विडम्बना
विडम्बना
हिंदू धर्म जैसे विशाल एवं विस्तृत औदार्य धर्म की आधुनिक मलिन समाज में स्थिति देखिए, कि सभी भगवानों को एक विशेष व्यवहार और विचार से जोड़ कर रख दिया गया है। शिव जी को नशे संबंधी कुरीतियों व आदतों से जोड़ा जा रहा है। राम जी को केवल युद्व के आह्वान से संबंधित किया जा रहा है। हालाँकि घर के कुछ बड़े बुज़ुर्ग अभी भी उनके नाम को जपने के लिए इस्तेमाल करते हैं। लेकिन युवाओं के लिए वे अब एक सेंसेशनल स्टार हैं, जिनके लिए उनके फ़ैन कुछ भी करने को तैयार हैं। उनके असल विचार क्या हैं—यह मायने नहीं रखता। उनके नाम को प्रभुत्व दिखाने के लिए इस्तेमाल किया जाता है। कृष्ण जी अभी तक थोड़े शांत विचारों जैसे प्रेम एवं विरह से संबंधित किए जा रहे हैं। वे अभी तक तो किसी भी क्रूरता या ग़ुस्से से दूर हैं। हनुमान जी शारीरिक रूप से बलिष्ठ होने के द्योतक हैं। बाक़ी भगवानों को उतना ग्लैमराइज़ नहीं किया जा सका है। उनका कोई स्टारडम नहीं है। कोई भी भीड़ “जय श्री गणेश” या “जय श्री ब्रह्मा” के नारों से उद्वेलित नहीं होती। गणेश जी और ब्रह्मा जी जैसे शांत और अंडररेटेड भगवानों को बहुत कम मौक़ों पर याद किया जाता है। ब्रह्मा जी अभी तक लोगों के भीतर अपना क्रेज़ बना पाने में असफल हैं। क्या एक आम हिन्दू शायद अभी भी किसी मुसीबत के दौर में सिर्फ़ ब्रह्मा जी को याद करके संतुष्ट हो सकता है? क्या परीक्षा के परिणाम से पहले कोई युवा ब्रह्मा जी की आराधना करके अपनी मानसिक व्यग्रता को शांत कर सकता है? शायद नहीं। इस काम के लिए कुछ भगवान निश्चित कर दिए गए हैं। शायद हर काम के लिए भगवान निश्चित कर दिए गए हैं। और हर भगवान के भक्तों के प्रकार भी निश्चित कर दिए गए हैं। ब्रह्मा जी घर के वे बुज़ुर्ग हैं जिन्होंने मेहनत से पूरा घर-आँगन बसाया था और आज उसी घर के किसी कोने में बैठे हुए अपने पोते-बहुओं और बेटों से 2 घड़ी प्रेम की बातों की अपेक्षा लिए बैठे रहते हैं। विष्णु जी के मौलिक स्वरूप को यादृच्छिक रूप से उनके बाक़ी प्रकारों के रूप में याद कर लिया जाता है।
यह दर्शाता है कि पिछले कई दशकों में शनै:-शनै: भगवानों का एक निश्चित प्रारूप और चित्रण बनाया गया है। ठीक वैसे ही, जैसे फ़िल्मों में होता है या “Popular Culture” में होता है। अत्याधुनिक सोशल मीडिया के युग की भाषा में इसे PR या Public Relations कहते हैं। जो बड़े-बड़े अभिनेता, नेता, खिलाड़ी व कलाकार समाज में अपनी छवि बनाने और सुधारने के लिए किया करते हैं जिसका कि आम जनता को आभास भी नहीं होता; कि कब किसी नेता या अभिनेता के रास्ते में पड़े कूड़े को उठाने की एक रील देखकर, जिसमें कि एक भावुक संगीत जोड़ा गया है, आपके मन में उनके प्रति अनायास ही संवेदनशीलता आ जाती है। ठीक