Are Chauhans originated from Malavas ?
क्या चौहानों का उद्भव मालवों से है?
चौहानों को मालव क्षत्रियों से जोड़ने पर श्री विंध्यराज चौहान आदि कुछ विद्वानों ने अपने मत रखे हैं। चौहानों के मूलपुरुष “चाहमान” छठी सदी ईस्वी के मालवदेशीय क्षेत्रियों के समकालीन थे और उनके सामंत या सहयोगी रहे इतना तो लगभग निश्चित है। इसके लिए चौहानों की वंशावलियां, चाहमान के तत्कालीन राजनैतिक भूगोल और पृथ्वीराजविजय के उल्लेख हमें पर्याप्त बिंदु देते हैं, जिसपर पृथ्वीराज चौहान पर आधारित पुस्तक में भी लिखा गया है।
लेकिन मालव क्षत्रिय वंश/ जनजाति से चौहानों का निकास होने का हमें अपने अध्ययन में कोई ठोस साक्ष्य नहीं मिला। पर कुछ लोग आजकल इसे पत्थर की लकीर मानकर चलने लगे हैं कि पंजाब से आते मालवो की ही एक शाखा “चौहान” नागौर अजमेर क्षेत्र में आकर बसे थे ।
जिन बिंदुओं को गिनाकर ये दावे किए जाते हैं, एक-एक कर हम उनका आंकलन कर लेते हैं, और तथ्यों सहित उन दावों का उत्तर भी देंगे ।
दावा #1: नान्दसा यूप स्तम्भ लेख की निम्नलिखित 5वीं पंक्ति का अर्थ है “इक्ष्वाकु प्रथित मालववंश के राजर्षि वंश में जन्मे चौहान” – इक्ष्वाकु प्रथित राजर्षि वंशे मालव वंशे.……
दावा #2: बड़ल्या वापी शिलालेख वि.स. 1234, सन् 1177 ई० के दूसरे श्लोक में लिखा है – “चाहमानाह्रपः कोपिपुरा वीरो विरोचनात प्रादुर्व्व(र्ब्ब)भूव {राजर्षि पृथिव्यामरि मर्दनः}||2||
अर्थात् प्राचीनकाल में ‘राजर्षि’ ‘विरोचन’ का मातृभूमि के शत्रुओं का, मानमर्दन करने वाला “चाहमान” नामक पुत्र हुआ ।
उत्तर: प्रथम तो नान्दसा यूप स्तम्भ लेख मध्यकालीन मालवदेश के निकट दक्षिण पूर्वी राजस्थान के भीलवाड़ा से मिलता है । इसकी उपरोक्त पंक्ति में इक्ष्वाकु प्रथित से अर्थ “इक्ष्वाकुओं से निकले” लिया जाए या “इक्ष्वाकु के जैसे प्रसिद्ध”, इसी पर विद्वान एकमत नहीं हैं । दूसरी बात, पंक्ति में दरअसल इक्ष्वाकु – जैसे प्रसिद्ध / से निकले – राजर्षियों द्वारा चलाए मालववंश के राजा नंदीसोम सोगिन का उल्लेख है। चौहानों का या उनके मूलपुरुष चाहमान का उल्लेख इस अभिलेख में कहीं नही मिलता । तो चौहानों के उत्पत्ति से मालव होने के साक्ष्य के रूप में इस शिलालेख का उपयोग क्यों किया जा रहा है? दरअसल सोगिनों के नांदसा अभिलेख और चौहानों के बड़ल्या अभिलेख, इन दोनों में मिले “राजर्षि” शब्द के आधार पर ये कहने का प्रयास है कि चौहान लोग मालवों में “राजर्षि” नामक कोई शाखा थी और उसी से चौहान निकले हैं ।
तथ्य इस प्रकार है कि ‘राजर्षि’ शब्द बहुत ज्ञानी क्षत्रिय राजाओं के लिए इतिहास में कई बार उपमा की तरह प्रयुक्त हुआ है। रामायण कालीन विश्वामित्र जी से लेकर ऋषि मुद्गल, चंद्रवंशी पुरुरवा, कार्तवीर्य आदि कई को राजर्षि कहा गया है ।
