लेखक के दर्द की स्वानुभूति की फिल्म

विचार को तथ्यों और तर्को पर बिना कसे ही बिना कोर्ट बिठाए सजा देने का काम सदियों से हमारी सभ्यताएं करती रही हैं, 'निर्बाशितो' भी उसी की दास्तान है, बस किरदार अलग है, और इस तरह से यह हमारे निरंतर और ज्यादा, बहुत ज्यादा असहिष्णु होते जाते समय का एक क्रूर बयान है।

'निर्बाशितो' (Bangla-English, 2014) देखना उपलब्धि रहा है। एक लेखक की जीवनस्थितियों का सुंदर पर रूला देना वाला अकाउंट प्रस्तुत किया है चुरनी गांगुली ने। एक निर्देशक के रूप में यह उनकी पहली फिल्म है, लिखा भी उन्होंने ही है, मुख्य भूमिका में भी वही हैं। चुरनी ने मुख्य भूमिका में अभिनेत्री के तौर पर कमाल की सहजता के साथ तस्लीमा के रूप में एक लेखिका की यथेष्ट सवेदनशीलता को मूर्त किया है। वे कहीं भी लाउड नहीं है, सहजता में ही भाव का वांछित प्रकटीकरण किया है।


जिस बात में लेखक का विश्वास है, उसे कहने की सजा उसको भुगतनी पड़े, उसे अपने देश, अपने लोगों से दूर कर दिया जाए, सारे संचार माध्यमों से काट कर किसी समुद्री टापू पर रख दिया जाए, यह कहना सुनना लिखना जितना सहज लगता है, उतना सहज उससे गुजरना नहीं है, कतई नहीं है, फिल्म अपने कैनवस पर उसी पीड़ा के भाव को जीवंतता से चित्रित करती है, कि हम सामने बैठकर उस दर्द में हमदर्द हो जाते हैं। 'निर्बाशितो' कहने को निर्वासन के बाद लेखिका और उससे बिछुड़ी बिल्ली बाघिनी की कहानी है पर दरअसल अपनी सतह के नीचे समंदर के गहरे जल सी विराट हलचलों को समेटे हुए है।

बिना नाम लिए हुए पूरी फिल्म तस्लीमा नसरीन की कहानी कहती है, नाम की जरूरत भी नहीं है, एक रचनात्मक व्यक्ति का दर्द उसका संघर्ष रूप बदल बदल कर वही होता है। कभी वह सुकरात होता है, कभी गांधी होता है, कभी मंसूर होता है, कभी गैलिलियो /कॉपरनिकस होता है। विचार को तथ्यों और तर्को पर बिना कसे ही बिना कोर्ट बिठाए सजा देने का काम सदियों से हमारी सभ्यताएं करती रही हैं, 'निर्बाशितो' भी उसी की दास्तान है, बस किरदार अलग है, और इस तरह से यह हमारे निरंतर और ज्यादा, बहुत ज्यादा असहिष्णु होते जाते समय का एक क्रूर बयान है। एक पंक्ति में कहा जाय तो 'निर्बाशितो' लेखक के दर्द से सहानुभूति नहीं, उस दर्द की स्वानुभूति की फिल्म है। फिल्म बायोपिक नहीं है, तस्लीमा के जीवन के एक छोटे से हिस्से की कथा है, जो अपने स्वरूप में बड़ा है।

बंगाली और अंग्रेजी में कही गई कहानी कोलकाता से दिल्ली होती हुई स्वीडन और फिर एक समुद्री टापू पर पीड़ा के चरम और उम्मीद के दामन को थामे हुए समाप्त होती है।
फिल्म में बीच बीच में तस्लीमा की कविताओं के बेकग्राउंड पाठ ने गीतों की जगह भरते हुए कहानी को सान्द्र, सघन बनाया है।बिल्ली को राजनीतिक व्यंग्य के लिए मैटाफर बनाना भी खूबसूरत लगा है पर उस हिस्से का थोडा सा अधिक हो जाना खलता है।

लेखक का जीवन पर्दे पर आना महत्वपूर्ण है, उसे इस तरह पर्दे पर ला पाना और ज्यादा चुनौतीपूर्ण है, तस्लीमा के जीवन को अंकित करना बेहद दुस्साहसिक चुनौती स्वीकारने जैसा है, उसके साथ न्याय कर पाना उसी चुनौती को गंभीरता से लेने की जिम्मेदार कोशिश का नाम है।

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Published on October 27, 2014 20:28
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