नवरात्र पूजा
कोलकाता से प्रकाशित लोकप्रिय हिंदी अखबार 'सन्मार्ग' के आज के अंक के साथ तकरीबन दो लाख प्रतियों में वितरित वार्षिक पत्रिका में आई 'आपके इस लेखक' दोस्त की कहानी 'नवरात्र पूजा' सीमित समय के लिए यहां प्रस्तुत है :
दिन उगे ज्यादा समय नहीं हुआ है पर गांव की दिनचर्या तो मुंह अधेरे ही शुरु हो जाती है। काकी गोबर लीप रही थी, नवरात्र शुरु होने पर हर साल काकी का पहला काम यही होता है, एक दिन पहले से नवरात्र की सारी तैयारी, चार घरों से अगले दिन के लिए गोबर मांगने से शुरु होती है। पूरे परिवार के लोग काकी की इस आदत और प्रक्रिया से परिचित हैं और उन्हें यह भी मालूम है कि इस वक्त काकी को छेडना या टोकना बस मधुमक्खी के छत्ते में हाथ देना ही है।
काकी की उम्र तकरीबन पैतीस साल, बड़ी बेटी राधकी ब्याहने की उम्र की हो चुकी है, वो इस वक्त घर पर नहीं है, बेटा श्यामूड़ा आठवीं पास करके अब खेत जाने लगा है, इस समय तक ऊंट गाड़ी लेकर जा चुका है, छोटी बेटी भूरकी पांचवीं में है।
`माऊ! आज मैं स्कूल नहीं जाऊंगी´ भूरकी बोली।
`क्यों नहीं जाएगी, रोज क्या बीमारी पड़ जाती है तुझे, कोई ना कोई बहाना चाहिए रांड को स्कूल ना जाने का´ काकी ने गोबर लीपते-लीपते आंख तरेरते हुए कहा।
`पेट दुख रहा है माऊ´ भूरकी रूंआसी होती हुई कहने लगी।
`दुखै है पेट (दुख रहा है पेट)! बहाने बाज, उल्टो सीधो खा लियो होसी कीं(उल्टा सीधा खा लिया होगा), सौंफ की फाकी ले ले और स्कूल भाग जा नहीं तो दो दूंगी कान के नीचे´ काकी का जवाब था।
भूरकी एक कोने में बैठी रोती रही।
काकी बड़बड़ाती रही।
`त्यूंहार खराब करणो है अण तो (त्योहार खराब करना है इसको तो), दीसै कोनी घर लीपूं(दिखता नहीं घर लीप रही हूं), कित्ते काम करने हैं, इंगो बाप तो घर कानीं देखै कोनी(इसका बाप तो घर की सुध लेता नहीं), तीज-त्यौंहार सब एक से हैं उसके लिए।´ कहते हुए घर लीपने की प्रक्रिया को जल्दी से निपटाने के लिए जल्दी-जल्दी हाथ चलाने लगी।
घर लीपकर मांडणे मांडने के लिए तैयारी करती काकी मन में माता को सिंवर रही थी। तभी राधकी तपड़-तपड़ करते कदमों से घर में दाखिल हुई, काकी को लगा धरम के काम में विघन डाल रही है, तपड़-तपड़ ने उसका ध्यान भंग कर दिया था।
`राधकी, इधर आ´
`हां, माऊ!´
`कहां डो-डो करती फिर रही थी´
`खेल रही थी´
`खेल रही थी! महीने के दिन शुरु नहीं हुए क्या आज भी? कल तेरे को अजवायन का सीरा खिलाया था, उसका भी असर नहीं हुआ क्या? सात दिन हो गये ना ऊपर!´
`हां माऊ, आज ई कोनी होयो(आज भी नहीं हुआ), बढिया है नीं तो जे नीं होयो तो।(बढिया है ना तो, नहीं हुआ तो)´ मुंह बनाते हुए उस पीड़ा और आफत के ना होने की खुशी को जाहिर किया।