[Matysa Purana 13.62]
[Matysa Purana 43.23]महाभारत में नकुल से भिड़े आक्रोश को राजर्षि कहा गया है । ऐसे ही प्रतिहारों की एक शाखा ने भी अपने मूलपुरुष हरिश्चंद्र को ‘गुरु’ की संज्ञा दी है ।
नान्दसा अभिलेख में ‘राजर्षि वंशे’ से अर्थ ‘ज्ञानी लोगों का चलाया राजवंश’ है, ना कि राजर्षि नामक कोई वंश/शाखा । इस अभिलेख में मालवों की राजर्षि नामक कोई शाखा होने का उल्लेख तो नहीं है, बल्कि ‘सोगिन’ नामक शाखा का उल्लेख स्पष्ट रूप से किया गया है (संभवतः सौगि ऋषि गोत्र के कारण) । अभिलेख :
[ Nandsa Inscription, EI 27, Pg 252 ]12वीं सदी के बड़ल्या वापी शिलालेख की ओर चलेंगे । ये खंडित श्रेणी में आता है, क्योंकि जिस शिला पर ये अंकित है वो दांयी ओर से टूटी हुई है । खंडन का कोण देखने और अंकन के लयबद्ध होने से अनुमान लग जाता है कि पहली पंक्ति में लगभग 16 अक्षरों का लोप हुआ है और नीचे की पंक्तियों में नुकसान कम होता जाता है । इस शिलालेख के दूसरे श्लोक में दावे अनुसार बताए गए शब्द “{राजर्षि पृथिव्यामरि मर्दनः}” किसने किस आधार पर माने है, ये मुझे फिलहाल ज्ञात नहीं । पर Epigraphia Indica में मूल शिला के प्रकाशन से लेकर श्री दशरथ शर्मा, विंध्यराज चौहान और रामवल्लभ सोमानी की पुस्तकों में पंक्ति जैसी मिलती है, वो नीचे दी जा रही है । और इन सभी प्रकाशनों में कहीं भी “{राजर्षि पृथिव्यामरि मर्दनः}” शब्द नहीं मिलते :
[ Early Chauhan Dynasties – Dasharatha Sharma ]
[ Prithviraj Chauhan and his Times – R V Somani ]
[ Dillipati Prithviraj Chauhan aur unka Yug – Vindhyaraj Chauhan ]
[ Epigraphia Indica vol 32 ]यदि किसी ने हाल ही में मूल शिला का फिर से पठन किया और इसका लुप्त शिलाखंड ढूंढ लिया हो, तो किसी पुरातत्व पत्रिका में समीक्षा हेतु अभिलेख का नए सिरे से पुनः प्रकाशन हुआ ऐसा मेरी दृष्टि में नहीं आया है । किसी को मिले तो अवश्य साझा करें ।
ध्यान दें कि पहला श्लोक जो कि अधूरा है, समाप्त होते समय “प्रसूते” (जन्म लिया) शब्द आया है| इससे संकेत मिलता है कि श्लोक की पहली पंक्ति के उन 16 लुप्त अक्षरों में चौहान की उत्पत्ति पर जानकारी दी गयी हो । तदनुसार इसके ठीक बाद दूसरे श्लोक में चौहानों के मूलपुरुष चाहमान और उनके पिता विरोचन का नाम आना स्वाभाविक है । “विरोचन” शब्द से यहाँ विंध्यराज जी के कथनानुसार चाहमान के अनुवांशिक पिता (व्यक्ति) माना जाए, या फिर शब्द को सूर्यदेव का पर्यायवाची मानें, इस बहस में हम नहीं पड़ेंगे ।
पर विरोचन और चाहमान के नाम आ जाने के बाद फिर से चौहानों की उत्पत्ति पर पीछे की ओर जाकर उन्हें मालव राजर्षि कहा गया हो, ये सूचना क्रम में यथासंगत नहीं लगता । क्योंकि मूल पठन में विरोचन और चाहमान के बाद केवल एक अनुपलब्ध/अपाठ्य अंश है और फिर तीसरे श्लोक में सीधे विग्रहराज चौहान (चतुर्थ) और उनके भतीजे पृथ्वीभट का नाम आ जाता है ।
