Manisha Manjari's Blog

May 21, 2025

"युद्ध और आम जनता का मानसिक आघात: एक मूक संघर्ष"

कभी भी युद्धों की चर्चाएं होती हैं तो मुख्यतया सैनिकों की वीर गाथाएं, राजनितिक रणनीतियां और विजयों पर ध्यान केंद्रित किया जाता है। पर एक मुख्य पक्ष है जो अँधेरे में रह जाता है -वह है आम जनता की पीड़ा। जैसा कि महाभारत काल में भी कहा गया था कि युद्ध केवल रणभूमि में नहीं अपितु मनोभूमि में भी लड़ी जाती है, वैसे हीं युद्ध केवल सीमाओं तक सीमीत नहीं होती बल्कि, वह आम लोगों के मन और जीवन को भी बुरी तरह से झकझोड़ कर रख देती है। आम नागरिकों के लिए युद्ध एक ऐसा अनुभव है जिसमें वे ना केवल अपने घर-परिवार, रोजमर्रा की ज़िन्दगी और संसाधनों को खोते हैं, बल्कि उनका मानसिक संतुलन भी बुरी तरह से प्रभावित होता है।

मानसिक आघात: एक अदृश्य घाव

युद्ध के दौरान हुई बमबारियाँ, विस्थापन, अपनों की मृत्यु, बेरोजगारी, भोजन और दवाइयों की कमी जैसी स्थितियाँ आम जनता को एक गहरे मानसिक संकट में डाल देती हैं। इस दौरान व्यक्ति का मन बार-बार ‘लड़ो या भागो’ की स्थिति में फँसा रहता है। इसके परिणामस्वरूप कई प्रकार की मानसिक समस्याएँ उत्पन्न हो सकती हैं:

पोस्ट-ट्रॉमैटिक स्ट्रेस डिसऑर्डर (पी टी एस डी): युद्ध के डरावने अनुभवों की पुनरावृत्ति, डरावने सपने का नीड़ों पर कब्ज़ा, अचानक चौंक जाना आदि इसके लक्षण होते हैं।


डिप्रेशन और चिंता: भविष्य की अनिश्चितता, अपनों की मृत्यु, और जीवन की बुनियादी चीज़ों की कमी से मन में निराशा और डर बैठ जाता है।


अपराधबोध और शोक: वे लोग जो बच जाते हैं, वे खुद को दोषी मानने लगते हैं कि वे जीवित क्यों हैं, जबकि उनके परिजन या पड़ोसी मारे गए।


शारीरिक बीमारियाँ: मानसिक तनाव का असर शरीर पर भी होता है – सिरदर्द, थकावट, उच्च रक्तचाप, पाचन संबंधी समस्याएँ आदि।


नशे की लत: कुछ लोग इस मानसिक दर्द से छुटकारा पाने के लिए शराब या अन्य नशे का सहारा लेने लगते हैं।

युद्ध के बाद का जीवन: चुनौतीपूर्ण पुनर्निर्माण

युद्ध की समाप्ति के उपरान्त भी जाने कितने वर्षों तक उसके निशान मानव मन में एक टीस की तरह चुभते रहते हैं। वो ऐसी आंधियां लाते हैं जो दृश्य नहीं होती पर आम जन और समाज को वर्षों तक सालते रहते हैं। बच्चों की मासूमियत खो जाती है, महिलाओं के कंधों पर नए बोझ आ जाते हैं, और बुजुर्ग अपने जीवनभर की पूंजी खोकर हताश हो जाते हैं। यह एक ऐसा समय होता है जब मानसिक पुनर्वास की सबसे अधिक आवश्यकता होती है।
मानसिक आघात से उबरने के उपाय

