रात पश्मीने की Quotes

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रात पश्मीने की रात पश्मीने की by गुलज़ार
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रात पश्मीने की Quotes Showing 1-30 of 60
“उम्मीद भी है, घबराहट भी कि अब लोग क्या कहेंगे, और इससे बड़ा डर यह है कहीं ऐसा ना हो कि लोग कुछ भी ना कहें!! गुलज़ार”
Gulzar, रात पश्मीने की
“चाँद के माथे पर बचपन की चोट के दाग़ नज़र आते हैं रोड़े, पत्थर और ग़ुल्लों से दिन भर खेला करता था बहुत कहा आवारा उल्काओं की संगत ठीक नहीं—! 32”
Gulzar, रात पश्मीने की
“किताबें झांकती हैं बन्द अलमारी के शीशों से बड़ी हसरत से तकती हैं महीनों अब मुलाक़ातें नही होतीं जो शामें इन की सोहबत में कटा करती थीं, अब अक्सर गुज़र जाती हैं ‘कमप्यूटर’ के पर्दों पर बड़ी बेचैन रहती हैं किताबें…. इन्हें अब नींद में चलने की आदत हो गई है बड़ी हसरत से तकती हैं, ज”
Gulzar, रात पश्मीने की
“इल्म तो मिलता रहेगा बाद में भी मगर वो जो किताबों में मिला करते थे सूखे फूल और महके हुए रुक़्के किताबें मांगने, गिरने, उठाने के बहाने रिश्ते बनते थे उनका क्या होगा?”
गुलज़ार [Gulzar], रात पश्मीने की
“ज़मीं भी उसकी, ज़मीं की ये नेमतें उसकी ये सब उसी का है, घर भी, ये घर के बंदे भी ख़ुदा से कहिये, कभी वो भी अपने घर आये!”
Gulzar, रात पश्मीने की
“बस चन्द करोड़ों सालों में सूरज की आग बुझेगी जब और राख उड़ेगी सूरज से जब कोई चाँद न डूबेगा और कोई ज़मीं न उभरेगी तब ठंडा बुझा इक कोयला सा टुकड़ा ये ज़मीं का घूमेगा भटका भटका मद्‌धम ख़किसत्री रोशनी में! मैं सोचता हूँ उस वक़्त अगर काग़ज़ पे लिखी इक नज़्म कहीं उड़ते उड़ते सूरज में गिरे तो सूरज फिर से जलने लगे!!”
गुलज़ार, रात पश्मीने की
“कभी कभी बाज़ार में यूँ भी हो जाता है क़ीमत ठीक थी, जेब में इतने दाम नहीं थे ऐसे ही इक बार मैं तुम को हार आया था”
गुलज़ार, रात पश्मीने की
“कोई नज़्म कहो, वक़्त की नब्ज़ रुकी है! कुछ कहो, वक़्त की नब्ज़ चले!!”
गुलज़ार [Gulzar], रात पश्मीने की
“चूड़ी के टुकड़े थे, पैर में चुभते ही ख़ूँ बह निकला नंगे पाँव खेल रहा था, लड़का अपने आँगन में बाप ने कल फिर दारू पी के माँ की बाँह मरोड़ी थी”
Gulzar, रात पश्मीने की
“एक तम्बू लगा है सर्कस का बाज़ीगर झूलते ही रहते हैं- ज़हन ख़ाली कभी नहीं होता।”
Gulzar, रात पश्मीने की
“नाप के, वक़्त भरा जाता है, हर रेत घड़ी में- इक तरफ़ ख़ाली हो जब फिर से उलट देते हैं उसको उम्र जब ख़त्म हो, क्या मुझ को वो उल्टा नहीं सकता?”
Gulzar, रात पश्मीने की
“कांटे वाली तार पे किसने गीले कपड़े टांगे हैं ख़ून टपकता रहता है और नाली में बह जाता है। क्यों इस फ़ौजी की बेवा हर रोज़ ये वर्दी धोती है।।”
Gulzar, रात पश्मीने की
“क्या बतलायें? कैसे याद की मौत हुई डूब के पानी में परछाई फ़ौत हुई ठहरे पानी भी कितने गहरे होते हैं।”
Gulzar, रात पश्मीने की
“कुछ आफ़ताब और उड़े काएनात में मैं आसमान की जटायें खोल रहा था वह तौलिये से गीले बाल छाँट रही थी”
Gulzar, रात पश्मीने की
“कभी कभी बाज़ार में यूँ भी हो जाता है क़ीमत ठीक थी, जेब में इतने दाम नहीं थे ऐसे ही इक बार मैं तुम को हार आया था”
Gulzar, रात पश्मीने की
“तमाम सफ़हे किताबों के फड़फड़ाने लगे हवा धकेल के दरवाज़ा आ गई घर में! कभी हवा की तरह तुम भी आया जाया करो!!”