`रांड, बढिया क्या सिर है, मुझे तो रमाण(समस्या) हो गई लगती है, बता, साची बता?´
`क्या बताऊ, माऊ ?´
` तूं कोनी बतावै (तू नहीं बताएगी), चल डाक्टरनी के पास, मांडणे मांड लिये, हाथ धो´र आती हूं।´ कह कर उठ गयी काकी और पलिंडे की ओर के पास पड़ी बाल्टी में से लोटा भर कर उठाया और हाथ धोने लगी। मांडणे के कुछ रंग लोटे पर अंकित हो गये। हाथ धो कर गीले हाथो से ही फटा-फट राधकी की चोटी पकड़ी -
`चल, राधकी, तेरी बीमारी का इलाज करवाती हूं पहले तो, पहले तू ही माता मेरी, नोरात तो बाद में पूजूंगी चाल´
तेज कदमों से चलकर गांव की प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र तक पहुंची - मां बेटी। लगभग खाली सा ही भभके मार रहा था स्वास्थ्य केन्द्र।
बाहर दक्षिण भारतीय सी दिखने वाली नर्स बैठी थी बरांडे में, मा¡ बेटी को देखकर उसका चेहरा ऐसे बना था जैसे उसके आराम में खलल डाल दी हो किसी ने, या जैसे वो अभी-अभी आकर बैठी हो और काम का मूड बना ही नही हो, उसने अपनी टेबल पर रखे टेबल जितने ही बड़े रजिस्टर में नाम लिखने के लिए कहा - `नाम बोलो पेशेंट का, तुमको दिखाना है या तुमको ?´ एक नजर से फटाफट दोनों मां-बेटी को देखते हुए पूछा।
`राधा, इसको दिखाणा है´ काकी ने कहा।
`इसकी उम्र, बाप का नाम ?´
`17 साल, हीरालाल´
`जाओ, डॉक्टर मैम अन्दर बैठी हैं, फ्री हैं'' कहते हुए नर्स ने कहते हुए एक पर्ची थमा दी।´
उसको बिना कुछ कहे काकी अंदर के कमरे में दाखिल हो गई।
`निमस्ते डॉक्टरनी जी´ काकी ने घुसते ही कहा।
`हां कैसे आई मां-बेटी, क्या तकलीफ है ?´
`डाक्टरनी जी, छोरी का महीना नहीं आया, सात दिन ऊपर हो गये, मुझे तो फिकर हो रही है।´
`हूंह, चार-पांच दिन तो लेट हो ही जाता है।´
`नहीं, मेडम जी, सात दिन हो गये, आज आठवां दिन है, अब तक कोई हां ना नहीं है´
`देखती हूं, चल लड़की´ डॉक्टर ने राधकी को उठकर दूसरे कमरे में चलने का इशारा किया।
लेडी डॉक्टर ने यूरिन से प्रेगनेंसी टेस्ट के बाद लौटते हुए कहा -
`लड़की पेट से है´
`क्या!´ काकी के जैसे जमीन खिसक गई पांव के नीचे से।
`हां´
`डॉक्टरनी जी, गरीब की कुंवारी बेटी पेट से! मर जाऊगी मैं जीते जी, किसी को मुंह भी कैसे दिखाऊंगी, ढंग से चैक तो करो ना मैडम जी।´
`हां, कर लिया, मैं किसी को नहीं बताऊंगी, बेफिकर रहो।´
काकी ने अजीब सी निगाह से राधकी की ओर देखा और तेज कदमों से घर की ओर चल दी, यह कहते हुए -
`चल, घर फटाफट!´
500 मीटर की दूरी मानो कुछ ही पलों में तय कर ली दोनों ने, बिना कुछ बोले यह किसी तूफान से पहले की शांति सी थी शायद। लगता हुआ चैत्र का महीना, धूप सिर चढ़ आई थी, गर्मी ऐसी की जेठ को भी भुला दे। भूरकी स्कूल जा चुकी थी। घर में बस दो जीव – मां और बेटी। घर पहुंचते ही काकी के सब्र का रूका हुआ बांध जैसे एक झटके से टूट गया -
