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गुलज़ार
“बस चन्द करोड़ों सालों में सूरज की आग बुझेगी जब और राख उड़ेगी सूरज से जब कोई चाँद न डूबेगा और कोई ज़मीं न उभरेगी तब ठंडा बुझा इक कोयला सा टुकड़ा ये ज़मीं का घूमेगा भटका भटका मद्‌धम ख़किसत्री रोशनी में! मैं सोचता हूँ उस वक़्त अगर काग़ज़ पे लिखी इक नज़्म कहीं उड़ते उड़ते सूरज में गिरे तो सूरज फिर से जलने लगे!!”
गुलज़ार, रात पश्मीने की

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