Laxman Rao's Blog

December 6, 2018

Writing & Publishing Workshop by Author Laxman Rao

Writing & Publishing Workshop by Author Laxman Rao
Become a published author and start earning Rs.5,000/- to Rs.50,000/- per month.
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Entry Fees : Rs. 500/- (Rs. Five Hundred Only)

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1. Paytm @ 9990666043
2. Account Transfer to:
    
    Bhartiya Sahitya Kala Prakashan
    Current A/c No. - 0158201030893
    IFSC -  CNRB0000158
    Canara Bank, DDU Marg Branch, New Delhi - 110002


Topics to be discussed in the workshop:
How to write and finish book.Discussion on publishing process.How to self publish on Kindle Store.How to start selling your book on Amazon and Flipkart for free.Importance of marketing and promotions.How to earn royalty on sale of your books.
Date    : Sunday, 6 January 2019
Time   : 4:00 pm to 8:00 pm
Venue : Hindi Bhawan (Third Floor)
             Vishnu Digamber Marg
             New Delhi - 110 002


Limited Seats Available

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Mobile No. +91 9990666043, 9210415574
Email : laxmanrao.bskp@gmail.com
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Published on December 06, 2018 04:37

August 7, 2018

ADHYAAPAK - SAMAAJIK HINDI NAATAK

ADHYAAPAK - SAMAAJIK HINDI NAATAK
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Published on August 07, 2018 10:28

Navyuvakon Ka Uttardayitva

Author Laxman Rao's Latest Books Available for Sale Now  navyuvakon_ka_uttardayitva_by_laxman_rao_author   
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Published on August 07, 2018 10:22

January 7, 2018

What is Kindle Unlimited



What is Kindle Unlimited?Kindle Unlimited is a service in which a subscriber is entitled to read unlimited kindle books from the Kindle Store. The kindle books which are available to read for a subscriber are those kindle books which are enrolled in Kindle Unlimited. Currently, Kindle Store has over one million kindle books enrolled in Kindle Unlimited.

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After subscribing to Kindle Unlimited, the subscriber can read unlimited kindle books enrolled in Kindle Unlimited feature. 

But he can keep up to only 10 kindle books at a time on his device. If he wants to read more than 10 kindle books he needs to return those which are already present there on his device. 

Subscriber loses the access to Kindle Unlimited books once his subscription period gets over.



How much is a Kindle Unlimited Subscription?Monthly fees for Kindle Unlimited Subscription are as follows: Kindle Unlimited Membership Plans[image error] Amazon.in – Rs.150 per monthAmazon.com - $ 9.99 per monthAmazon.uk – £ 7.99 per month
New subscribers are also entitled to Kindle Unlimited free trial in which a reader can subscribe and use this feature absolutely free for the first 30 days. The subscriber will be charged if he chooses to continue using Kindle Unlimited subscription following 30 days free trial.
Is Kindle Unlimited worth it?This depends on many factors but the main things to be considered while choosing to subscribe Kindle Unlimited are as follows:
The number of kindle books a reader can read in a monthThe maximum amount a reader is willing to spend on the kindle books in a month
Let’s take an example.
Suppose a person reads around 10 kindle books in a month and he is willing to spend a maximum amount of US $ 20 per month. If he subscribes to Kindle Unlimited, he will have to spend only half the amount i.e. the US $9.99 and will have the access to over one million kindle books enrolled in Kindle Unlimited. And he wouldn’t have to spend a single penny for the first one month thanks to Kindle Unlimited free trial.
Hence it will be feasible for that reader to subscribe to Kindle Unlimited and he can opt out of this subscription whenever he chooses to do so.


Author Laxman Rao's Kindle Books  As author Laxman Rao’s all kindle books are enrolled in Kindle Unlimited, you can enjoy reading all of them absolutely free after subscribing to Kindle Unlimited service. 

But if you purchase all the kindle books authored by Laxman Rao, it would cost you INR 625 (5 kindle books x Rs.125/- = Rs.625/-).  

After subscribing, your Kindle Unlimited free trial will start in which you can read author Laxman Rao’s all kindle books for free.

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Published on January 07, 2018 09:44

July 22, 2017

दंश - सामाजिक घटनाओं पर आधारित प्रेरणात्मक उपन्यास


परमजीत उच्च शिक्षा ग्रहण करने पंजाब से पूना आता है. यहां उसकी भेंट लता मैडम से होती है. लता मैडम भी पंजाब से ही थीं, इसलिए दोनों में घनिष्ठता बढ़ती जाती है. लता मैडम की छोटी बहन नंदिनी आंशिक रूप से लकवाग्रस्त होती है जिसे नियमित रूप से थैरपी सेंटर ले जाना पड़ता था. इसलिए लता मैडम परमजीत से अनुरोध करती हैं कि वह नंदिनी को थैरपी सेंटर ले जाया करे.
 जब परमजीत नंदिनी को थैरपी सेंटर ले जाना शुरू करता है तो नंदिनी एक घर के सामने टैक्सी रुकवाकर बहुत देर तक उस घर की तरफ देखती रहती और कभी हंसती, कभी रोती तो कभी भावुक हो जाती थी. फिर उस घर से कुछ दूर एक खण्डहर हो चुके मकान के सामने भी रूकती और उसे देखती रहती. कई दिनों तक यही क्रम चलता रहा. धीरे-धीरे परमजीत को यह आभास होने लगता है कि नंदिनी के जीवन में अवश्य ही कोई अप्रिय घटना घटी है जिसके फलस्वरूप नंदिनी की आज यह अवस्था है. यही नंदिनी के जीवन का सबसे बड़ा दंश है. परमजीत ठान लेता है कि वह नंदिनी के जीवन के पूर्व इतिहास का पता लगाएगा और नंदिनी के जीवन को संवारने का प्रयास करेगा.

