मैं 'पत्थर' हो गया हूँ
पर वो पत्थर नहीं
जिसे 'पूजा' जाय,
बस एक 'साधारण पत्थर',
पर साधारण पत्थर होना ही क्या 'आसान' है?
देखने में आसान लग सकता है,
पर वो पत्थर कभी 'मैग्मा' रहा होगा
धरती के अंदर,
न जाने कितने 'ताप', कितना 'प्रेशर'
उसने कितने दिनों तक झेला होगा,
और जब 'बर्दाश्त' से बाहर हो गया होगा सबकुछ
तो एक दिन 'फट' गया होगा उसके अंदर का 'ज्वालामुखी',
वो 'लावा' बन बस बहे जाने को तैयार...
ओह! उस दिन कितनी 'शांति' मिली होगी उसे,
फिर धीरे-धीरे 'ठण्डा' हुआ होगा वो
अब बिल्कुल दूसरे स्वरूप में...
पर 'पत्थर' होने के लिए
फिर न जाने उसने कितनी 'बारिश', कितनी 'धूप',
और न जाने कितने 'मौसम' झेले होंगे,
तब जाकर बन पाया होगा वो 'पत्थर',
पत्थर बन जाना इतना भी 'आसान' नहीं..
For more poetries like this must visit and subscribe my youtube channel "sunday wali poem"
www.youtube.com/sundaywalipoemVinayak Sharma