उसी प्रकार; किस भगवान, देवी या देवता की कैसी छवि बनानी है, यह अब हज़ारों सालों के अविरल प्रयास से रचे गए प्राचीन ग्रन्थ, वेद, पुराण, उपनिषद या धार्मिक टीका–टिप्पणी तय नहीं करेंगे। अब यह heroic भावनाओं से ओत प्रोत किशोरों द्वारा social media पर slowed and reverbed संगीत से गूँजित, आँखों में तेज़ चमकीली दीप्ति लिए यूट्यूब के शॉर्ट्स और इंस्टाग्राम की रील्स तय करेंगी। जहाँ भगवानों को एक फ़िल्मी महान नायक की तरह युद्ध लड़ते हुए या उसे रोकने की क्षमता रखते हुए दिखाया जाएगा। जहाँ उनके असल प्रारूप और विचार, दिखाए जा रहे एक एक क्षण से कोसों दूर होंगे।
चूँकि इंसान सभ्यता के आरम्भ से जन्मजात हिंसक प्रवृत्ति का है, इसलिए वह केवल उन भगवानों को अपने लिए उपयुक्त मानता है जिन्होंने किंवदंतियों में कभी-न-कभी किसी पौराणिक महायुद्ध में भाग लिया हो। श्रीराम ने रामायण में रावण का यथायोग्य वध किया था। श्रीकृष्ण ने भले ही प्रत्यक्ष रूप से महाभारत के युद्ध में भाग नहीं लिया हो, लेकिन उन्होंने कई योद्धाओं को दिलवाया था। कईयों को जिताया था। कईयों को हराया था। वे कुशल कूटनीतिज्ञ के रूप में युद्ध में निहित थे। शिव जी ने देवासुर संग्राम में विष पीकर अपनी ठोस उपस्थिति दर्ज कराई थी। क्या होता अगर श्री राम रावण का हृदय परिवर्तन कर के उसे माफ़ कर देते; या श्री कृष्ण दुर्योधन, दुशासन जैसे सभी कौरवों का हृदय परिवर्तन कर के पांडवों को उनका अधिकार दिलवा देते और सभी पाँच पांडव बाक़ी के कौरवों के साथ सुखी रहते? और रामायण एवं महाभारत के युद्ध होते ही नहीं? क्या होता अगर शिव जी की जगह ब्रह्मा जी विष का प्याला पी जाते?
इंसान केवल कथानकों के नायकों को पूजता है। चाहे वह शास्त्रों में हो, साहित्य में हो, मीडिया द्वारा प्रायोजित लेखों में हो, या राजनीति में। ‘कौन कितने युद्ध जीत कर आया’ — केवल इस विचार की पूजा होती है। गणेश जी शायद किसी महायुद्ध के प्रतिभागी ना रहे हों। और ना ही ब्रह्मा जी ने किसी युद्ध में प्रत्यक्ष रूप से भाग लिया हो। अगर लिया भी होगा, तो उसकी भनक अभी तक मीडिया और नेताओं को नहीं लगी होगी। अन्यथा ब्रह्मा जी भी आज उतने ही पूजनीय होते। या यूँ कहें, ‘क्रेज़’ में होते। यही कारण है आज तक ब्रह्मा जी, गणेश जी को एक बड़ी भीड़ को उकसाने के लिए इस्तेमाल नहीं किया जा सका है। क्योंकि उनके विपरीत कोई खलनायक नहीं है, जिसे किसी के प्रतीक के रूप में भीड़ के ख़िलाफ़ दर्शाया जा सके। श्री राम, श्री कृष्ण, और शिव जी खलनायकों के धनी हैं। जिस व्यक्ति या विचार के ख़िलाफ़ अगर भीड़ को भड़काना हो, तो उसे रावण, कंस या असुर बताया जा सकता है। अब भगवान और नायकों के बीच की रेखा धूमिल होती जा रही है। या शायद हो चुकी है।