` मरी कोनी तूं रांड मूंडो कळो करा दियो।(मरी नहीं तू रांड, काला मुंह करवा दिया), म्हारो बी आपगै सागै( मेरा भी अपने साथ), तेरै बाप नै के जवाब देस्यूं (तेरे बाप को क्या जवाब दूंगी)?´
राधकी चुप थी।
`कींगो है तेरै पेट मं(किसका है ये तेरे पेट में)!´
राधकी फिर चुप।
`बोलतो जा मरज्याणी´
राधकी से कुछ बोलते ना बना और वो हिचकिचा रही थी। वो बड़ी तेजी से दांये बायें तो कभी जमीन की ओर देखने लगी।
काकी ने उसे पकड़ कर दोनों हाथों से खिंचना शुरु कर दिया और साथ-साथ खुद रोना भी।
`अब बता नहीं तो ज्यान से मार दूंगी´
`विजय´ राधकी ने कहा
`कौन विजय!´ काकी ने उसी तीव्रता से रोते हुए पूछा।
`गांव के चौधरी का बेटा, मुझसे ब्याह करना चाहता है´
`ब्याव करेगा तेरे से, भूल जा´
`नहीं माऊ, प्यार करता है मेरे से बहोत´
`प्यार, ब्याह, बावळी है छोरी तू जाबक ही, छोटी जात की छोरी से ब्याव करेगा, गांव के चौधरी का बेटा, मुंह देखा है अपना, जा बट्ठल में पानी डालकर देखके आ?´
उसका मुंह पकड कर गुस्से में धक्का दे दिया। काकी की अभी भी रोये जा रही थी, साथ ही साथ। धक्का खा कर राधकी फिर काकी के सामने आ खड़ी हुई -
`साची कह रही हूं, माऊ, उसने कहा है वो ब्याव करेगा, मुझसे´ राधकी रोने लगी थी अब तक।
`तेरी उमर जानती है! मेरी उमर पता है! तेरे से ज्यादा जानती हूं, इस दुनिया को´
`नहीं माऊ, वो ऐसा नहीं है´ राधकी उसी तरह सुबकते-सुबकते बोली।
कुछ देर दोनों के बीच सन्नाटा पसर गया।
काकी रोने लगी। राधकी भी फिर से रोने लगी, मां को रोता देखकर। काकी ने भी राधकी को आगे बढ़ कर बांहों में भर लिया और मां-बेटी सुबक-सुबक कर रोती रही।
काकी का सिर दुखने लगा, राधा से बोली- 'जा रांड एक गिलास पाणी दे।'
और राधा ने पलींडे से स्टील के गिलास में पानी ला के दिया, काकी ने अपने कुडतिए की जेब से एक गांठ निकाली, खोली, एक पैरासिटामोल की टिकडी ली, आंख लग गई।
राधा भी चुप सी पास बैठी रही।
थोडी देर बाद राधा चुपके से खडी हुई और घर से चल दी।
ठीक पोने घंटे बाद आई तो राधा वो थी ही नहीं, जो पहले थी।
काकी ने पूछा - 'अब कठै मरगी ही रांड' (कहां मर गई थी)
राधा बोली - बींगो हिसाब तो मुका दियो।(उसका हिसाब तो निपटा दिया। )
''अब के करियाई तूं? '' काकी ने आंखें फाड के पूछा। आंखों की गोलाई और विस्तार देखने लायक था।
''बीनै पूछयो मेरहूं ब्या कर सी के। जे हां बोले तो चाल मेरै सागै अबी माउ कनै। (उससे पूछा कि मुझसे शादी करेगा, अगर हां तो अभी चल मेरी मां के पास मेरे साथ।) ''
'फेर (फिर )' ?