laxman rao books Download this novel on FREE Kindle Reading App Now 1 कुछ ही दिनों में वहां मेरा मन लग गया। पढ़ाई के साथ नौकरी भी आराम से कर रहा था। जिस कपड़े के शोरूम में मैं काम कर रहा था उसमें काम करते हुए मुझे तीन महिने हो चुके थे और तीन महिने कब बीत गये पता ही नहीं चला। उन तीन महिनों में मैंने अपनी योग्यता दिखाकर सबका दिल जीत लिया था। जो कर्मचारी मुझसे सीनियर थे वे भी मुझे सम्मान देते थे। सेठ साहब तो कभी-कभी मुझे गल्ला सम्भालने का काम भी दे देते थे। इतना विश्वास वे मुझ पर करने लगे थे। जब कभी मैं गल्ले पर बैठता था तो कुछ लोगों की मुझ पर बहुत नज़र रहती थी। जैसे कि उसी शोरूम के बाहर एक चाय की दुकान थी। उस चाय की दुकान पर चार-पांच लड़के चाय पीने आते थे। उनकी हरकतों से ऐसा लगता था जैसे वे लोग मुझ पर नज़र रख रहे हों। जब भी मैं उस चाय की दुकान पर चाय पीने जाता था तो वे एक-दूसरे को इशारा करते हुए मुझे देखते रहते थे। उन लोगों के इस व्यवहार के कारण मुझे उन लोगों पर शंका होने लगी थी। वे चारो-पांचों लड़के पच्चीस से तीस वर्ष की उम्र के थे, परन्तु पढ़े-लिखे बिल्कुल नहीं लगते थे और बन-ठन कर रहते थे। अब मुझे उनसे डर भी लगने लगा था। उनमें महेश नाम का जो एक लड़का था वह मेरे साथ बात करने का भी प्रयास करता था। वे सब मेरा नाम भी जानते थे। अधिकतर उनका चाय की दुकान पर आना शाम के छह बजे होता था और उसी समय मैं भी चाय पीने के लिए उसी दुकान पर जाता था। एक दिन वे चारों-पाचों लड़के चाय की दुकान पर कप हाथ में लेकर चाय की चुस्कियां लेते हुए आपस में बातचीत कर रहे थे कि मैं वहां पहुंच गया। वे एकटक मेरी तरफ़ देखने लगे। मैंने चाय वाले से कहा—“एक चाय देना।” चाय वाले ने गर्दन से ईशारा किया “दे रहा हूं।” और मैं इधर-उधर देखता हुआ खड़ा रहा। तभी उन लड़कों में से एक ने कहा—“कैसे हो परमजीत?” मैंने उसकी तरफ़ देखा। वह महेश था। आगे बोला—“काम धंधा ठीक चल रहा है न परमजीत?” मैंने कहा—“बहुत बढ़िया।” कहने लगा—“बहुत बढ़िया मत कहो यार ! टाइम पास हो रहा है, यह कहो।” मैंने कहा—“यह भी कह सकते हो।” इतने में चाय वाले का कर्मचारी मेरे लिये एक कप चाय लाकर मुझे देने लगा। मैंने चाय का कप अपने हाथ में पकड़ा और पीने लगा। इसके साथ-साथ वे चारों-पांचों लड़के मुझसे क्रमानुसार बातचीत करने लगे। किसी ने मेरा गांव पूछा, किसी ने मेरा पूना आने का कारण पूछा, आदि-आदि। पर एक ने तो कह दिया—“अरे यार ! तुम छोड़ दो इस नौकरी को। हमारे साथ जुड़ जाओ। तुम्हारी ज़िन्दगी बन जायेगी।” मैं उनकी हर बात समझ रहा था पर वे मुझसे क्या चाहते हैं, यह मेरी समझ में नहीं आ रहा था। मैंने कहा—“भाई जहां मैं नौकरी कर रहा हूं, यह काम भी आसानी से मिल सकता है क्या?” उनमें से रमन नाम का लड़का बोला—“यह तो तुम ठीक कह रहे हो, पर हमारे पास तुम्हारे लिये इससे भी बढ़िया काम है। तुम हिन्दी बहुत अच्छी बोल लेते हो और तुम्हारे शरीर की कद-काठी भी बहुत अच्छी है। हमें तो तुम्हारे जैसे ही लड़के की तलाश थी।” हमारा वार्तालाप जारी था, इतने में ही दुकान से लड़का आया और बोला—“परमजीत जल्दी चलो, सेठजी बुला रहे हैं।” मैंने चाय का कप वहीं बेंच पर रखकर चाय के पैसे दिये तथा शोरूम की तरफ जाने लगा। उन्हीं लड़कों में से सुरेश नाम का लड़का बोला—“हमारी बातों पर आपने ध्यान नहीं दिया परमजीत।” मैंने कहा—“हां-हां देखेंगे।” यह कहकर मैंने घबराते हुए शोरूम में प्रवेश किया। उस समय शोरुम में एक पंजाबी परिवार कपड़े खरीदने आया था। इसलिये सेठजी ने मुझे बुलाया था। यह जानकर मेरी घबराहट कुछ कम हुई। चार-पांच दिनों के बाद फिर एक बार उन लड़कों ने मुझे घेर कर मुझसे बातचीत करनी चाही। वे मुझे अपने साथ जोड़कर अपना काम बांटना चाहते थे पर काम क्या है यह उन्होंने तब तक नहीं बताया था और न ही मुझे पता चला था। उनकी बातों से मुझे वे ईमानदार व शरीफ तो नहीं लग रहे थे और मैं उनके साथ काम करुं यह मैं सोच भी नहीं सकता था, परन्तु वे मुझे बार-बार प्रलोभन दे रहे थे और मेरे साथ सहानुभूति भी दिखा रहे थे। 2 वे लोग मुझसे क्या चाहते हैं यह कल्पना करना असंभव था। मैंने चाय वाले से कहा—“क्या आप मेरा एक काम करोगे?” कहने लगे—“बोलो।” मैंने कहा—“वे लोग मेरे प्रति क्या भावना रखते हैं, इसका पता करना है। क्या आप पता कर सकते हो?” चाय वाला बोला—“तुम्हारे बारे में वे क्या सोच रहे हैं, इसकी जानकारी मुझे बहुत दिनों पहले ही लग चुकी है।” मैंने आश्चर्य से पूछा—“अच्छा! क्या चाहते हैं वे लोग मुझसे?” चाय वाला बोला—“तुम्हारे बारे में वे अच्छा सोच रहे हैं पर तुम उन लोगों के बीच में मत पड़ना।” मैंने पूछा—“ऐसा क्यों लालाजी?” बोले—“भाई तुम शरीफ और परदेसी लड़के हो। इनके साथ रहकर तुम भी शराफत भूल जाओगे।” मैंने कहा—“धन्यवाद लालाजी!” यह कहकर मैंने लाला का आभार व्यक्त किया। उन लड़कों से मेरी एक-दो दिनों के अंतराल पर भेंट होती रहती थी। उनमें से एक लड़का मुझे शरीफ लगता था। उसका नाम सुरेश था। उससे मेरी दोस्ती बढ़ने लगी। उसने मुझे सारी जानकारी दे दी। वे लोग न तो बदमाश थे न ही बेकार थे। परन्तु जैसा आदमी मिला, वे उससे उसी हिसाब से बात करते थे। मुझे वे अपने साथ इसलिये जोड़ना चाहते थे कि मैं उनके साथ जुड़कर उनके व्यापार में विस्तार करूं। उनमें एक लड़का था ‘सूरज’। वह सब लड़कों का बॉस था। उसने तीन लड़के वेतन पर रखे हुए थे। तीन लाख रुपये दस प्रतिशत ब्याज पर कारखानों के मज़दूरों को दे रखे थे। एक दिन सूरज भाई ने मुझे पकड़ लिया। मेरे कंधे पर हाथ रख कर मुझसे बात करने लगे। मेरे जीवन की सारी जानकारी उन्होंने ले ली। सप्ताह में दो दिन अपने साथ काम करने का अनुरोध किया और मैंने स्वीकार भी कर लिया। दो दिन अर्थात् शनिवार और रविवार। मैं लगातार दो महिने तक उनके साथ काम करता रहा। सूरज भाई और उनके तीन साथियों को मैंने अच्छी तरह से समझ लिया था। वे चारों ही शरीफ थे, पर धंधा ऐसा था की गन्दी गाली देना, तू-तड़ाक बोलना और समय आने पर थप्पड़ मारना यह सब होता था। दो महिने में उन्होंने मुझे बत्तीस ग्राहक दे दिये जो उनके पुराने ग्राहक थे। उनमें से चार-पांच पंजाबी व आठ-दस उत्तर प्रदेश व बिहार से थे। 3 सूरज, महेश, रमन और सुरेश चारों ही मेरे अच्छे मित्र बन गये थे। उन चारों से मेरा मन लग गया था। वे चारों मेरा बहुत सम्मान करते थे। आरम्भ में मैं जैसे उन्हें बदमाश-आवारा समझ रहा था, वे वैसे नहीं थे। उनका रहन-सहन, हाव-भाव व बोलचाल बदमाशों जैसा था। किन्तु स्वभाव से बहुत अच्छे थे। सूरज भाई को मैं ‘सूरज भाई’ कहकर सम्बोधित करता था क्योंकि वह हम सबके बॉस भी थे और आयु में भी हम सबसे 5-6 वर्ष बड़े थे। उनके वार्तालाप में एक बात मुझे रहस्यमय लगती थी-‘दो बटा साठ’। उन सबके मुंह से ‘दो बटा साठ’ सुनकर मुझे एक विचित्र आभास होता था। मैंने उन चारों से कई बार पूछा भी कि यह ‘दो बटा-साठ’ क्या है? पर सभी ने इसे हंस कर टाल दिया। सूरज भाई से जब मैंने पूछा तो वह भी कहने लगे—“छोड़ो यार परमजीत, तुम जानकर क्या करोगे?” लेकिन मैं इस रहस्य को अवश्य जानना चाहता था और इसी जिज्ञासा के कारण मैं असमंजस में था। एक दिन जब मैं शोरूम से आपने कमरे पर जाने के लिए निकला तो किसी ने पीछे से मेरे कन्धे पर हाथ रखा। वह सूरज भाई थे, मैंने आश्चर्य से देखकर उनसे पूछा—“हां जी भाई साहब, इस समय यहां कैसे?” सूरज भाई बोले—“चलो पहले चाय पीते हैं, फिर हमें एक जगह जाना है। उसके बाद मैं तुम्हें तुम्हारे कमरे पर छोड़ दूंगा।” हम चाय की दुकान पर गये, वहीं पर सूरज भाई ने अपना स्कूटर खड़ा कर रखा था। चाय का ऑर्डर देकर स्कूटर की डिक्की खोलकर उसमें से नोटों की गड्डियां निकालकर लाए और हम दोनों नोटों की गिनती करने लगे। हम दोनों नोटों की गिनती कर रहे थे और राह चलते लोग हमें देखते हुए जा रहे थे, पर सूरज भाई को कोई डर नहीं था। बीस हज़ार रुपये थे। यह बात सन् 1978 की है। 1978 में बीस हज़ार रुपये बहुत होते थे। हमने चाय पी और फिर स्कूटर पर बैठकर जाने लगे। चार-पांच किलोमीटर चलने के बाद एक पॉश कॉलोनी आ गई। उस कॉलोनी में एक सुन्दर सी कोठी के सामने सूरज भाई ने स्कूटर खड़ा कर दिया। मुझसे कहने लगे- ‘‘तुम यहीं पर ठहरो। मैं रुपये देकर आता हूं। उन्होंने डिक्की में से नोटों की गड्डियां निकालीं और रूमाल में लपेट कर अंदर ले गए। मैं प्रतीक्षा करते हुए गेट के बाहर खड़ा रहा। अचानक मेरी नज़र उस कोठी के नंबर पर पड़ी। लिखा था-'दो बटा साठ’ (2/60)। मैं चौंक गया। सूरज भाई व उनके अन्य साथी कई बार इसी कोठी के विषय में बातचीत करते थे। मैं गौर से उस कोठी के चारों तरफ देखने लगा। उसमें रहने वाले कुलीन परिवार के सदस्य थे। कोठी का रंग-रूप एवं नक्शा बहुत सुंदर था। सूरज भाई जैसे धनी लोग ही उस कोठी में प्रवेश कर सकते हैं, यह मेरा अनुमान था। इसलिए सूरज भाई इस कोठी में मुझे नहीं भेजते थे। उनके साथ चार महीने काम करने के बाद आज पहली बार इस कोठी के दर्शन करने को मिले। पच्चीस मिनट के बाद सूरज भाई लौट आए। पर उनके चेहरे पर रौनक नहीं थी। वह मायूस नज़र आ रहे थे। न ही वह कुछ बोल पा रहे थे और न ही वह कुशलता से आगे बढ़ रहे थे। मैं उनसे कोई प्रश्न करूं इससे पहले ही वह स्वयं बताने लगे। बोले—“आज तो नुकसान हो गया परमजीत! सोचा भी नहीं था कि ऐसा नुकसान होगा।” “क्या हो गया भाई साहब?”- मैंने पूछा। आगे वह कहने लगे—“बीस हज़ार रुपये देकर मैंने उनसे एक लाख रुपये की डिमाण्ड की। उन्होंने मना कर दिया। लता मैडम बोलीं कि पहले आपकी तरफ जो दो लाख रुपये हैं उसे जमा कर दो। उसके बाद नया खाता खोल लिया जायेगा।” मैं कुछ सोचकर सूरज भाई से कहने लगा—“कोई बात नहीं भाई, एक घर में मना कर दिया तो बाकी के घर के दरवाज़े तो खुले हैं। आप तो कहीं से भी प्रबन्ध कर सकते हो।” वे बोले—“नहीं परमजीत! ऐसा नहीं है। इसी घर से हमने व्यापार सीखा है और इसी घर के सहारे मैंने लाखों रुपये कमाए हैं।” मैंने कहा—“मैं कुछ समझा नहीं सूरज भाई।” कहने लगे—“तुम्हें समझाने में बहुत समय लगेगा परमजीत। समय के साथ सब समझ जाओगे।” मैं अधिक पूछताछ नहीं कर सकता था। जो वह बताते जा रहे थे, उतना ही मैं सुन सकता था। सूरज भाई का उदास होने का कारण उनकी निजी समस्या थी। हम दोनों स्कूटर पर बैठे और अपने घर जाने लगे। वे मुझे कमरे पर छोड़कर चले गये। अब महिने में दो बार सूरज भाई मुझे दो बटा साठ में रुपयों की किश्त लेकर भेजते थे। कभी-कभी वह मुझे अपने स्कूटर पर बिठाकर ले जाते थे और वह कुछ दूरी पर खड़े रहते थे। जब मैं किश्त देकर आता था तो वे मुझसे उस घर की एक-एक बात पूछते थे। मुझसे पूछताछ करके जो कुछ वह सुनते थे उस पर वह बहुत देर तक चिंतन करते थे। जिसे सूरज भाई लता मैडम बोलते थे, उस महिला की उम्र भी सूरज भाई की उम्र के बराबर ही थी और उस घर में मैं जितनी बार भी गया, उतनी बार वही महिला मुझे मिली। परन्तु उन्होंने मुझे घर के भीतर कभी प्रवेश नहीं दिया। 4 मैं घर के आंगन का फाटक खोल कर घर के मेन गेट तक जाता था, घंटी बजाता था, दो मिनट में वह महिला आती थी और पैसे लेकर मेरी डायरी में हस्ताक्षर करती थीं। वह तब तक गेट पर खड़ी रहती थीं जब तक मैं आंगन पार करके फाटक के बाहर नहीं चला जाता था। तीन-चार बार ऐसा ही हुआ। एक दिन मैं रात के समय वहां गया। उस समय रात्रि के आठ बज रहे थे और बारिश भी बहुत हो रही थी। मैं पूरी तरह भीग चुका था। फाटक खोलकर जैसे ही मैं आंगन में प्रवेश करने लगा तो मेरी नज़र पहली मंज़िल की खिड़की पर पड़ी। लाईट जल रही थी और एक सुन्दर लड़की खिड़की में खड़ी होकर बाहर होने वाली बारिश का आनंद ले रही थी। सम्भवतः उस लड़की ने जैसे ही मुझे गेट से आते हुए देखा तो उसने कमरे की बत्ती बुझा दी। उजाले में जो उसकी सुंदरता दिखाई दे रही थी, बत्ती बुझते ही उसकी सुंदरता अंधेरे में लुप्त हो गई। मैं कोठी के दरवाज़े के पास जाकर खड़ा हो गया और बेल बजाकर छज्जे के नीचे खड़ा होकर अपने बदन का पानी हाथ से साफ करने लगा। पल दो पल में ही भीतर से महिला ने दरवाज़ा खोला। मैंने उनको पैसे, डायरी व पेन दिया और वह रकम गिनकर डायरी में लिखने लगीं। 

