सबसे बड़ी विडम्बना यह है कि हम साथ होने के अहसास को खोते जा रहे हैं। तथाकथित अपना परिवार, समाज और रिश्ते दंश की तरह चुभने लगे हैं। यह अजनबीपन मनुष्य और मनुष्यता को अभिशप्त बना रहा है। साथ होते हुए भी लोग आन्तरिक रूप से बहुत अकेले हैं। क़रीब रहकर भी एक-दूसरे को समझ नहीं पाते हैं, एक-दूसरे के लिए अजनबी बने रहते हैं। वर्तमान युग के वैचारिक क्षेत्र में आज काफ़ी बदलाव आये हैं। अत्याधुनिकता के भीड़-भाड़ में फँसकर न जाने हम कब कितने स्वार्थी बन गये। आवश्यकता से अधिक व्यावसायिक मुनाफ़ों के बारे में हर पल सोचते हैं। अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए ज़्यादा जागरूक रहते हैं, प्रतियोगिता की भावनाओं ने हमें एक यन्त्र के रूप में परिवर्तित कर दिया है। दूसरों के अस्तित्व के सिद्धान्त और मूल्य हमारे जीवन मूल्य के आगे फीके पड़ गये हैं। निजत्व की भावनाओं के कारण हमारे भीतर की सद्वृत्तियाँ प्रायः कम होती जा रही हैं। पारस्परिक सद्भावना, सहृदयता, प्रेम, दया, करुणा आदि जो हमारे जीवन के अपरिहार्य अंग थे, अब उन सद्वृत्तियों के अस्तित्व हम खोज नहीं पाते। हमारी मानसिकता में इतने द्रुत परिवर्तन आ गये हैं कि हमारे जीवन में इन सब सद्वृत्तियों का अस्तित्व लगभग मिट गया है। और इसी की पहचान करना 'अपने-अपने अजनबी' उपन्यास की मूल संवेदना है। "
जन्म : ७ मार्च १९११ को उत्तर प्रदेश के देवरिया जिले के कुशीनगर नामक ऐतिहासिक स्थान में।
शिक्षा : प्रारंभिक शिक्षा–दीक्षा पिता की देख–रेख में घर पर ही संस्कृत‚ फारसी‚ अंग्रेजी और बँगला भाषा व साहित्य के अध्ययन के साथ। १९२५ में पंजाब से एंट्रेंस की परीक्षा पास की और उसके बाद मद्रास क्रिश्चियन कॉलेज में दाखिल हुए।वहाँ से विज्ञान में इंटर की पढ़ाई पूरी कर १९२७ में वे बी .एस .सी .करने के लिए लाहौर के फॉरमन कॉलेज के छात्र बने।१९२९ में बी .एस .सी . करने के बाद एम .ए .में उन्होंने अंग्रेजी विषय रखा‚ पर क्रांतिकारी गतिविधियों में हिस्सा लेने के कारण पढ़ाई पूरी न हो सकी।
कार्यक्षेत्र : १९३० से १९३६ तक विभिन्न जेलों में कटे। १९३६–१९३७ में ‘सैनिक’ और ‘विशाल भारत’ नामक पत्रिकाओं का संपादन किया। १९४३ से १९४६ तक ब्रिटिश सेना में रहे‚ इसके बाद इलाहाबाद से ‘प्रतीक’ नामक पत्रिका निकाली और ऑल इंडिया रेडियो की नौकरी स्वीकार की। देश–विदेश की यात्राएं कीं। जिसमें उन्होंने कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय से लेकर जोधपुर विश्वविद्यालय तक में अध्यापन का काम किया। दिल्ली लौटे और ‘दिनमान’ साप्ताहिक, ‘नवभारत टाइम्स’, अंग्रेजी पत्र ‘वाक्’ और ‘एवरीमैंस’ जैसी प्रसिद्ध पत्र पत्रिकाओं का संपादन किया। १९८० में उन्होंने ‘वत्सलनिधि’ नामक एक न्यास की स्थापना की‚ जिसका उद्देश्य साहित्य और संस्कृति के क्षेत्र में कार्य करना था। दिल्ली में ही ४ अप्रैल १९८७ में उनकी मृत्यु हुई।