''घाउंघुच्ची खाण लाग ग्यो, कनै दाती पडी, घाल दी, पेट मं साळै गै। बठै ई प्राण निसरग्या।(पास में दाती पडी थी, पेट में डाल दी, वहीं प्राण निकल गए साले के। )''
काकी ने लंबी सांस ली, राधा चुप हो गई।
काकी को नवरात्र मनाने की तैयारी करनी थी, दुर्गा मां की पूजा की तैयारी....।

दिन उगे ज्यादा समय नहीं हुआ है पर गांव की दिनचर्या तो मुंह अधेरे ही शुरु हो जाती है। काकी गोबर लीप रही थी, नवरात्र शुरु होने पर हर साल काकी का पहला काम यही होता है, एक दिन पहले से नवरात्र की सारी तैयारी, चार घरों से अगले दिन के लिए गोबर मांगने से शुरु होती है। पूरे परिवार के लोग काकी की इस आदत और प्रक्रिया से परिचित हैं और उन्हें यह भी मालूम है कि इस वक्त काकी को छेडना या टोकना बस मधुमक्खी के छत्ते में हाथ देना ही है।
काकी की उम्र तकरीबन पैतीस साल, बड़ी बेटी राधकी ब्याहने की उम्र की हो चुकी है, वो इस वक्त घर पर नहीं है, बेटा श्यामूड़ा आठवीं पास करके अब खेत जाने लगा है, इस समय तक ऊंट गाड़ी लेकर जा चुका है, छोटी बेटी भूरकी पांचवीं में है।
`माऊ! आज मैं स्कूल नहीं जाऊंगी´ भूरकी बोली।
`क्यों नहीं जाएगी, रोज क्या बीमारी पड़ जाती है तुझे, कोई ना कोई बहाना चाहिए रांड को स्कूल ना जाने का´ काकी ने गोबर लीपते-लीपते आंख तरेरते हुए कहा।
`पेट दुख रहा है माऊ´ भूरकी रूंआसी होती हुई कहने लगी।
`दुखै है पेट (दुख रहा है पेट)! बहाने बाज, उल्टो सीधो खा लियो होसी कीं(उल्टा सीधा खा लिया होगा), सौंफ की फाकी ले ले और स्कूल भाग जा नहीं तो दो दूंगी कान के नीचे´ काकी का जवाब था।
भूरकी एक कोने में बैठी रोती रही।
काकी बड़बड़ाती रही।
`त्यूंहार खराब करणो है अण तो (त्योहार खराब करना है इसको तो), दीसै कोनी घर लीपूं(दिखता नहीं घर लीप रही हूं), कित्ते काम करने हैं, इंगो बाप तो घर कानीं देखै कोनी(इसका बाप तो घर की सुध लेता नहीं), तीज-त्यौंहार सब एक से हैं उसके लिए।´ कहते हुए घर लीपने की प्रक्रिया को जल्दी से निपटाने के लिए जल्दी-जल्दी हाथ चलाने लगी।
घर लीपकर मांडणे मांडने के लिए तैयारी करती काकी मन में माता को सिंवर रही थी। तभी राधकी तपड़-तपड़ करते कदमों से घर में दाखिल हुई, काकी को लगा धरम के काम में विघन डाल रही है, तपड़-तपड़ ने उसका ध्यान भंग कर दिया था।
`राधकी, इधर आ´
`हां, माऊ!´
`कहां डो-डो करती फिर रही थी´
`खेल रही थी´
`खेल रही थी! महीने के दिन शुरु नहीं हुए क्या आज भी? कल तेरे को अजवायन का सीरा खिलाया था, उसका भी असर नहीं हुआ क्या? सात दिन हो गये ना ऊपर!´
`हां माऊ, आज ई कोनी होयो(आज भी नहीं हुआ), बढिया है नीं तो जे नीं होयो तो।(बढिया है ना तो, नहीं हुआ तो)´ मुंह बनाते हुए उस पीड़ा और आफत के ना होने की खुशी को जाहिर किया।
`रांड, बढिया क्या सिर है, मुझे तो रमाण(समस्या) हो गई लगती है, बता, साची बता?´
`क्या बताऊ, माऊ ?´