Gulzar, रात पश्मीने की
“रात परेशां सड़कों पर इक डोलता साया खम्बे से टकरा के गिरा और फ़ौत हुआ अंधेरे की नाजायज़ औलाद थी कोई-!”
Gulzar, रात पश्मीने की
“आप की ख़ातिर अगर हम लूट भी लें आसमाँ क्या मिलेगा चंद चमकीले से शीशे तोड़ कें! चाँद चुभ जायेगा उंगली में तो ख़ून आ जायेगा”
Gulzar, रात पश्मीने की
“इक निवाले सी निगल जाती है ये नींद मुझे रेशमी मोज़े निगल जाते हैं पाँव जैसे सुबह लगता है कि ताबूत से निकला हूँ अभी।”
Gulzar, रात पश्मीने की
“ज़िन्दगी किस क़दर आसां होती रिश्ते गर होते लिबास— और बदल लेते क़मीज़ों की तरह!”
Gulzar, रात पश्मीने की
“गर्म लाशें गिरीं फ़सीलों से आसमां भर गया है चीलों से”
Gulzar, रात पश्मीने की
“आज की रात तो फ़ुटपाथ पे ईटें रख कर, गर्म कर लेते हैं बिरयानी जो ईरानी के होटल से मिली है और इस रात मना लेंगे हनीमून यहीं ज़ीने के नीचे!!”
Gulzar, रात पश्मीने की
“हिचकी आती है तो लगता है कि दस्तक आयी— ख़त नहीं आता कोई— हर महीने— फ़क़त इक बिजली का बिल, पानी का नोटिस, जो बहरहाल चला आता है—”
Gulzar, रात पश्मीने की
“बारिश आती है तो पानी को भी लग जाते हैं पाँव, दरोदीवार से टकरा के गुज़रता है गली से, और उछलता है छपाकों में, किसी मैच में जीते हुये लड़कों की तरह! जीत कर आते हैं जब मैच गली के लड़के, जूते पहने हुये कैनवस के, उछलते हुये गेंदों की तरह, दरोदीवार से टकरा के गुज़रते हैं वो पानी के छपाकों की तरह!”
Gulzar, रात पश्मीने की
“दिन का कीकर काट काट के कुल्हाड़ी से रात का ईधन जमा किया है! सीली लकड़ी, कड़वे धुंए से चूल्हे की कुछ सांस चली है! पेट पे रखी, चाँद की चक्की, सारी रात मैं पीसूंगा सारी रात उड़ेगा फिर आकाश का चूरा! सुबह फिर जंगल में जाकर सूरज काट के लाना होगा!!”
Gulzar, रात पश्मीने की
“उन्हें अच्छा नहीं लगता, सुरंगें खोद के सीने में उनके, जब कोई बारूद के गोले उड़ाता है!!”
Gulzar, रात पश्मीने की
“जब जब पतझड़ में पेड़ों से पीले पीले पत्ते मेरे लॉन में आ कर गिरते हैं— रात को छत पर जा कर मैं आकाश को तकता रहता हूँ— लगता है कमज़ोर सा पीला चाँद भी शायद, पीपल के सूखे पत्ते सा, लहराता लहराता मेरे लॉन में आ कर उतरेगा!!”
Gulzar, रात पश्मीने की
“उसने काग़ज़ की कई कश्तियाँ पानी में उतारीं, और ये कह के बहा दीं कि समन्दर में मिलेंगे,”
Gulzar, रात पश्मीने की
“क्या लिये जाते हो तुम कंधों पे यारो इस जनाजे में तो कोई भी नहीं है, दर्द है कोई, ना हसरत है, ना गम है— मुस्कराहट की अलामत है ना कोई आह का नुक़्ता और निगाहों की कोई तहरीर ना आवाज़ का क़तरा कब्र में क्या दफ़्न करने जा रहे हो? सिर्फ मिट्‌टी है ये मिट्‌टी—— मिट्‌टी को मिट्‌टी में दफ़नाते हुये रोते हो क्यों?”
Gulzar, रात पश्मीने की
“याद है इक दिन—— मेरे मेज़ पे बैठे बैठे, सिगरेट की डिबिया पर तुमने, छोटे से इक पौधे का, एक स्केच बनाया था——! आकर देखो, उस पौधे पर फूल आया है!”
Gulzar, रात पश्मीने की

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