पूरा उपन्यास पढ़ने के लिए अभी डाऊनलोड करें - DANSH (Hindi): Samajik Ghatnao Par Aadharit Prernatmak Upanyaas[image error]  

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Published on July 22, 2017 03:46

June 9, 2017

स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी कविता नए रचनात्मक सरोकार



23-24 मार्च, 2017 को दिल्ली विश्वविद्यालय के पी॰जी॰डी॰ए॰वी॰ कॉलेज (सांध्य) में दो दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन हुआ था। यह आयोजन विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के सौजन्य से था। 


इस संगोष्ठी का विषय था – ‘स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी कविता नए रचनात्मक सरोकार’। इस विषय पर बड़े आकार की पुस्तक भी प्रकाशित हुई थी और उसके चौथे भाग का विशेष अंक प्रकाशित कर पाठकों के लिए प्रस्तुत किया गया था। 
प्रकाशक संस्थान का नाम था ‘साहित्य संचय’ तथा संयोजक एवं सम्पादक थे डॉ॰ हरीश अरोड़ा जी। श्री हरीश अरोड़ा जी पी॰जी॰डी॰ए॰वी॰ कॉलेज (सांध्य) में प्राध्यापक हैं।
‘स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी कविता नए रचनात्मक सरोकार’, इस 216 पृष्ठ की पुस्तक को पढ़कर मुझे ऐसा लगा कि हिन्दी भाषा का स्तर बहुत ऊंचा है और हिन्दी भाषा के विद्वान निरंतर प्रयास में रहते हैं। वस्तुतः वर्तमान में हिन्दी भाषा विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग से निकलकर देश के जन-जन तक पहुंचने का प्रयास कर रही है। श्री हरीश अरोड़ा जी ने अपने सम्पादकीय में लिखा है –“पुराने प्रतिमानों और विचारों की पृष्ठभूमि पर खड़ी कविता नई अवधारणा को लेकर अपने लक्ष्य की तरफ बढ़ रही है।” 
साथ-साथ उन्होंने एक बहुत बड़े विद्वान का नाम लेते हुए कहा - “टॉलस्टॉय ने कहा था कि दिन-प्रतिदिन प्रत्येक वस्तु एवं जीवों में निरंतर परिवर्तन हो रहा है, परंतु आवश्यकता मात्र इतनी ही है कि अपने को निश्चित एवं कायम रखने के लिए उसकी नीव सुदृढ़ बनाना आवश्यक है।” 
विशाल आकार की इस पुस्तक में 57 विद्वानों ने लेख लिखकर अपने विचार व्यक्त किए हैं। इनमें कुछ विश्वविद्यालय के प्राध्यापक हैं तो कुछ हिन्दी भाषा विभाग के शोधार्थी भी हैं। विशेष बात यह है कि जिन्होंने लेखों के माध्यम से अपने विचार व्यक्त किए हैं, उनमें से कुछ विद्वान तो उर्दू भाषी हैं। यह जानकर व पढ़कर मुझे बहुत खुशी हुई की उर्दू भाषी विद्वान लोग भी हिन्दी भाषा को दिल से जोड़कर रखने की आस्था रखते हैं। 
गुलशन बानो ने आपने विचार व्यक्त करते हुए लिखा है – “समकालीन कवि स्वतन्त्रता के बाद बदले हालातों को बखूबी समझ चुका है। जिस व्यक्ति के पास धन है वही शक्तिशाली है।” डॉ॰ गुलशन बानो असिस्टेंट प्रोफ़ेसर हैं। 
ज़रीना दीवान ने लिखा है – “स्त्री विमर्श की क्रांति यूं ही नहीं आई। इसके लिए स्त्रियों को अपने कदम बढ़ाने के लिए बरसों बीत गए।” ज़रीना दीवान जामिया मिलिया इस्लामिया में शोधार्थी हैं। 
डॉ॰ नाजिश बेगम ने लिखा है -  “समकालीन हिन्दी कविताओं में स्त्री जीवन की पीड़ा एवं संघर्ष व्यक्त करते हुए कुछ अनसुलझे पहलुओं पर भी विशेष प्रकाश डाला गया है। डॉ॰ नाजिश बेगम अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी, अलीगढ़ से हैं। 
अंबरीन आफताब ने लिखा है – “सन 1960 के पश्चात ही कविता में परिवर्तन के लक्षण दिखाई देने लगते हैं।” अंबरीन आफताब भी अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी से हैं।” 
जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के डॉ॰ मुनिल कुमार वर्मा जी लिखते हैं – “नवगीत की परिभाषा क्या है? नवगीत हिन्दी कविता की विकासशील परंपरा है। ‘नव’ यह शब्द सभी अपरिभाषित विशेषताओं के बिलकुल निकट है।”
जानकी देवी मेमोरियल कॉलेज से डॉ॰ निशा मलिक कहती हैं – “आज का साहित्य जब जीवन के यथार्थ को व्यक्त करना चाहता है तो कवि को सजगता तथा विशेष अनुभवों के साथ अपने काव्य को तथ्यों एवं संदर्भ के साथ रखना पड़ता है।” 
विवेकानंद कॉलेज से डॉ॰ ओमवीर सिंह ने अज्ञेय का बिम्ब विधान प्रस्तुत करते हुए लिखा है – “बिम्ब की कोई जाति या प्रकार ऐसा नहीं है जो उनकी रचनाओं में प्राप्त न होता हो।”
विवेकानंद कॉलेज की डॉ॰ पूनम जी स्मृति की परिभाषा रेखांकित करते हुए कहती हैं – “स्मृति को ज़िंदा रखने का सबसे सुंदर एवं जीवंत माध्यम कविताएं हैं।” 
स्वामी श्रद्धानंद कॉलेज से डॉ॰ राकेश जी स्त्री विमर्श के संबंध में कहते हैं - “भारतीय समाज में बेटी के जन्म पर खुशी न मनाए जाने का कारण दहेज प्रथा है। इस सबसे बड़े कारण से ही कन्या भ्रूण हत्या को अधिक बढ़ावा मिला है।” 
इस पुस्तक में सभी विद्वानों ने बहुत सुंदर व बहुत अच्छा लिखा है। विशेषतः प्रत्येक रचनाकार ने रचना समाप्त होने के बाद संदर्भ सूची भी प्रस्तुत की है जो एक संस्मरण एवं साभार के लिए आवश्यक है। 
सभी लेखों के बाद की संदर्भ सूची पढ़कर ऐसा ज्ञात होता है कि हिन्दी साहित्य की पृष्ठभूमि विशाल रूप धारण  कर चुकी है। 
संदर्भ सूची में पुस्तकों के नाम तथा उन पुस्तकों के रचनाकारों एवं पुस्तक कहाँ से प्रकाशित की गई, उस प्रकाशन संस्थान का नाम देकर पाठकों लिए यह जानकारी दी है कि साहित्य का आकार बहुत बड़ा है। जितना पढ़ोगे उतना ही कम है और जो प्राप्त है उसे अवश्य पढ़ने की जिज्ञासा उत्पन्न होती है। 
श्री हरीश अरोड़ा जी का बहुत-बहुत अभिनंदन जिन्होंने उच्चकोटी के रचनाकारों द्वारा लिखित लेखों को संकलित कर पुस्तक को एक नया रूप दिया। जिन विद्वानों ने ‘स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी कविता नए रचनात्मक सरकोर’ इस पुस्तक में लेख लिखा है उनके नाम हैं:आशा रानी, अंजली जोशी, भावना, चारु रानी, दीपा, देविन्दर सिंह, ऋषिकेश सिंह, ज्योति, कंचन शर्मा, कांता देवी, कविता बिष्ट, कुमार धनंजय, कुसुम सिंह, लक्ष्मी देवी, महेश चंद, मंजरी गुप्ता, मनीष ओझा, मनोज सतीजा, मोहसीना बानो, नीरू मान, प्रवीण देवी, प्रिया कौशिक, प्रियंका सिंह, रमेश कुमार, रश्मि शर्मा, रवि कुमार, सगीर अहमद, संतोष कुमार भारद्वाज, सरोज कुमारी, सीमा शर्मा, श्रवण कुमार, शौर्यजीत, श्रुति रंजना मिश्रा, स्नेहलता, सोनम खान, सुनील कुमार यादव, स्वाती मौर्या, विशाल कुमार यादव, विष्णु, सरस्वती मिश्र, मीना शर्मा, अभिषेक विक्रम, नेहा, हीना कुमारी, अशोक कुमार, मिलन बिश्नोई, गुंजन कुमार झा, चन्द्रकान्त तिवारी।    हिन्दी भाषा के प्रति जिज्ञासा एवं अभिव्यक्ति प्रस्तुत करने हेतु आप सब को हार्दिक शुभेच्छा। 