` तूं कोनी बतावै (तू नहीं बताएगी), चल डाक्टरनी के पास, मांडणे मांड लिये, हाथ धो´र आती हूं।´ कह कर उठ गयी काकी और पलिंडे की ओर के पास पड़ी बाल्टी में से लोटा भर कर उठाया और हाथ धोने लगी। मांडणे के कुछ रंग लोटे पर अंकित हो गये। हाथ धो कर गीले हाथो से ही फटा-फट राधकी की चोटी पकड़ी -
`चल, राधकी, तेरी बीमारी का इलाज करवाती हूं पहले तो, पहले तू ही माता मेरी, नोरात तो बाद में पूजूंगी चाल´
तेज कदमों से चलकर गांव की प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र तक पहुंची - मां बेटी। लगभग खाली सा ही भभके मार रहा था स्वास्थ्य केन्द्र।
बाहर दक्षिण भारतीय सी दिखने वाली नर्स बैठी थी बरांडे में, मा¡ बेटी को देखकर उसका चेहरा ऐसे बना था जैसे उसके आराम में खलल डाल दी हो किसी ने, या जैसे वो अभी-अभी आकर बैठी हो और काम का मूड बना ही नही हो, उसने अपनी टेबल पर रखे टेबल जितने ही बड़े रजिस्टर में नाम लिखने के लिए कहा - `नाम बोलो पेशेंट का, तुमको दिखाना है या तुमको ?´ एक नजर से फटाफट दोनों मां-बेटी को देखते हुए पूछा।
`राधा, इसको दिखाणा है´ काकी ने कहा।
`इसकी उम्र, बाप का नाम ?´
`17 साल, हीरालाल´
`जाओ, डॉक्टर मैम अन्दर बैठी हैं, फ्री हैं'' कहते हुए नर्स ने कहते हुए एक पर्ची थमा दी।´
उसको बिना कुछ कहे काकी अंदर के कमरे में दाखिल हो गई।
`निमस्ते डॉक्टरनी जी´ काकी ने घुसते ही कहा।
`हां कैसे आई मां-बेटी, क्या तकलीफ है ?´
`डाक्टरनी जी, छोरी का महीना नहीं आया, सात दिन ऊपर हो गये, मुझे तो फिकर हो रही है।´
`हूंह, चार-पांच दिन तो लेट हो ही जाता है।´
`नहीं, मेडम जी, सात दिन हो गये, आज आठवां दिन है, अब तक कोई हां ना नहीं है´
`देखती हूं, चल लड़की´ डॉक्टर ने राधकी को उठकर दूसरे कमरे में चलने का इशारा किया।
लेडी डॉक्टर ने यूरिन से प्रेगनेंसी टेस्ट के बाद लौटते हुए कहा -
`लड़की पेट से है´
`क्या!´ काकी के जैसे जमीन खिसक गई पांव के नीचे से।
`हां´
`डॉक्टरनी जी, गरीब की कुंवारी बेटी पेट से! मर जाऊगी मैं जीते जी, किसी को मुंह भी कैसे दिखाऊंगी, ढंग से चैक तो करो ना मैडम जी।´
`हां, कर लिया, मैं किसी को नहीं बताऊंगी, बेफिकर रहो।´
काकी ने अजीब सी निगाह से राधकी की ओर देखा और तेज कदमों से घर की ओर चल दी, यह कहते हुए -
`चल, घर फटाफट!´
500 मीटर की दूरी मानो कुछ ही पलों में तय कर ली दोनों ने, बिना कुछ बोले यह किसी तूफान से पहले की शांति सी थी शायद। लगता हुआ चैत्र का महीना, धूप सिर चढ़ आई थी, गर्मी ऐसी की जेठ को भी भुला दे। भूरकी स्कूल जा चुकी थी। घर में बस दो जीव – मां और बेटी। घर पहुंचते ही काकी के सब्र का रूका हुआ बांध जैसे एक झटके से टूट गया -
` मरी कोनी तूं रांड मूंडो कळो करा दियो।(मरी नहीं तू रांड, काला मुंह करवा दिया), म्हारो बी आपगै सागै( मेरा भी अपने साथ), तेरै बाप नै के जवाब देस्यूं (तेरे बाप को क्या जवाब दूंगी)?´
राधकी चुप थी।