विग्रहराज के नाम से पहले (पंक्ति #3 में) चूंकि “क्रमात् इह उद्भूय” शब्द आए हैं, अर्थात “इस क्रम में पैदा हुए” । इससे अनुमान होता है कि ठीक पहले के लुप्त भाग में मालवों के किसी तथाकथित राजर्षि वंश से चौहानों की उत्पत्ति जताने के बजाय चाहमान और विग्रहराज चतुर्थ के बीच के कुछ चौहान राजाओं के नाम रहे होंगे ।
एक बार के लिए “{राजर्षि पृथिव्यामरि मर्दनः}” को लेकर उस आधार पर विरोचन को राजर्षि मान भी लें, तो जैसा कि हमने पीछे कहा, “राजर्षि” केवल एक प्रशंसात्मक उपमा है किसी वंश या शाखा का नाम नहीं । ना ही अभिलेख की पंक्तियों से ऐसा सोचने का आधार मिलता है ।
दावा #3: चन्द्रमहासेन चौहान के धौलपुर शिलालेख वि.स. 898 में ही सबसे पहले विक्रम संवत्सर का ऐसा नाम लेकर उसका प्रयोग हुआ है| विक्रम सम्वत मालव सम्राट विक्रमादित्य के नाम से है । फिर 12वीं सदी के पृथ्वीराज (द्वितीय) ने अपने मेनाल शिलालेख में मालवेश संवत् का प्रयोग किया है ।
उत्तर: ये सत्य है कि धौलपुर शिलालेख में “विक्रम” सम्वत को पहली बार इस नाम से लिखा गया है जबकि इससे पूर्व इसी सम्वत को कृत, मालव, या मात्र सम्वत ही लिख दिया जाता था । पर केवल एक चौहान राजा के द्वारा एक प्रचलित सम्वत को 900 वर्षों पूर्व के मालव-देशीय राजा (विक्रमादित्य) के नाम से पहचानने के बल पर चौहानों को उत्पत्ति से मालव कह देना – एक कमज़ोर तर्क है ।
बहुत से राजाओं के काल में गुप्त और हर्ष आदि संवतों का प्रयोग भी हुआ है, जबकि उन राजाओं का गुप्त वंश या सम्राट हर्षवर्धन से कोई अनुवांशिक सम्बन्ध नहीं था । राजनैतिक शक्तियों के द्वारा प्रयोग किए गए संवत कैसे हैं और या केवल सिक्कों आदि की समानता से अनुवांशिक या अन्य महत्त्वपूर्ण निष्कर्ष निकालने लगें तो प्रतिहार हूण सिद्ध हो जाएंगे, और शहाबुद्दीन गोरी को लक्ष्मी के सिक्कों से हिंदू हितैषी कहना होगा । सम्वत और सिक्के राजनैतिक विरासत का भाग होते हैं, जिसे शासन तंत्र की सुविधा के लिए अक्सर जारी रखा जाता है; चाहे आपका उस सम्वत/सिक्के की संरचना, या मौलिक पृष्ठभूमि के लोगों से सीधा जुड़ाव हो या नहीं ।
जिस समय धौलपुर शिलालेख आया है, तब मालव क्षेत्र में परमारों की दूसरी पीढ़ी राज कर रही थी । इन्हे पूरे मध्यकाल में मालव कहा गया है, चौहानों द्वारा भी । इन परमारों का किसी तथाकथित प्राचीन मालव वंश/जनजाति से उद्गम होने का कोई साक्ष्य नहीं है । उससे भी पहले छठी और सातवीं सदी (हर्षवर्धन काल सम्मिलित) में “मालव” पहचान गुप्त वंशी राजाओं को प्राप्त थी । इनका भी प्राचीन मालवों से कोई अनुवांशिक साम्य नहीं मिलता; और ना ही इन गुप्तवंशियों के नाम प्राचीन मालवों के नंदीसोम, यशोधर्मन आदि से समानता रखते हैं – देवगुप्त, कुमारगुप्त माधवगुप्त । हर्षचरित के कुछ उदाहरण :