1. संवाद की शक्ति
सबसे पहले जरूरी है कि लोग अपने अनुभवों और भावनाओं को साझा करें। जब हम अपने भीतर के डर और दुख को शब्द देते हैं, तो वह बोझ कुछ हल्का हो जाता है। परिवार, मित्र, और समाज के लोगों को एक-दूसरे की बात सुननी चाहिए और संवेदनशीलता से जवाब देना चाहिए।
2. मानसिक स्वास्थ्य विशेषज्ञों की सहायता
जहाँ संभव हो, वहाँ मानसिक स्वास्थ्य से जुड़े प्रशिक्षित चिकित्सकों या परामर्शदाताओं की मदद अवश्य लेनी चाहिए। यह विशेष रूप से PTSD से पीड़ित लोगों के लिए आवश्यक है।
3. रोज़मर्रा के जीवन में अनुशासन
सामान्य जीवन में वापसी की दिशा में एक मजबूत कदम होता है – दिनचर्या बनाना। चाहे वह बच्चों की पढ़ाई हो, भोजन पकाना हो, या सफाई – ये सभी कार्य मन को स्थिर रखने में मदद करते हैं।
4. रचनात्मक अभिव्यक्ति
कई बार शब्दों में अपनी बात कहना मुश्किल होता है, ऐसे में चित्रकला, संगीत, लेखन या अभिनय जैसी रचनात्मक गतिविधियाँ मन की पीड़ा को अभिव्यक्त करने का माध्यम बन जाती हैं। युद्ध के बाद कई समुदायों में नुक्कड़ नाटक, कविता पाठ और चित्र प्रदर्शनियाँ आयोजित की जाती हैं जो सामूहिक हीलिंग का माध्यम बनती हैं।
5. आध्यात्मिक और सांस्कृतिक सहारा
कई लोग संकट की घड़ी में धर्म, ईश्वर, ध्यान, या योग की ओर रुख करते हैं। यह न केवल उन्हें मानसिक शांति देता है, बल्कि एक आशा भी प्रदान करता है कि परिस्थितियाँ बदलेगीं। साथ ही, सांस्कृतिक रीति-रिवाज़ और त्योहार भी लोगों को जोड़ने का काम करते हैं।
6. सामूहिक पुनर्निर्माण
जब लोग मिलकर अपने गाँव, मोहल्ले, स्कूल या घर को फिर से बनाने में जुटते हैं, तो उसमें एक प्रकार की सामूहिक चिकित्सा होती है। दूसरों के साथ मिलकर कार्य करना न केवल उपयोगी है, बल्कि यह मानसिक समर्थन भी प्रदान करता है।
7. बच्चों के लिए विशेष ध्यान
युद्ध का सबसे असहाय शिकार बच्चे होते हैं। उन्हें सही मार्गदर्शन, प्यार और मानसिक समर्थन देना आवश्यक है। कहानियाँ, खेल, और चित्रों के माध्यम से उनके डर को समझना और उसे दूर करना चाहिए।
सरकार और समाज की भूमिका
सरकार और गैर-सरकारी संगठनों (NGOs) को इस दिशा में एकजुट होकर कार्य करना चाहिए। मानसिक स्वास्थ्य पर आधारित शिविर, परामर्श केंद्र, और स्कूलों में भावनात्मक शिक्षा को बढ़ावा देना चाहिए। युद्ध के बाद की नीति केवल पुनर्निर्माण तक सीमित न हो, बल्कि उसमें मानसिक पुनर्वास को भी शामिल किया जाना चाहिए।
युद्ध केवल हथियारों से नहीं लड़ा जाता, बल्कि वह आम नागरिक के भीतर भी चलता है – एक अंतहीन युद्ध, जो डर, ग़म, और दर्द से भरा होता है। आम जनता का यह मूक संघर्ष अक्सर अनदेखा रह जाता है, लेकिन यदि हम एक संवेदनशील समाज बनाना चाहते हैं, तो हमें उनकी पीड़ा को सुनना और समझना होगा। मानसिक स्वास्थ्य पर ध्यान देना केवल चिकित्सा नहीं, बल्कि इंसानियत की सच्ची सेवा है।
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Published on May 21, 2025 21:59