- साहित्यकार लक्ष्मण राव
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Published on June 09, 2017 10:37

May 26, 2017

स्वप्न दर्पण - पुस्तक परिचय



श्री नितिन कलाल जी का काव्य संग्रह “स्वप्न दर्पण” का विमोचन 6 मई, 2017 को कनाट प्लेस के ऑक्सफोर्ड बुकस्टोर में किया गया। इस पुस्तक का विमोचन मेरी अध्यक्षता में हुआ। पुस्तक का प्रकाशन माय बुक्स पब्लिकेशन्स द्वारा किया गया है। 

नितिन का यह पहला काव्य संग्रह है। वस्तुतः उनकी यह पहली ही रचना है। पहली-पहली रचना में आकार व रूप भले ही नया-नया या प्राथमिक अवस्था में दिखाई देता हो, परंतु शब्दों में,वाक्य रचना में या स्पष्टीकरण में युवा अवस्था की झलक साफ-साफ दिखाई देती है। 


हर युवा के जीवन में एक कहानी होती है, कुछ संस्मरण होते हैं कुछ अपमान या कड़वाहट होती है। परंतु हर युवा लिख नहीं पाता है जो नितिन कलाल ने लिखकर अपने मन की अभिव्यक्ति पुस्तक के रूप में प्रस्तुत की। 
श्री नितिन कलाल कहते हैं – “मेरी लिखी हुई कविताएं मेरी व्यक्तिगत भावनाएँ हैं। मैं वही लिखता गया जो मैंने वास्तविकता में अनुभव किया।” ग़ालिब साहब को वे प्रेरणा का स्त्रोत मानते हैं। 



‘प्रेम’ - यह प्रक्रिया उम्र के साथ हर युवा के जीवन से जुड़ जाती है। हर युवा किसी न किसी युवती से प्रेम की इच्छा रखता है। कोई सफल हो जाता है और कोई नहीं हो पाता। बहुत से तो अपनी कमज़ोर आर्थिक परिस्थिति या माता पिता का आचरण देखकर प्रेम की तरफ झुके ही नहीं। यह भी जीवन का एक हिस्सा है। 
नितिन कलाल की तरह लाखों नवयुवक अपने प्रेम को कलम से ही लिखते रहे। वे सोच भी रहे हैं कि गालिब साहब की पुस्तकों की तरह उनके विचारों को भी पुस्तक का रूप मिले। 
किन्तु नितिन कलाल का यह सपना श्री मूलचंद जी की प्रकाशन संस्था माय बुक्स द्वारा संभव हुआ। पुस्तक का प्रकाशन होना लेखक के लिए एक बड़ी उपलब्धि है।


बहुत से कवि या लेखक आज भी तरस रहे हैं कि उनकी पुस्तक कब प्रकाशित होगी। किन्तु किसी लेखक ने या कवि ने कभी घबराना नहीं चाहिए। समय आते ही उनकी पुस्तक प्रकाशित हो जाएगी और नितिन कलाल की तरह उनका भी पुस्तक प्रकाशित करने का सुंदर सपना पूरा हो जाएगा। 
कवि या लेखक अपने लक्ष्य को पाने का प्रयास करे। असंभव कुछ नहीं है। नितिन ने अपनि कविता संग्रह में एक कविता प्रेम के आधार पर लिखी है। इस कविता का नाम है – “वो मेरा इंतज़ार करे”। है कोई ऐसा भगवानउनसे मुझे मिलवा दे...मोहब्बत में मेरी जोदुनिया को भुला दे।
एक कविता उनकी यह भी है-तुम भी तो नायाब मुमताज़ सी होक्यों होश–ओ-सब्र नहीं रहताएक तुम्हारे सिवायकिसी का ख्याल नहीं आता।
असली प्रेम तो यही है। शायद नितिन को और भी लड़कियां चाहती होंगी, परंतु नितिन उन्हीं को याद कर रहे हैं जिन्हें वे चाहते हैं। 
नितिन ने अपनी कविताओं में अपने विचारों को स्पष्ट किया और उन संस्मरणों को याद किया जिन्हें वे कभी भूल नहीं सकते हैं। 
नितिन कलाल का काव्य संग्रह पढ़कर मैं उन्हें सुझाव देना चाहता हूँ। उनका 76 पृष्ठों का काव्य संग्रह “स्वप्न दर्पण”पढ़कर यह प्रतीत होता है कि अभी लेखनी में उनकी शुरुआत है। भाषा पर कमांड नहीं है। 
भाषा का अधिकतर प्रयोग उर्दू शब्दों में किया गया है। परंतु उनमें निष्कर्ष नहीं निकाल पा रहा है। आपने जो कविता लिखी है उसमें किसी एक काल का संदर्भ नहीं है। पर आप जब भी कविता लिखें तो भूतकाल को लेकर लिखें, तभी उन कविताओं में यथार्थ दिखाई देगा। जैसे कि – मैंने यह देखा था; मैंने ऐसा अनुभव किया था; मुझे यह मालूम नहीं था; मैं तो आगे बढ़ रहा था; आदि। यह वर्णन भूतकाल का है।
आप वर्तमान में भी लिख सकते हैं, परंतु पूरी कविता में किसी एक ही काल का संदर्भ या विश्लेषण होना चाहिए। एक कविता का मैं उदाहरण देना चाहता हूँ। कवि कहता है –मैं फटे हुए कपड़े पहनकरसोना बेच रहा थापर मेरी दुकान परएक भी ग्राहक नहीं आ रहा था
परंतु जब में सोना पहनकरफटे हुए कपड़े बेचने लगातो भीड़ कम नहीं हो रही थी
श्री नितिन को मेरी शुभकामनाएँ ! आगे बढ़िए और अपने सपनों को साकार करिए !
- साहित्यकार लक्ष्मण राव
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Published on May 26, 2017 10:02

