कुपुत्र

अब जब परिस्थितियाँ
इतनी बिगड़ ही गई है
तो बिगड़ी ही रहने दो

दीवार वापस खड़ी हो भी गई
यदि घर में
दरारें लेकिन
मिट तब भी नहीं पायेंगी

अब के जो निकला हूँ
मुक्त हो कर
संबंधों के पाश से
तो भटक लेने दो थोड़ा

ताकि कुछ
अपने मन की भी
कर सकूँ
जीवित हूँ जब तक

मुट्ठी जो बंद रही
नातेदारों के दबाव में
उसे खोल कर
देख सकूँ
घुमाव भाग्य की लकीरों के

समझा सकूँ स्वयं को
कि दुनिया भले ही
कुपुत्र कहे मुझे
किन्तु सत्य यह भी है
माँ-बाप भी कभी कभी
कुमाता-कुपिता हो सकते हैं

जो सिर्फ अपने हिसाब से
करते हैं देख-रेख
अपने बच्चों की
और नहीं सोचते एक पल
नन्हों का मन क्या चाहता है

जो इतना मारते पीटते हैं
अपने ही बालक को
अपने ही विरुद्ध विष भरते हैं अनजाने
कोमल उसके मन में पल पल

जो इतने ताने सुनाते हैं
दिन हो या रात हर पहर
कि घर घर नहीं रहता
बन जाता है कारागार,
काल कोठरी, काला पानी

जहां प्रतिदिन उसे दण्ड
नया सुनाया जाता है
कोई नवीन 'कु'कृत्य करने पर

हर ओर निराशा का अंधकार
जब बन जाता है
बालक का संसार
और घुटने लगता है दम
क्योंकि हर सांस के लिए
लेनी पड़ती है अनुमति
अभिभावक की ही

और बाँटी जाये
हर अपेक्षा पर
एक भारी उपेक्षा
उदासीनता के कलेवर में

तब भीतर का अंगार
देता है रूप नहीं शान्ति को,
अपितु क्रान्ति को

और वह दावानल जब
जलाकर राख करने लगता है
माता-पिता का 'दिव्य' स्वप्न
तब संसार उसे नाम देता है
'महाशय कुपुत्र हैं'

अगर आशीष के साथ
मिली हो झिड़कियाँ
एवं वाक्य-बाण निरंतर
और घायल हुए हो
किसी मासूम के प्राण

उस दशा में यदि वह
आंसुओं की ढलान को
कर ले तब्दील
भाव-शून्यता के कवच में
तथा परिजन आसक्ति से मोड़ ले मुख
सदा के लिए
तो दोष किसका!

पच्चीस की आयु पूर्ण होने पर भी
जीवन के सबसे बड़े मंच हेतु
यानि विवाह के निर्णय में
उसकी राय तक न ली जाये
तो युवक के पास बचा चारा क्या!
ऐसे हीन का अब सहारा क्या!

वह घर छोड़कर चला जाये ?
या जो थोड़ा बहुत प्रेम का सागर
उसके अन्दर बचा हुआ है
उसे भी विषधरों को भेंट कर दे ?
अपने परम अरमानों को भी
सूली चढ़ा दे जान बूझकर ?!

आज यह कुपुत्र
अपने जन्मदाताओं को
भीषण श्राप देता है

कि केवल अपने हिसाब से
बच्चों को ख़ुशी देने वाले
उनके सात्विक मन की
एक बात तक न मानने वाले
उनकी व्यथा को जीवन भर
न समझने वाले कुटुम्बी

सदा अश्रु-विलाप में रहेंगे
न उनका पुत्र विवाह करेगा
न उन्हें अगली पीढ़ी के दर्शन होंगे

कितना निस्सार अंत है न!
वंश और कुल की मरीचिका में
हृदय पतन की विभीषिका में
एक परिवार स्वतः समाप्त हो गया
जीवन मेरा अपनों से ही
संग्राम में व्याप्त हो गया ||

--
विकास प्रताप सिंह 'हितैषी'

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Published on August 30, 2013 10:06
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message 1: by Mita (new)

Mita Jain A little extreme point of view... but I liked it. Nicely written.


message 2: by Vikas (new)

Vikas Singh :)


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