ममता की मौन परछाइयाँ

माँ - यह मात्र एक शब्द नहीं, बल्कि एक एहसास है। ममता त्याग, स्नेह, और निःस्वार्थ प्रेम का सबसे शशक्त और पवित्र रूप है। हमारे शास्त्रों में भी माता का महिमागान करते हुए कहा गया है,
‘नास्ति मातृसमा छाया, नास्ति मातृसमा गति:
नास्ति मातृसमं त्राण, नास्ति मातृसमा प्रिया’
अर्थात् माता के समान कोई छाया नहीं है, माता के समान कोई अन्य आश्रय नहीं है। माता के समान कोई रक्षक नहीं है और माता के समान कोई प्रिय वस्तु नहीं है। मां जीवन की प्राण वायु है। वह जीवन की जननी, पहली गुरु और सृष्टि के चक्र की केंद्रीय धुरी है। इसलिए कहा भी गया है कि ‘स्त्री ना होगी जग म्हं सृष्टि को रचावै कौण, ब्रह्मा विष्णु शिवजी तीनों, मन म्हं धारें बैठे मौन'। अर्थात् यदि स्त्री नहीं होती तो सृष्टि की रचना नहीं हो सकती थी।
मातृदिवस एक ऐसा अवसर है जिस दिन सम्पर्ण विश्व माँ की हीं महिमा का गुणगान करता है। उनकी गोद, उनके आँचल, उनके अपार प्रेम को फूलों, आभारों और भावनाओं का उपहार देने की कोशिश की जाती है। परन्तु इस दिन एक ऐसा भी वर्ग समाज में मौजूद है जो खामोशी से अपनी भावनाएं खुद में दबाये निःशब्दिता से बस मुस्कुरा देता है, या किसी अँधेरे कोने में खुद को गायब करने की नाकामयाब कोशिशे करता है, कोना जहां ना कोई बधाई पहुँचती है, न कोई आभार और ना कोई तोहफा – ऐसी स्त्रियां जा माँ नहीं बन सकीं। इन स्त्रियों को अक्सर कोई नाम नहीं दिया जाता, परन्तु इनके भीतर भी वही ममता का सागर लहराता है, जो एक माँ में होता है।
वे स्त्रियां जो माँ बनने की तीव्र इच्छा रखती हैं, पर किसी कारणवश यह अनुभव नहीं पा सकीं — कभी चिकित्सकीय कारणों से, कभी विवाह न हो पाने या टूट जाने के कारण, तो कभी स्वेच्छा से अकेले जीवन को अपनाने के कारण।
इन स्त्रियों की पीड़ा को समाज अक्सर देख नहीं पाता, या देख कर भी अनदेखा कर देता है। क्योंकि माँ न बन पाने को हम अधूरापन मानते हैं, और उस अधूरेपन पर सहानुभूति नहीं, अजीब सी चुप्पी ओढ़ लेते हैं, या फिर कटाक्ष करते हैं। पर क्या ममता केवल उस स्त्री की थाती है जो शारीरिक रूप से माँ बनी हो? क्या माँ बनने की भावना, मातृत्व का भाव, केवल गर्भ धारण करने से ही परिभाषित होता है?


माँ बनने की चाह : एक अनकहा संघर्ष -


माँ बनने प्रबल इच्छा और उसका पूर्ण ना हो पाना, यह एक ऐसा दुःख है जिसे शब्दों में पिरोना आसान नहीं। यूँ तो आज के आधुनिक चिकित्सा प्रणाली ने बहुत कुछ आसान कर दिया है, परन्तु हर स्त्री के लिए ये सफर एक जैसा नहीं हो पता। कुछ स्त्रियाँ कई वर्षों तक संतान के लिए संघर्ष करती हैं — उपचार, दवाइयाँ, मानसिक दबाव, और हर माह एक टूटी हुई उम्मीद। समाज का दबाव, परिवार की अपेक्षाएँ, और अपनी आत्मा के भीतर पलती मातृत्व की पुकार — यह एक ऐसा अदृश्य युद्ध है जो इन स्त्रियों को भीतर से तोड़ देता है, पर वे हर दिन खुद को समेट कर मुस्कुराती हैं।
कुछ स्त्रियाँ विवाह न होने या टूट जाने के कारण माँ नहीं बन पातीं। कुछ ने अपने आत्मसम्मान के लिए अकेलापन चुना, तो कुछ जीवन की परिस्थितियों में उलझ कर उस राह पर जा ही नहीं सकीं, कुछ ने किसी का इंतज़ार किया और समय निकल गया और कुछ ने अकेलेपन को अपनाया क्यूंकि यही उनके सुकून की गारंटी थी। पर इसका मतलब यह नहीं कि उनके भीतर ममता नहीं। उनके भी सपनों में बच्चों की किलकारी गूंजती है, उनके भी घर के कोनों में अधूरी कहानियाँ बसी होती हैं।


