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Ramdhari Singh 'Dinkar'
“तुच्छ है राज्य क्या है केशव?
पाता क्या नर कर प्राप्त विभव?
चिंता प्रभूत, अत्यल्प हास,
कुछ चाकचिक्य, कुछ क्षण विलास |

पर वह भी यहीं गँवाना है,
कुछ साथ नहीं ले जाना है |


'मुझसे मनुष्य जो होते हैं,
कंचन का भार न ढोते हैं,
पाते हैं धन बिखराने को,
लाते हैं रतन लुटाने को |

जग से न कभी कुछ लेते हैं,
दान ही हृदय का देते हैं |


'प्रासादों के कनकाभ शिखर,
होते कबूतरों के ही घर,
महलों में गरुड़ ना होता है,
कंचन पर कभी न सोता है |

बसता वह कहीं पहाड़ों में,
शैलों की फटी दरारों में |


'होकर समृद्धि-सुख के अधीन,
मानव होता नित तप: क्षीण,
सत्ता, किरीट, मणिमय आसन,
करते मनुष्य का तेज-हरण.

नर विभव हेतु लालचाता है,
पर वही मनुज को खाता है |


'चाँदनी, पुष्प-छाया में पल,
नर भले बने सुमधुर, कोमल,
पर अमृत क्लेश का पिये बिना,
आतप अंधड़ में जिये बिना,

वह पुरुष नहीं कहला सकता,
विघ्नों को नहीं हिला सकता |


'उड़ते जो झंझावतों में,
पीते जो वारि प्रपातों में,
सारा आकाश अयन जिनका,
विषधर भुजंग भोजन जिनका,

वे ही फणिबंध छुड़ाते हैं,
धरती का हृदय जुड़ाते हैं |


'मैं गरुड़ कृष्ण ! मैं पक्षिराज,
सिर पर ना चाहिए मुझे ताज |
दुर्योधन पर है विपद घोर,
सकता न किसी विधि उसे छोड़,

रण-खेत पाटना है मुझको,
अहिपाश काटना है मुझको”
Ramdhari Singh 'Dinkar', रश्मिरथी

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