`कींगो है तेरै पेट मं(किसका है ये तेरे पेट में)!´
राधकी फिर चुप।
`बोलतो जा मरज्याणी´
राधकी से कुछ बोलते ना बना और वो हिचकिचा रही थी। वो बड़ी तेजी से दांये बायें तो कभी जमीन की ओर देखने लगी।
काकी ने उसे पकड़ कर दोनों हाथों से खिंचना शुरु कर दिया और साथ-साथ खुद रोना भी।
`अब बता नहीं तो ज्यान से मार दूंगी´
`विजय´ राधकी ने कहा
`कौन विजय!´ काकी ने उसी तीव्रता से रोते हुए पूछा।
`गांव के चौधरी का बेटा, मुझसे ब्याह करना चाहता है´
`ब्याव करेगा तेरे से, भूल जा´
`नहीं माऊ, प्यार करता है मेरे से बहोत´
`प्यार, ब्याह, बावळी है छोरी तू जाबक ही, छोटी जात की छोरी से ब्याव करेगा, गांव के चौधरी का बेटा, मुंह देखा है अपना, जा बट्ठल में पानी डालकर देखके आ?´
उसका मुंह पकड कर गुस्से में धक्का दे दिया। काकी की अभी भी रोये जा रही थी, साथ ही साथ। धक्का खा कर राधकी फिर काकी के सामने आ खड़ी हुई -
`साची कह रही हूं, माऊ, उसने कहा है वो ब्याव करेगा, मुझसे´ राधकी रोने लगी थी अब तक।
`तेरी उमर जानती है! मेरी उमर पता है! तेरे से ज्यादा जानती हूं, इस दुनिया को´
`नहीं माऊ, वो ऐसा नहीं है´ राधकी उसी तरह सुबकते-सुबकते बोली।
कुछ देर दोनों के बीच सन्नाटा पसर गया।
काकी रोने लगी। राधकी भी फिर से रोने लगी, मां को रोता देखकर। काकी ने भी राधकी को आगे बढ़ कर बांहों में भर लिया और मां-बेटी सुबक-सुबक कर रोती रही।
काकी का सिर दुखने लगा, राधा से बोली- 'जा रांड एक गिलास पाणी दे।'
और राधा ने पलींडे से स्टील के गिलास में पानी ला के दिया, काकी ने अपने कुडतिए की जेब से एक गांठ निकाली, खोली, एक पैरासिटामोल की टिकडी ली, आंख लग गई।
राधा भी चुप सी पास बैठी रही।
थोडी देर बाद राधा चुपके से खडी हुई और घर से चल दी।
ठीक पोने घंटे बाद आई तो राधा वो थी ही नहीं, जो पहले थी।
काकी ने पूछा - 'अब कठै मरगी ही रांड' (कहां मर गई थी)
राधा बोली - बींगो हिसाब तो मुका दियो।(उसका हिसाब तो निपटा दिया। )
''अब के करियाई तूं? '' काकी ने आंखें फाड के पूछा। आंखों की गोलाई और विस्तार देखने लायक था।
''बीनै पूछयो मेरहूं ब्या कर सी के। जे हां बोले तो चाल मेरै सागै अबी माउ कनै। (उससे पूछा कि मुझसे शादी करेगा, अगर हां तो अभी चल मेरी मां के पास मेरे साथ।) ''
'फेर (फिर )' ?
''घाउंघुच्ची खाण लाग ग्यो, कनै दाती पडी, घाल दी, पेट मं साळै गै। बठै ई प्राण निसरग्या।(पास में दाती पडी थी, पेट में डाल दी, वहीं प्राण निकल गए साले के। )''
काकी ने लंबी सांस ली, राधा चुप हो गई।
काकी को नवरात्र मनाने की तैयारी करनी थी, दुर्गा मां की पूजा की तैयारी....।
Published on October 28, 2013 00:47
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The background mentioned that of Navratra Pooja states the advent of new power within young female character that provides reins of her life in her own hands.