मातृत्व की अदृश्य परछाइयाँ -


मातृत्व को धारण करना सिर्फ एक जैविक प्रक्रिया नहीं बल्कि एक भावनात्मक और आध्यात्मिक अनुभूति भी है। कुछ स्त्रियां भले हीं माँ ना बनी हो पर उन्होंने मातृत्व को धारण किया है, कभी छोटे भाई-बहन को माँ की परवरिश देकर, कभी किसी अनाथ बच्चे की देखभाल कर, या कभी समाज की सेवा में स्वयं को समर्पित कर।
ऐसी महिलाएँ कभी तो शिक्षिका बनकर सैकड़ों बच्चों को संवारती हैं, तो कभी डॉक्टर बनकर मरीजों को ज़िन्दगी देती हैं, तो कभी परामर्शदाता बनकर टूटे दिलों को जोड़ती हैं — क्या यह सब मातृत्व नहीं है? ममता केवल गर्भ से नहीं, हृदय से जन्म लेती है।


वे जो खो चुकीं अपनी संतति -


एक तरफ माँओं का वो वर्ग है, जिन्होंने अपने संतानों को खोया है। कभी गर्भ में, कभी जन्म के बाद कोई दुर्घटना, या कोई बीमारी — ऐसी त्रासदी जिनका कोई शब्द नहीं, कोई सांत्वना नहीं। वे स्त्रियाँ माँ बनीं, पर उनके बच्चों का साथ कुछ पल, कुछ दिनों, या कुछ वर्षों का ही रहा। वे भी माँ थी और रहेंगी, बस उनका बच्चा उनकी दुनिया में ना हो कर, उनकी यादों में है।
वे उस हर पल में माँ हैं, जब वे बच्चों के छोटे कपड़ों को देखकर अपने आंसुओं को रोकती हैं, जब वो एक कोना पकड़ कर खामोशी से बैठ जाती हैं, जब वे रास्ते पर बिना कुछ कहे किसी की मुस्कराहट में अपने बच्चे की हंसी तलाशती हैं। उनकी ममता मौन होकर भी अन्नंत होती हैं।


अकेलेपन में ममता की गूंज


समाज में कई स्त्रियाँ हैं जिन्होंने विवाह नहीं किया, या विवाह के बाद मातृत्व का विकल्प नहीं चुना, पर उनके भीतर भी मातृप्रवृत्ति जीवंत होता है। वे पशुओं की सेवा करती हैं, वृद्ध माता-पिता का सहारा बनती हैं, या किसी ऐसे बच्चे को पढ़ाती हैं जिसे कोई नहीं पूछता। वे चुपचाप किसी के जीवन का महत्वपूर्ण हिस्सा बन जाती हैं, वो भी बिना किसी अपेक्षा के।
उनके आँचल में भी ममता की वही कोमलता है, जो किसी माँ के आँचल में होती है।


मातृत्व को पुनर्परिभाषित करना


समाज को चाहिए कि वह माँ के अर्थ को पुनः परिभाषित करे। माँ केवल वह नहीं जो बच्चे को जन्म दे, माँ वह भी है जो जीवन को सहेजती है, उसे संवारती है, और दूसरों को निःस्वार्थ प्रेम देती है। मातृत्व एक भावना है, न कि कोई औपचारिक पहचान।
मदर्स डे पर जब हम उपहार खरीदते हैं, सोशल मीडिया पर पोस्ट डालते हैं, तब कुछ पल उन स्त्रियों को भी याद करें —
जो माँ बनना चाहती थीं, पर बन न सकीं।