दावा #4: विग्रहराज चौहान चतुर्थ का निम्लिखित शिलालेख वि.स. 1210-20 (12वीं सदी ईस्वी), चौहानों को मालव कहता है (दूसरी पंक्ति)-
दावे में पंक्तियों का अर्थ इस प्रकार दिया गया है :
उत्तर : विग्रहराज चौहान चतुर्थ के काल में शिलाओं पर “ललितविग्रहराज नाटिका” के साथ ही उपरोक्त वंश प्रशस्ति भी उकेरी हुई मिलती है । पर यहाँ फिर से शब्दों का खेल हुआ है| हमारे विषय के लिए आरम्भ की पंक्तियाँ ही महत्वपूर्ण हैं ।
दावे की दूसरी पंक्ति में जिसे “तस्मात्स मालव(ब) दंडयोनिर भूज्जनस्य” लिखकर चौहानों को मालव बता दिया गया है, वो वास्तव में “तस्मात् समालम्बन दंड यो निरभूज्जनस्य” है ।
तस्मात् – अतएव therefore
समालम्बन – उत्तम आधार good base
दंड – शासन का बल / साधन / प्रतीक sceptre / symbol of power (exertion)
यो – कौन / जो कि he who
निरभूज्जनस्य – भटके हुए लोगों के of the distracted people
स्खलतः – फिसलन, अपने स्थान से च्युत होना
स्वमार्गे – अपने मार्ग में
अर्थात राजा को अपने मार्ग में फिसलकर भटके हुए लोगों (प्रजा) के लिए सुशासन रूपी आधार बताया गया है ।
हम “तस्मात् समालम्बन” को यदि “तस्मात्स मालव(ब)” भी मान लें तो पूरी पंक्ति 2 में दावे की व्याख्या अनुसार “दंड की व्यवस्था करने वाला उत्पन्न हुआ” जैसा अर्थ प्रकट करने योग्य कोई शब्द ही नहीं बचता और पूरा वाक्य बेतुका हो जाता है ।
ये गफलत किसी इंटरनेट-वीर की है या लेखक की, मैं नहीं जानता | यहाँ शिलालेख का मूल पाठ जैसा कि गौरीशंकर हीराचंद ओझा जी से प्राप्त है, साझा किया जा रहा है :
[ Rajputane ka Itihas-1, G. H. Ojha ]मालवों के बारे में कहा जाता है कि मालव नामक कोई वंश/जनजाति थी जिन्होंने पंजाब से केंद्रीय भारत में पलायन कर अपने नाम से मालवदेश (मालवा) बसाया | पर ये धारणा सिद्ध नहीं है | ग्रीक विद्वानों द्वारा पंजाब में देखे गए “मल्लोई” लोगों को ब्रिटिश काल में भंडारकर आदि की मान्यता से ज़बरदस्ती केंद्रीय भारत के मालव (देशीय) क्षत्रियों से जोड़ दिया गया ।
इस जुड़ाव की पड़ताल करें तो पाएंगे कि केंद्रीय भारत (मालवदेश – मालवा) के किसी भी मध्यकालीन शासक/वंश ने अपने अभिलेखों में कभी स्वयं को पंजाब से उठा नहीं बताया, और ना ही अपने आप को कभी उत्पत्ति से मालव कहा ।
मालव शब्द युक्त कोई भी प्राचीन शिलालेख पंजाब क्षेत्र से नहीं मिलता ।
पहला अभिलेख पश्चिमी क्षत्रपों के अंतर्गत सामंत उषवदात का नासिक से है, जिसमें (विद्वजनानुसार मालय को मालव मानें तो) पुष्कर, अजमेर के आसपास रहते उत्तमभद्रों पर मालवों के आक्रमण और क्षत्रपों द्वारा उत्तमभद्रों की सहायता का उल्लेख है ।
