आज चीख उठी इनसानियत, जब देखा तेरा पागलपन
तू धर्म बचाने निकला खुद का, इमान कहाँ छोड़ आया है
बेकसूरों को मारता बुज़दिल क्या कभी किसी का घर बसाया है
तेरे बन्दुक से निकली हर गोली ने तोडे़ है कितने परिवारो को
जब बरसाता है सरेआम गोलीयाँ क्या मजहब भी पूछ पाता है
लहू का रंग क्यों भाता तुझको, क्या कभी कोई जख्म भर पाया है
आज तू मारे कल हम मारेंगे, ये सिलसिला अब बस थम जाना है
मजहब – मजहब करता है तू कौन सा मजहब नफ़रत सिखाता है
ये तेरा खुद का मजहब है, गीता क़ुरान को क्यो बदनाम कराता है
बस बन्द करो ये पागलपन तुम, हम अब और सहन ना कर पायेंगे
मन्दिर मस्जीद के फसादो मे हम अपने ईमान को ना थुकरायेगे
तु लड़ता है तो लड़ ले हमसे, मेरा मजहब है प्यार सिखाता
वो होगा कोई और ही मजहब, जिसपे तू इतना इतराता
Published on November 25, 2015 10:31