जो किसी परिस्थिति या फैसले के कारण मातृत्व से दूर रह गईं।


जिन्होंने बच्चे को खो दिया, पर ममता आज भी उनके भीतर जीवित है।


जिन्होंने बिना संतान के भी दुनिया को प्रेम दिया, सहारा दिया।


एक मौन नमन


यह आलेख उन स्त्रियों को समर्पित है जिनकी ममता को समाज ने अक्सर अनदेखा किया, जिन्होंने अपनी भावनाओं को चुपचाप जीया, और जिनके आँचल में कभी कोई सिर नहीं आया, पर उन्होंने फिर भी उस आँचल को फैलाए रखा — किसी उम्मीद, किसी सपने, किसी दुआ के लिए। जो माँ नहीं बनीं, पर जिनके भीतर की ममता माँ से कम नहीं। जो अधूरी नहीं, बस एक अलग प्रकार की पूरी हैं। इस मातृ दिवस, हम सब आपको
एक मौन नमन देते हैं —
आपके स्नेह को, आपकी इच्छाओं को, आपकी चुप्पियों को।
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Published on May 21, 2025 21:56

December 14, 2023

दरभंगा हाउस

दरभंगा हाउस

भारतीय इतिहास के पुरातन पन्नों को पलटते हुए, जब हम महाजनपद काल तक पहुँचते हैं, तो वहाँ हमें सोलह महाजनपदों का उदय होते दिखता है। इन सोलह महाजनपदों में मगध एक शक्तिशाली एवं अति महत्वपूर्ण महाजनपद के रूप में उभरा। मगध साम्राज्य की राजधानी को हम पाटलिपुत्र के नाम से जानते हैं, वर्त्तमान में यही पाटलिपुत्र शहर बिहार राज्य की राजधानी पटना के रूप में विकसित हुई। कलकल करती हुई गंगा नदी के किनारे स्थापित ये पटना शहर, अपनी ऐतिहासिक धरोहरों, खूबसूरती और राजनितिक और सांस्कृतिक महत्ता के लिए विश्वभर में प्रसिद्ध है।
यूँ तो पटना शहर कई पुरातन और ऐतिहासिक भवनों का प्रतिनिधित्व करता है परन्तु गंगा घाट पर स्थित “दरभंगा हाउस” एक ऐसी ऐतिहासिक धरोहर है, जो स्थापत्य कला का अद्भुत नमूना पेश करती है। पटना शहर के कारगिल चौक से पटना यूनिवर्सिटी की दिशा में एक किलोमीटर की दूरी तय करने पर नजर आती है, लाल और पीले रंग की ऐतिहासिक ईमारतें, जिन्हें हम दरभंगा हाउस के नाम से जानते हैं। दरभंगा हाउस, दरअसल एक ऐतिहासिक राजभवन है, जिसका एक नाम नवलखा पैलेस भी है। इसका निर्माण दरभंगा के महाराजा लक्ष्मणेश्वर सिंह ने 1880 में करवाया था। महाराजा लक्ष्मणेश्वर सिंह, बिहार के बड़े राजाओं में गिने जाते थे, जिनका साम्राज्य दरभंगा और उसके आस-पास के इलाकों में वृहद रूप से फैला था, जिसे मैथिल साम्राज्य भी कहा जाता है। सन 1880 में उन्होंने पटना के गंगा घाट पर लगभग बीस बीघा जमीन खरीद कर, इस महल का निर्माण करवाया था। इस महल का नक्सा ब्रिटिश वास्तुकार चार्ल्स मांट ने बनाया था, और उन्हीं की देखरेख में सुर्खी और चूने के इस्तेमाल से इस भवन का निर्माण किया गया। इस भवन के दीवारों और पायों पर जगह-जगह मतस्य की कृति अंकित है, जो मैथिल साम्राज्य एवं दरभंगा महाराज का राजकीय चिन्ह है। ये ईमारत ब्रिटिश और मुग़ल वास्तु-शैली का खूबसूरत सामंजस्य है।