May 20, 2017

खनक आखर की - पुस्तक परिचय

11 मई, 2017 को नॉलेज ग्रुप पब्लिकेशन्स के प्रकाशक श्री मनोज जौहरी जी से भेंट हुई। बातचीत करते - करते उन्होंने अपने हाथ में जो पुस्तक थी, वह मुझे भेंट करनी चाही। 
मैंने कहा – “रखिए, आप के काम की होगी।” कहने लगे – “आप इसे पढ़ेंगे तो हमें बहुत खुशी होगी।” 
उनके आग्रह पर मैं वह पुस्तक लेकर पढ़ने लगा। पुस्तक का नाम था “खनक आखर की”

पुस्तक के अंतिम पृष्ठ (बॅक कवर) पर छ्त्तीस चित्र थे जो उस पुस्तक में लिखी रचनाओं के कवियों व कवयित्रियों के थे। फोटो देखने के पश्चात ऐसा लगा कि संभवतः मैं सब से ही परिचित हूँ। धीरे-धीरे यह प्रथा बढ़ती जा रही है कि कवियों के साझा संग्रह अधिक से अधिक प्रकाशित हो रहे हैं। 
“खनक आखर की” इस काव्य संग्रह के सभी कवि-कवयित्री उच्च शिक्षित हैं और साथ-साथ आर्थिक रूप से सम्पन्न भी हैं। इस काव्य संग्रह में 36 लोगों की कविताओं को स्थान दिया गया है जिनमें 20 महिलाएं एवं 16 पुरुष हैं। 
ऋषिकेश वैद्य इतिहास में पी॰ एच॰ डी॰ कर चुके हैं तथा वे मोहन राकेश सम्मान भी प्राप्त कर चुके हैं। उनकी गज़लें इस काव्य संग्रह में प्रकाशित हैं। 
सागर सैनी प्रसिद्ध अभिनेता हैं। इनकी छोटी-छोटी कविताएं इस पुस्तक में प्रकाशित हैं। 
सुरेन्द्र कौशिक ज्योतिष परामर्शदाता हैं। इनकी कविताएं साझा संग्रह में प्रकाशित हो चुकी हैं। 
डॉक्टर संजीव सिकरोरिया एम॰बी॰बी॰एस॰, एम॰डी॰ हैं। एक चिकित्सक होने के पश्चात भी मन की जिज्ञासा कविता के माध्यम से प्रस्तुत की है। यह बहुत बड़ी बात है। इनकी कविता “अश्वमेध का घोड़ा” बहुत अच्छी लगी -  
“जब बूढ़ा हो जाएगा यह घोड़ा उसे मार देंगे तलवार घोंप के और ढूँढेंगे नया घोड़ा मज़बूत और तरुण
वस्तुतः प्राणियों के साथ ऐसा ही होता है। जब तक वह सुंदर लगता है या जब तक वह उपयोगी है तब तक वह प्यारा है। जब उम्र होने पर वह मरता है तो उसे कफन भी नहीं ओढ़ाया जाता। बहुत सुंदर कविता है।
नीरजा मेहता एक स्थापित कवयित्री का गौरव प्राप्त कर चुकी हैं। एम॰ए॰, बी॰एड॰, एल॰एल॰बी॰ यह इनकी डिग्रियाँ हैं। अपने जीवन में शिक्षिका भी रह चुकी हैं। शिक्षा व उम्र का अनुभव लेखनी में अत्यंत काम आता है और इसका लाभ निश्चित रूप से नीरजा मेहता को मिला है। 
काव्य का माध्यम तीनों कालों में होता है – भूतकाल, भविष्य काल एवं वर्तमान काल। इन्होंने अपनी कविता “चले आना तुम”के माध्यम से अपनी अभिव्यक्ति दर्शाई है। ऐसा लगता है जैसे कोई दुल्हन अपने पति के लिए अपने विचार व्यक्त कर रही हो-  सजाई फूलों से है मेज़ तुम्हारी याद में मैंने किया है सोलह शृंगार दबे पाँव चले आना तुम।
इसी तरह इस काव्य संग्रह में सभी कवियों एवं कवयित्रियों ने अपने-अपने विचार व भावनाएँ काव्य के माध्यम से प्रस्तुत की हैं। जैसे कि श्रीमति मीनाक्षी सुकुमारन, अंजु जिंदल, उमा द्विवेदी, प्रमिला भाटी, भूपेन्द्र राघव, सचिन मेहरोत्रा, सुनील कुमार अरोरा, कृष्ण शरण पटेल, उमेश यादव, डॉ॰ मंजु कछावा, दिलीप कुमार मेवाड़ा, भगवती प्रसाद व्यास, सविता वर्मा, आस्था अग्रवाल, विनीता परमार,डॉ॰ अनुराधा शर्मा, प्रद्युम्न कुलश्रेष्ठ, डॉ॰ गीता सिंह, डॉ॰ ज्योति सिंह, लक्ष्मी थपलियाल, मणि बेन द्विवेदी, निखिल कुमार, डॉ॰ पिंकी केशवानी बोरकर, पूनम आनंद, पूनम सिंह, राज मालपाणी, रामकृष्ण शर्मा, रश्मि सिन्हा, सत्या शर्मा, रूपल जौहरी व विनीत द्विवेदी, ऐसे 36 काव्य रचनाकारों की कविताएं “खनक आखर की” इस पुस्तक में प्रकाशित हुई हैं। 
पुस्तक के अंतिम कवि विनीत द्विवेदी ने कविता के माध्यम से बहुत अच्छे विचार व्यक्त किये हैं। उन्होंने लिखा है – 
मैं एक हवा का झोंका था, जो कभी तुम्हारे आँगन से एक दिन होकर गुज़रा था।
बहुत बढ़िया...इस कविता में एक सुंदर रहस्य का आभास होता है।                                                                                                      सभी कवियों एवं कवियित्रियों का एक-एक पृष्ठ उनका जीवन परिचय फोटो के साथ प्रकाशित किया है। 
पुस्तक में प्रकाशित कविताओं के अक्षरों का टाइप थोड़ा बड़ा होना चाहिए था। क्योंकि पचास वर्ष की उम्र के बाद के पाठकों की आँखें अवश्य कमज़ोर होती हैं। छोटे अक्षरों को पढ़ने में कठिनाई न हो, इसलिए इस बात का ध्यान रखना चाहिए। 
पुस्तक की छपाई सुंदर है व पेपर तथा जिल्द की गुणवत्ता भी बढ़िया है। 
कभी एक समय सौ किलोमीटर के दायरे में एक कवि या एक लेखक होता था। अब एक किलोमीटर के दायरे में सौ लेखक या कवि हो गए हैं। हम कह सकते हैं कि अब साहित्य विकास की ओर जा रहा है। परंतु विकास के साथ-साथ उतना ही रोना-धोना बढ़ गया है। “पुस्तकें बिकती नहीं हैं” - यह कारण सबसे ऊपर है। 
परंतु मैं यह कहना चाहता हूँ कि पुस्तक प्रकाशित होने तक लेखकों, कवियों या प्रकाशकों के जो प्रयास हो रहे हैं उसकी प्रशंसा होनी चाहिए। अनेक तरह के कष्ट झेलने के पश्चात भी पुस्तकें प्रकाशित की जा रही हैं, यह एक बड़ी उपलब्धि है। - साहित्यकार लक्ष्मण राव
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Published on May 20, 2017 22:11

April 17, 2017

देवभूमि उत्तराखंड - श्री मनोज कामदेव जी की उत्कृष्ट रचना



देवभूमि उत्तराखंड - इस पुस्तक का विमोचन नई दिल्ली के हिन्दी भवन के संगोष्ठी सभागार में 14 अप्रैल, 2017 को सम्पन्न हुआ। पुस्तक का प्रकाशन ‘सन्मति पब्लिशर्स एण्ड डिस्ट्रीब्यूटर्स’ द्वारा किया गया। 96 पृष्ठों की पुस्तक की छपाई आकर्षक है।
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यह पुस्तक मनोज कामदेव जी का शोध कार्य है ऐसा कहना अनुचित नहीं होगा। भारत देश की देवभूमि के नाम से प्रसिद्ध उत्तराखंड राज्य की पृष्ठभूमि, लोगों के रहन-सहन एवं खानपान पर विशेष प्रस्तुति लेखक कामदेव जी ने की है। 

केदारनाथ धाम

अन्य राज्यों के लोग उत्तराखंड को भले ही गरीब पृष्ठभूमि का प्रांत कहकर टाल देते हैं, परंतु दक्षिण भारत के चार राज्य - आंध्र प्रदेश, कर्नाटका, तमिल नाड व केरल तथा मध्य भारत के गुजरात व महाराष्ट्र के लोग इस प्रांत की भूमि की पूजा श्रद्धा से करते हैं। यहाँ का एक ग्लास पानी पीने के लिए इन प्रान्तों के लोग तरसते हैं। 
उत्तराखंड के दर्शन करने के लिए लोग तो भारत के हर कोने से आते हैं, परंतु धन के अभाव से या अपने रोजगार के कारण कई लोगों का उत्तराखंड देखने का  सपना, सपना बनकर ही रह जाता है। ऐसे लोगों को यदि लेखक कामदेव की पुस्तक ‘देवभूमि उत्तराखंड’ पढ़ने को मिल जाए तो उनके लिए उत्तराखंड का आधा दर्शन हो गया, ऐसा समझना चाहिए।
मेरी उत्तराखंड यात्रा  मुझे भी 25 अप्रैल, 2015 को उत्तराखंड के घुड़दौड़ी क्षेत्र में जी.बी. पंत इंजीनियरिंग कॉलेज के छात्र-छात्राओं ने अपने कॉलेज में अतिथि वक्ता के तौर पर भाषण करने के लिए बुलाया था। देहरादून के जौली ग्रांट एयरपोर्ट पर उतरने के पश्चात कार में बैठकर जी.बी. पंत इंजीनियरिंग कॉलेज तक की 124 किलोमीटर  की यात्रा से ऐसी अनुभूति हो रही थी जैसे स्वर्गलोक के दर्शन हो रहे हों। 

