कला और उसका उद्देश्य
हिन्दी के एक प्रतिष्ठित अखबार में कुछ दिनों पहले समरसिद्धा की एक समीक्षा छपी है। समीक्षा की समस्त विचित्रताओं के बीच समीक्षक ने एक बड़ा ही विचित्र सा प्रश्न किया है कि समरसिद्धा जैसे उपन्यास के लिखे जाने का उद्देश्य क्या है। यह प्रश्न मुझे विचित्र ही नहीं बल्कि कुछ सीमा तक मूर्खतापूर्ण भी लगता है, क्योंकि कला से सरोकार रखने वाले संभवतः जानते हैं कि कला का कोई उद्देश्य नहीं होता। कला उद्देश्यों से परे होती है।
क्या किसी गीत, संगीत, नृत्य, चित्र, अभिनय आदि का उद्देश्य पूछा जा सकता है? क्या कोयल के गीत या मोर के नृत्य का आनंद उसके उद्देश्य को समझ कर लिया जा सकता है? क्या यह प्रश्न कोई अर्थ रखता है कि विंची ने मोनालिसा किस उद्देश्य से बनाई थी, वॉनगौफ़ ने अपने कमरे का चित्र किस मकसद से बनाया था? बीथोवन की सिंफनी का उद्देश्य क्या है? राग शिवरंजनी किस मकसद से गाया जाता है? दिलीप कुमार के अभिनय का उद्देश्य क्या रहा है? बिरजू महाराज किस उद्देश्य से नृत्य करते हैं? यदि इन सबके पीछे कलाकार के कुछ व्यक्तिगत या व्यवसायिक उद्देश्य हों भी तो भी क्या कला की उत्कृष्टता से उनका कोई सम्बंध होता है? कला और उसकी उत्कृष्टता मूल रूप से उद्देश्यों से परे होती है। हाँ कला में संदेश हो सकता है, किन्तु वह अनिवार्य नहीं है। कला के लिये कोई बंधन नहीं होते हैं। कला बंधनों से मुक्त होती है।
कला की उत्कृष्टता का पैमाना उसका विषय या विषयवस्तु नहीं होते। कला को इस बात से नहीं परखा जाता कि उसमें क्या कहा या दर्शाया गया है। कला की उत्कृष्टता का पैमाना होते हैं उसका अंदाज़, उसकी शैली, उसके कौशल। कला इस बात से परखी जाती है कि बात को किस तरह से कहा या दर्शाया गया है।
किसी अभिनेता के अभिनय को इस बात से नहीं परखा जाता कि उसने कौन सा चरित्र निभाया है। वह नायक है, सहनायक है या खलनायक है। वह पुलिसवाला है, समाजसेवी है या चोर-लुटेरा है। वह आदर्श की बातें करता है या अपराध की। वह भारीभरकम संवाद बोलता है या मूक रहता है। अभिनय को सिर्फ इस बात से परखा जाता है कि क्या अभिनेता ने उस चरित्र को जीवंत कर दिया है। क्या स्वयं को उस चरित्र में खो दिया है। क्या उस चरित्र को दर्शकों के सामने ला खड़ा किया है। यदि अभिनेता इसमें सफल है तो उसका अभिनय सफल है अन्यथा नहीं। इसी तरह किसी उपन्यास की उत्कृष्टता इस बात पर निर्भर नहीं करती कि वह किस विषय पर लिखा गया है, किन मुद्दों को उठाता है या क्या संदेश देता है, वह इस बात पर निर्भर करती है कि उपन्यास किस खूबसूरती से लिखा गया है, कहानी किस तरह पिरोई हुई है, भाषा और शैली क्या प्रभाव डालते हैं, पात्र किस तरह जीवंत हो उठते हैं, पाठक किस तरह कहानी की यात्रा का हिस्सा बन जाता है, किस तरह पाठक उपन्यास के चरित्रों को स्वयं से संवाद करता हुआ पाता है। लेखन की सफलता लेखन की शैली में है, लेखन के विषय और मुद्दों में नहीं। किसी उपन्यास की सही समीक्षा इसी आधार पर होनी चाहिये, विषय और संदेश गौण हैं।
क्या किसी गीत, संगीत, नृत्य, चित्र, अभिनय आदि का उद्देश्य पूछा जा सकता है? क्या कोयल के गीत या मोर के नृत्य का आनंद उसके उद्देश्य को समझ कर लिया जा सकता है? क्या यह प्रश्न कोई अर्थ रखता है कि विंची ने मोनालिसा किस उद्देश्य से बनाई थी, वॉनगौफ़ ने अपने कमरे का चित्र किस मकसद से बनाया था? बीथोवन की सिंफनी का उद्देश्य क्या है? राग शिवरंजनी किस मकसद से गाया जाता है? दिलीप कुमार के अभिनय का उद्देश्य क्या रहा है? बिरजू महाराज किस उद्देश्य से नृत्य करते हैं? यदि इन सबके पीछे कलाकार के कुछ व्यक्तिगत या व्यवसायिक उद्देश्य हों भी तो भी क्या कला की उत्कृष्टता से उनका कोई सम्बंध होता है? कला और उसकी उत्कृष्टता मूल रूप से उद्देश्यों से परे होती है। हाँ कला में संदेश हो सकता है, किन्तु वह अनिवार्य नहीं है। कला के लिये कोई बंधन नहीं होते हैं। कला बंधनों से मुक्त होती है।
कला की उत्कृष्टता का पैमाना उसका विषय या विषयवस्तु नहीं होते। कला को इस बात से नहीं परखा जाता कि उसमें क्या कहा या दर्शाया गया है। कला की उत्कृष्टता का पैमाना होते हैं उसका अंदाज़, उसकी शैली, उसके कौशल। कला इस बात से परखी जाती है कि बात को किस तरह से कहा या दर्शाया गया है।
किसी अभिनेता के अभिनय को इस बात से नहीं परखा जाता कि उसने कौन सा चरित्र निभाया है। वह नायक है, सहनायक है या खलनायक है। वह पुलिसवाला है, समाजसेवी है या चोर-लुटेरा है। वह आदर्श की बातें करता है या अपराध की। वह भारीभरकम संवाद बोलता है या मूक रहता है। अभिनय को सिर्फ इस बात से परखा जाता है कि क्या अभिनेता ने उस चरित्र को जीवंत कर दिया है। क्या स्वयं को उस चरित्र में खो दिया है। क्या उस चरित्र को दर्शकों के सामने ला खड़ा किया है। यदि अभिनेता इसमें सफल है तो उसका अभिनय सफल है अन्यथा नहीं। इसी तरह किसी उपन्यास की उत्कृष्टता इस बात पर निर्भर नहीं करती कि वह किस विषय पर लिखा गया है, किन मुद्दों को उठाता है या क्या संदेश देता है, वह इस बात पर निर्भर करती है कि उपन्यास किस खूबसूरती से लिखा गया है, कहानी किस तरह पिरोई हुई है, भाषा और शैली क्या प्रभाव डालते हैं, पात्र किस तरह जीवंत हो उठते हैं, पाठक किस तरह कहानी की यात्रा का हिस्सा बन जाता है, किस तरह पाठक उपन्यास के चरित्रों को स्वयं से संवाद करता हुआ पाता है। लेखन की सफलता लेखन की शैली में है, लेखन के विषय और मुद्दों में नहीं। किसी उपन्यास की सही समीक्षा इसी आधार पर होनी चाहिये, विषय और संदेश गौण हैं।
Published on August 31, 2014 07:55
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