खांडा विवाह – ऐतिहासिकता और चरित्र
क्या आप जानते हैं-
— वीरेन्द्र सिंह राठौड़(मेड़तिया)卐 (@virendrarathore) October 6, 2020
राजपूतों में परंपरा है कि यदि विवाह के समय वर को युद्ध पर जाना पड़ जाए तो प्रतीक रूप में खांडे (तलवार) से वधू का विवाह संस्कार संपन्न होता है। pic.twitter.com/vUTtnG6jO3
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कुछ समय पूर्व खांडा विवाह के विषय में मेरी एक ट्वीट पर लोगों की कई प्रकार की आपत्तियाँ (निम्नलिखित) आई थी। आज समय निकालकर उनका निराकरण करने का प्रयास है।
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पहले तो ये स्पष्ट कर दें कि खांडा विवाह अवश्य होते थे, पर कुछ दशक पूर्व बंद हो गए (एक-दो अपवाद स्वरुप यदा कदा अब भी होते हों ऐसा संभव है)। सो आशय ये नहीं था कि प्रथा अब भी प्रचलित है। अब बाकी बातें कि कब किससे होते थे क्यों होते थे इत्यादि।
आरंभ कुछ प्रमुख खांडा विवाह उदाहरणों से करते हैं।
सन् 1622 ई० में जोधपुर महाराजा गज सिंह प्रथम का खांडा विवाह कछवाहा जगरूप जगन्नाथोत की पुत्री कल्याणदेवी के साथ अकबराबाद में संपन्न हुआ।
18वीं सदी में महाराजा अजीत सिंह के अनेक विवाहों में से कछवाहों में हुआ विवाह खांडा रीति से हुआ।
सन् 1851 ई०, जोधपुर के महाराजा तख्त सिंह का आठवां विवाह जामनगर की राजकुमारी प्रतापकँवर जाड़ेची के साथ तय होता है। किन्तु महाराजा के स्थान पर उनका खांडा विवाह में भेजा गया। बारात भी गई और पूरी धूमधाम से सभी रीति नेकचार सहित विवाह होकर खांडे सहित वधू भी विदा हुई।
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अगला उदाहरण स्वयं एक ओसवाल जैन इतिहासकार का ही है। राजस्थानी इतिहास जगत में मुँहणोत नैणसी को कौन नहीं जानता। नैणसी जी का तीसरा विवाह बाड़मेर के कामदार की पुत्री से तय हुआ। व्यस्तता के चलते नैणसी जी ने खांडा विवाह करने की सोची और विवाह के लिए खांडा भेज दिया। बिना युद्ध के इस प्रकार का प्रबंध वधू पक्ष को अपमानजनक लगा। सो उन्होंने वधू के स्थान पर डोली में मूसल भिजवा दिया। जिसके बाद नैणसी प्रतिशोध लेने बाड़मेर पर चढ़ आए और आक्रमण से नगर को भारी हानि हुई।
खांडा विवाह केवल भारतीय धर्मों में ही नहीं अपितु मुस्लिम नवाबों में भी प्रचलित रहा जैसा की जलाल बूबना आदि लोककथाओं में वर्णित है। सिंध के नवाब की पुत्री बूबना से विवाह के लिए धटाबखर के सुल्तान ने अपनी तलवार भेजी थी।
इसी प्रकार बघेरा और उथेलिया जैसे ठिकानों व छोटे राज्यों के राजपरिवारों में भी परस्पर खांडा विवाह हुए। खांडा विवाह गुजरात, सिंध और सौराष्ट्र में प्रायः होता रहा है। इन तथ्यों की पुष्टि स्वयं बघेरा की रानी बाघेली जी ने की है।
क्या खांडे के साथ फेरे होते थे? बिलकुल होते थे, पर सभी चार नहीं। कुछ फेरे खांडे से और बाकी रहे फिर वधु लिए बारात के लौटने पर वर के साथ ही होते थे। विवरण के लिए तखत सिंह जी का खांडा विवाह ही ले लें।
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अनुवाद: फिर तीन फेरे खांडे से लिए गए, जिनमें आगे तो राणी जी सा (वधू) और पीछे खांडा लिए महिला वाकयानवीस (गृह सचिव जैसा पद) थी।
चौथे फेरे से पहले पूरे विवाह के सभी रीति प्रथाओं आदि में जहाँ जहाँ वर की आवश्यकता थी, वहाँ वहाँ खांडा प्रयुक्त हुआ। तोरण के लिए हाथी के हौदे में खांडा ही विराज रहा था, खांडे को ही तिलक किया गया, पूजा में वधू के साथ वर की ओर से बैठी ब्राह्मणी गुरुपत्नी के हाथ में खांडा रखा गया। यहाँ तक कि वर पक्ष के डेरे को भी खांडे का डेरा कहा जाता था।
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खांडा विवाह के हमारे सभी उदाहरण संभ्रांत परिवारों की राजकन्याओं के हैं। इनमें न तो कोई ‘दाशी’ थी और ना ही कोई ‘आप समझ गए होंगे’ थी।
तो क्यों होते थे खांडा विवाह?
1. यदि वर किसी सुदूर प्रांत में युद्ध रत हो और समय पर विवाह हेतु पहुंचना संभव न हो तो खांडा भेजा जाता था।
2. मध्यकाल में विवाह के लिए बारात का सुदूर प्रांतों में जाना बहुत समय लेता था। उसपर स्वयं विवाह और लौटने का समय जोड़ दें तो इतनी लम्बी अवधि तक किसी का अपने राज्य/भूमि से दूर रहना सुरक्षा संकट को न्यौता देने के समान था।
3. लम्बी यात्राओं में पथ कई बार अनेकों राज्यों से होकर निकलते थे जहाँ शत्रु द्वारा घात की आशंका होती थी।
4. वधू पक्ष की आर्थिक स्थिति पर्याप्त न होने की स्थिति में विवाह में अनावश्यक खर्च कम करने की भी ये एक युक्ति होती थी।
खांडा विवाह की ऐतिहासिकता पर संदेह का कोई प्रश्न ही नहीं क्योंकि इतिहास को जीने समझने वाले कई विद्वान इस विषय को पूरी तरह स्पष्ट करते हैं।
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जानकारी के स्त्रोत:
– पद्मश्री लक्ष्मी कुमारी चूंडावत के लेख।
– जोधपुर रियासत की खांडा विवाह को ही समर्पित एक बही।
– श्री रतन सिंह शेखावत (ज्ञान दर्पण) के लेख।
समय मिला तो आगे खांडा विवाह पर और जानकारी साझा करूँगा।