चार धाम

ऊंचे-ऊंचे पहाड़, चारों तरफ हरियाली, लबालब पानी से भरी हुईं तेज़ गति से बहती नदियां, यह सब देखकर मुझे हमराज़ फिल्म का गीत याद आ रहा था – ‘नीले गगन के तले, धरती का प्यार पले’। वहाँ एक दिन गेस्ट हाउस में ठहरने के पश्चात वापसी यात्रा में भी फिर वही सुखानूभूति हुई।
इतनी सुंदर जगह परंतु उत्तराखंड के आर्थिक परिस्थिति से गरीब लोगों को अपनी स्वर्ग जैसी धरती छोड़कर मात्र रोज़गार के लिए पड़ोस के प्रांत में जाना पड़ता है। परंतु वहाँ के लोगों का धार्मिक एवं स्वाभाविक रुझान देखकर ऐसा लगता है जैसे इन्हें किसी चीज़ की आवश्यकता नहीं है, यह अपने आप में बहुत धनी हैं।
उत्तराखंड की पृष्ठभूमि लेखक कामदेव ने अपनी पुस्तक में बहुत सारी जानकारियां दी हैं जैसे कि उत्तराखंड के दो भाग हैं - कुमाऊँ व गढ़वाल। कुमाऊँ क्षेत्र में कम से कम दस प्रमुख भाषाएँ हैं। छह कुमाऊँ संभाग हैं – अल्मोड़ा,बागेश्वर, नैनीताल, उधम सिंह नगर, पिथौरागढ़ और चंपावत। इसी तरह ईष्ट देवताओं के नाम,खानपान व व्यंजन, मुख्य मिठाइयाँ,त्योहार व मेले, लोगों का रहन-सहन,वेषभूषा, लोक नृत्य, प्रमुख वाद्ययंत्र आदि जानकारियाँ पुस्तक में सम्मिलित की गयी हैं। 
इसी तरह दूसरे भाग गढ़वाल के प्रमुख हिमशिखर, प्रमुख हिमनदियां, झीलें,हवाई अड्डे, रेल्वे स्टेशन, बस अड्डे, आदि-आदि। उत्तराखंड के चार धाम हैं यमुनोत्री,गंगोत्री, केदारनाथ और बद्रीनाथ।

केदारनाथ

फिल्म उद्योग का उत्तराखंड के प्रति आकर्षण गंगोत्री व यमुनोत्री को तो सिनेमा के माध्यम से देश के करोड़ों लोगों ने देखा होगा और मनमोहक सौन्दर्य का आनंद उठाया होगा। क्योंकि 1984 में फिल्म निर्माता राजकपूर की फिल्म ‘राम तेरी गंगा मैली’ रिलीज़ हुई थी। इस फिल्म की शूटिंग हरिद्वार से लेकर हार्शिल व गंगोत्री तक हुई है। राजकपूर ने अपने कैमरे द्वारा सम्पूर्ण उत्तराखंड का दृश्य इस फिल्म में दर्शाया है। इस फिल्म की कहानी के दो पहलू थे - एक गंगाजी के पानी की सफाई और दूसरा एक पहाड़ी लड़की गंगा (मंदाकिनी) की शहर के लड़के के साथ प्रेम कहानी। 
राजकपूर ने इस फिल्म के माध्यम से भारत देश के लोगों का उत्तराखंड दर्शन करवाया। फिल्मी दर्शकों ने एक बार नहीं, पाँच-पाँच बार यह फिल्म देखी है और उसके बाद उत्तराखंड व हरिद्वार देखने का मन बना लिया। एक तरफ फिल्म की रात-दिन प्रशंसा हो रही थी तथा दूसरी तरफ उत्तराखंड की धरती पर यात्रियों की संख्या बढ़ रही थी। 
लेखक कामदेव ने उत्तराखंड के दर्शनीय पर्यटन स्थलों का इस तरह वर्णन किया है कि  फिर एक बार उस ओर पैर निकालने की इच्छा मन में जागृत होती है। 
किसी भी व्यक्ति द्वारा पुस्तकें लिखना व उसे प्रकाशित करना या करवाना अपने आप में बड़ी उपलब्धी है। लेखक बनने का मन तो सारे ही बना लेते हैं परंतु पुस्तक छपकर हाथ में दिखाई देना, यह एक मकान बनाने के बराबर है। श्री मनोज कामदेव को मेरी शुभकामनाएँ ! लिखते रहिए और प्रकाशित करते रहिए। 
रचनाकार का परिचय श्री मनोज कामदेव का जन्म 30 अक्टूबर, 1973 को गाँव खैराकोट, उत्तराखंड में हुआ। उनकी शिक्षा भगत सिंह कॉलेज, दिल्ली से हुई है। वर्तमान में डी.आर.डी.ओ. में वरिष्ठ प्रशासनिक सहायक के पद पर कार्यरत हैं। उनकी अनेक रचनाएँ प्रकाशित हुई हैं जिनमें अधिकतर काव्यसंग्रह हैं। (Email - manoj_732003@yahoo.co.in)

- साहित्यकार लक्ष्मण राव
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Published on April 17, 2017 00:34

April 15, 2017

बाबरी मस्जिद कांड



बाबरी मस्जिद कांड भारत के इतिहास में बहुत बड़ी घटना है। राम जन्मस्थान व बाबरी मस्जिद की लड़ाई सदियों पुरानी है, यह इतिहास के पन्ने बताते हैं। बाबरी मस्जिद का सम्पूर्ण घटनाचक्र बहुत से तथ्य उजागर करता है। हम क्रमवार इसकी चर्चा करते हैं – 

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बाबरी मस्जिद का इतिहास इतिहास के पृष्ठों में लिखा है कि सन 1600 में बाबरी मस्जिद का निर्माण किया गया था। इतिहासकारों के पास इसकी निश्चित तारीख व अवधि नहीं है। परंतु सोलहवीं शताब्दी में बाबरी मस्जिद बनकर तैयार हो गयी थी। 

