जहाज जो डूबता नहीं
फिल्म इल्म - Ship of Thesius :
'शिप ऑफ थिसियस 'में निर्देशक आनंद गांधी ने तीन कहानियां महीन बुनावट में गूंथी है। पहली कहानी में एक नेत्रहीन फोटोग्राफर है। इस कथा की खूबसूरती आंख और बिना आंख के दुनिया को देखने तथा महसूस करने के भाव पर केंद्रित है। जब दो ऑपरेशन के जरिए उसकी दोनों आंखें मिल जाती हैं तो उसका संसार कैसे बदलता है। इसे देखते हुए निदा फाजली के शब्द कानों में गूंजते रहे- 'छोटा करके देखिए जीवन का विस्तार, बाहों पर आकाश है, आंखों भर संसार।' दूसरी कहानी में एक साधु कुदरत के साथ अपने रिश्ते को परिभाषित करता है, वह मानता है कि वह नास्तिक है पर आत्मा में विश्वास करता है। उसकी मजबूत आस्था है कि हमारे छोटे से कार्य का असर पूरी कायनात पर पड़ता है। इसलिए जब डॉक्टर यह बताते हैं कि उसे लिवर सिरोसिस हो गया है और इसका उपचार संभव है, डॉक्टर कहता है उपचार संभव है पर साधु का मानना है कि उसके उपचार में कितने ही जीवों की हत्या होनी है, इसलिए वैज्ञानिक तरीके से इस उपचार के लिए वह मना कर देता है। पर बाद में मौत को नजदीक पाकर जीवन की अहमियत और अपने अधूरे कामों को पूरा करने की मंशा से उपचार के लिए हां कर देता है। तीसरी कहानी में एक गुर्दे के प्रत्यारोपण की घटना है जो दरअसल एक गरीब के गुर्दे बेचने का मामला है और मुम्बई के आदमी का गुर्दा स्टॉकहोम में एक व्यक्ति को लगाया जाता है और एक धन कमाने में व्यस्त युवा उसकी खोज करता है, अंतत: पता चलता है कि एक आदमी के आठ अंग आठ व्यक्तियों को प्रत्यारोपित किए गए हैं।
फिल्म का शीर्षक एक यूनानी कथा से लिया गया है जिसके अनुसार अगर एक पानी के जहाज के सारे भाग बारी बारी से बदल दिए जाएं तो क्या वह वही जहाज बचेगा या बदल जाएगा। कहते हैं ना कि प्रतिस्पर्धा का सबसे बेहतर तरीका है बड़ी रेखा खींचना। तो अपनी पहली ही फिल्म से निर्देशक ने भारतीय सिनेमा के लिहाज से एक बड़ी रेखा खींच दी है। आनंद गांधी इसके जरिए बताते हैं कि फिल्म ऐसे बनती है। यह भी खास प्रयोग है कि चार भाषाओं हिंदी, अंग्रेजी, स्वीडिश और अरबी का कमाल संयोजन किया है।
पंकज कुमार की सिनेमेटोग्राफी यादगार है। जयपुर के लिए बोनस यह है कि जवाहर कला केंद्र अकल्पनीय और बहुत अलग तरीके से इस्तेमाल हुआ है।
फिल्म जीवन की अहमियत को स्थापित करती है इस स्तर पर कि महान दार्शनिक अल्बेर कामू याद आते हैं, जिन्होंने कहा था कि जीवन अपने दामन में हमारे लिए क्या सौगात रखे हुए हैं, यह जानने के लिए जीवन जीना ही अकेला रास्ता है। बहुत बारीकी से फिल्म कुदरत के साथ रिश्तों की व्याख्या करती है। फिल्म का कैनवस और भूगोल दोनों ही हैरान करने वाले स्तर तक व्यापक हैं। आइदा अलकासेफ ने नेत्रहीन फोटोग्राफर की भूमिका संपूर्णता में निभाई है, तो फिल्म 'बाबर' से डेब्यू करने वाले अभिनेता सोहम शाह ने अपने स्वाभाविक अभिनय से चौकाया है और नीरज कबी का काम भी अच्छा है। आखिर में कहना जरूरी है कि ऐसे विषय और इस तेवर के साथ फिल्म को बनाना बडा जोखिम है जो निर्माताओं ने लिया है, उन्हें सलाम। फिल्म को रिलीज करना किरण राव का वह योगदान है जिसे सलाम से ज्यादा कुछ कहना चाहिए।
चार स्टार
प्रतिस्पर्धा का सबसे बेहतर तरीका है बड़ी रेखा खींचना। तो अपनी पहली ही फिल्म से निर्देशक ने भारतीय सिनेमा के लिहाज से एक बड़ी रेखा खींच दी है। आनंद गांधी इसके जरिए बताते हैं कि फिल्म ऐसे बनती है।