१९६४ में ‘आँगन के पार द्वार’ पर उन्हें साहित्य अकादेमी का पुरस्कार प्राप्त हुआ और १९७९ में ‘कितनी नावों में कितनी बार’ पर भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार।
प्रमुख कृतियाँ – कविता संग्रह : भग्नदूत, इत्यलम,हरी घास पर क्षण भर, बावरा अहेरी, इंद्र धनु रौंदे हुए ये, अरी ओ करूणा प्रभामय, आँगन के पार द्वार, कितनी नावों में कितनी बार, क्योंकि मैं उसे जानता हूँ, सागर–मुद्रा‚ पहले मैं सन्नाटा बुनता हूँ‚ महावृक्ष के नीचे‚ नदी की बाँक पर छाया और ऐसा कोई घर आपने देखा है। कहानी–संग्रह :विपथगा, परंपरा, कोठरी की बात, शरणार्थी, जयदोल, ये तेरे प्रतिरूप। उपन्यास – शेखरः एक जीवनी, नदी के द्वीप, अपने अपने अजनबी। यात्रा वृत्तांत – अरे यायावर रहेगा याद, एक बूंद सहसा उछली। निबंधों संग्रह : सबरंग, त्रिशंकु, आत्मानेपद, आधुनिक साहित्यः एक आधुनिक परिदृश्य, आलवाल, संस्मरण :स्मृति लेखा डायरियां : भवंती‚ अंतरा और शाश्वती।
उनका लगभग समग्र काव्य ‘सदानीरा’ ह्यदो खंडहृ नाम से संकलित हुआ है तथा अन्यान्य विषयों पर लिखे गए सारे निबंध ‘केंद्र और परिधि’ नामक ग्रंथ में संकलित हुए हैं।
विभिन्न पत्र–पत्रिकाओं के संपादन के साथ–साथ ‘अज्ञेय’ ने ‘तार सप्तक’‚ ‘दूसरा सप्तक’‚ और ‘तीसरा सप्तक’ – जैसे युगांतरकारी काव्य–संकलनों का भी संपादन किया तथा ‘पुष्करिणी’ और ‘रूपांबरा’ जैसे काव्य–संकलनों का भी।
वे वत्सलनिधि से प्रकाशित आधा दर्जन निबंध–संग्रहों के भी संपादक हैं। निस्संदेह वे आधुनिक साहित्य के एक शलाका–पुरूष थे‚ जिसने हिंदी साहित्य में भारतेंदु के बाद एक दूसरे आधुनिक युग का प्रवर्तन किया।
Sachchidananda Hirananda Vatsyayana 'Agyeya' (सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन 'अज्ञेय'), popularly known by his pen-name Ajneya ("Beyond comprehension"), was a pioneer of modern trends not only in the realm of Hindi poetry, but also fiction, criticism and journalism. He was one of the most prominent exponents of the Nayi Kavita (New Poetry) and Prayog (Experiments) in Modern Hindi literature, edited the 'Saptaks', a literary series, and started Hindi newsweekly, Dinaman.
Agyeya also translated some of his own works, as well as works of some other Indian authors to English. A few books of world literature he translated into Hindi also.
i really liked the way the author deals with the issues of morality in the face of death. The awkwardness that the characters express, the quite desperation to get it over with signifies that there is no dignity in death even if we attempt to dignify it. Anyone who is interested to know the complete psychological analysis of the characters of a novel they are reading, should definitely read this one.
