Ab Initio – setting the record straight on Ajmer and Ajayraj Chauhan
आजकल चौहानों को लेकर कुछ आधारहीन अतिउत्साहित धारणाएं बार बार उठती है। जैसे कि चौहान वंश मालवों की राजर्षि नामक किसी शाखा से उत्पन्न थे। इस पर हम पीछे एक पोस्ट में विस्तृत खंडन दे चुके हैं। एक और धारणा जिसे इतिहास के कलेवर में प्रस्तुत किया जाता है : अजमेर को अजयपाल चौहान ने 7वीं सदी ईस्वी में बसा दिया था, और 12वीं सदी में केवल यहां राजधानी स्थानांतरित हुई थी।
तो आज इसका भी सत्य जान लेते हैं। चौहान इतिहास को लेकर पृथ्वीराजविजय महाकाव्य की प्रामाणिकता तो सभी के लिए संदेह से परे है। ग्रंथ में चौहानों के मूलपुरुष चाहमान (छठी सदी ईस्वी) से लेकर पृथ्वीराज चौहान तृतीय (12वीं सदी ईस्वी) तक सभी शासकों पर वंशावली क्रमानुसार एक एक कर बात की गई है।
इस ग्रंथ या इसकी टीका में अजयमेरु नगर का नाम अर्णोराज के पिता अजयराज चौहान से पूर्व कहीं भी नही मिलता। अर्णोराज 12वीं सदी मध्य में शासक थे और अजयराज 12वीं सदी के आरंभ में सक्रिय रहे।
इस प्रकार महाकाव्य तो सर्ग 5 के श्लोक 119-20 पर साफ कहता है कि अजयराज ने अजेयमेरु बसाया और उनके कृत्यों से नगर का नाम सार्थक हुआ। अजयराज के बाद फिर काव्य सीधे अर्णोराज के वर्णन पर उतर जाता है।
इसके अलावा समकालीन स्त्रोतों में पृथ्वीराज विजय से पहले बिजोलिया शिलालेख 1169 ईस्वी की वंशावली में भी “अजयराज” नामक शासक है 12वीं सदी में मिलते हैं, उससे पहले नही। हर्षनाथ शिलालेख चूंकि 973 ईस्वी का है, इसमें अजयराज का नाम ही नही है।
इस मिथक का बीज पृथ्वीराज चौहान के 150 वर्षों बाद लिखे ग्रंथ “प्रबंधकोश” में हुई एक त्रुटि है। ये ग्रंथ चौहानों के इतिहास को समर्पित नही था। इसमें दी गई चौहान वंशावली में राजा वासुदेव (कोशानुसार 551 ईस्वी) से लेकर चौथे स्थान पर “अजयराज” का नाम आता है, किंतु 12वीं सदी में पृथ्वीराज प्रथम और अर्णोराज के बीच अजयराज गायब हैं और किसी “अल्हण” का नाम आ जाता है [देखें सिंघी जैन ग्रंथमाला प्रकाशन के परिशिष्ट में दी वंशावली]।
12वीं सदी में अजयराज के ठीक बाद पास ही चौहानों की एक अन्य शाखा के नाडोल राज्य में “अल्हण” नामक शासक मिलते हैं। स्पष्ट है कि प्रबंधकोश के लेखक राजशेखर को उपलब्ध वंशावलियोंं में यहां हेरफेर हुआ है।
यही हाल प्रबंधकोष के 50-60 वर्षों बाद लिखे हम्मीर महाकाव्य का है। वैसे भी 15वीं सदी के किसी ग्रंथ से वंशावलियो के विषय में 12वीं सदी और उससे पीछे के कालखंड पर सटीकता की अपेक्षा करना उचित नहीं।
बाद के इन ग्रंथों की जानकारी पर 20वीं सदी में श्री हरबिलास सारदा ने भी एक गफलत जड़ दी कि अजमेर की कुछ छतरियों में लगे शिलालेखों का समय 8वीं ईस्वी होने से अजमेर की स्थापना इससे पहले ही हुई होगी। दरअसल समीक्षा होने पर ये शिलालेख 8वीं नही बल्कि 18वीं सदी के प्राप्त हुए हैं, अर्थात 8वीं सदी का पठन त्रुटिपूर्ण था [Ancient cities and towns of Rajasthan, KC Jain, Pg 301]।
उपरोक्त साक्ष्यों व तर्कों पर ये केवल हमारा मत नही बल्कि श्री दशरथ शर्मा से लेकर विंध्यराज चौहान तक अनेकों विद्वानों का स्पष्ट कथन है।
यहां साफ करना होगा कि इतिहास में सुधार संशोधन से गुरेज नहीं है। आवश्यकता केवल इतनी है कि ऐसा उचित साक्ष्यों तर्कों के आधार पर किया जाए। ये असंभव नहीं कि आज के अजमेर की भूमि पर 12वीं सदी से पूर्व कोई मानवीय बस्ती या गतिविधि रही हो। चौहानों की राजधानी का समय के साथ स्थान परिवर्तन या पसराव हुआ हो ये भी स्वीकार्य तथ्य है। लेकिन किसी अजयपाल/अजयराज के नाम पर “अजयमेरु” नाम का एक भरा पूरा नगर 7वीं-8वीं सदी में ही बस गया था ऐसा मानने का कोई विश्वसनीय साक्ष्य उपलब्ध नहीं। ऐसे में इतिहास को इतिहास ही रहने दिया जाए और इसे निजी पूर्वाग्रह या इच्छाओं की पूर्ति का माध्यम ना बनाया जाए तो विद्वजनों की हम सभी पर कृपा होगी। अन्यथा वामपंथी या रामप्यारी ब्रांड के इतिहास विरूपण पर हमारा प्रतिकार ही क्या रह जाएगा।