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हिंदुओं के ग्रन्थों में यह लिखा है कि सन 1200 में उसी स्थान पर श्री राम जी का मंदिर था। ऐसा हिन्दू संगठनों का मानना है। फिर मुग़ल सम्राट बाबर ने सन 1500 में हिंदुस्तान के अनेक रजवाड़े उजाड़ दिये और अपना प्रभुत्व जमाया। उस समय बादशाह बाबर ने मंदिरों को नष्ट करके मस्जिदों की स्थापना की, यह इतिहासकारों का कहना है और उसी काल में बाबरी मस्जिद की स्थापना हुई। यहाँ पर एक संशय का आभास होता है। वह यह कि कोई भी राजा या कोई भी सम्राट चाहे हिन्दू हो या मुसलमान, वह कभी भी किसी धार्मिक स्थल की स्थापना अपने नाम से नहीं करेगा। परंतु इतिहासकारों ने इसका भी तोड़ निकाला। 
बाबर ने हिंदुस्तान की बहुत बड़ी भूमि जब अपने कब्ज़े में कर ली तब उसने अपनी सेना किसी नायक के अधीन करके उसके द्वारा आगे की लड़ाई जारी रखी। यह सोचकर उन्होंने एक सेना नायक नियुक्त किया। उस सेना नायक का नाम मीर बाँके था। मीर बाँके 1520 के बाद अपनी सेना अयोध्या ले गया और वहाँ पर सबसे पहले उन्होंने हिंदुओं के मंदिरों को नष्ट किया। मंदिरों को नष्ट करके मस्जिदों का निर्माण करते गए। उसमें से एक मस्जिद का नाम उसने अपने सम्राट बाबर के नाम पर रख दिया। इस तरह से वह बाबरी मस्जिद कहलाई जाने लगी। 
सन 1853 में इसी धर्मस्थल पर हिंदुओं और मुसलमानों का खूनी दंगा हुआ था। इसे आयोध्या कभी भूल नहीं सकता। परंतु इसी जगह पर 1855 तक हिन्दू पूजापाठ करते थे व मुसलमान भाई अपनी नमाज़ पढ़ते थे। इसके प्रमाण अंग्रेज़ों के समय के न्यायालयों ने संजो कर रखे थे। इसी आधार पर ब्रिटिश इतिहासकारों ने इतिहास भी लिख डाला।
हिन्दू और मुसलमान दोनों समुदाय जब एक ही स्थान पर प्रार्थना करने जाते थे तो लड़ाई-झगड़े भी होते थे और लाठियाँ भी चलती थीं। दोनों समुदायों के बीच वाद-विवाद समाप्त हो जाए, यह सोचकर अंग्रेज़ प्रशासन ने एक ही स्थान के दो भाग कर दिये, एक बाहरी भाग तथा एक आंतरिक भाग। अंदर के भाग में मुसलमान नमाज़ पढ़ते थे व बाहरी भाग में हिन्दू पूजापाठ करते थे। इस प्रकार का बंटवारा जब अंग्रेज़ों ने किया तो दोनों ही समुदायों ने इसे स्वीकार करके वर्तमान वाद-विवाद को समाप्त किया। 
कुछ समय तक सब ठीक-ठाक चलता रहा। पर हिंदुओं को यह अखरने लगा। उस समय अयोध्या में हिंदुओं के प्रमुख तथा मंदिर के महंत श्री रघुवीरदास थे। इनके नेतृत्व में सन 1885 में अंग्रेज़ न्यायालय में एक विनती पत्र दाखिल किया गया कि श्री राम जन्मभूमि पर मंदिर बनाने की अनुमति दी जाए। यह केस एक वर्ष तक चलता रहा। 18 मार्च, 1886 को फैज़ाबाद के डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट ने निर्णय देते हुए यह कहा कि – “हिंदुओं के पवित्र स्थान पर मस्जिद बनाना और उस पर आधिपत्य दिखाना, यह तो दुर्भाग्य की बात है। यह एक समुदाय के द्वारा दूसरे समुदाय पर किया जाने वाला अत्याचार है। किन्तु अब क्या किया जा सकता है? 360 वर्ष पहले जो घटना घट चुकी है उसके लिए बिना किसी प्रमाण के न्यायालय द्वारा हस्तक्षेप करना उचित नहीं है। इसलिए यह केस यहीं पर समाप्त किया जाता है।”
फैज़ाबाद ज़िला न्यायालय का फैसला हिंदुओं ने स्वीकार नहीं किया और वाद-विवाद बढ़ता गया। बढ़ते हुए वाद-विवाद को देखकर मुसलमानों ने बाबरी मस्जिद में नमाज़ पढ़ना बंद कर दिया। धीरे-धीरे समय बीतता गया और समय के साथ-साथ मुसलमानों का मस्जिद जाना बंद हो गया। 1949 तक अर्थात तेरह वर्ष तक जब मुसलमान मस्जिद को छोड़ चुके थे तब हिंदुओं ने सारी जगह अपने अधिकार में ले ली और विस्तार से पूजापाठ करना आरंभ किया।
जब हिंदुओं ने मस्जिद के स्थान पर श्री रामजी की मूर्ति की स्थापना की और पूजापाठ होने लगा तो मुस्लिम संगठन का भारतीय वक्फ बोर्ड सामने आया। बोर्ड के सदस्यों ने कहा – “यह जगह तो हमारे वक्फ बोर्ड की है। इस पर आपने रामजी की मूर्ति रख कर कब्ज़ा कैसे किया?”
इतिहासकारों का यह मानना है कि वह जगह भारतीय वक्फ बोर्ड की थी। अब प्रश्न इस बात का है कि वक्फ बोर्ड की स्थापना कब हुई और उस बोर्ड को मान्यता कब से मिली? इसके प्रमाण इतिहासकारों के पास थे। 
बहरहाल दोनों पक्षों ने एक-दूसरे के प्रति वादी-प्रतिवादी केस दायर किया। उस समय संबंधित न्यायालय में परस्पर विचार-विमार्श करके केंद्र सरकार ने हस्तक्षेप किया। क्योंकि दोनों समुदायों के लोग लड़ने- मरने को तैयार थे। ऐसी अवस्था में केंद्र सकरार ने दोनों ही पक्षों की जान-माल के हित की रक्षा करते हुए उस जगह को विवादित स्थान घोषित करके दरवाज़े को ताले लगा दिये। यह बात 1949 की है। जिस स्थान को गर्भगृह कहा जाता है उस स्थान के दरवाज़े पर ताले लगे हुए थे। उन तालों से कोई भी छेड़छाड़ न करे यह भी आदेश न्यायालय द्वारा दिया गया था। उस स्थान के बाहर ही पूजा-अर्चना करने की अनुमति थी।
इसी विवादित स्थान में जो 2.7 एकड़ भूमि है, उसमें निर्मोही आखाड़ा होने की पुष्टि की गयी। उसके लिए महंत श्री रघुनाथजी ने संबन्धित न्यायालय में एक अर्ज़ी दाखिल की कि निर्मोही आखाड़ा पंथ को पूजापाठ करने की अनुमति दी जाए। यह घटना 1959 की है। 
जब राम जन्मभूमि के समर्थक पूजापाठ करने लगे और निर्मोही आखाड़ा पंथ के सदस्य न्यायालय से बार-बार निवेदन करने लगे तो 1961 में उत्तर प्रदेश के क्षेत्रीय सुन्नी वक्फ बोर्ड के सदस्यों ने न्यायालय में यह दावा किया कि बाबरी मस्जिद एवं उसके आसपास की भूमि पर मुसलमान समाज का कब्रिस्तान है। 
आगे राम जन्मभूमि हिन्दू संगठन,निर्मोही अखाड़ा पंथ एवं वक्फ बोर्ड, यह तीनों संगठन उत्तर प्रदेश के संबन्धित न्यायालय में अपने-अपने दावे बार-बार पेश करते रहे। इसकी सुर्खियां स्थानीय समाचारों में लगातार छपती रहीं। उसके बाद इस विवादित स्थान ने राजनीतिक रूप ले लिया। 
1984 में विश्व हिन्दू परिषद ने बाबरी मस्जिद के ताले खोलने के लिए उग्र आंदोलन शुरू किया। इसमें न्यायालय तक कार सेवकों को इकट्ठा करना, जगह-जगह भाषण-संभाषण करना, संबन्धित सरकारी कार्यालयों पर प्रदर्शन करना, यह जारी रहा। विश्व हिन्दू परिषद ने यह स्पष्ट किया कि – “हमारी मांगे यह हैं कि जहां पर मस्जिद का निर्माण किया गया है वहाँ पर राम जन्मभूमि मंदिर था। उस मंदिर को ध्वस्त करके मस्जिद बनाई गयी और उस जगह पर मुस्लिम समाज अब किसी भी प्रकार का प्रयोग नहीं कर रहे हैं। निवेदन है कि उस स्थान को हिंदुओं का धार्मिक पवित्र स्थान घोषित किया जाए।”
1986 में श्री हरीशंकर दुबे ने नयी याचिका तैयार करके फैज़ाबाद के न्यायालय में पेश की। फैज़ाबाद  न्यायालय के सत्र न्यायाधीश ने उस विवादित स्थान के ताले खोलकर हिंदुओं को पूजापाठ करने की अनुमति दे दी। विश्व हिन्दू परिषद ने सम्पूर्ण भारत में जयकारा घोषित किया। 
इसका विरोध करते हुए मुस्लिम समाज के अनेक संगठन संगठित हुए। मुस्लिम समाज ने उसी समय बाबरी मस्जिद के नाम से बाबरी मस्जिद कार्य समिति की स्थापना की। अब दोनों पक्षों की दलील सम्पूर्ण देश के समाचार पत्रों में प्रकाशित होने लगी। 
राजनैतिक दलों का हस्तक्षेप 1986 से लेकर 1988 तक हिन्दू विश्व परिषद ने भाजपा (भारतीय जनता पार्टी) को लेकर बाबरी मस्जिद का मुद्दा देश की राष्ट्रीय राजनीति में लाकर खड़ा कर दिया। इससे सम्पूर्ण देश भर के छोटे-मोटे हिन्दू संगठन एकत्रित हुए। दूसरी तरफ अल्पसंख्यक मुसलमानों के दिलों को ठेंस पहुँचने लगी। 