दिवाली से एक दिन पहले एक ऐसी किताब पढ़ी जो बात करती है आसन्न मृत्यु के बारे मे, ईश्वर के बारे मे, म्र्त्यु को ईश्वर समझने के बारे मे और ऐसी ही कई सारी चीजों के बारे मे जिसके बारे मे अक्सर बात नहीं करते है न ही व्यस्त जीवन मे ऐसा कुछ सोचने का मौका मिलता है।
कहानी के दो मुख्य पात्र है योके और सेल्मा। सेल्मा एक केन्सर पीड़ित वृद्धा है जो की मृत्यु के द्वार पर बैठी है और योके एक युवती है जो की कहानी की केंद्रीय पात्र है। बर्फ से दबे हुए घर मे ये दो महिलाएँ पूरे ठंड के मौसम के लिए सेलेमा के घर में फंस जाते है और यही से शुरू होती है विकारों, आवेशों, अकेलेपन और मृत्यु से साक्षात्कार की कहानी ।
मनुष्य के अंदर क्या क्या छिपा होता है यह खुद मनुष्य भी नहीं जानता है। अज्ञेय जी ने इस उपन्यास में मनुष्य के अंदर छिपे उस रहस्य के करीब जाने की कोशिश की है। जाब हम अमानवीय स्थिति में होते है तब हमारी पूरी विचार प्रणाली बदल जाती है। योके और सेल्मा के द्वारा अज्ञेय हमें उस अपरिचित क्षेत्र मे ले जाते है जो रहस्यमयी है, जिसमें डर के साथ साथ एक मिश्रित सा रोमांच है। जीवन के सबसे दुखद पहलू मृत्यु के बारे में हिन्दी साहित्य में बहुत कम लिखा गया है, कहीं पढ़ा था की रिलके ने अपने एकमात्र उपन्यास नोटबुक ऑफ माल्टे मे मृत्यु का जीवंत और उज्ज्वल वर्णन किया है। मैंने उसे भी पढ़ने का प्रयास किया पर भाषा की दूरी के कारण वह उपन्यास मन को बांध नहीं पाया और आधा पढ़ कर उसे छोडना पड़ा। किन्तु जब इसी रहस्यमयी विषय मृत्यु पर लिखी किताब पढ़ी तो ऐसा लगा जैसे मृत्यु कोई भयानक या दूर की चीज न होकर कोई आत्मीय सी अपनी चीज हो जिसपर मुग्ध हुआ जा सके, जिसपर रिझा जा सके। इस किताब मे मृत्यु और अकेलेपन की इतनी गहन जाँच पड़ताल की गयी है की पढ़ने के दौरान ऐसा लगता है जैसे की पाठक भी योके और सेल्मा के साथ बर्फ से दबे हुए घर में फंस गया है और यह पता नहीं है की कब तक ऐसे ही फंसा रहेगा या फिर मृत्यु ही इसका अंत होगा।
अतीत बहुत विशाल है और हम बहुत छोटे। उसके पत्थर बहुत चिकने हैं। जरा सा कदम फिसला और हम उसमे गिरते ही जायेंगे। इसकी विशालता और भव्यता के सामने हमारा आज बहुत बचकाना नजर आता है। हमें अतीत की इज्जत करना कभी नहीं आया। कमसेकम अभी तक तो नहीं।
यहां पत्थरों से टकराकर हवा बीते हुए का संगीत छेड़ती है। पर आज का शोर इतना है कि सब दूषित हो जाता है। जरूरत है मौन होने की, उन पत्थरों को छूने की। जिससे उनके होने को सुन सकें। सीख सकें कि क्या हुआ था कैसे हुआ था और आज कैसे बना। शायद इससे कल थोड़ा बेहतर हो सके।
आकर्षित वो करता है जो अधूरा है। जिसके भीतर जाना मना है। जिसकी आधी दीवार टूट चुकी है और वो अभी तक खड़ा है। सतत। अपने शोक के साथ। जो पूरा बना खड़ा है उसमें जीवन के लक्षण कम दिखते हैं। मैंने खुदको एक दीवार से चिपटा हुआ देखा। वो टूटी दीवार थी।
ठीक यहीं बैठकर किसी ने ठीक यही बातें सोची होंगी। अपने होने की। अपने भविष्य की। क्या मैं उसे देख सकता हूं जो ठीक इन चट्टानों और किले के सामने बैठकर सोच रहा होगा कि आने वाला कल कैसा होगा? सवाल शायद आज भी वही हैं। क्या कुछ बदलता है? सिर्फ होना धीमे धीमे न होने के बदलता रहता है। इसे हमेशा नहीं बचाया जा सकता। क्या बचेगा ant me? जिन्होंने इसे बनाया था अपने को बचाए रखने के लिए वो भी तो नहीं बचे!!
Definitely one of my all time favourite- hard hitting, thought provoking and unconventionally fresh. Highly recommend it! Broadens our perspective on life and death
यह पुस्तक पढ़ते ही मेरे दिमाग में पहला खयाल यह आया था की, "भई इतनी बढ़िया किताब और प्रख्यात होनी चाहिए थी!" मनोविश्लेषण शैली में अज्ञेय के स्तर के लेखक केवल भारत नहीं, विश्व में भी कम ही होंगे अतः इस किताब में भी उनकी कलम का जादू प्रत्यक्ष है।
Story of a few characters and exploring question of existence, relations interestingly. Very small book of just 118 pages but one among good books I have read so far.
72 पन्नों पर बिछी एक जादुई दुनिया। यथार्थ के सबसे करीबी कल्पना। अज्ञेय के सर्वोच्च लेखन की प्रति, खूबसूरत, डरावने और सरियल दृश्य। बहुत गहरी छाप छोड़ने वाली किताब।