[ Epigraphia Indica vol 8 ]स्वाभाविक है कि ये मालव रेगिस्तान पार 300 मील दूर के पंजाब से नहीं बल्कि पास ही किसी क्षेत्र से आए थे । कहाँ से? उत्तर दूसरे अभिलेख में है, तीसरी सदी ईस्वी का नान्दसा यूप । ये अजमेर के नीचे दक्षिण पूर्वी राजस्थान (भीलवाड़ा) से है मिला है, ना कि पंजाब से । यहाँ दोहरा दें कि पूरे मध्यकाल में दक्षिणपूर्वी राजस्थान और गुजरात से लगा हुआ केंद्रीय भारत का क्षेत्र ही मालवदेश कहलाता था ।
तीसरी सदी के ही “मालवानां जयः” युक्त सिक्के केंद्रीय भारत और दक्षिण पूर्वी राजस्थान में ही मिलते हैं, ना कि पंजाब में । सातवीं सदी के हुएन त्सांग, कादम्बरी व हर्षचरित भी मालव शब्द से केंद्रीय भारत के प्रांत का ही अर्थ देते हैं ।
महाभारत और वराहमिहिर के वर्णन से मालव नामक किसी देश को पंजाब में निश्चित रूप से स्थित करना संभव नहीं | उदाहरण के लिए महाभारत में नकुल का पांडवों के राज्य से पश्चिम को जो अभियान बताया गया है, उसमें आए त्रिगर्त को विद्वान कांगड़ा मानते हैं जो उत्तर में स्थित है, उसी तथाकथित पश्चिमी सूची में दशार्ण क्षेत्र (मध्यप्रदेश) और चित्तोड़ के पास की माध्यमिका भी है, जो कि दोनों ही हस्तिनापुर से दक्षिण को हैं | जैसा कि मानचित्र से स्पष्ट है, दशार्ण तो मध्यकालीन मालवदेश के भी पूर्व की ओर पड़ता है | ऐसे में महाभारत के मालव क्षेत्र को पंजाब में किस प्रकार मान लिया जाए?
[ Mahabharata Sabha Parva, Ch-32 ]जब मालवदेश (मालवा) के किसी भी मध्यकालीन शासक/वंश ने ना तो अपने आप को उत्पत्ति से मालव कहा है, और ना ही पंजाब से पलायन करने मध्यभारत (मालवा/अवन्ति) आने की बात की है । तो भला होगा यदि ज़बरदस्ती की इन अटकलों को विराम दिया जाए, कि पहले से व्यथित भारतीय इतिहास और छलनी ना हो ।
मालव नामक किसी वंश/जनजाति के पंजाब से केंद्रीय भारत में आकर अपने नाम से मालवदेश (मालवा) बसाने की बात कुछ विद्वानों का अंदाज़ा भर हैं, स्थापित तथ्य नहीं | पर एक बार को यदि पंजाब से भीतर को हुए इस तथाकथित मालव पलायन को सत्य मान लें | तब भी चौहानों पर ऐतिह्य सामग्री की इतनी भी कमी नहीं है कि हमें ऐसे तुक्के लगाने पड़ें | शिलालेख, वंशावलियाँ, महाकाव्य, जैन प्रबंध आदि अनेकों स्त्रोत है | चौहान यदि मालव थे तो उनके पास अपने आप को स्पष्ट रूप से ऐसा कहने का पर्याप्त अवसर था | लेकिन इन सभी स्त्रोतों में चौहानों के द्वारा हमेशा अपने समकालीन मालवदेश के शासकों और निवासियों को “मालव” कहने और स्वयं को कभी मालव ना कहने से ही स्थिति स्पष्ट हो जाती है कि वो खुद को उत्पत्ति से मालव नहीं मानते थे |