अयोध्या राम मंदिर बाबरी मस्जिद
इसके बाद राम मंदिर एवं बाबरी मस्जिद के विवादित स्थान ने उग्र रूप धारण कर लिया। इसी का लाभ उठाते हुए संगठनों ने उसी वर्ष अर्थात 1989 में विवादित स्थान से थोड़ा हटकर राम जन्मभूमि की स्थापना करते हुए पूजा-अर्चना की। 
जब सारी घटनाएँ हिंदुओं के पक्ष में दिखाई देने लगीं तो विश्व हिन्दू परिषद के पूर्व उपाध्यक्ष श्री देवकी नन्दन अग्रवाल ने न्यायालय में केस दायर किया कि राम जन्मभूमि स्थान से बाबरी मस्जिद को अन्य किसी स्थान पर स्थानांतरित किया जाए। 9 नवंबर, 1989 को पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने इस स्थान पर शिलान्यास करने की अनुमति दे दी। 
केंद्र सरकार की अनुमति मिलने के बाद यह कार्य एक पक्षीय दिखाई देने लगा। किन्तु मुसलमानों को यह अनुभव होने लगा कि हमारे धार्मिक स्थान एवं धार्मिक भावनाओं को कुचलने का प्रयास किया जा रहा है। 
1990 में विश्व हिन्दू परिषद के कुछ कार्यकर्ता मस्जिद परिसर में घुसकर तोड़फोड़ कर आए। इस पर मुस्लिम समाज ने आपत्ति की तथा सरकार व न्यायालय से यह अपील की कि हिन्दू और मुस्लिम समाज के बीच में खाई का निर्माण न हो इस पर भी उचित ध्यान देने का कष्ट करें। 
केन्द्रीय सरकार डावांडोल अवस्था में चल रही थी। मस्जिद और मंदिर की घटना चुनावी मुद्दे के स्वरूप राज्यों में होने वाले चुनावों में अपनी बढ़त बना चुकी थी। इसी दौरान भारतीय जनता पार्टी के कार्यकर्ताओं ने रथयात्रा निकालने की योजना बना डाली। उस समय भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष श्री लालकृष्ण आडवाणी थे। 
25 सितंबर, 1990 को लालकृष्ण आडवाणी ने सोमनाथ से अयोध्या तक रथयात्रा निकली। पूरे देश भर में तनावपूर्ण वातावरण बन गया था। जब आडवाणी की रथयात्रा नवम्बर महीने में बिहार के समस्तीपुर पहुंची तो वहाँ पर बिहार सरकार ने इस रथयात्रा को रोक लिया। परंतु भारतीय जनता पार्टी को यह उम्मीद नहीं थी। क्योंकि उस समय देश के प्रधानमंत्री वी.पी. सिंह थे। वी.पी. सिंह सरकार को भारतीय जनता पार्टी का समर्थन था। 
बिहार में आडवाणी का रथ रोक लिया गया और दो समुदायों में दंगा भड़काने के आरोप में आडवाणी को पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया। आडवाणी की रथयात्रा समाप्त हो गयी। उसी समय भारतीय जनता पार्टी ने राष्ट्रपति कार्यालय को वी.पी. सिंह सरकार को दिये समर्थन को वापस लेने का विनती पत्र दाखिल किया। दो दिन में वी.पी. सिंह सरकार बर्खास्त हो गयी। 
इसके बाद बाबरी मस्जिद एवं राम जन्मभूमि स्थान का विवाद बढ़ता ही गया। केंद्र की सरकार के लुढ़कने के बाद काँग्रेस ने अपना समर्थन देकर चन्द्रशेखर को प्रधानमंत्री बनाया। 
चन्द्रशेखर का कार्यकाल 10 नवंबर, 1990 से 21 जून, 1991 तक था। राम जन्मभूमि विवाद को बातचीत के आधार पर चन्द्रशेखर ने दोनों समुदायों के सदस्यों को एक बेंच पर बैठाकर हल करने का प्रयास किया। परंतु इसमें चन्द्रशेखर सफल नहीं हो पाए। भारतीय जनता पार्टी का चुनावी ग्राफ दिन -  प्रतिदिन बढ़ता ही जा रहा था। उसी वर्ष अर्थात 1991 में उत्तर प्रदेश में विधानसभा के चुनाव हुए और इस चुनाव में भारतीय जनता पार्टी को बहुमत मिल गया। उत्तर प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी की सरकार स्थापित हो गयी। तब पूरा उत्तर प्रदेश भारतीय जनता पार्टी के ही हाथों में था। 
सन 1992 के आरंभ से ही विश्व हिन्दू परिषद,भारतीय जनता पार्टी तथा बाकी के जितने भी हिंदुवादी संगठन एवं छोटे-मोटे राजनीतिक दल थे, उन्होंने अपना-अपना वर्चस्व दिखते हुए डेरा डालने हेतु अयोध्या में प्रवेश करना आरंभ कर दिया। कुछ ही महीनों में बाबरी मस्जिद परिसर के आसपास हिन्दू संगठनों ने डेरा डाल दिया। 
अब सभी संगठनों ने बाबरी मस्जिद तोड़कर उसी स्थान पर श्री राम मंदिर बनाया जाए, इस प्रकार की योजनाएँ तैयार की और 6 दिसंबर को वही हुआ जिसके बारे में कभी सोचा नहीं जा सकता था। सभी कार सेवकों ने मिलकर बाबरी मस्जिद के गुंबद तोड़ डाले और सम्पूर्ण विश्व भर में इस घटना की चर्चा होने लगी। जिस समाज के जहां भी अल्पसंख्यक रहते थे, उन पर हमला किया गया - हिंदुओं द्वारा  मुसलमानों पर और मुसलमानों द्वारा हिंदुओं पर। उत्तर प्रदेश की भारतीय जनता पार्टी की सरकार तथा देश की केन्द्रीय सरकार इन दोनों सरकारों को इस घटना के दोषी ठहराया गया। 
उस समय भारत के प्रधानमंत्री नरसिंह राव थे। इस घटना पर राव ने एक आयोग की स्थापना की। उस आयोग की अध्यक्षता एम.एस. लिबरहान करने लगे। परिस्थितिनुसार काँग्रेस का वोट बैंक घट गया और काँग्रेस सरकार के स्थान पर भारतीय जनता पार्टी की सरकार बन गयी। प्रधानमंत्री थे श्री अटल बिहारी वाजपेयी। सन 2000 से देश भर में हिन्दू संगठन भारतीय जनता पार्टी के हित व पक्ष में काम करने लगे। जब भी 6 दिसंबर का दिन समीप आता तब हिन्दू संगठनों द्वारा राम मंदिर बनाने का उत्साह बनाया जाता। ऐसी अवस्था में पूरे देश में तनाव की स्थिति बन जाती। अटल बिहारी वाजपेयी ने हिन्दू संगठनों को अनुचित कार्य रोकने के आदेश दिये। साथ-साथ समझौते की पहल भी जारी रखी। सन 2002 में गुजरात के गोधरा में रेलगाड़ी पर हमला बोल दिया गया। उस गाड़ी में अयोध्या से कार सेवक आ रहे थे। 65 व्यक्तियों की मौत हो गयी। इस घटना को लेकर जातीय दंगे भी हुए। 
बहरहाल, बाबरी मस्जिद तोड़ने के बाद भारतीय केंद्र सरकार ने लिबरहान आयोग स्थापित किया था। वह आयोग समस्त प्रमाण संगठित करते हुए छानबिन कर रहा था। सन 1992 से लेकर सन 2009 तक आयोग ने किसी भी प्रकार का कोई निर्णय नहीं दिया। परंतु सत्रह वर्षों के बाद अपनी सम्पूर्ण रिपोर्ट प्रधानमंत्री कार्यालय को सौंप दी। उस समय प्रधानमंत्री श्री मनमोहन सिंह जी थे। एक दैनिक समाचार पत्र के अनुसार इस आयोग की अंतिम रिपोर्ट देने के लिए 50 बार समय बढ़ाने का निवेदन किया जाता रहा। 22 नवंबर, 2009 को इस आयोग की रिपोर्ट लीक हो गयी जिसमें यह प्रमाणित था कि बाबरी मस्जिद तोड़ने की पूर्व योजना भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेताओं द्वारा की जा रही थी। 
पश्चात 8 सितंबर, 2010 को इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ बेंच ने यह निर्णय लिया कि अयोध्या की विवादित जगह पर किसका अधिकार है, इसका निर्णय 24 सितंबर, 2010 को घोषित किया जाएगा। न्यायाधीश एस. यू. खान,न्यायाधीश सुधीर अग्रवाल तथा न्यायाधीश डी. वी. शर्मा की बेंच ने पिछले साठ सालों से चले आ रहे इस विवाद के संबंध में अपना निर्णय सुरक्षित रखा। 
30 सितंबर, 2010 को इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने 2.7 एकड़ ज़मीन को तीन बराबर भागों में बांटने का निर्णय दिया, जिसमें एक हिस्सा राम मंदिर के लिए, दूसरा हिस्सा निर्मोही अखाड़े को और तीसरा हिस्सा वक्फ बोर्ड को देने का निर्देश दिया गया। परंतु इसके विरुद्ध की गयी अपील में इलाहाबाद उच्च न्यायालय के निर्णय पर सुप्रीम कोर्ट ने स्टे लगा दिया और अब वही संकोच, धैर्य, सहिष्णुता के प्रश्न खड़े करके बाबरी मस्जिद या राम जन्मभूमि इन दो यथार्थों के लिए हिन्दू व मुसलमान वर्षों तक प्रतीक्षा करते रहेंगे, ऐसा ही भविष्य दिखाई दे रहा है।
यह भी माना जा रहा था कि न्यायालय तीन मामलों में निर्णय देगा, एक – क्या विवादित स्थल पर सन 1538 से पहले रामजी का मंदिर था? दूसरा - क्या बाबरी मस्जिद समिति की तरफ से 1961 में जो याचिका दायर की गयी थी वह उचित थी? तीन – क्या स्थानीय मुस्लिम समुदाय ने अधिग्रहण के आधार पर अपने मालिकाना हक को मज़बूत किया है?
वर्ष बीतते रहेंगे और अनावश्यक प्रश्न खड़े होते रहेंगे। परंतु बुद्दिजीवि समाज को किसी भी वाद-विवाद से लगाव नहीं है। अपितु हिन्दू मुसलमान दोनों समुदायों के लोग एक साथ रहकर अपने राष्ट्र को आगे बढ़ाते रहें, इसी में समाज की भलाई है। 
धर्म के नाम पर राजनीति की जाती है। परंतु राजनीति करने वाला व्यक्ति दो समुदायों को क्यों लड़वाना चाहता है और बाबरी मस्जिद कांड जैसी घटनाएँ क्यों घटती हैं, इसकी परिकल्पना समुदायों को करनी चाहिए। धर्म की लड़ाई लड़कर न तो देश चलता है न घर चलता है। इसलिए इस प्रकोष्ठ में एकता न दिखाना और नेताओं के प्रलोभन में आना उचित नहीं है। हिन्दू-मुसलमान दोनों समाज समझते हैं कि चाहे धार्मिक स्थल दस बार उजाड़ दिये जाएँ, कुछ नहीं बिगड़ता। भारत देश के हिन्दू-मुसलमानों को कोई बाँट नहीं सकता। पर धर्मों के बीच में खाई पैदा करना इससे बड़ा धार्मिक अपराध और कोई नहीं हो सकता। 

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Published on April 15, 2017 04:24