दरभंगा हाउस की ईमारत को मूलतः तीन हिस्सों में बाँट कर बनाया गया है। एक हिस्सा राजा ब्लॉक, एक रानी ब्लॉक और एक रिसेप्शन एरिया कहलाता है। राजा ब्लॉक में महाराजा लक्ष्मणेश्वर सिंह रहते थे, वहीँ रानी ब्लॉक में उनकी महारानी और दासियाँ रहा करती थी। इस दोनों ब्लॉकों को जोड़ने के लिए एक मुख्य द्वार तो है हीं, पर एक अंदरूनी गलियारा भी है। इन दोनों ब्लॉक्स के अलावा जो तीसरा हिस्सा रिसेप्शन रूम या एरिया था वो अब दिखाई नहीं देता। चौड़े खूबसूरत गलियारों, बड़े-बड़े कमरों और गंगा नदी को निहारती बड़ी-बड़ी खड़कियाँ और बरामदे, इस महल को खूबसूरती हीं नहीं अपितु सुकून भी प्रदान करती हैं।
दरभंगा हाउस जहां ऐतिहासिक और सांस्कृतिक दृष्टिकोण से विशिष्ट है, वहीँ इसकी जड़ें धार्मिक आस्था से भी जुड़ी हुई हैं। दोनों ब्लॉक के बीच माँ काली का एक डेढ़ सौ साल पुराना मंदिर है। महल के गर्भगृह में अवस्थित इस मंदिर की विशेष मान्यता है, जहां माँ के दर्शन हेतु शक्ति के उपासक देशभर से पहुँचते हैं। किवदंतियों की माने तो ऐसा कहा जाता है कि महाराजा लक्ष्मणेश्वर सिंह संतानविहीन थे, और किसी उपासक के कथनानुसार उन्होंने पूरे देशभर में माता महाकाली के एक सौ आठ मंदिरों का निर्माण करवाया, जिसके फलस्वरूप उन्हें महाराजा कामेश्वर सिंह के रूप में संतान की प्राप्ति हुई। महाराजा कामेश्वर सिंह भी अपने समय के बहुत हीं प्रतापी शासक हुए, साथ हीं उन्हें शक्ति के अखंड उपासकों में भी गिना जाता है। महाराजा कामेश्वर सिंह का मुख्य महल ऐसे तो दरभंगा राज में अवस्थित है, परन्तु वो जब भी पटना में होते तो गंगा नदी में स्नान कर, इसी काली घाट की माता की पूजा कर अपनी दिनचर्या शुरू करते थे। शुरू-शुरू में ये मंदिर सिर्फ राज परिवार के सदस्यों के लिए हीं था, और आम जनता का यहां प्रवेश निषिद्ध था, पर बाद में इसे सार्वजनिकता प्राप्त हुई। ये मंदिर बलि-प्रथा के लिए भी प्रसिद्ध हुआ करता था, परन्तु कालांतर में बलि-प्रथा के विरोध के फलस्वरूप आश्विन मास के नवरात्रा के नवमी को छोड़कर यहां बलि वर्जित हो गयी। माँ के इस मंदिर में नारियल बलि के रूप में चढ़ाया जाता है, और दूर-दराज से श्रद्धालु यहां नारियल की बलि करने आते हैं।
दरभंगा हाउस जो सांस्कृतिक, ऐतिहासिक और धार्मिक विरासत मानी जाती है, सन 1955 से उसका शैक्षणिक महत्त्व भी उभर कर सामने आया। साल 1950 में जब बिहार की मुख्य यूनिवर्सिटी, पटना यूनिवर्सिटी अपना क्षेत्रिये और शैक्षणिक विस्तार कर रही थी, तो स्नातकोत्तर अर्थात पीजी की क्लास के लिए उनके पास जगह की कमी हो रही थी। उस समय महाराजा कामेश्वर सिंह के द्वारा दरभंगा हाउस की भवन को यूनिवर्सिटी को सौंप दिया गया। ऐसे साल 1955 में यूनिवर्सिटी के विस्तार के लिए पटना यूनिवर्सिटी को बिहार सरकार की तरफ से पांच लाख की सहायता राशि मिली थी, और फिर सात लाख में दरभंगा हाउस पटना यूनिवर्सिटी की संपत्ति बन गया।
इस दरभंगा हाउस की ख्याति ऐसी रही कि यहां से निकले कई सारे छात्र एवं छात्राएं आईएएस और आईपीएस के रूप में पदस्थापित हुए। इन दो ब्लॉकों में से रानी ब्लॉक में मानवीय संकाय के विषयों की पढ़ाई एवं शोध कार्य होते हैं। जिनमें भाषा और दर्शन मुख्य विषय है। जहां निचले मंजिल पर हिंदी और फ़ारसी के विभाग है वहीं ऊपरी मंजिल पर बांग्ला, संस्कृत और मैथली भाषा के विभाग हैं। महाराजा कामेश्वर सिंह ने जब ये भवन शिक्षा हेतू यूनिवर्सिटी को दान दिया तो उन्होंने इस बात को भी सुनिश्चित किया, कि यहां मैथिली भाषा की भी पढाई हो। वहाँ दूसरी ओर राजा ब्लॉक में अंग्रेजी भाषा के अलावा सामाजिक विज्ञान के विषयों की पढ़ाई होती है। जिनमे अर्थशास्त्र, इतिहास, राजनीति शास्त्र और व्यक्तिगत एवं औद्योगिक संबंध आदि विषयों पर शोधकार्य एवं पढ़ाई होती है।