'शिप ऑफ थिसियस 'में निर्देशक आनंद गांधी ने तीन कहानियां महीन बुनावट में गूंथी है। पहली कहानी में एक नेत्रहीन फोटोग्राफर है। इस कथा की खूबसूरती आंख और बिना आंख के दुनिया को देखने तथा महसूस करने के भाव पर केंद्रित है। जब दो ऑपरेशन के जरिए उसकी दोनों आंखें मिल जाती हैं तो उसका संसार कैसे बदलता है। इसे देखते हुए निदा फाजली के शब्द कानों में गूंजते रहे- 'छोटा करके देखिए जीवन का विस्तार, बाहों पर आकाश है, आंखों भर संसार।' दूसरी कहानी में एक साधु कुदरत के साथ अपने रिश्ते को परिभाषित करता है, वह मानता है कि वह नास्तिक है पर आत्मा में विश्वास करता है। उसकी मजबूत आस्था है कि हमारे छोटे से कार्य का असर पूरी कायनात पर पड़ता है। इसलिए जब डॉक्टर यह बताते हैं कि उसे लिवर सिरोसिस हो गया है और इसका उपचार संभव है, डॉक्टर कहता है उपचार संभव है पर साधु का मानना है कि उसके उपचार में कितने ही जीवों की हत्या होनी है, इसलिए वैज्ञानिक तरीके से इस उपचार के लिए वह मना कर देता है। पर बाद में मौत को नजदीक पाकर जीवन की अहमियत और अपने अधूरे कामों को पूरा करने की मंशा से उपचार के लिए हां कर देता है। तीसरी कहानी में एक गुर्दे के प्रत्यारोपण की घटना है जो दरअसल एक गरीब के गुर्दे बेचने का मामला है और मुम्बई के आदमी का गुर्दा स्टॉकहोम में एक व्यक्ति को लगाया जाता है और एक धन कमाने में व्यस्त युवा उसकी खोज करता है, अंतत: पता चलता है कि एक आदमी के आठ अंग आठ व्यक्तियों को प्रत्यारोपित किए गए हैं।
फिल्म का शीर्षक एक यूनानी कथा से लिया गया है जिसके अनुसार अगर एक पानी के जहाज के सारे भाग बारी बारी से बदल दिए जाएं तो क्या वह वही जहाज बचेगा या बदल जाएगा। कहते हैं ना कि प्रतिस्पर्धा का सबसे बेहतर तरीका है बड़ी रेखा खींचना। तो अपनी पहली ही फिल्म से निर्देशक ने भारतीय सिनेमा के लिहाज से एक बड़ी रेखा खींच दी है। आनंद गांधी इसके जरिए बताते हैं कि फिल्म ऐसे बनती है। यह भी खास प्रयोग है कि चार भाषाओं हिंदी, अंग्रेजी, स्वीडिश और अरबी का कमाल संयोजन किया है।
पंकज कुमार की सिनेमेटोग्राफी यादगार है। जयपुर के लिए बोनस यह है कि जवाहर कला केंद्र अकल्पनीय और बहुत अलग तरीके से इस्तेमाल हुआ है।
फिल्म जीवन की अहमियत को स्थापित करती है इस स्तर पर कि महान दार्शनिक अल्बेर कामू याद आते हैं, जिन्होंने कहा था कि जीवन अपने दामन में हमारे लिए क्या सौगात रखे हुए हैं, यह जानने के लिए जीवन जीना ही अकेला रास्ता है। बहुत बारीकी से फिल्म कुदरत के साथ रिश्तों की व्याख्या करती है। फिल्म का कैनवस और भूगोल दोनों ही हैरान करने वाले स्तर तक व्यापक हैं। आइदा अलकासेफ ने नेत्रहीन फोटोग्राफर की भूमिका संपूर्णता में निभाई है, तो फिल्म 'बाबर' से डेब्यू करने वाले अभिनेता सोहम शाह ने अपने स्वाभाविक अभिनय से चौकाया है और नीरज कबी का काम भी अच्छा है। आखिर में कहना जरूरी है कि ऐसे विषय और इस तेवर के साथ फिल्म को बनाना बडा जोखिम है जो निर्माताओं ने लिया है, उन्हें सलाम। फिल्म को रिलीज करना किरण राव का वह योगदान है जिसे सलाम से ज्यादा कुछ कहना चाहिए।
चार स्टार
Published on July 21, 2013 02:38
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