गोया कि लोगों की दिलचस्पी धर्म के प्रति बढ़ती जा रही है। यह क्रिया की जगह एक तरह की प्रतिक्रिया है, जो दूसरे धर्म के लोगों को देख कर की जा रही है। फिर भी, लोगों की दिलचस्पी शास्त्रों में ना हो कर शस्त्र उठाने में है। उन्हें अपने ही धर्म के मूल विचारों से कोई मतलब नहीं। और यह शायद इसलिए, कि वे जानते हैं इन विचारों को। वे जानते हैं कि धर्म के जो विचार शास्त्रों, वेदों और पुराणों में कहे गए हैं, वे उनके आज के विचारों से मेल नहीं खाते। शायद इसलिए सब धरती में सिर धँसाए शुतुरमुर्ग़ हो गए हैं। वे उस विचार को देखना ही नहीं चाहते। वे केवल उसी विचार से उत्त्तेजित होते हैं, जो मीडिया, नेतागण या यूट्यूब शॉर्ट्स अथवा इंस्टाग्राम रील्स दिखाती हैं।
और यह सब इसी तथ्य से जगजाहिर है, कि इस धर्म के सबसे बड़े आयोजन के संभाषण का विषय इस धर्म में व्याप्त कुरीतियाँ दूर करना या धार्मिक दर्शन और तत्वज्ञान नहीं हो कर यह है कि एक गुब्बारे बेचने वाली लड़की को कैसे देश के आतुर पुरुष घेर कर उसके रूप का रसपान कर रहे हैं और कैसे वह अब एक ओवरनाइट सेंसेशन बन चुकी है। कैसे एक उच्च शिक्षित युवा नशे करने की व्याकुलता को सर्वमान्य करने के लिए संन्यासी बन गया है। यहाँ दिलचस्पी साधुओं और साध्वियों की सुंदरता में है, ज्ञान में नहीं। हज़ारों साधु संत, जो मेहनत, तपस्या और अध्ययन से वैराग्य के मार्ग पर हैं, ‘सुंदरता देखने वाले की आँखों में होती है’ जैसे विचारों को हवा में विलीन होते देख रहे हैं। कौन धार्मिक दर्शन और शास्त्रार्थ को लेकर उत्साहित है? कौन धार्मिक मूल्यों के प्रचार-प्रसार के लिए तत्पर है? शायद कोई नहीं।
इन्हीं आलोचनाओं के प्रत्युत्तर में हमेशा यही एक बात कही जाती है — ‘तुम दूसरे धर्म के बारे में तो नहीं कहोगे। वहाँ भी तो इतनी सारी बुराइयाँ हैं।’ वे यह भूल जाते हैं कि जब अपने घर में कोई बुख़ार से पीड़ित हो तो सामने वाले के घर में कोई टीबी से पीड़ित है, इस बात से संतुष्ट नहीं हुआ जाता। जब समस्या अपने घर में हो तो स्वाभाविक रूप से चर्चा अपने घर में ही होगी। प्रश्नों के उत्तर में एक और प्रश्न मूर्खता की निशानी है। जो हम सब समय-दर-समय दिखाते रहते हैं।
यह तथ्य विकट शोचनीय है कि हिंदुओं ने कभी हिंदू “धर्म” को गम्भीरता से नहीं लिया, बल्कि “धर्मांधता” को पूरी तरह से सिर पर चढ़ा के रखा है। एक धर्म, जो अपने विचारों से महानता के शिखर पर जा सकता था, अब केवल दिखावे और तमाशे का उपकरण मात्र बन के रह गया है। अब यह रातोंरात प्रसिद्ध होने और नामवर होने का एक औजार है जिसे लोग जैसे चाहें वैसे इस्तेमाल कर रहे हैं।
Continued...
Published on February 01, 2025 03:08
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