यहां से पढ़ने वाले छात्रों ने तो समाज में अपनी एक सफल पहचान बनायीं हीं, साथ हीं यहां पढ़ाने वाले प्रोफेसर्स भी काफी जाने-माने व्यक्तित्व रहे। श्री सैय्यद अस्करी जिन्हें हम पद्द्म श्री इतिहासकार के रूप में जानते है, वो दरभंगा हाउस के पीजी विभाग के हीं प्रोफेसर थे, साथ हीं के.के.दत्त, वी.सी.सरकार जैसे प्रोफेसर भी एक समय में इस जगह को शोभामान करते थे। ठंडी हवाओं और गंगा नदी की रमणीय खूबसूरती के सुसज्जित इस महल को सन 2015 में आये भूकंप ने थोड़ी क्षति पहुंचाई थी, परन्तु पटना यूनिवर्सिटी समयांतराल पर दरभंगा हाउस का जीर्णोद्धार करती रहती है। यूँ तो बिहार राज्य ऐतिहासिक रूप से बहुत हीं समृद्ध है, यहां ऐतिहासिक और सांस्कृतिक धरोहरों की कमी नहीं, अपितु दरभंगा हाउस या पटना का नवलखा राजमहल उन धरोहरों में एक बहुमूल्य रत्न सामान है, जिसकी ख्याति और चमक समय के साथ बढ़ती हीं चली गयी।
Manisha Manjari
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Published on December 14, 2023 04:15

March 2, 2022

Life

Life. is so easy to pronounce, a four-letter word. but even more complex to explain. everyone we meet in our day-to-day life talks about its hardness and harshness. what problems it throws at us and how we are dealing with it. we are making plans for the future and worried about that. Some of us are trapped in the memories of the past, which were long gone, but we are still hovering over that. Either we plan for the future or we cry over the past.
And between these two dimensions, there is present. we live in the present, we work in the present, we laugh and cry in the present but we never count on the present. A place that has the power to change the past and the future. which is the foundation of a fulfilling future and a beautiful past. We, humans, have a nature to hold on to the things, we always want to hold the situation and forget that we can't hold the sand in our palms. We can control the flowing water, if we try to stop the flow it might lose its identity. life is also like a flowing river, we only can go with its flow. We have to learn to enjoy its journey because that's the most beautiful experience we can have. the journey is always more important than the destination. when we put our efforts to enjoy the journey the destination will be surely beautiful. so leave the worries and live in the present. Make the present beautiful.
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Published on March 02, 2022 18:59