भाग फरहान भाग



मिल्खा को चाहे नाम भर ही सही, हम में से प्राय: लोग जानते हैं, और बहुत सारे लोग उनको नाम और काम सहित जानते हैं। राकेश ओमप्रकाश मेहरा की इस बायोपिक फिल्म में दाखिल होते हुए कई छवियां होती हैं। खेल पर दो बायोपिक किस्म की फिल्में चक दे इंडिया और पान सिंह तोमर हम भूले नहीं हैं। हिंदुस्तान और पाकिस्तान की आजादी तथा विभाजन के दिनों में दंगों की गिरफ्त कहानी का वह सूत्र है जिसे पकड़कर निर्देशक चला है, आपने मां पिता का आंखों के सामने दंगाइयों के हाथों कत्ल और जीजा द्वारा घर से बेदखली के बाद भारत आना और जिंदगी की जद्दोजहद यानी अकेले बालक का स्वाभाविक जीवन संघर्ष पर्दे पर उतारने की यह चेष्टा लंबी हो गई है। उम्मीद से कमतर है। उम्मीद से बेहतर है फरहान अख्तर की अदाकारी। निर्देशक ने पूरी फिल्म में तबियत से भगाया है उनको, जैसे बॉलीवुड में खानों की दौड़ में फरहान अपनी जगह के लिए भाग रहे हैं। पिछले शुक्रवार रिलीज लुटेरा भी पीरियड ड्रामा थी, और यह भी है। अंतर यह है कि भाग मिल्खा भाग सच्ची कहानी से प्रेरित है। और किसी भी जीवनी या आत्मकथा में जो डर होता है कि वह आत्मश्लाघा बन कर ना रह जाए, यह किसी जीवित व्यक्ति पर बायोपिक बनाने में भी उतना ही होता है। इस फिल्म में इस डर से निर्देशक बहुत हद तक बच गए हैं, पर आंशिक रूप से इस मायने में कि मिल्खा का असाधारण नायकत्व ही उभरा है, मानवीय कमजोरियां नहीं। बॉलीवुडिय मसाले डाले गए है, नहीं होते या कम होते तो ज्यादा बेहतर होता। निर्देशक ने जितनी ईमानदारी से फिल्म बनाई है, काश उतनी कसावट भी फिल्म में होती यानी बेवजह फिल्म लंबी हो गई है।

फिल्म में क्रिकेटर युवराज सिंह के पिता योगराज सिंह जो पंजाबी सिनेमा के जाने पहचाने चेहरे हैं, ने मिल्खा के कोच की भूमिका में कमाल काम किया है, वहीं मिल्खा की बहन की भूमिका में दिव्या दत्ता ने, अगर बॉलीवुड की इस धारण को अलग कर दें कि नायिका यानी जो नायक की प्रेमिका, तो बहन होते हुए अदाकारी और उसस्थिति के लिहाज से फिल्म की नायिका है जिसने ऑस्कर के लिए नामित पंजाबी फिल्म वारिस शाह के बाद पहली बार इतना शानदार अभिनय किया है। सोनम कपूर छोटी सी भूमिका में भली लगती है।

पहली बार पटकथा लिखने उतरे प्रसून जोशी ने अपने स्तर का काम तो नहीं दिया है, हां गीत बेशक अच्छे हैं। 'हवन कुंड, मस्तों का झुंड' तथा 'कोयला है काला है, चट्टानों ने पाला है' जुबान पर आने वाले हैं। हालांकि समझ नहीं आया कि अगर कोयला मिल्खा के लिए प्रतीकात्मक है तो कोई अंदर से काला होते हुए कैसे सच्चा हो सकता है, जब वे लिखते हैं- 'अंदर काला, बाहर काला पर सच्चा है साला रे।' खैर, इतने मतलब आजकल की फिल्मों में कौन देखता है, पर क्या करें प्रसून जोशी से तो यह उम्मीद रहती ही है। आखिर में छोटी सी बात, दो नायिकाओं से प्रेम करता हुआ और तीसरी को मना करते हुए जीवन में प्रेम को लगभग खारिज करता नायक नई पीढ़ी को कैसा लगेगा, संशय है।

तीन स्टार



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Published on July 13, 2013 01:41
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