Shailendra Singh Rathore
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“दीप्ति सकलानी उसे देख रही थी। प्रश्नवाचक चिह्न बन कर। अमिय रस्तोगी ने ऐन वक्त पर दिमाग से काम लिया। उसने अपने आप को विस्मयादिबोधक निशान बना लिया। दो प्रश्नवाचक चिह्न एक-दूसरे की तरफ देखते हुए नुकीले आधार पर टिके एक पक्के शून्य की रचना कर डालते। अमिय रस्तोगी ने अपनी सूझ-बूझ से आधे शून्य की परिकल्पना को संभव किया। यह नयी बात थी और इस अप्रत्याशित बुनियाद पर आगे बेहतर कुछ प्रत्याशित घटित हुआ।”
― KHELA
― KHELA
“अधूरी बात को पूरी बात वाले कायदे से भले खत्म किया जाए, फिर भी उसका अधूरापन छिप नहीं पाता।”
― KHELA
― KHELA
“वह कैलेण्डर के बदलते पृष्ठों के बीच आखिरी दिन वाला पन्ना थी, संसार में जिसे फाड़े जाने का रिवाज नहीं था।”
― KHELA
― KHELA
“उस खुशबू का स्वाद मीठा नहीं हो सकता था।तीखा भी नहीं होता वह। वरा कुलकर्णी की कल्पना में उसे भी नमकीन ही होना था।दोनों गैर- मीठे थे पर कुल- गोत्र अलग थे उनके।
एक थोड़ा नमकीन सा ज्यादा था। दूसरा खारेपन के कुछ करीब था। दोनों पृथक उमग से उठते थे, पर आखिर में एकमेव होने का तादात्म्य गजब था। यह सब एकतरफा प्रयास से संभव नहीं हो सकता। दोनों को अलग-अलग कम होना होता था, साथ-साथ ज्यादा होने के लिए।”
― KHELA
एक थोड़ा नमकीन सा ज्यादा था। दूसरा खारेपन के कुछ करीब था। दोनों पृथक उमग से उठते थे, पर आखिर में एकमेव होने का तादात्म्य गजब था। यह सब एकतरफा प्रयास से संभव नहीं हो सकता। दोनों को अलग-अलग कम होना होता था, साथ-साथ ज्यादा होने के लिए।”
― KHELA
“क्या प्रेम में पहले लकीरें खींच कर खेल के नियम तय कर लेना अनिवार्य है? .....
पहले भी हम अलग-अलग ही साथ रहे होंगे। वक्त की बही में कोई सम्मिलित ठेस या साझा छलाँग हमारे खाते में दर्ज नहीं हुई होगी।
सच है यहाँ भी रंग है बहुत। फूल का ढेर सा पीला रंग है, नारंगी आकाश और नीले पानी की नदी के बीच। इतने गहरे रंगों के बीच दुबले-पतले रंग का हमारा रिश्ता ठीक खड़ा नहीं हो पा रहा। जबकि रंग आपस में लड़ते हों ऐसा भी नहीं। फिर उसका इस तरह कँपकँपा लेना मुझे अस्थिर तो करता है। जब ऐसा है तो हम उसे खड़े होने के लिए या घुटनों के बल बैठ कर डगमग कदम बढाने के लिए या कमर के बल रेंग कर ही कोई करतब दिखाने के लिए मजबूर क्यों करें? उसे उसके ही हाल पर छोड़ देना चाहिए। क्या जाने हम किन्हीं गुमनाम रंगों का जोर देख पाने के गवाह ही बन जाएँ कभी।
किसी बीतते हुए को रोक लेने और जाने देने के बीच के फर्क का कायदा बस इतना सा ही तो है।”
― KHELA
पहले भी हम अलग-अलग ही साथ रहे होंगे। वक्त की बही में कोई सम्मिलित ठेस या साझा छलाँग हमारे खाते में दर्ज नहीं हुई होगी।
सच है यहाँ भी रंग है बहुत। फूल का ढेर सा पीला रंग है, नारंगी आकाश और नीले पानी की नदी के बीच। इतने गहरे रंगों के बीच दुबले-पतले रंग का हमारा रिश्ता ठीक खड़ा नहीं हो पा रहा। जबकि रंग आपस में लड़ते हों ऐसा भी नहीं। फिर उसका इस तरह कँपकँपा लेना मुझे अस्थिर तो करता है। जब ऐसा है तो हम उसे खड़े होने के लिए या घुटनों के बल बैठ कर डगमग कदम बढाने के लिए या कमर के बल रेंग कर ही कोई करतब दिखाने के लिए मजबूर क्यों करें? उसे उसके ही हाल पर छोड़ देना चाहिए। क्या जाने हम किन्हीं गुमनाम रंगों का जोर देख पाने के गवाह ही बन जाएँ कभी।
किसी बीतते हुए को रोक लेने और जाने देने के बीच के फर्क का कायदा बस इतना सा ही तो है।”
― KHELA
Shailendra’s 2024 Year in Books
Take a look at Shailendra’s Year in Books, including some fun facts about their reading.
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